शनिवार, 30 जुलाई 2011

मासूम का वो निश्छल राहुल



इस रविवार हम अपने पाठकों को शेखर कपूर की एक बड़ी मर्मस्पर्शी और खूबसूरत सी फिल्म मासूम का स्मरण कराते हैं। शेखर कपूर ने बैण्डिट क्वीन, मासूम, मिस्टर इण्डिया, एलिजाबेथ जैसी महत्वपूर्ण फिल्में बनायी हैं और बहुत सी फिल्में ली हैं और नहीं की हैं, कुछ को अधबीच में भी छोड़ा है पर यह सच है कि देव आनंद के रिश्ते में भाँजे शेखर सिनेमा में अलग ही ढंग से शिल्प गढ़ते हैं।

मासूम का प्रदर्शन काल 1982 का है। यह कोई व्यावसायिक रूप से सफल फिल्म नहीं थी, लेकिन मासूम को देखने वाले, सराहने वाले और इसके मर्म में डूबकर संवेदना के साथ बाहर आने वाले कम नहीं थे। नसीरुद्दीन शाह, शाबाना आजमी, सईद जाफरी, सुप्रिया पाठक, मास्टर जुगल हंसराज, बेबी उर्मिला मातोण्डकर, सईद जाफरी, सतीश कौशिक फिल्म के प्रमुख कलाकार थे। नाम के अनुरूप यह फिल्म एक निश्छल मगर बड़े गम्भीर छोटे बच्चे की निगाह से परिस्थितियों और सामाजिक यथार्थ को देखती है।

फिल्म का मुख्य किरदार डी.के. मल्होत्रा अपनी पत्नी इन्दु और दो बेटियों रिंकी और मिनी के साथ जिन्दगी व्यतीत कर रहा है। एक दिन उसको मालूम होता है कि दिवंगत भावना का बोर्डिंग स्कूल में पढ़ रहा बेटा दरअसल उसका है, उनके प्यार की निशानी जिसे वह अपने घर लेकर आता है। द्वन्द्व यहीं से शुरू होता है जब वो अपनी पत्नी को उसके बारे में बतलाता है। भावना, बच्चे राहुल को एक पल भी घर में स्वीकार या बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है। मल्होत्रा के अनुनय-विनय के बाद बच्चा उस घर में रहता तो है मगर भावना की नफरत और उपेक्षा के साथ।

मासूम, फिल्म दीवार घड़ी की सुइयों की ध्वनि की तरह ठहरती-चलती है। रिंकी और मिनी की दोस्ती राहुल से हो गयी है, मल्होत्रा, भावना के राहुल के साथ सलूक पर हमेशा व्यथित होता है। क्लायमेक्स में कहानी ऐसे कगार पर पहुँचती है जहाँ मल्होत्रा राहुल को बोर्डिंग स्कूल के लिए रेल पर छोडऩे जा रहा है। यहाँ एक पल की घटना में राहुल अचानक गायब है। मल्होत्रा सब तरफ ढूँढ़ता है, रेल चली जाती है, रुआँसा वह अपनी कार के पास लौटता है तो देखता है कि कार में भावना, रिंकी, मिनी और राहुल के साथ बैठी है, मल्होत्रा से कहती है, घर चलो.. .. ..।

मासूम की खूबी उसके किरदार हैं, जिन्हें शेखर कपूर ने बड़ी सावधानी से गढ़ा है। यह विषय बहुत संवेदनशील है, जिसे निबाहना किसी निर्देशक के लिए यों आसान नहीं है। नसीर पिता के रूप में, शाबाना सो-काल्ड छली गयी पत्नी के रूप में अपने किरदारों को बखूबी जीते हैं। फिल्म की हाई-लाइट जुगल हंसराज है, बहुत प्यारा, खूबसूरत और सचमुच मासूम। बहुत अच्छे दृश्य, बहुत अच्छे संवाद। गुलजार के गाने, तुझसे नाराज नहीं जिन्दगी हैरान हूँ मैं, लकड़ी की काठी काठी पे घोड़ा और हुजूर इस कदर भी न इतरा के चलिए, पंचम के संगीत में आज भी याद हैं।

2 टिप्‍पणियां:

कला रंग ने कहा…

Sunilji vakai vo film apne aap me ek misal hai.aapne yah samiksha likh ker un yaadon ko taza ker diya.

सुनील मिश्र ने कहा…

बबली जी, मुझे अपना लिखना सार्थक लगा, आभार।