शनिवार, 30 जुलाई 2011

मासूम का वो निश्छल राहुल



इस रविवार हम अपने पाठकों को शेखर कपूर की एक बड़ी मर्मस्पर्शी और खूबसूरत सी फिल्म मासूम का स्मरण कराते हैं। शेखर कपूर ने बैण्डिट क्वीन, मासूम, मिस्टर इण्डिया, एलिजाबेथ जैसी महत्वपूर्ण फिल्में बनायी हैं और बहुत सी फिल्में ली हैं और नहीं की हैं, कुछ को अधबीच में भी छोड़ा है पर यह सच है कि देव आनंद के रिश्ते में भाँजे शेखर सिनेमा में अलग ही ढंग से शिल्प गढ़ते हैं।

मासूम का प्रदर्शन काल 1982 का है। यह कोई व्यावसायिक रूप से सफल फिल्म नहीं थी, लेकिन मासूम को देखने वाले, सराहने वाले और इसके मर्म में डूबकर संवेदना के साथ बाहर आने वाले कम नहीं थे। नसीरुद्दीन शाह, शाबाना आजमी, सईद जाफरी, सुप्रिया पाठक, मास्टर जुगल हंसराज, बेबी उर्मिला मातोण्डकर, सईद जाफरी, सतीश कौशिक फिल्म के प्रमुख कलाकार थे। नाम के अनुरूप यह फिल्म एक निश्छल मगर बड़े गम्भीर छोटे बच्चे की निगाह से परिस्थितियों और सामाजिक यथार्थ को देखती है।

फिल्म का मुख्य किरदार डी.के. मल्होत्रा अपनी पत्नी इन्दु और दो बेटियों रिंकी और मिनी के साथ जिन्दगी व्यतीत कर रहा है। एक दिन उसको मालूम होता है कि दिवंगत भावना का बोर्डिंग स्कूल में पढ़ रहा बेटा दरअसल उसका है, उनके प्यार की निशानी जिसे वह अपने घर लेकर आता है। द्वन्द्व यहीं से शुरू होता है जब वो अपनी पत्नी को उसके बारे में बतलाता है। भावना, बच्चे राहुल को एक पल भी घर में स्वीकार या बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है। मल्होत्रा के अनुनय-विनय के बाद बच्चा उस घर में रहता तो है मगर भावना की नफरत और उपेक्षा के साथ।

मासूम, फिल्म दीवार घड़ी की सुइयों की ध्वनि की तरह ठहरती-चलती है। रिंकी और मिनी की दोस्ती राहुल से हो गयी है, मल्होत्रा, भावना के राहुल के साथ सलूक पर हमेशा व्यथित होता है। क्लायमेक्स में कहानी ऐसे कगार पर पहुँचती है जहाँ मल्होत्रा राहुल को बोर्डिंग स्कूल के लिए रेल पर छोडऩे जा रहा है। यहाँ एक पल की घटना में राहुल अचानक गायब है। मल्होत्रा सब तरफ ढूँढ़ता है, रेल चली जाती है, रुआँसा वह अपनी कार के पास लौटता है तो देखता है कि कार में भावना, रिंकी, मिनी और राहुल के साथ बैठी है, मल्होत्रा से कहती है, घर चलो.. .. ..।

मासूम की खूबी उसके किरदार हैं, जिन्हें शेखर कपूर ने बड़ी सावधानी से गढ़ा है। यह विषय बहुत संवेदनशील है, जिसे निबाहना किसी निर्देशक के लिए यों आसान नहीं है। नसीर पिता के रूप में, शाबाना सो-काल्ड छली गयी पत्नी के रूप में अपने किरदारों को बखूबी जीते हैं। फिल्म की हाई-लाइट जुगल हंसराज है, बहुत प्यारा, खूबसूरत और सचमुच मासूम। बहुत अच्छे दृश्य, बहुत अच्छे संवाद। गुलजार के गाने, तुझसे नाराज नहीं जिन्दगी हैरान हूँ मैं, लकड़ी की काठी काठी पे घोड़ा और हुजूर इस कदर भी न इतरा के चलिए, पंचम के संगीत में आज भी याद हैं।

शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

मुझको मेरे बाद जमाना ढूँढेगा



रविवार स्वर्गीय मोहम्मद रफी की पुण्यतिथि है। सिने-संगीत, वह भी अविस्मरणीय, मन और जीवन को भला लगने वाला और बहुत बार जीवन को कुछ न कुछ देने वाला गान सुनने के शौकीन लोगों के लिए 31 जुलाई का दिन श्रद्धा और आस्था प्रकट करने वाले एक ऐसे पर्व की तरह है जिसे हर साल उत्तरोत्तर आत्मीयता और भावना के साथ मनाये जाने का एक तरह से रिवाज सा चल पड़ा है। इस रिवाज में शामिल कलाकारों की संख्या खूब बढ़ती चली गयी है, इसी तरह पुण्य स्मरण के इस आनंद में डूबने वालों की तो कोई कमी ही नहीं है।

मोहम्मद रफी साहब 1980 में नहीं रहे थे, चार दशक से ज्यादा समय उनको हमारे बीच से गये हुए हो गया लेकिन आज बयालीसवें साल में हम जिस तरह से उनकी स्मृतियों को जवाँ होते देखते हैं, एक पूरा दिन उनकी याद में जीते हैं वो जैसे फिर हमारे लिए साल भर की खुराक का काम करता है। गायकों में ऐसा गायक भला और कौन होगा जिसको आज भी इतना प्यार, आदर और सम्मान मिल रहा हो। इस दुनिया में आने, रहने और जाने का सभी का समय मुकर्रर है मगर अपने होने की सार्थकता की चिन्ता कौन कितनी करता है? जिन्दगी ढर्रे में भी व्यतीत होती है और चार तरीके के चातुर्य-चपलताओं में भी।

हम जिन्दगी को इतनी सार्थक, जैसे रफी साहब ने जी, कि आज उनके नहीं होने के अस्तित्व को ही दुनिया का समूचा प्रशंसक वर्ग अपनी चाहत और जिद से जैसे नकार देता है, ऐसा बहुत कम इन्सानों के साथ होता है, वाकई। मोहम्मद रफी साहब ने अपनी साधना और स्वर से अपनी जगह को तो रेखांकित किया ही साथ ही गीत के मर्म में उतर जाने की जो अद्भुत क्षमता पायी, सदा जी और कण्ठ से व्यक्त की, उसका कोई सानी नहीं रहा।

कश्मीर से कन्याकुमारी तक विविध भारती से रेडियो सीलोन तक, बिनाका गीतमाला से सिनेमा के परदे तक मोहम्मद रफी का अपना ऐसा वर्चस्व मानिए जिसमें अ से अहा तक सभी मन के रमने की लिरिकल वजहें होती थीं।

मोहम्मद रफी के समकालीन, गायक कलाकार, अभिनेता जिनके लिए उन्होंने गाया, गीतकार जिनके लिखे पर, संगीतकार जिनके संगीत पर और साथ में गाने वाले पुरुष एवं स्त्री स्वर, कोरस सभी के उनके साथ अनुभव विलक्षण रहे हैं। एक जिन्दगी, ऐसी सकारात्मक, ऐसी सार्थक और ऐसी, इस तरह की कि आपको कोई भूलने को तैयार न हो, सचमुच वो जिन्दगी मोहम्मद रफी साहब की जिन्दगी थी। मोहम्मद रफी साहब का एक गाना है, दिल का सूना साज तराना ढूँढ़ेगा। इसी गाने की तीसरी लाइन है, मुझको मेरे बाद जमाना ढूँढेगा, बड़ी मौजूँ।

हनी ईरानी का निवेश



बच्चन साहब के ट्विटर में लिखे दो वाक्य ही देश-दुनिया की एक बड़ी खबर की तरह विन्यस्त होते हैं। आजकल उनकी कही गयी बातों को ध्यान से सुनने का जी चाहता है। तीन दिन पहले ही पढ़ा कि जिन्दगी न मिलेगी दोबारा देखकर उन्होंने फरहान और जोया अख्तर की तारीफ की और उनकी माँ हनी ईरानी की भी तारीफ की, खास यह लिखते हुए कि हनी ने अपने बच्चों का अच्छा निवेश किया है.. .. ..

