सोमवार, 20 अक्तूबर 2014

माँ युद्ध से डरती है... नहीं माँ युद्ध करती है............



इस बार मैं सातवीं मंजिल से बाहर देख रहा था। बाहर देखते हुए मेरी जिज्ञासा उसी मन्दिर को देखने की हुई जिसे शायद पाँच-छः वर्ष पहले कुछ दिन रोज सुबह उठ कर देखा करता था और मन ही मन उस पूरे दिन के लिए प्रार्थना किया करता था। उस समय माँ श्वास की गम्भीर बीमारी के कारण इसी भवन के अस्पताल में दाखिल हुईं थीं। तब अस्पताल का नाम कुछ और था। दस-बारह दिन साँस थामे ही बीते थे जिसमें हर दिन अनिश्चय से भरा था। याद आता है, उस समय वह कागज साइन किया था जिसमें माँ को वेण्टिलेटर पर लेने से पहले का वचन पत्र था, यही कि अपने जोखिम पर उनकी चिकित्सा या प्राण रक्षा के लिए हम उन्हें इसके लिए सौंप रहे हैं। अपनी सबसे छोटी बहन की तरफ देखते हुए उस पर अपने साइन कर दिए थे। माँ की तबीयत का रोज ही तब कुछ अन्दाजा नहीं हो पाता था। तीसरे दिन की बात होगी जब अचानक उनकी तबीयत में गिरावट आयी और उनको देखने वाले डाॅक्टर यह कहते हुए लिफ्ट के अन्दर चले गये थे, कोई भी केजुअलिटी हो सकती है..............

मित्रों, शुभचिन्तकों का आना होता था अस्पताल में। वेण्टिलेटर पर हैं यह सुनकर सभी के चेहरे क्षण भर को स्थिर हो जाते। याद है, एक मित्र ने जरूर कहा था कि वेण्टिलेटर का मतलब बुरा ही नहीं है, इससे भी लोग ठीक होकर आते हैं। उन्होंने अपने किसी का उदाहरण भी दिया था। उन्हीं मित्र का अकेला विश्वास मुझे जरा-जरा सम्बल दिया करता। वास्तव में चमत्कार ही था जब छठवें-सातवें दिन उनकी तबीयत में सुधार हुआ और दस दिन बाद उन्हें अस्पताल से घर जाने दिया गया।

इस अवधि में मेरी रात गहन चिकित्सा इकाई के बाहर बारामदे में कुर्सी पर जागते-सोते बीतती। छोटी डाॅक्टर बहन मम्मी के पलंग के पास कुर्सी पर आँखें खोले रात भर बैठी रहा करती। उस वक्त सुबह का उजास और खिड़की के बाहर उस मन्दिर को दूर पहाड़ी पर देखना, भरी आँखों से अपना आवेदन करना सब कुछ ज्यों का त्यों याद रहा.................अस्पताल से मम्मी को छुट्टी मिलने के बाद फिर उस मन्दिर का रास्ता तलाशते हुए ऊपर पहाड़ी पर गया भी था।

इन कुछ वर्षों के बाद अभी फिर उसी दिशा के प्रायवेट रूम में मम्मी को लेकर आते हुए खिड़की के बाहर आँखों ने उसी मन्दिर को ढूँढ़ना शुरू किया। इस बार मम्मी की एक सर्जरी होना थी। यह तकलीफ मम्मी को साल भर से थी लेकिन किसी को उन्होंने बताया नहीं। बाद में जब दर्द असहनीय हुआ तो घर में बहनों को मालूम हुआ मगर इस हिदायत के साथ कि मुझे न मालूम पड़े। लेकिन ज्यादा दिनों तक उनकी तरफ से यह छुपा नहीं रहा। जब बताया गया तो मैं हतप्रभ था। गम्भीर बीमारी थी और सर्जरी तत्काल निदान के लिए की जानी थी। अनेक परीक्षणों के बाद सर्जरी की जाना सुनिश्चित हुआ। यही भवन अस्पताल का लेकिन इस बार अस्पताल का नाम बदला हुआ था और अस्पताल भी अत्यन्त आधुनिक और आज की जरूरतों के मुताबिक।

मम्मी, मुझ जैसे पचास वर्षीय व्यक्ति की, समझ लो उम्र, अपने समय की सख्त टीचर। छात्रों से लेकर हम बच्चों को भी एक ही तरह के थप्पड़ से मारने वालीं। सर्जरी के लिए बमुश्किल राजी हुईं, अनेक बहानों और असहयोग की दृष्टि से डराने वाली बातों के बाद। माँ तो माँ है, हम सबकी माँ की तरह। उनका अपना जीवन, परिवेश, स्वभाव और भी तमाम चीजें, किसी से क्या डर! मम्मी भी, सबसे खूब बातचीत। नर्स से लेकर डाॅक्टर तक सभी से न जाने कितनी बातें। डाॅक्टर भी भले और सहिष्णु जो अम्मा जी की सब बातों पर हाँ करते। बाद में पता चला कि लोकल एनेस्थीसिया के प्रभाव में भी खूब बतकहाव करते हुए अपनी सर्जरी करवायी। हम लोग बाहर सहमे खड़े रहे। एक के बजाय चार घण्टा लगा लेकिन अन्दर से मुस्कुराती हुई आयीं। उनकी मुस्कुराहट हम तक आते-आते हमारी आँखों के आँसू बन गयी।

उन्हें छुट्टी अगले दिन मिल जाती लेकिन श्वास की आदर्श गणितीय संख्या अपेक्षा से ज्यादा कम थी इसलिए दो दिन ज्यादा लगे। बहरहाल पाँचवें दिन उन्हंे घर ला सके। अस्पताल के दरवाजे से प्रायवेट रूम तक जाना, अस्पताल के भीतर अनेक कमरों में जाँच के लिए ले जाना और फिर बाहर आने का काम व्हील चेयर पर ही होता था। माँ इस प्रक्रिया में अस्पाताल के सहायकों को मना कर देतीं, बेटा तुम रहने दो, ये काम हमारा लड़का ही कर पायेगा। उनकी बीमारी को लेकर घोर चिन्ता के बावजूद उनका यह विश्वास मुझे थोड़ा हँसा देता। मेरे बैठाने, पैर को फुट रेस्ट पर व्यवस्थित जमाने और व्हील चेयर लेकर चलने पर उनकी आश्वस्ति मुझे भी आश्वस्त करती....................माँ घर में हैं, फिर से अपनी क्षमताओं को जुटाती हुईं, धीरे-धीरे और ठीक होती हुईं।

अपने मित्रों की हर पल मेरे साथ बनी रहने वाली फिक्र का क्या कहूँ क्योंकि औपचारिक शब्द ऐसी आत्मीयता के आगे एक तोला बराबर भी नहीं हैं लेकिन इस पूरे समय में अपने सारे मित्रों को हर पल मैंने अपने पास, अपने साथ महसूस किया। अपने दायित्व बोध में उनकी चिन्ता भी हिम्मत बनकर मेरे साथ थी। माँ की कुशलक्षेम उनको बतलाते हुए उनके इतने जुड़ाव और अपनेपन से जो क्षमताएँ मैंने पायीं, उनको कहकर व्यक्त कर पाना मेरे वश का नहीं है..............