मंगलवार, 19 फ़रवरी 2013

भोपाल अर्थात नयी फिल्मसिटी

 कुछ महीने पहले अनिल शर्मा को किसी ने भोपाल के बारे में सुझाया, यह कि यहाँ फिल्म बनायी जा सकती है, बड़ी और सफल भी। अनिल शर्मा बड़े कैनवास के फिल्म बनाने वाले निर्देशक के रूप में खूब जाने जाते हैं। वे अपनी पिछली हिट फिल्म गदर एक प्रेमकथा को बीसवीं सदी की पाँच हिट फिल्मों में से एक ठहराते हैं। यही अनिल शर्मा भोपाल आये और उन्होंने तय किया कि सनी देओल के साथ सिंह साहब द ग्रेट फिल्म यहीं बनायेंगे। यह फिल्म अब पूर्णता के निकट है। बीच-बीच में अनिल शर्मा ने जो कि फेसबुक पर भी प्राय: हुआ करते हैं, अपने अनुभव व्यक्त किये कि भोपाल में यह फिल्म बनाना बहुत सुखद रहा है और खासतौर पर उन्होंने सनी देओल के साथ दक्षिण के प्रतिभाशाली कलाकार प्रकाश राज के द्वन्द्व दृश्यों को भी यह कहते हुए रेखांकित किया कि मुझे हुकूमत का समय याद आ गया जब धर्मेन्द्र और सदाशिव अमरापुरकर की टक्कर लाजवाब लगी थी। उन्होंने महसूस किया कि इतिहास दोहराया जा रहा है।

भोपाल अब दूसरा फिल्मसिटी बनता जा रहा है। भोपाल में फिल्मसिटी बनायी जाये इस बात पर सरकारी स्तर पर विचार-विमर्श शुरू हो गया है। रायसेन जिले में आने वाली मगर चिकलोद कोठी के सामने हिस्से की एक बड़ी जमीन को देखा गया है और उसी से फिल्मसिटी का सपना जुड़ रहा है। आसपास जो आवासीय परिसर निर्माणाधीन हैं उनके विज्ञापनों में, फिल्मसिटी के पास, लिखा जाने लगा है।

कभी भोपाल में फिल्म निर्माण सपना था। मणि कौल ने एक बौद्धिक फिल्म सतह से उठता आदमी, मुक्तिबोध की कृति पर बनायी थी। कुमार शाहनी ने भोपाल-माण्डू आकर ख्यालगाथा फिल्म का निर्माण किया। छुटपुट शूटिंग भोपाल में कभी-कभी कौतुहल खड़ा कर दिया करतीं। फिर आयी बरसात या सूरमा भोपाल आदि। मर्चेण्ट आयवरी की फिल्म मुहाफिज यहाँ की सबसे अहम फिल्म थी जो डेढ़-दो माह की लगातार शूटिंग में बनकर पूरी हुई। तब भारी-भरकम शशि कपूर को देखना दाँतों तले उंगली दबा लेना होता था, वे एम्बेसडर कार में ड्रायवर के बगल में जैसे-तैसे फँसकर बैठ पाते थे। अभी कुछ दस सालों में ज्यादा माहौल बना जब सुधीर मिश्रा हजारों ख्वाहिशें ऐसी और विशाल भारद्वाज मकबूल फिल्में बनाने के लिए यहाँ आये। विजयपत सिंघानिया ने भी वो तेरा नाम था फिल्म के कुछ दृश्यों के लिए पुराने भोपाल को चुना था। सईद अख्तर मिर्जा को अपनी फिल्म नसीम के लिए पुराने भोपाल के कुछ इलाके बड़े मुफीद लगे थे।