परिवार की सामाजिक अवधारणा में बाल-बच्चों की परवरिश, उनको अच्छा इन्सान बनाने की कोशिश निवेश किस तरह हुआ यह समझ में नहीं आया। महानायक क्या इस अवधारणा को भी व्यावसाय या बाजार की तरह देखते हैं? अविभावक अपनी भूमिका हमेशा बहुत समर्पण और गम्भीरता से निबाहते हैं, यह बात अलग है कि एक बड़ा प्रतिशत इस निबाह की बेदर्द सर्जरी करता है और तमाम मूर्खतापूर्ण प्रश्र उठाता है। हमारे देश में वृद्धाश्रम का अस्तित्व ऐसे ही नाशुक्रे लोगों की वजह से है जो दुर्भाग्य से वहाँ जीवन जीने वालों की सन्तानें हैं। महानायक की ही भाषा में कहें तो हनी की तरह सभी का निवेश अच्छा होता है।

जहाँ तक जिन्दगी न मिलेगी दोबारा का प्रश्र है, वाकई वो एक खूबसूरत और जी-जाने वाली फिल्म है। बिना किसी खलनायक के कैसे फिल्म बनती है, यह इस फिल्म को देखकर जाना जा सकता है। अमिताभ बच्चन ने जाने क्यों कहें या जान-बूझकर जावेद अख्तर का नाम नहीं लिया। फरहान अख्तर और जोया, निश्चित ही जावेद अख्तर और हनी ईरानी के बच्चे हैं और जिन्दगी न मिलेगी दोबारा की कहानी यदि जोया और रीमा कागती तथा निर्देशन जोया का है तो फिल्म के संवाद फरहान अख्तर ने लिखे हैं।

जावेद अख्तर इस फिल्म में बड़ी प्रमुखता से मौजूद हैं बच्चन साहब, उन्होंने फिल्म के गीत भी लिखे हैं और फरहान का किरदार जो कवि है, आधी से ज्यादा फिल्म में अपने पिता की रचनाएँ ही पढ़ते हैं। ऐसे में एक परिमार्जित ट्वीट की अपेक्षा की जा सकती है महानायक से।

जहाँ तक हनी ईरानी की बात है, वे बहुत शालीन और गरिमापूर्ण महिला हैं जिन्होंने कुछेक ही सही मगर बड़ी अच्छी फिल्में यश चोपड़ा और राकेश रोशन के लिए लिखी हैं। अरमान, उनकी एक निर्देशित फिल्म भी है। वे हमेशा पाश्र्व में रहती हैं। पार्टियों, उत्सवों में वे नहीं होती हैं। उनके बच्चों, जोया और फरहान में प्रतिभा, नवोन्मेषी सोच और अपने वक्त के युवा, समय और सपनों को लेकर जिस प्रकार की दृष्टि है, वह उन संस्कारों और परिवेश से है, जहाँ जीवन, व्यवहार, शब्द से लेकर वाक्य और उसके विन्यास तक का मर्म बहुत संवेदनशील तरीके से समझा जाता है।

हनी ईरानी नेपथ्य में अपनी गरिमा के साथ हैं मगर प्राकट्य में जोया, फरहान की छबियों में अनूठी आभा की तरह उन्हें देखा जा सकता है।

गुरुवार, 28 जुलाई 2011

एक नये खलनायक का आगमन


प्रकाश राज को उस समय हिन्दी सिनेमा का कोई दर्शक नहीं जानता था, जब उनको प्रियदर्शन निर्देशित तमिल फिल्म कांचीवरम के लिए श्रेष्ठ कलाकार का नेशनल अवार्ड मिला था। कांचीवरम, इसी नाम की साड़ी के बुनकरों के जीवन में गरीबी, अभाव, संघर्ष और विडम्बनाओं के साथ-साथ व्यापारियों और एक्सपोर्टरों द्वारा किए जाने वाले शोषण को दर्शाने वाली एक मर्मस्पर्शी फिल्म थी। इस फिल्म में प्रकाश राज ने एक ऐसे बुनकर की भूमिका निभायी थी, जो यह सपना भी देखता है और अपनी पत्नी को वचन भी देता है कि वो अपनी बेटी को विवाह के समय कांचीवरम साड़ी पहनाकर ही विदा करेगा। इसी सपने की त्रासदी पर पूरी फिल्म है जो मन को छू जाती है।

प्रकाश राज को तब ही दर्शकों ने जाना, जब वे इस पुरस्कार को पाकर चर्चित हुए और उसके बाद ही प्रभु देवा निर्देशित सलमान खान अभिनीत सुपरहिट फिल्म वाण्टेड में खलनायक बनकर गनी भाई के किरदार में आये। साउथ की फिल्मों में प्रकाश राज ने अनेकानेक किरदार निभाये हैं। उनकी गणना साउथ के आरम्भिक पाँच सुपर स्टारों में होती है। दक्षिण के सितारों में सबसे अधिक आयकर चुकाने वाले प्रॉम्ट अभिनेता के रूप में भी उनकी प्रतिष्ठा है। प्रकाश राज ने कुछ समय पहले ही सुप्रसिद्ध कोरियोग्राफर पोनी वर्मा से विवाह किया है।

हाल ही में प्रकाश राज एक के बाद एक दो हिन्दी फिल्मों में नजर आये हैं इनमें से एक है, बुड्ढा होगा तेरा बाप और दूसरी सिंघम। सिंघम को अपेक्षाकृत ज्यादा सफलता मिली है मगर वाण्टेड के गनी भाई प्रकाश राज को दोनों ही फिल्मों में दर्शकों ने खूब पहचाना है। हमारे दर्शक इस बात को मानते होंगे कि हिन्दी फिल्मों में लम्बे समय से सितारा खलनायक की कमी खल रही है। स्वर्गीय अमरीश पुरी के बाद एक मुकम्मल खलनायक की अवधारणा ही लगभग समाप्तप्राय थी। हाल की फिल्मों में प्रकाश राज को जिस तरह की भूमिकाएँ मिली हैं उससे लग रहा है कि वे उस जगह भरने का काम कर सकते हैं जो एक पूर्ण-प्रभावी खलनायक की हमारी फिल्मों में होती है।

सिंघम में प्रकाश राज ज्यादा पूर्णता के साथ हैं क्योंकि रोहित शेट्टी ने इस फिल्म को बनाते हुए अपना केन्द्रण मुख्य सितारों पर ही रखा है। यह भी उल्लेखनीय है कि इस फिल्म में सितारे चुनिन्दा हैं। यही कारण है कि फिल्म को दो-तीन एंगल से मजबूत होने का पूरा मौका मिला है। प्रकाश राज अपने नकारात्मक किरदार को एक अलग तरह का मैनरिज्म प्रदान करते हैं, जिसमें हास्य बड़े दिलचस्प तरीके से मिश्रित होता है।

दर्शकों ने देखा होगा, वे मोबाइल पर बात करते हुए बार-बार मोबाइल को मुँह के सामने लाकर बोलने की कुछ लोगों की तकियाकलाम सी आदत की अच्छी मिमिक्री करते हैं। उनके कैरेक्टर लोमड़ी की तरह चतुर और पल-पल में बदलकर पेश होने वाले रूप में प्रभावित करते हैं। हिन्दी फिल्मों में प्रकाश राज बेहतर सम्भावना हैं।

शनिवार, 23 जुलाई 2011

सुहाना सफर और ये मौसम हसीं


प्रख्यात फिल्मकार स्वर्गीय बिमल राय का जन्मशताब्दी वर्ष दो साल पहले ही व्यतीत हुआ है। उनकी जन्मशताब्दी के समय सार्थक सिनेमा आन्दोलन से जुड़ी कुछेक संस्थाओं और दूरदर्शन ने भी उन पर केन्द्रित विशेष कार्यक्रम आयोजित किए थे जिनके कारण उनकी यादगार फिल्मों को देखने के अवसर उपलब्ध हुए थे।

यों तो बिमल राय की अधिकतम फिल्में सार्थक और सोद्देश्य हैं, इनमें मधुमति की चर्चा इस कारण से भी होती है क्योंकि इस फिल्म की कहानी ऋत्विक घटक ने लिखी थी और फिल्म का सम्पादन ऋषिकेश मुखर्जी ने किया था। दिलीप कुमार, वैजयन्ती माला, प्राण, जयन्त और जॉनी वाकर फिल्म के प्रमुख कलाकार थे। 1958 में प्रदर्शित इस फिल्म की चर्चा हम इस रविवार फिल्म की कुछ खूबियों के साथ कर रहे हैं। फिल्म का नायक देवेन्द्र चेतन-अवचेतन में एक स्त्री के रुदन को महसूस करता है। जल्द ही वह एक यात्रा पर जाता है जहाँ उसे राजा उग्र नारायण के महल में जाने का मौका मिलता है। महल में वह एक पेंटिंग में एक युवती की छबि देखता है।

नायक पूर्व जन्म की स्मृतियों, पुरानी यादों में जाने के अपने भीतर के आग्रह से मुक्त नहीं हो पाता। वह महसूस करता है कि इस युवती से उसका कोई रिश्ता रहा है, पिछली जिन्दगी में। देवेन्द्र की पिछली जिन्दगी, आनंद एक युवक है जो बस्ती की लडक़ी मधुमति से प्रेम करता है। राजा उग्रनारायण की बुरी नीयत उस पर है। इधर इस जन्म में माधवी, मधुमति की हमशक्ल है। पूर्व जन्म में राजा उग्र नारायण की वजह से ही मधुमति को अपनी जान देनी पड़ी थी। आनंद और मधुमति मिल न सके थे। राजा उग्र नारायण की उम्र ढल चुकी है लेकिन उसका आतंक बरकरार है। पेड़ों पर बैठे पंछी भी उसकी आहट से व्याकुल और भयभीत हो जाते हैं। देवेन्द्र, माधवी के साथ मिलकर उग्र नारायण को उसके किए की सजा दिलवाता है।

मधुमति एक छोटी फिल्म है, कसी हुई पटकथा और सम्पादन इसको विशिष्ट बनाते हैं। दिलीप कुमार हर उस शब्द-वाक्य, विशेषण से ऊपर हैं जो उनकी खूबी के लिए कहा जा सकता है। वैजयन्ती माला ने चंचल, निश्छल नायिका की भूमिका खूबसूरती से निभायी है। प्राण अपनी भूमिका को जिस तरह जीते हैं, दर्शक सहमा-सा महसूस करता है पूरी फिल्म में।

फिल्म के गीत शैलेन्द्र ने लिखे थे, संगीत और पाश्र्व संगीत सलिल चौधुरी का। सुहाना सफर और ये मौसम हसीं, जुल्मी संग आँख लड़ी, दिल तड़प-तड़प के कह रहा है आ भी जा, आजा रे परदेसी आदि अनेक गाने, आज भी सुहाते हैं, मधुर लगते हैं। मधुमति फिल्म को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से भी नवाजा गया था।

मौसम और सिनेमा के सरोकार


साल का उत्तरार्ध ऐसे सिनेमा के लिहाज से ज्यादा आशाजनक मालूम होता है, जिनकी सफलताएँ उस तरह संदिग्ध नहीं होतीं जिस तरह पूर्वार्ध के सिनेमा की हुआ करती हैं। ऐसा लगने लगा है कि गर्मी का मौसम सिनेमा के लिहाज से बहुत ज्यादा उम्मीदभरा नहीं होता। गर्मियों में लोग बाहर कम निकलते हैं। दिन में तो खैर निकलना ही नहीं चाहते। शाम या रात में निकलेंगे भी तो घूमने और आइसक्रीम खाने जाना चाहेंगे या तालाब के किनारे टहलेंगे।

सिनेमाघर में दो घण्टे बे-भरोसे बैठना किसी को नहीं सुहाता। बे-भरोसे इसलिए कि फिल्में आजकल गारण्टी नहीं होतीं इस बात कि वो आनंद प्रदान करेंगी या सिर धुनने पर मजबूर करेंगी? ऐसे में जुलाई से दिसम्बर ज्यादा आकर्षक होते हैं। इस बार भी कुछ ऐसा ही है। सब तरह की मँहगी और बड़े सितारों वाली फिल्मों की बयार है। बड़े निर्देशक, बड़े हीरो-हीरोइनें दीपावली और क्रिसमस को फिल्मों के लिहाज से सेलीब्रेशन के बड़े त्यौहार मानते हैं। यही कारण है कि लगभग हर माह दो-तीन बड़ी फिल्में अब रिलीज हुआ करेंगी। जिन्दगी न मिलेगी दोबारा और सिंघम इस माह का उदाहरण हैं।

इसी माह के अन्तिम सप्ताह में रिलीज होने वाली फिल्म खाप एक सशक्त फिल्म है जो ऑनर किलिंग पर आधारित है। अगस्त में प्रकाश झा आरक्षण रिलीज कर रहे हैं। 12 अगस्त की तारीख उन्होंने तय की हुई है पहले से। दिलचस्प यह है कि इसी दिन छोटी-बड़ी पाँच और फिल्में रिलीज हो रही हैं, इनमें साउण्डट्रैक, इट्स रॉकिंग दर्द ए डिस्को, फिर, साईं एक प्रेरणा और मैं कृष्णा हूँ शामिल हैं। 31 अगस्त को बॉडीगार्ड रिलीज हो रही है, सलमान खान की एक बड़ी और चर्चित फिल्म। सितम्बर में रॉकस्टार और मौसम फिल्में हैं।

मौसम, पंकज कपूर निर्देशित पहली फिल्म जिसके प्रोमो बहुत प्रभावित कर रहे हैं। सोनम कपूर और शाहिद कपूर की खूबसूरत जोड़ी। दिसम्बर तक फिर सिलसिला है, रास्कल्स, द डर्टी पिक्चर, एजेण्ट विनोद, डॉन आदि। एजेण्ट विनोद सैफ अली खान और उनकी मोहब्बत करीना की फिल्म है, निर्माता भी सैफ ही हैं और हीरो भी। बहरहाल सिनेमा, मौसम से अपने सरोकार बनाये हुए है, कुछ दर्शकों का भी मनभावन हो तो ही मजा है।

मंगलवार, 19 जुलाई 2011

जिन्दगी न मिलेगी दोबारा



किसी भी सिने-प्रेमी के लिए एक अच्छी फिल्म नसीब होना आज के समय में बड़ा मुश्किल होता है। फिल्मों ने अपने स्तर और सतहीपन से जिस तरह का वातावरण खड़ा किया है, उस पर ज्यादा बात करना उसकी स्तुति करने जैसा हो जाता है कई बार। बहरहाल बहुत दिनों बाद एक अच्छी फिल्म देखने का सुख जिन्दगी न मिलेगी दोबारा देखते हुए मिलता है। आज की टिप्पणी का शीर्षक किसी प्रोपेगण्डा या नाहक पैरवी भरा नहीं है, वाकई एक अच्छी फिल्म को दोबारा देख लेने का मशविरा जैसा है, जिसे मानना नहीं मानना सभी की इच्छा पर निर्भर है।

जोया अख्तर को हम इस साल की चर्चित निर्देशिका इस रूप में मानेंगे कि उन्होंने एक अच्छी फिल्म को बड़ी तसल्ली से गढ़ा है। अपनी सहेली रीमा कागती के साथ उन्होंने इस फिल्म की कहानी और पटकथा लिखी और उनके भाई फरहान अख्तर ने एक भूमिका निभाते हुए इस फिल्म के संवाद भी लिखे। जावेद अख्तर, उनके पिता की कविता जैसे इस फिल्म के मर्म को शाश्वत करती हुई चलती हैं जब फरहान अख्तर की आवाज में हम फिल्म में उन्हें सुनते हैं। गीत तो खैर जावेद साहब ने लिखे हैं ही, हाँ गीत मगर शंकर एहसान लॉय इस तरह संगीतबद्ध नहीं कर पाये कि हम याद रख पायें।

एक दोस्त का शादी से पहले अपने दो और साथियों के साथ एक यात्रा पर निकलने का विचार, बस केवल खूबसूरत देश के नगरों में घूमना भर नहीं है, यह यात्रा तीनों ही मित्रों के लिए एक तरह से जिन्दगी के अर्थ समझने में कारगर साबित होती है। ऋतिक जिसके जीवन का अर्थ चालीस की उम्र तक धन इकट्ठा करना है और फिर रिटायरमेंट के बाद उसका उपभोग, अभय जो अपनी मँगनी करके इस यात्रा की योजना बनाता है और फरहान जो इस यात्रा के बहाने अपने पिता से मिलना चाहता है, तीनों को अपना यथार्थ इस यात्रा में समझ में आता है।

स्पेन की यात्रा, हम दर्शक भी करते हैं, आसमान से लेकर जमीन और जमीन से लेकर समुद्र के नीचे तक। डर लगते और खत्म होते हैं। पश्चिम के त्यौहार हैं, रोमांच है, अगर जिन्दा बच गये तो क्या करेंगे, तीनों दोस्तों के जीते-जी लगभग पुनर्जन्म होने का एहसास दिलाने वाला क्लायमेक्स।

कैटरीना, कल्कि कोचलिन, दो दृश्यों में नसीर और दीप्ति नवल, जिन्दगी न मिलेगी दोबारा के खूबसूरत हिस्से हैं। कैटरीना और ऋतिक की केमेस्ट्री खूबसूरत है। अगले पड़ाव पर जाते हुए मित्रों में से अपने प्रेमी का मोटर साइकिल से पीछा करके, एक जगह उनकी कार रुकवाकर वह जब हिृतिक का चुम्बन लेकर लौटती है तो दर्शक जैसे साँसे थामे इस सुखद दृश्य से आनंदित हो रहा होता है। और भी बहुत कुछ, पर बेहतर है, फिल्म देखी जाये, एक अच्छी फिल्म।



रविवार, 17 जुलाई 2011

जो भी किया हमने किया, शान से



कई बार कुछ महत्वपूर्ण निर्देशकों की विफल फिल्मों की चर्चा भी की जाना चाहिए, कहने का तात्पर्य कि देख लेनी चाहिए। हालाँकि यह मशविरा देना जोखिम भरा है, पता नहीं क्या प्रतिक्रिया हो, मगर उनके लिए गलत नहीं जो सिनेमा के बारे में एक दर्शक से ज्यादा विचार करते हैं या उस विचार को फिर दर्शक से बाँटते हैं। प्रख्यात फिल्म चिन्तक, समीक्षक मनमोहन चड्ढा अक्सर इस बात को तार्किक आधार पर कहते हैं। इसी बात के मद्देनजर इस रविवार रमेश सिप्पी की फिल्म शान की चर्चा करना मुनासिब लगा।

शान का प्रदर्शन काल 1980 का है। रमेश सिप्पी ने शान के प्रदर्शन के पाँच साल पहले शोले जैसी ऐतिहासिक फिल्म निर्देशित की थी जिसकी सफलता का आनंद वे पूरे पाँच साल उठाते रहे। पाँचवें साल उन्होंने शान का काम शुरू किया और उस वक्त के दौर के अनुकूल सितारे उसमें शामिल किए, अमिताभ बच्चन, शशि कपूर, सुनील दत्त, शत्रुघ्र सिन्हा, राखी, परवीन बॉबी, बिन्दिया गोस्वामी, जॉनी वाकर आदि। शान के लिए खलनायक लेना उनकी सबसे बड़ी चुनौती थी। गब्बर के बाद अब कौन? इस उथल-पुथल को बड़े दिनों मथकर वे शान के खलनायक शाकाल के रूप में कुलभूषण खरबन्दा को ले आये। शान को उन्होंने शहरी मसाला फिल्म की तरह बनाया।

अमिताभ बच्चन, शशि कपूर, परवीन बॉबी, बिन्दिया और जॉनी वॉकर के किरदार ठग और चोर, सुनील दत्त पुलिस अधिकारी, शत्रुघ्र सिन्हा खलनायक से ब्लेक मेल होता खाँटी निशानेबाज जो सुनील दत्त को मारने निकला है। एक साथ इतने सारे सितारों के साथ रमेश सिप्पी कहानी अच्छी नहीं गढ़ पाये। एक तनाव उनके साथ सभी लोकप्रिय सितारों को बराबर के फुटेज देने का भी था। इन सबके ऊपर गंजे सिर पर हाथ फेरता हुआ प्रभावहीन, कमोवेश जोकरनुमा शाकाल।