एक समय जब प्रकाश झा भोपाल के गूँज बहादुर सिनेमा में सिनेमा को टैक्स फ्री करने वाली कमेटी के समक्ष अपनी फिल्म मृत्युदण्ड लेकर आये थे तब शायद उनको अनुमान न रहा होगा कि वर्षों बाद उनका डेस्टिनेशन भोपाल ही होगा। गंगाजल और अपहरण तक आते-आते प्रकाश झा को अपनी आगामी परियोजनाओं के लिए नये शहर की तलाश थी जो भोपाल पर जाकर पूरी हुई। अच्छी तहजीब और संस्कृति वाला शहर, बेहतर हिन्दी और परिष्कृत उर्दू जुबाँ वाला शहर भोपाल उनको अपनी फिल्म राजनीति के लिए जम गया। फिर तो आरक्षण और चक्रव्यूह के बाद वे अब अपनी नयी फिल्म सत्याग्रह भी बना रहे हैं। भोपाल शहर अब बड़े सितारों की लगातार उपस्थिति का महत्वपूर्ण साक्ष्य बन गया है। शूटिंग स्थल पर मौजूद बने रहने की ललक, ऑटोग्राफ, फोटोग्राफ, फेसबुक पर सितारों की क्षण भर की संगत बाँटने की खुशी, शहर के विभिन्न हिस्सों में अचानक सितारों की उपस्थिति का चमत्कार, एयरपोर्ट पर सितारों का आना-जाना ऐसा लगता है कि मनोरंजन की दुनिया में भोपाल एक नयी आधुनिकता और आकर्षण के साथ दर्ज हो रहा है। यह सुखद भी है कई मायनों में।

गुरुवार, 14 फ़रवरी 2013

अपने विरोधाभासों से जूझती फिल्म


विश्वरूप को उससे जुड़े लोगों के बहुत सारे प्रभावों से बचाकर देख पाना मुश्किल होता है, इसीलिए वह निराश करती फिल्म लगती है। अगर हमें पहले से कमल हसन के बारे में जानकारी न हो तो इस फिल्म को देखना एक तरह से अपने धीरज की परीक्षा देना आसान जान पड़ता है लेकिन एक अभिनेता के रूप में उनके विलक्षण गुणों की जानकारी के साथ इस फिल्म का अवलोकन एक साधारण अनुभव के रूप में बदल जाता है।

एक फिल्म जिस तरह आरम्भ हो रही है, जिस तरह फिल्म का नायक पन्द्रह मिनट में स्थापित किया जा रहा है, उस सुरुचिपूर्ण स्थान से यह फिल्म बीसवें मिनट बाधित हो जाती है। ऐसा लगता है कि यह चार बड़े पैराग्राफों का कठिन सा निबन्ध है जिसमें उपसंहार ही निहित नहीं है। फिल्म निर्माण में बहुत बड़ी राशि का व्यय होता है, लेकिन जिस तरह से मँहगी फिल्में विफल होती जा रही हैं, व्यय, अपव्यय में बदल गया है। आधुनिक हथियार, आतंकवाद, जोखिमपूर्ण कारनामे, मारधाड़ और हत्याओं के वीभत्स दृश्य इस फिल्म की खासियतें नहीं हैं। 

आरम्भ में एक नोट डाल दिया गया है जिसमें वीभत्स दृश्यों के लिए सावधान किया गया है लेकिन यह बात जोड़कर कि टेलीविजन चैनलों में ऐसा पहले से ही दिखाया जाता है। नायक एक नृत्य प्रशिक्षक है जो लड़कियों को नृत्य सिखाता है, पहले परिचय में देहिक नजाकत और लोच से भरा दिखायी देने वाला यह आदमी पन्द्रह मिनट के बाद पहले आतंकवादी फिर सुरक्षा अधिकारी के रूपों में बदलता नजर आता है। यह फिल्म उस दुनिया के नजदीक जाने की कोशिश करती है, जहाँ जेहाद ही जिन्दगी का पर्याय है, फिल्म थोड़ी समझदारी से उस परिवेश में भी जाती है जहाँ इस पूरे जुनूनी माहौल में बचपन और स्त्री की मनःस्थितियाँ किस तरह की हैं?