शान, शोले का दस प्रतिशत भी साबित नहीं हुई। लेकिन इसके बावजूद उसकी मेकिंग किसी चालू मगर लोकप्रिय अंग्रेजी फिल्म की शैली में थी बड़ी दिलचस्प। खासतौर पर शुरू के आधा घण्टा जब तक अमिताभ, शशि, परवीन, बिन्दिया और खास जॉनी वाकर फिल्म को चलाते हैं, फिल्म रोचक लगती है लेकिन बाद में फार्मूलों में उलझकर भटक जाती है।

फिल्म का बैकग्राउण्ड स्कोर, खास राहुल देव बर्मन का संगीत कई गानों की आज तक याद दिलाता है। दोस्तों से प्यार किया, दुश्मनों से बदला लिया, जो भी किया हमने किया, शान से, हेमा मालिनी, ऊषा उत्थुप और आशा भोसले की आवाजों के साथ बहुत आकर्षित करता है, फिल्म में यह गाना आरम्भ में नामावली में आता है। इस फिल्म के असफल होने पर रमेश सिप्पी की निन्दा करने वालों ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी, मगर शान वाकई एकदम बुरी फिल्म नहीं थी।

शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

हीरोइन से आहत मधुर भण्डारकर



अपने सिनेमा से सदैव आकृष्ट करने वाले मधुर भण्डारकर इन दिनों बहुत आहत हैं। वे गम्भीर और परिपक्व हैं इसलिए अपनी बात नपे-तुले ढंग से कह रहे हैं मगर उनके भीतर जो द्वंद्व लगातार चल रहे हैं, उन्हें केवल वे ही जान सकते हैं। मधुर भण्डार नाम का यह फिल्मकार हिन्दी सिनेमा में दस-बारह साल में फलित, प्रशंसित ऐसा नाम है जिसे उसके सिनेमा के लिए जाना जाता है़। चांदनी बार से उन्होंने एक लकीर खींची और अब तक जो भी चार-पाँच फिल्में उन्होंने बनायीं हैं, उनके सिनेमा को निर्देशक के सिनेमा के रूप में रेखांकित किया जाता है।

जब उन्होंने हीरोइन फिल्म के लिए ऐश्वर्य का चयन किया था या अनुबन्धित किया था तभी ये खबरें उठी थीं कि अमिताभ बच्चन इस बात के लिए सहमत नहीं हैं कि ऐश्वर्य यह फिल्म करें। किन्तु ऐश्वर्य का कमिटमेंट हो चुका था और फिल्म की शूटिंग भी शुरू हो गयी थी। इसी बीच अमिताभ बच्चन ने अपने ब्लॉग में अपने दादा बनने की खबर जाहिर की जो तत्काल ही हीरोइन फिल्म के ब्रेक का एक तरह से पर्याय बनकर ही फैली। यूटीवी फिल्म का निर्माण कर रहा था। पहले शायद मधुर के जहन में करीना का नाम हीरोइन के लिए था। जाने कैसे ऐश्वर्य हीरोइन का मुख्य हिस्सा बनीं और फिर फिल्म से हटीं, माँ बनने की ब्लॉग-खबर के जरिए।

अजीब स्थिति यह है कि ऐश्वर्य का माँ बनना, हीरोइन फिल्म का बनने से रह जाना भी डिबेट का हिस्सा हो गया है। चैनलों पर बड़े-बड़े पत्रकार, फिल्मकार और जानकार अपनी-अपनी राय दे रहे हैं। कुछ ऐश्वर्य के पक्ष में हैं तो कुछ मधुर के पक्ष में। मधुर कहते हैं कि इस फिल्म के बारे में अधिकारिक बात अब मैं यूटीवी से मशविरा करके एक पक्का फैसला हो जाने के बाद ही करूँगा दूसरी तरफ यह भी सुनने में आ रहा है कि वे प्रियंका चोपड़ा को ट्राय कर रहे हैं और यह भी सुनने में आ रहा है कि यूटीवी इस भूमिका के लिए करीना को प्राथमिकता देना चाहता है।

खुद मधुर भण्डारकर कह रहे हैं कि वे अभी हीरोइन की भूमिका के लिए किसी भी हीरोइन के सम्पर्क में नहीं हैं। हीरोइन बने या न बने, जाने-अनजाने ऐश्वर्य इस फिल्म का एक ऐसा हिस्सा बनकर रह गयी हैं जो इसमें न होने के बावजूद इसके इतिहास से जुड़ी रहेंगी, चाहे अन्तत: हीरोइन की हीरोइन कोई और ही बने।




एक दाँव अजय देवगन का भी




अजय देवगन अपने समकालीन अभिनेताओं की तरह ही उम्र के ऐसे पड़ाव में हैं जहाँ उनको कुछ न कुछ जल्दी ही बेहतर और उत्कृष्ट कर दिखाने की चाहत बलवती हो रही है। राजनीति में प्रकाश झा से झटका खाये अजय देवगन ने बाद में आरम्भिक रूप से आरक्षण के लिए हाँ करके न कर दी थी। यदि वे आरक्षण में काम कर रहे होते तो फिर शायद सैफ की जरूरत न पड़ती लेकिन राजनीति में उनके रोल पर हुई कतर-ब्यौंत और अपेक्षाकृत अधिक फुटेज मनोज वाजपेयी को मिल जाने से आरक्षण तक आते-आते एक अच्छे निर्देशक और एक अच्छे अभिनेता का पुराना रिश्ता टूट गया।

लगभग इसी वक्त में राजकुमार सन्तोषी की पावर से भी अजय देवगन बैकआउट हुए। यह बात महत्वपूर्ण थी कि दोनों ही निर्देशक अजय को बहुत पसन्द करते थे और उनके साथ फिल्में बनाया करते थे। राजकुमार सन्तोषी तो सनी देओल का दामन छोडक़र अजय देवगन के बूते ही खड़े हुए थे। अजय देवगन ने कैरियर और उम्र के इस मोड़ पर अपने दो प्रिय निर्देशकों को न कहकर अपनी धारा अलग दिशा में मोडऩे का संकेत दिया। गोलमाल का तीसरा भाग उनके लिए आशाजनक इसलिए रहा कि फूहड़ता के तमाम आरोपों के बावजूद रोहित शेट्टी की यह फिल्म आर्थिक रूप से खासी सफल हो गयी।

दो सप्ताह में ही रोहित खुशी-खुशी सारे आर्थिक जोखिमों से उबर गये और कुछ ही दिनों में उन्होंने अजय देवगन को लेकर दक्षिण की एक सुपरहिट एक्शन फिल्म को हिन्दी में तत्काल बनाना चाहा। यह फिल्म अब प्रदर्शन की कगार पर है। अजय देवगन इस समय अपनी इस फिल्म सिंघम से बहुत खुश हैं। जानकारों का कहना है कि रोहित शेट्टी ने यह फिल्म जिस तरह बनायी है, वितरक व्यावसायियों ने उनके साथ फिल्म को लेकर किए जाने वाले सौदे में एक तरह से जोखिम के बाहर निकाल दिया है। सिंघम फिल्म के माध्यम से अजय देवगन अपनी पुरानी छबि में फिर लौटेंगे जिसे दर्शक पिछले कुछ समय से उनकी हास्य भूमिकाओं वाली फिल्मों के कारण भूल गये थे।

अजय देवगन इस बात में विश्वास करते हैं कि दर्शक बदलाव को पसन्द करता है। अजय देवगन को जिस रूप में दर्शक देखना चाहते हैं, उस तरह वे सिंघम के जरिए आ रहे हैं। हिन्दी फिल्मों में एक बार फिर दक्षिण की फिल्मों के रीमेक का दौर सफलता की गारण्टी बन गया है। आमिर खान गजनी, सलमान खान वाण्टेड और रेडी से यह बात साबित कर चुके हैं।

बुधवार, 13 जुलाई 2011

रिश्तों के कद्रदाँ ऋतिक रोशन


विनम्रता और शिष्टाचार के निर्वाह में अभिनेता ऋतिक रोशन का कोई सानी नहीं है। यह सब उनको अपने घर-परिवार और खास पिता से मिला है। दर्शक भलीभाँति जानते हैं कि कहो न प्यार है से लोकप्रियता की सबसे बड़ी ऊँचाई पर पहुँचने के बावजूद ऋतिक ने अपना संयम नहीं खोया था। वे अपनी लोकप्रियता को सीधे दर्शकों से जोड़ते थे और कहते थे कि दर्शकों की चाहत के आगे मैं कुछ नहीं हूँ।

ऋतिक ने अपने लिए हमेशा अच्छी फिल्में चुनीं। किरदार अच्छे निभाये। बोलचाल की भाषा, संवादों की मर्यादा को जाना। फिल्में कैसी करें, इसका निर्णय उनका स्वयं का होता था क्योंकि अपने पापा के साथ फिल्म क्राफ्ट की करण अर्जुन, कोयला समेत कई फिल्मों में वे सहायक निर्देशक का काम किया करते थे जो डायरेक्टर को शॉट के समय सब व्यवस्थित स्थिति में करके देता था। स्क्रिप्ट के स्तर पर लम्बा विमर्श और आकलन उनकी रुचियों में रहा है। इसके बावजूद खैर हर फिल्म कहो न प्यार है न हुई पर एक दशक बाद भी ऋतिक को दर्शक प्यार करते हैं, यह भी उतना ही सच है।

जोया अख्तर की फिल्म जिन्दगी न मिलेगी दोबारा कल रिलीज हो रही है। एक तरह से यह फिल्म ऋतिक के ही कंधों पर है, दूसरे स्टार अभय देओल हैं और फिर उसके बाद फरहान अख्तर। फिल्म बतायेगी, किसका काम कैसा रहा। जोधा अकबर जैसी बहुत महत्वपूर्ण और अच्छी फिल्म करने के बाद दर्शक हिृतिक का काम इस फिल्म में देखेंगे। अनुराग बासु ने काइट्स में उनके साथ एक विफल प्रयोग किया, उसे सभी भूल गये हैं। ऋतिक, फरहान अख्तर के निर्देशन में लक्ष्य फिल्म में काम कर चुके हैं। जावेद अख्तर ने उनकी कई फिल्मों के गीत लिखे हैं। हनी ईरानी ने ऋतिक के लिए हिट फिल्में लिखी हैं। जोया की पहली फिल्म लक बाय चांस में भी उन्होंने एक बड़ी मेहमान भूमिका निभायी थी।

अब थोड़ी नहीं बल्कि बहुत जवाबदारी उन लोगों की भी बनती है जो ऋतिक के साथ फिल्में बनाते हैं। शिष्टाचार की कद्र करने वाले इस सितारे को केवल उसकी छबि के साथ इस्तेमाल करके उसका शोषण नहीं करना चाहिए। उम्मीद की जा सकती है कि बहुत बड़ी सुपरहिट भले न साबित हो, जिन्दगी न मिलेगी दोबारा, मगर कम से कम इस बीच हाल में प्रदर्शित हुई घटिया फिल्मों से राहत दिलाने वाली जरूर साबित हो और ऋतिक रोशन यदि दाँव पर लगे हों तो उन्हें उनका श्रेष्ठ हासिल भी हो।

मंगलवार, 12 जुलाई 2011

सफलता कलाकार-किरदार मिलकर गढ़ते हैं



 
हिन्दी फिल्मों का असफल होना धीरे-धीरे आम बात हो जायेगी। कारण कोई जानने का प्रयास नहीं करेगा। सप्ताह का शुक्रवार निर्माताओं के सिर पर सवार रहता है। साल में सात-आठ सौ फिल्में बनती हैं। सत्तर से अस्सी प्रतिशत तक प्रदर्शित होने की बाट जोहती हैं, शेष जो प्रदर्शित होती हैं उनमें से बा-किस्मत एकाध प्रतिशत को छोडक़र सब फ्लॉप हो जाती हैं। फौरी तौर पर विफलता का असगुन मनाया जाता है, जल्दी ही सब भूलकर फिर लोग काम में लग जाते हैं। दर्शकों के दिमाग से भी सब निकल जाता है, कहाँ तक स्मरण रखा जाये।

अब यह भी होने लगा है कि फिल्म देखने जो फँसता है वो अपने बुरे अनुभवों से अनेकों को आगाह कर दिया करता है। बुरी फिल्म की खबर दुर्गन्ध की तरह फैसती है। सभी सावधान हो जाते हैं। धीरे-धीरे फिल्म बनाने को निठाठ व्यावसाय की तरह लेने वाले, दर्शकों की जेब छुड़ाने वाले बुरी फिल्म बनाने वाले लोगों को भी इस बात का एहसास हो जायेगा। दरअसल सफलता अच्छा कलाकार और अच्छा किरदार मिलकर अर्जित करते हैं। यह काम आसान नहीं होता। दर्शकों को भेड़ समझने की भूल नहीं करना चाहिए। यही दर्शक जनता भी है जो वोट देती है, यही खराब फिल्म को भी कहीं का नहीं छोड़ती।

कवि अष्टभुजा शुक्ल ने अपने ब्लॉग में आमिर खान और किरण राव की परस्पर काल्पनिक बातचीत के जरिए एक तीखी टिप्पणी की है। आमिर खान ने पिछले दस सालों में, खास लगान के बाद जो अपनी छबि बनायी थी, वो देल्ही-बेल्ली के माध्यम से सफा हो गयी है। वे लगातार आलोचना के शिकार बन रहे हैं। मध्यप्रदेश हाईकोर्ट का नोटिस भी उनको मिला है। आमिर खान और देल्ही-बेल्ली की पूरी टीम, हमारा सेंसर बोर्ड समाज के सामने एक बेहद बुरी फिल्म, एक निम्रस्तरीय सिने-भाषा को पेश करने के लिए हमेशा जाने जायेंगे। प्रतिभाहीनता के खतरे और आक्रान्तता के विरुद्ध सिनेमा बनाने वाले इस स्तर तक जायेंगे, यह कल्पनातीत रहा है।

देल्ही-बेल्ली ने आमिर खान की इमेज को ही नहीं बल्कि उनके परिवार की उस सारी परम्परा को भी शर्मसार किया है, जो उनके चाचा नासिर हुसैन ने तुमसा नहीं देखा, दिल देके देखो, जब प्यार किसी से होता है, फिर वही दिल लाया हूँ, बहारों के सपने, कारवाँ, प्यार का मौसम, यादों की बारात, हम किसी से कम नहीं आदि अविस्मरणीय और यादगार फिल्मों के माध्यम से स्थापित की थी।

रविवार, 10 जुलाई 2011

फार्मूले खारिज किए जा रहे हैं


इमरान हाशमी को बनाये रखने का जिम्मा भट्ट कैम्प का है। वे महेश भट्ट के भान्जे हैं। उनका आरम्भ महेश भट्ट की संस्था विशेष फिल्म से हुआ था जो उनके भाई मुकेश भट्ट संचालित करते हैं। महेश भट्ट ने समझदारीपूर्वक लगभग पन्द्रह वर्ष पहले सन्यास ले लिया था। एक जमाना था कि वे टेलीफोन पर निर्देश देने वाले निर्देशक माने जाते थे। एक साथ छ:-छ: फिल्में उनकी फ्लोर पर हुआ करती थीं।

बदलते समय और जीवन में रिश्तों की जटिलताएँ, वैवाहिक जीवन, विवाहेतर सम्बन्ध और इन सबसे उपजने वाले अवसादों को उन्होंने अपने अन्दाज में फिल्मों का विषय बनाया। उस समय महेश भट्ट का प्रस्तुतिकरण निजी रिश्तों की रसज्ञता को फिल्माने का उनका सोफेस्टिकेटेड अन्दाज दर्शकों को भाता था। वे एक ही वक्त में विविध विषयों को उठाते थे। आशिकी बनाने वाले महेश भट्ट ही सारांश भी बनाते थे और अर्थ बना चुकने के बाद हम है राही प्यार के जैसी फिल्म भी उन्हीं की होती थी।

उनका सन्यास दरअसल बे-मन से लिया गया सन्यास था इसीलिए वे फिल्मों से दूर नहीं हो पाये। सन्यासी होकर भी सिनेमा अनुरागी बने रहे, इसीलिए फिल्मों पर खूब डिबेट में हिस्सा लिया, विशेष फिल्म्स के बैनर पर बनने वाली फिल्मों को लेकर बात की, विवाद होने पर काट के लिए भी आगे आये। बाद में जब इमरान हाशमी के नायक बनने की उम्र आयी तो फिर एक तरह से वे उनके पीछे ही खड़े हो गये, अपना सम्बल, समर्थन देने के लिए। दर्शक जानते हैं कि इमरान हाशमी में प्रतिभा का गहरा अभाव है। उनकी पर्सनैलिटी नकारात्मक छबि का साथ देती है। अविश्वसनीय किरदार, अन्तरंग दृश्यों में यथार्थ की हद तक डूब जाने वाले इमरान हाशमी एक खास किस्म के दर्शक वर्ग की ही पसन्द बने। मर्डर उनकी सफल फिल्म थी, वही ठप्पा उनके साथ लगा रहा।

मर्डर का दूसरा भाग दर्शकों के आकर्षण का विषय नहीं बना। दरअसल ऐसे सिनेमा में एक्सपोज होने के लिए आज की तथाकथित नवजात हीरोइनों की कमी नहीं है पर निरर्थक सिनेमा में अब यह ऊब और झुँझलाहट का विषय है। दर्शक अब फार्मूले खारिज कर रहा है, वे फार्मूले जो सफलता की गारण्टी हुआ करते थे। हिन्दी सिनेमा, खासकर बाजार का सिनेमा बनाने वालों की पोटली-पिटारी का सामान अब खत्म हो चुका है, खाली डमरू की आवाज से मजमा जमता नहीं है। पता नहीं ये वे कब समझेंगे?