कमल हसन के बारे में क्या कहा जाये, पहले पन्द्रह मिनट उनका कौशल है क्योंकि उस भूमिका के लिए उनको पण्डित बिरजू महाराज ने प्रशिक्षित किया, उसके बाद उनकी भूमिका उनके अनुभव और परिपक्वता का खराब सा प्रमाण देती है। हमें शेखर कपूर की कुछ दृश्यों में अच्छी उपस्थिति को महत्व का मान लेना चाहिए, व्यक्तिशः राहुल बोस ने अपना काम खूब अच्छी तरह किया है, खासतौर पर उत्तरार्ध में अपनी आवाज बदलकर इसके साथ-साथ जयदीप अहलावत की लम्बी और प्रभावी भूमिका उनके गैंग ऑफ वासेपुर के पहले भाग की याद दिलाती है। वास्तव में जयदीप एक किरदारजीवी कलाकार हैं। उनकी पर्सनैलिटी ग्रे-शेड में उनको खूब मैच करती है। 

हमारे सिनेमा में जिस तरह से अभिनेत्रियों की जगह सिमटती जा रही है, विश्वरूप उसका भी प्रमाण है। अपनी फिल्मों में नायिका के साथ अन्तरंग दृश्यों को लेकर उनका अपना बोध है। इस फिल्म में भी उसे शूट किया गया था मगर सम्पादन में ये दृश्य निकाल दिये गये हैं लेकिन इन्हें फिल्माया गया था लिहाजा अन्त में नामावली के समय हॉल के बाहर जाते दर्शक को ठहरा देने में इनका इस्तेमाल कर लिया गया है।

गुरुवार, 7 फ़रवरी 2013

पण्डित दुर्गालाल: उम्र से बड़ा यश


स्वर्गीय पण्डित दुर्गालाल भारतीय शास्त्रीय नृत्य परम्परा में कथक के जयपुर घराने के ऐसे प्रतिभासम्पन्न कलाकार थे जिन्होंने अत्यन्त कम समय में कला की ऊँचाइयों का स्पर्श किया। वे एक ऐसे कलाकार थे जो अपने घराने के प्रति गहरे अनुशासित और प्रतिबद्ध थे। उनकी कला यात्रा उम्र की सीमित और अल्पावधि के पड़ाव पर आकर ठहर भले ही गयी हो लेकिन हम सबके बीच उनके असमय चले जाने के बावजूद उनकी शिष्य परम्परा और जयपुर घराने की नृत्य शैली को उनके प्रति आत्मीय एवं संवेदनात्मक सरोकारों के साथ न केवल अपनाया गया बल्कि उसकी उत्तरोत्तर समृद्धि के लिए भी निरन्तर प्रयास जारी रखे गये। पण्डित दुर्गालाल के बारे में निष्पक्ष होकर यह कहा जा सकता है कि उनका यश उनकी उम्र से कहीं ज्यादा बड़ा और विस्तार लिए हुए है। उनकी प्रतिबद्ध और निष्ठासम्मत शिष्य परम्परा उनके कला-कौशल और अवदान का लगातार स्मरण किया करती है और यह क्रम निरन्तर चला आ रहा है।

पण्डित दुर्गालाल का जन्म 9 सितम्बर 1948 को महेन्द्रगढ़ (राजस्थान) में हुआ। वे कला को समर्पित परिवार में जन्मे थे इसलिए उनको आरम्भ से गायन, वादन और नृत्य की शिक्षा और वातावरण प्राप्त हुआ। पण्डित दुर्गालाल कथक के साथ-साथ पखावज वादन एवं गायन में भी उतने ही निपुण थे। पखावज वादन की शिक्षा उनको पिता पण्डित ओंकारलाल जी के द्वारा प्रदान की गयी थी। तबला वादन की शिक्षा उन्होंने नाथद्वारा के गुणी तबला वादक पण्डित पुरुषोत्तम जी से प्राप्त की। युवावस्था में उन्होंने नृत्य का प्रशिक्षण अपने बड़े भाई पण्डित देवीलाल जी से प्राप्त की। पण्डित देवीलाल जी अपने छोटे भाई की क्षमताओं और लगन से बड़े चकित थे। उनकी अभिरुचियों को देखते हुए उन्होंने पण्डित दुर्गालाल को अत्यन्त अनुशासित ढंग से घराने की विशिष्टताओं और बारीकियों का ज्ञान कराया। बाद में पण्डित दुर्गालाल नृत्य के परिष्कार के लिए अपने भाई के निर्देशों पर कथक केन्द्र नई दिल्ली आ गये और उन्होंने आगे की शिक्षा पण्डित सुदर्शन प्रसाद जी से प्राप्त की।

यहाँ से पण्डित दुर्गालाल की सृजन यात्रा अनेक आयामों और अनुभवों से होकर गुजरी जिसमें कठिन परिश्रम, अनुशासन और गहन एकाग्रता की बड़ी भूमिका रही है। उन्होंने एक बड़े और अपेक्षाकृत अपरिचित से शहर में अपना सारा ध्यान अपनी साधना पर केन्द्रित किया और अनेक तरह की व्यवहारिक कठिनाइयों के बावजूद अपने लक्ष्य को प्रभावित नहीं होने दिया। यह विलक्षण बात थी कि पण्डित दुर्गालाल ने अपनी साधना और सरोकारों के बीच आने वाली अनेक विषमताओं को अपने स्वप्न और लक्ष्य पर जरा भी प्रभावी नहीं होने दिया। वास्तव में अपने जीवट और प्रबल आत्मविश्वास से उन्होंने अपनी नृत्य प्रतिभा को कला मर्मज्ञों के बीच प्रशंसा और सराहना के साथ चर्चा के न केवल योग्य बनाया बल्कि मान्यता और प्रशंसा भी प्राप्त की। पण्डित दुर्गालाल की खूबी उनकी विनम्रता और अथक परिश्रम से अर्जित कला वैभव रहा है जो उनकी अभिव्यक्ति में प्रभावित करने के बावजूद इतना संयत और शालीन रहा है कि उनको उनकी कलागत उपस्थिति से सदैव सराहनाएँ ही प्राप्त हुईं। पण्डित दुर्गालाल जी के बड़े भाई पण्डित देवीलाल जी ने जिस ताप के साथ अपने छोटे भाई की प्रतिभा को गढ़ने का काम किया था, उसका सच्चा प्रतिसाद वास्तव में पण्डित दुर्गालाल जी ने अपने कला-कौशल से दिया जिसके लिए वे सदैव उन पर गर्व करते रहे। पण्डित दुर्गालाल जी ने भी अपने बड़े भाई को बहुत आदर और सम्मान दिया।


पण्डित दुर्गालाल ने देश के अनेक प्रतिष्ठित कला मंचों पर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया और रसिकों तथा जिज्ञासुओं को अपने नृत्य से सुखद विस्मय प्रदान किया। उनकी कीर्ति केवल हिन्दुस्तान तक ही सीमित नहीं रही बल्कि दुनिया के अनेक देशों की सांस्कृतिक यात्राएँ उन्होंने कीं। पण्डित दुर्गालाल एक पुरुष नर्तक के रूप में सुघढ़ देहयष्टि और स्फूर्त अभिव्यक्ति के धनी थे। नृत्य करते हुए उनके चेहरे पर जरा सा भी तनाव देखने में नहीं आता था वरन लगता यह था जैसे इस गुणी कलाकार से जयपुर घराने का गरिमापूर्ण स्वरूप सर्वाधिक सुरक्षित और संरक्षित रूप में चिरस्थायी है।

पण्डित दुर्गालाल को अनेक प्रतिष्ठित मान-सम्मान एवं पुरस्कार उनकी जीवनपर्यन्त साधना के लिए प्राप्त हुए थे। 1984 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी अवार्ड प्राप्त हुआ था। पण्डित दुर्गालाल का निधन 1990 में 42 वर्ष की अल्पायु में वसन्त पंचमी के दिन हुआ जिसने कला जगत को स्तब्ध करके रख दिया था। इसके पहले वे लगातार नृत्य प्रस्तुतियों में एक स्थान से दूसरे स्थान की यात्रा कर रहे थे एवं उत्तरप्रदेश संगीत नाटक अकादमी, लखनऊ के कथक महोत्सव में सहभागी थे। उनके निधन से जयपुर घराने की कथक परम्परा के तत्समय सघन विस्तार और प्रभाव को जैसे अकस्मात दुखद प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। उनके कृतित्व, उनकी शिक्षा और उनके अवदान के प्रति समर्पित उनकी निष्ठित शिष्य परम्परा ने इस घटना के बाद निरन्तर उनकी स्मृति को अक्षुण्ण रखने का काम किया है और उसी परम्परा को लगातार प्राणवान बनाये रखने का प्रयत्न किया है जिसके साथ पण्डित दुर्गालाल का व्यक्तित्व-वैभव सर्व-प्रशंसित था.............................