बिमल राय की अनूठी परख


सामाजिक सरोकारों का सिनेमा बनाने में स्वर्गीय बिमल राय जैसी प्रतिष्ठा दूसरे किसी फिल्मकार को नहीं मिली। दो वर्ष पहले ही उनका जन्मशताब्दी वर्ष मनाया गया। वे फिल्मकार नहीं, बल्कि उत्कृष्ट सिनेमाई दृष्टि और प्रेरणा का एक स्कूल थे, जिनसे उनके समय में अनेक सृजनधर्मियों ने बहुत कुछ सीखा था। रविवार को उनकी एक अविस्मरणीय फिल्म परख की चर्चा करना समीचीन लगता है। इस फिल्म का प्रदर्शन काल 1960 का है। इक्यावन साल पुरानी यह फिल्म विषयवस्तु और समकालीनता की दृष्टि से आज भी उतनी ही प्रासंगिक है।

परख का कथ्य अत्यन्त मौलिक था, खासतौर से इस कहानी में लोभसंवरण की मानवीय विफलता को रेखांकित किया गया था। इस तरह यह फिल्म अपने आसपास के बनावटीपन और मन, मस्तिष्क और चेहरे के दुहरपन को भी व्यक्त करती है। गाँव का पोस्टमास्टर एक सुबह गाँव के पाँच प्रभावशाली लोगों को बुलाकर कहता है कि वह रात को सो नहीं पाया। उसे पाँच लाख रुपए का चेक मिला है। जिसने भेजा है उसकी मंशा यह है कि यह चेक गाँव के सबसे अच्छे आदमी को दे दिया जावे। जमींदार, महापण्डित, मजदूरों का नेता, स्कूल का मास्टर और गाँव का डॉक्टर सामने हैं। पोस्टमास्टर की बात सुनकर अब सभी अपने आपको अच्छा प्रमाणित करना चाहते हैं।

चुनावी राजनीति और सरगर्मियों के बीच गाँव कोलाहल में डूब गया है। जमींदार ऐलान करवा रहा है कि सबके कर्ज माफ कर दिए गये हैं। साहूकार एक इंजीनियर को बुलाकर गाँव में नलकूपों की खुदाई शुरू करवा रहा है। मास्टर रजत पहले भी निष्ठा से अपना काम कर रहा था, अब भी करता है। डॉक्टर अपने दवाखाने से मुफ्त में दवा देने की बात कहते हैं तो महापण्डित गाँव के कल्याण की भविष्यवाणी कर-करके सबको लुभाता है। गाँव के लोग चकित हैं, शोषक अचानक संवेदनशील कैसे हो गया? क्यों ऐसे लोगों के हृदयपरिवर्तन हो गये? अब सबका पाँच लाख रुपयों पर दावा है मगर तभी खुलासा होता है कि पोस्टमैन हरधन ने पाँच लाख रुपए का खेल रचा था।

उसका इरादा सबको आइना दिखाने का था। यह रुपया मास्टर रजत को दे दिया जाता है जो पोस्टमास्टर की बेटी सीमा को चाहता है और उससे विवाह करने वाला है। इस फिल्म में दिग्गज चरित्र कलाकारों ने काम किया है, नजीर हुसैन, मोतीलाल, जयन्त, कन्हैयालाल, असित सेन, लीला चिटनीस आदि। स्कूल मास्टर की भूमिका बसन्त चौधरी ने निभायी है। साधना, नायिका सीमा की भूमिका में हैं। परख के संवाद गीतकार शैलेन्द्र ने लिखे थे और संगीत सलिल चौधरी का था।

बुधवार, 6 जुलाई 2011

भूमिकाएँ आती-जाती हैं




मधुर भण्डारकर ने अपनी फिल्म हीरोइन बनाने का इरादा फिलहाल त्याग दिया है। कुछ समय पहले इस बात की चर्चा हुआ करती थी कि ऐश्वर्य राय बच्चन के पास फिलहाल कोई उल्लेखनीय या बड़ा काम नहीं है। अभिषेक के साथ मिलने वाले अनुबन्धों को तरजीह देने के कारण उनके पास निर्माता कम आते थे क्योंकि अभिषेक की फिल्में विफल हो जाया करती थीं। दूसरे नायकों के साथ काम करने में ज्यादा रुचि न होने के कारण एकाएक उनकी उपस्थिति तत्कालीन हिन्दी फिल्मों में बहुत कम हो गयी और उनकी जगह कैटरीना, करीना, दीपिका पादुकोण, विद्या बालन, असिन आदि को अच्छे अवसर मिलने लगे।

इस बीच किसी अच्छी फिल्म से न जुड़ पाने और दूसरी नायिकाओं की स्पर्धा में दर्शकों के ऐश्वर्य की उपस्थिति को लगभग भूल जाने की स्थिति में ही मधुर भण्डारकर ने अपनी नयी फिल्म हीरोइन बनाने की घोषणा की और प्रचार के साथ यह भी जोड़ा कि इसे वे विश्वविख्यात अभिनेत्री मर्लिन मुनरो के जीवन और काम पर केन्द्रित करने का विचार रखते हैं। मर्लिन मुनरो एक बहुत ही खूबसूरत अभिनेत्री थीं, मधुर को लगा कि हिन्दी फिल्मों में ऐश्वर्य जैसी खूबसूरत अभिनेत्री दूसरी नहीं हैं लिहाजा उन्होंने उनसे सम्पर्क किया और उनको फिल्म के लिए राजी भी किया। हाँलाकि यह अफवाह भी फैली कि ऐश्वर्य की ससुराल इस फिल्म के लिए सहमत नहीं है। लेकिन ऐश्वर्य ने यह फिल्म ले ली और उसकी शूटिंग भी आरम्भ हुई।

मधुर ने हीरोइन के लिए न केवल ऐश्वर्य बल्कि और कलाकारों को भी अनुबन्धित कर लिया था किन्तु इसी बीच अमिताभ बच्चन ने अपने ब्लॉग में अपने दादा बनने की सूचना दी और इस सूचना का तत्काल असर हीरोइन पर हुआ। फिल्म से जुड़े एक महत्वपूर्ण कलाकार ने बताया है कि मधुर ने इस फिल्म को बन्द कर दिया है। यह तो तय है कि वे इसे किसी और हीरोइन के साथ बनाना नहीं चाहते और जिस तरह का उत्साह उनको आज था, वैसा डेढ़-दो साल बाद रहेगा, इसका विश्वास खुद उनको नहीं है। ऐश्वर्य और एक फिल्म के लिए अभिषेक के साथ अनुबन्धित थीं, उसमें उनकी जगह प्रीटि जिण्टा को लिया जा रहा है मगर हीरोइन के निर्माण पर ग्रहण लग गया।

चाहे रंगमंच हो, सिनेमा हो या जीवन हो, भूमिकाएँ तय होती हैं और निभाने मिलेगी भी या नहीं यह तय ऊपरवाला करता है। ऐश्वर्य, हीरोइन की भूमिका निभातीं मगर दो खुशियों का हाथ एक साथ थाम पाना कहाँ मुमकिन है?

आम का अचार

आरम्भिक बरसात को पहला या हल्का झाला पडऩा हमारे यहाँ कहते हैं, सो पड़ गया है पिछले दिनों। इस बार कैरी जमकर आयी हैं। अब मौसम के बहुत से फलों जैसे अमरूद, जामुन, आम आदि एक साल बहुतायात में और एक साल अपेक्षाकृत कम आते हैं। आम के कम आने का साल पिछला था, सो मँहगे मोल बिकता रहा और जल्दी ही दुकानों, ठेलों से बाहर हो गया। इस बार ऐसा नहीं है। गर्मी के आते ही एक के बाद एक मौसम के आम खूब आये और बिके।

पके आमों का आस्वाद लेने के बाद अब आम का अचार डालने का मौसम है। भोपाल की नवबहार सब्जी मण्डी में सुबह चार बजे से आसपास के गाँव के किसान कैरियों की डलिया लिए आ जाते हैं और फिर शुरू होता है उनका सौदा। पौ फटते-फटते किसानों की वापसी होने लगती है और शहर के तमाम हिस्सों के हाट-बाजार के विक्रेता फुर्ती से खरीदी हुई कैरियों की टोकरियाँ लेकर अपनी दुकानों की तरफ लौटते हैं।

हमारे घर के नजदीक शुरू से न्यू मार्केट का सब्जी बाज़ार रहा है। न्यू मार्केट को भोपाल का कनाट प्लेस कहा जाता है। चारों तरफ रौनक, बड़ी-बड़ी दुकानें और भीतर की तरफ, जिसे इनसाइड कहा जाता है, बरसों से सब्जी बाजार लग रहा है। यहीं बीचों-बीच कैरियों की दुकानें सुबह आठ बजते-बजे सज जाती हैं। आठ-दस इस तरह की दुकानों में दो-दो, तीन-तीन दुकानदार काम में जुट जाते हैं। एक कैरियाँ भाव करके तौलता है, दूसरा एक तरफ बैठकर अम-कटने से खटाखट कैरियाँ काट रहा होता है और तीसरा चारों तरफ ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ लगाकर ग्राहकों को बुला रहा होता है। हाथ ऊपर उठाये, कैरियाँ साधे दुकानदार का महिलाओं, पुरुषों को लुभा-लुभाकर बुलाना एक अलग ही माहौल रचता है। आज के सुविधाभोगी और अपेक्षाकृत मेहनत से बचने वाले समय में आपके लिए सब तरह की सुविधाएँ हैं।

अपने बचपन की याद है, अचार डालना केवल नानी को आता था, वो कटहल, आम, आँवला, लभेड़े, लाल मोटी मिर्च सभी के अचार डाला करती थीं। लाल मिर्च का सिरके वाला अचार खासतौर पर याद है नानी के हाथ का। पूजा-पाठ वाली नानी बहुत छूत-पाक मानती थीं। हमें भी उनकी रेंज में आने की इजाज़त नहीं थीं। बिना नहाये कभी चौके में नहीं गयीं। नानी कहा करती थीं कि ये सब अचार डालने का काम घिनापन से नहीं किया जाता। सफाई-सुथराई का ध्यान रखना चाहिए। इस मसले पर फटकार देने में वे मुझ से लेकर मम्मी तक को नहीं बख्शती थीं। नानी कानपुर से एक बार अम-कटना खरीदकर लायीं थीं, हमारे यहाँ भोपाल में।

वह अभी भी कहीं रखा है, मगर अब उसका इस्तेमाल नहीं होता है क्योंकि कैरी बेचने वाले के साथ ही काटने वाला भी बैठा होता है। उसको भी चार पैसे का रोजगार है और अपन भी दंद-फंद से बरी। आम के मनचाहे टुकड़े करने का उसको खासा तजुर्बा है। जैसा चाहिए, कटवाकर ले जाइये। लोग भी इन दिनों सुबह से ताजी और अच्छी कैरियों की चाह में बाज़ार पहुँच जाते हैं। अलग-अलग इच्छाओं और पसन्द के हिसाब से, किसी को रेशे वाली कैरियाँ चाहिए तो किसी को गूदे वाली। लगे हाथ वहीं तैयार मसाला, आजकल यह भी रेडीमेड मिलने लगा है, अन्यथा पहले सारे मसाले और उनका अनुपात ही उत्कृष्ट अचार का मापदण्ड हुआ करता था।



सरसों के तेल में कैरी, मसाले सब मिलाकर रखना और फिर धूप, हवा को ज़रूरत के मुताबिक दिखाना। घर में अचार बनने का बड़ा आकर्षण हुआ करता है। बुजुर्गों से लेकर छोटे-छोटे बच्चे तक अचार डाले जाने से खुश रहते हैं। टिफिन में अचार अपरिहार्य है चाहे बच्चे हों या फिर बड़े, सभी इसके चटखारे को स्वाद के धरातल पर अभूतपूर्व मानते हैं। अचार की परम्परा, जाने कब की है। हमारी दादी, नानी, बुआ, ताई, मौसी, भाभी इस हुनर की विशेषज्ञ रही हैं। उन्होंने ही परिवार की स्त्रियों को इसका अनुपात, बनाने, बरतने का तरीका सिखाया है। उनके हाथ और बनाने की लगन में अनूठा स्वाद रहा करता था। एक-दूसरे के घर के अचार को पसन्द करने का भी खूब अन्दाज रहा है। अपने घर से ज्य़ादा दूसरे घर का अचार हमें सुहाया है। आज के समय में हम धीरे-धीरे इन सारी अनुभूतियों से वंचित हो रहे हैं। अब दुकानों में कम्पनियों के शीशीबन्द अचार बिकने लगे हैं। हाथ का हुनर, सुविधाजीवी दौर में रासायनिक प्रक्रियाओं से बनने और आकर्षक पैकिंग में उपलब्ध होने वाले अचारों के आगे हारता जा रहा है।

मंगलवार, 5 जुलाई 2011

मुम्बइया सिनेमा की बेलगाम भाषा




इस समय एक बड़ी बहस इमरान खान की नयी फिल्म देल्ही-वेल्ली को लेकर चल रही है। यह वाकई आश्चर्य की बात है कि इस फिल्म के संवादों में जिस तरह गाली-गलौज का इस्तेमाल किया गया है, उसको लेकर समीक्षकों ने लगभग आँखें मूँदते हुए जी-भरकर इसकी तारीफ की है जबकि इस फिल्म के माध्यम से ही हम यह लगभग तय हुआ पाते हैं कि मुम्बइया सिनेमा की बेलगाम भाषा की एक तरह से इन्तेहा हो गयी है और इसका चरम देल्ही-वेल्ली में दिखायी देता है।

हाँलाकि ऐसा भी नहीं है कि इस वाचिक अराजकता का संज्ञान नहीं लिया गया हो। फिल्म का सफल नहीं हो पाना इस अराजकता के विरुद्ध गया है। दर्शक तुरन्त अपना फैसला देकर अब अगले शुक्रवार की फिल्म की बाट जोह रहे होंगे। विगत बीस वर्षों में हिन्दी सिनेमा से हिन्दी भाषा और भाषा की समझदारी, शिष्टाचार और मर्यादा समाप्त होना शुरू हो गयी थी। यह धीमा जहर धीमे-धीमे ही दिया जाता रहा। दो दशकों में सेंसर बोर्ड ने बहुत कुछ नजरअन्दाज किया। विजय आनंद जब सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष थे तब उन्होंने अपनी नीतियों और हस्तक्षेप से कुछ चीजें सुधारनी चाही थीं मगर बाद में जब उन्हीं का विरोध होने लगा तब विवादास्पद स्थिति में उन्होंने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था।

बाद में सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष का काम अभिनेत्री आशा पारेख, शर्मिला टैगोर ने सम्हाला। फिल्मों का स्तर इनकी सक्रियता और कार्यकाल में भी प्रभावित होता रहा। शर्मिला टैगोर के कार्यकाल में ही सैफ-करीना की कुरबान फिल्म आयी जिसको लेकर खासा विवाद हुआ। वर्तमान सेंसर बोर्ड अध्यक्ष लीला सेमसन के कार्यकाल सम्हालने के चार महीनों में ही पहले भिण्डी बाजार और फिर देल्ही-वेल्ली अपने आपमें कई विरोधाभासों के साथ सामने आयी है।

वास्तव में अब वह समय है जब मुम्बइया सिनेमा की भाषा और जबान का मूल्याँकन, आकलन होना चाहिए। वयस्कों का सर्टिफिकेट प्राप्त कर लेने के बावजूद अश£ीलता, हिंसा और भाषायी अराजकता की मात्रा और स्तर पर नीति-निर्धारण करना जरूरी है। अगर अनदेखी इसी तरह की जाती रही तो फिर सेंसर नाम की संस्था का न कोई अर्थ रह जायेगा और न ही सार्थकता।

सोमवार, 4 जुलाई 2011

ये किस दौर के अगुआ हो आमिर?


आमिर खान रिश्ते-नाते निभाने में बड़े गम्भीर हैं। मन्सूर खान ने निर्देशक के रूप में उनका कैरियर कयामत से कयामत तक से लेकर आगे कई फिल्मों में सँवारा था लिहाजा अपने भतीजे इमरान खान को स्थापित करना अब उनकी जवाबदारी है। यह बात अलग है कि यह युवा अभिनेता बावजूद अपने पारिवारिक आत्मविश्वास और यथासम्भव अपनी क्षमता के अपने समकालीनों रणबीर कपूर या नील नितिन मुकेश के बराबर नहीं आ पाया है। इमरान खान की गिनती अब भी रणबीर, इमरान और यहाँ तक कि बैण्ड बाजा बारात वाले अपेक्षाकृत बाद में आये नायक रणबीर सिंह से भी बाद में होती है।

दरअसल इमरान खान को लेकर इतनी बात करने की वजह यही है कि उनकी नयी फिल्म देल्ही-बेल्ही बावजूद अंग्रेजी और हिन्दी की समीक्षाओं में जी-भरके लुटाये गये सितारों के बहुत ही आपत्तिजनक है। मुम्बई में सिनेमा के एक बड़े और वरिष्ठ समीक्षक ने भी लम्बी कसीदेकारी के बाद इस खतरे को लिखा ही है कि जिस तरह गालियों और गन्दे उच्चारणों का प्रयोग इस फिल्म में सिचुएशनल ढंग से करने की चतुराई जाहिर करते हुए, अन्तत: इसी तरह की जुबान बोलने वाले लोगों के मानसिक तुष्टिकरण के लिए किया गया है, यदि उसका अनुसरण आने वाले समय में फिल्मों में ढर्रे की तरह स्थापित हो गया तो बहुत ही बुरा होगा, लेकिन यह बात, पन्द्रह सौ शब्दों की प्रशंसनीय समीक्षा लिखने के बाद ही कही गयी है।

मुम्बई के ही एक फिल्म पत्रकार मित्र की चिन्ता यह थी कि हम अपने बच्चों को क्या अब इस तरह का सिनेमा देने लगे हैं? यह हादसे, यह दुर्घटनाएँ वाकई ऐसे वक्त में हो रही हैं जब कुछ माह पहले ही देश की सरकार ने सेंसर बोर्ड का अध्यक्ष तमाम पहले की परम्पराओं को दरकिनार करते हुए एक शीर्षस्थ नृत्यांगना को बना दिया है। समझ में नहीं आ रहा कि दरअसल बे्रक किस पहिए के फेल हो गये हैं? आमिर खान, अतुल्य भारत के अपने विज्ञापन में अपशब्द बोलने वाले, कहीं भी पेशाब करके दीवार गन्दी कर देने वाले और अश्लील छेड़छाड़ करने वालों के खिलाफ रचनात्मक मुहीम छेड़ते हैं, वही आमिर खान देल्ही-बेल्ही जैसी फिल्म की परिकल्पना के भी पीछे होते हैं।

पता नहीं सारे व्यवधानों से अपनी फिल्म को निकालकर ले जाने के बाद प्रदर्शित कर पाने की खुशी के साथ-साथ वे इस बात का खेद किस चातुर्य से करते हैं कि इस फिल्म में इतनी गालियों और गन्दे शब्दों के प्रयोग पर उन्हें अफसोस है? हाँ, फिल्म विफल हो गयी है, यह इसी प्रसंग से जुड़ा दूसरा यथार्थ है।

रविवार, 3 जुलाई 2011

महानायक को मोह-मुक्त होना चाहिए

आरम्भिक रूप से सिनेमाघरों में थोड़ी भीड़ बुड्डाह होगा तेर्रा बाआप में नजर आयी है, सो लगता है ओपनिंग दुरुस्त है मगर शुक्रवार को लगने वाली फिल्मों की हैसियत सोमवार का पहला शो जाहिर कर दिया करता है। समीक्षाओं में सितारा बाँटने में समीक्षकों का हृदय बहुत उदार हो जाता है, अक्सर। अंग्रेजी अखबारों का दिल जरा ज्यादा मुलायम होता है, सो वहाँ मुम्बई से जो समीक्षा चलती है वो भले पूरे देश में पढ़ी नहीं जाती मगर फिल्म बनाने वाला उसी को सिर-माथे लगाये घूमता है और चार-पाँच दिन बाद श्रेष्ठता और सफलता के दावे में उसे इस्तेमाल भी करता है।

समीक्षा हिन्दी में भी किंचित विरोधाभासों के प्रमाण दिया करती है। सत्तरवें साल में बच्चन का परदे पर विजु बनकर आना, इतना चीखना-चिल्लाना और कुल मिलाकर निहायत गुस्सैल और अस्थिर मन:स्थिति के आदमी की तरह अपनी उम्र, अपनी पहचान को स्थापित करना नागवार लगता है। स्वभाव से लम्पट और बे-वफा व्यक्ति के किरदार को निभाते हुए अमिताभ बच्चन आखिरकार वास्तविकता से दो बालिश्त पीछे ही रह जाते हैं। दर्शक देखता है कि किस तरह महानायक अपने बैनर की फिल्म को पूरी तरह अपने पक्ष में इस्तेमाल करता है।

क्लायमेक्स में खलनायक प्रकाश राज का महानायक से सम्वाद ही अमिताभ बच्चन के फिल्म में मुकम्मल हस्तक्षेप और छोटी उम्र के, खासकर अच्छे हिन्दी सिनेमा और उसके दर्शकों के मिजाज से नितान्त अनुभवहीन निर्देशक पुरी जगन्नाथ की स्थितियों को रेखांकित कर देता है। हेमा मालिनी की मेहमान उपस्थिति, रवीना टण्डन की निरर्थक उपस्थिति, तीन दृश्यों में राजीव वर्मा, व्यर्थ का शोर-शराबा और सत्तर के दशक की अपनी खास सफल फिल्म के टुकड़ों से झुँझलाहट में भरे देने वाली यह फिल्म बुड्डाह होगा तेर्रा बाआप वाकई गजब है। फिल्म का नाम इस तरह यूँ लिखा जा रहा है क्योंकि अंग्रेजी में फिल्म के नाम की स्पेलिंग यही उच्चारण प्रदान करती है।

महानायक को मोह-मुक्त होना चाहिए। सलमान खान जैसी सफलता हासिल करने के अरमान बहुतों के ध्वस्त हो रहे हैं। ये तेवर अब की अवस्था, वरीयता, सम्मान और जगह वाले महानायक के लिए उपयुक्त नहीं हैं। तार्किक रूप से यह एक खारिज की जाने वाली फिल्म है। अमिताभ बच्चन ने आरक्षण में अपने किरदार और प्रचार से हासिल माहौल में इस फिल्म को अधिक तवज्जो देकर बड़े कम समय में पूरा करके प्रदर्शित किया है। इसकी सफलता-विफलता का प्रभाव भी आरक्षण पर अगले माह पड़ेगा, इसकी सम्भावना है। हाँ, इसमें ज्यादा फुटेज और आकर्षण तो प्रकाश राज और शाहवर अली पा गये, अपनी यथास्थितियों में भी।

शनिवार, 2 जुलाई 2011

जिन्होंने सजाये यहाँ मेले.. .. ..


भारतीय सिनेमा के महानायक की एक बहुत ही निराशाजनक फिल्म के प्रदर्शन की खीज को कम करने के लिए हम उन्हीं की एक अच्छी फिल्म की चर्चा इस रविवार करना चाहेंगे। यह फिल्म है आनंद जिसका निर्देशन प्रख्यात फिल्मकार, सम्पादक हृषिकेश मुखर्जी ने किया था। लगभग चालीस साल पहले, 1970 में आयी इस फिल्म ने उस समय अच्छी सफलता, प्रशंसा और हमदर्दी प्राप्त की थी दर्शकों की।

आनंद अपने आपमें एक पूर्ण सम्वेदनशील फिल्म थी, जिसको देखते हुए दर्शक पहली ही रील से उससे एक आत्मीय जुड़ाव स्थापित हुआ पाता है। अन्त तक आते-आते दर्शक दुखान्त के कारण गहरे अवसाद में जरूर भर जाता है मगर यह हृषिदा की फिल्म की सार्थकता और सफलता है कि यह इस तरह हमारे मर्म को छूती है। आनंद, फिल्म के नायक का भी नाम है जो कैंसर की बीमारी से ग्रसित है। उसके पास डॉक्टरों के मुताबिक शायद छ: माह ही शेष है। आनंद की भूमिका राजेश खन्ना ने निभायी है जो उस समय के सर्वाधिक लोकप्रिय रोमांटिक सितारे थे।

अमिताभ बच्चन उस समय नये थे और अपनी आजमाइश की आरम्भिक कक्षाओं में क्षमताओं का पाठ पढ़ रहे थे और इम्तिहान दे रहे थे। उन्होंने डॉक्टर की भूमिका निभायी थी जिन्हें आनंद बाबू मोशाय कहता है। रमेश देव, सीमा देव की भूमिका इस फिल्म में यादगार है जिनके माध्यम से ही आनंद, बाबू मोशाय से मिलता है और डॉक्टर-मरीज के रिश्तों के बीच दो अलग-अलग स्वभावों के मित्र का रिश्ता भी कायम होता है। इस फिल्म की पटकथा बड़ी सशक्त है। आनंद, फिल्म की धुरि है जिसके आसपास सारे किरदार नक्षत्र की तरह घूमते हैं। नर्स का छोटा मगर दिल को छू जाने वाला किरदार ललिता पवार ने निभाया है जिनके आँसू याद रह जाते हैं। अतिथि कलाकारों में जॉनी वाकर और दारा सिंह लगता ही नहीं कि आनंद की कहानी की अपरिहार्यता न हों।

राजेश खन्ना अपनी भूमिका और निर्वाह में अमिताभ बच्चन को अपने आगे ठहरने ही नहीं देते। अपनी मृत्यु के दृश्य में वे सब लूटकर ले जाते हैं। फिल्म के गाने लिखे, संगीतबद्ध किए और गाये गये, सभी स्मरणीयता में आज भी मौजूद हैं, कहीं दूर जब दिन ढल जाये, मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने चुने, जिन्दगी कैसी है पहेली हाय। कमाल योगेश, कमाल सलिस चौधुरी, कमाल मुकेश जी, मन्ना दा। आनंद फिल्म का शीर्षक, फिल्म देखते हुए दर्शकों की आँखों से निकले हुए आँसुओं में सार्थक होता है, हृषिकेश मुखर्जी की यह अनूठी सिने-कृति।

शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

गनीमत और खैरियत की जुलाई




मुम्बइया सिनेमा को अपनी सफलता और अस्मिता के लिए लम्बा संघर्ष करना पड़ रहा है। गर्मी के तीन-चार महीने दर्शकों की ओर से सिनेमा के प्रति बेरुखी भरे रहे। यह बेरुखी पूर्वाग्रह भरी नहीं बल्कि जायज थी। जायज इसलिए थी कि एक भी ढंग की फिल्म नहीं आ रही थी। सुभाष घई के मुक्ता आर्ट्स घराने की दो फिल्में, लव एक्सप्रेस और सायकल किक को दर्शक नहीं मिले। जिन सिनेमाघरों में ये फिल्में लगीं, वहाँ तुरन्त ही उतार ली गयीं। अपने प्रशिक्षित छात्रों की फिल्मों को प्रोत्साहित करने के लिए सुभाष घई ने यह तक सोचा कि एक टिकिट पर दोनों फिल्में दिखा दी जायें, उसमें भी उनको सफलता नहीं मिली।

गर्मी के ही महीनों में निरर्थक और फूहड़ फिल्में भी खूब रिलीज हुईं, बिन बुलाये बाराती तक यह सिलसिला चलता रहा। कुछ फिल्मों के प्रचार में अपार सफलता का स्लोगन लगाया गया, पर यह जाना मुमकिन न हुआ कि किस देश में यह अपार सफलता हासिल हुई। जुलाई माह पर ले-देकर सारी उम्मीदें आकर टिक गयीं। योग की बात यह कि जुलाई माह का आरम्भ ही शुक्रवार से हुआ। 1 जुलाई को एक साथ ब्बुड्डाह होगा तेर्रा बाआप (अंग्रेजी मे स्पेलिंग अनुसार यही उच्चारण बनता है) और देल्ही-बेली फिल्में रिलीज हुईं। एक पीछे अमिताभ बच्चन के बिनानी सीमेण्ट वाले मजबूत हाथ तो दूसरी के पीछे आमिर खान का अदम्य हौसला, भिडऩे का, पीछे न हटने का। वे अपने भांजे को बच्चन साहब से भिड़ाने में डरे नहीं। यहाँ तक कि देल्ही-बेली में उन्होंने अपने अंकल नासिर हुसैन की फिल्मों की शैली का, सत्तर के दशक का आयटम सांग भी कर लिया।

बहरहाल, दोनों फिल्मों का हाल सोमवार को स्पष्ट हो ही जायेगा, लेकिन जुलाई माह और प्रदर्शित फिल्मों के लिहाज से उम्मीदों भरा है। 8 जुलाई को सलमान खान निर्मित फिल्म चिल्लर पार्टी की सफलता की अच्छी आशा है, रणबीर कपूर का आयटम नम्बर इसमें नम्बर बढ़ाने का काम करेगा। मर्डर-टू, जिन्दगी न मिलेगी दोबारा, सिंघम, खाप कुछ और अच्छी फिल्में हैं, जिनसे जुलाई में रौनक रहने की उम्मीद है।