मंगलवार, 30 नवंबर 2010

साल के आखिरी माह का सिनेमा

साल के बारह महीनों में जो रुतबा जनवरी को हासिल होता है वह दिसम्बर को नहीं होता। खासतौर से सिनेमा में पूरा साल तमाम तीज-त्यौहारों के साथ-साथ विभिन्न मौसमों के अनुकूल सिनेमा सेलीब्रेशन के सिद्धान्त, मीडिया सलाहकार अपने निर्देशक-निर्माता को बनाकर देते हैं मगर उनमें से कुछ ही कारगर रहते हैं, शेष अपने परिणामों के माध्यम से अपनी विफलता को सिद्ध करने में कोई लाग-लपेट नहीं दिखाते। दरअसल दर्शक का मारा सिनेमा बड़ी दुर्दशा को प्राप्त होता है।

अब सिनेमा लम्बे समय तक सिनेमाघर में रस्में निभाने वाली चीज नहीं है। पिछले पन्द्रह-बीस सालों में हमारे पास इस तरह का सिनेमा भी नहीं है जिसकी हैसियत चार शो तो दूर, तीन या एक शो में भी नजर आये। मल्टीप्लेक्स में विभिन्न तरहों से एक साथ तीन-चार प्रदर्शित होने वाली फिल्मों का आकल्पन किया जाता है मगर उसका कोई विशेष लाभ दिखायी नहीं देता।

जिस तरह बीस-पच्चीस साल पहले निरन्तर चलने वाली फिल्म के चार से तीन शो में आने पर दोपहर के शो में एक फिल्म अपने ही ढंग के आकर्षण की लगायी जाती थी। वह भी एक से अधिक बार आकर मुनाफा दे जाती थी। अब ऐसा सौभाग्य नयी फिल्मों को भी बमुश्किल ही मिल पाता है। नवम्बर के महीने में भव्य किस्म के सिनेमा की आतिशबाजियाँ आकाश में बिखकर ध्वस्त हो चुकी हैं। तमाम फ्लॉप हैं मगर बाजार रिपोर्ट उनके बाजार के स्तर तक ही सफल हो जाने की भी है।

गोलमाल थ्री बनाने वाले निर्माता ने भी इस बात के लिए चैन की साँस ली है कि न केवल खर्चा पूरा हो गया बल्कि मुनाफा भी मिल गया। दबंग के अपने किस्म के जैकपॉट रहे। बेटे अरबाज की इस फिल्म को पिता सलीम ने कई क्षेत्रों में खुद डिस्ट्रीब्यूट किया और इस तरह परिवार में पच्चीस करोड़ की अतिरिक्त आय हुई। पिता का ऐसा समर्थन पूरे परिवार के लिए खुशी का मौसम बन गया। अन्य स्वाभाविक मुनाफे जो थे, सो थे ही।

दिसम्बर माह में अब क्या होने वाला है, लगता नहीं कि बहुत खास होने वाला है। हाँ, बहुत गुंजाइश इस बात की है कि हमें आशुतोष गोवारीकर के निर्देशन में खेलें हम जी जान से के रूप में एक बहुत प्रभावी फिल्म देखने को मिले। यह बात अलग है कि उसको व्यावसायिक सफलता उस तरह की न मिले। इसके अलावा नो प्रॉब्लम, बैण्ड बाजा बारात, तीस मार खाँ और टूनपुर का सुपरहीरो फिल्में जाते हुए साल के आखिरी माह की मेहमान हैं।

इन फिल्मों में बैण्ड बाजा बारात, यशराज कैम्प की फिल्म होने के बावजूद समृद्ध सितारों की फिल्म नहीं है, फिर भी उसको एक मनोरंजक फिल्म के रूप में और दूसरी फिल्मों से अधिक पसन्द किया जा सकता है। अक्षय कुमार की तीस मार खाँ और अजय देवगन की टूनपुर का सुपरहीरो के दर्शक कोई अतिरिक्त-शेष-विशेष होंगे, इसका भी कोई भरोसा नहीं है।

सोमवार, 29 नवंबर 2010

हास्य : स्तरीयता-निम्रस्तरीयता

टेलीविजन पर रोज ही कहीं न कहीं, किसी न किसी चैनल पर हास्य के शो चल रहे होते हैं। स्तर इतना घटिया हो गया है कि बहुत से संजीदा और तहजीब वाले लोगों के लिए यह बर्दाश्त के बाहर हो गया है मगर एक घर में कई मिजाज और आदत के लोग रहते हैं। जरूरी नहीं कि सभी के लिए यह बर्दाश्त के बाहर हो। बहुधा लोगों के लिए यह सदैव आनंद का विषय रहता है। बहुधा इसे मगन होकर देखते भी हैं जब उन्हें फिल्मों की एक फ्लॉप अभिनेत्री दहाड़ें मारकर निरर्थक तेज-तेज आवाज के साथ हँसते हुए दिखायी देती है। उसके आसपास बैठे बीते कल के बड़बोले सितारे अपेक्षाकृत अत्यधिक मुलायम आवाज में हँसते ताल-संगत करते नजर आते हैं।

एक पूरी की पूरी पीढ़ी है जिसमें सभी ऐसे लगभग पुराने कलाकारों के सिर पर अब उगाये हुए बालों का झुरमुट सामने लटका नजर आता है। यथार्थ से यह विफल लड़ाई भी करने से भला कौन बाज आता है, वरना बाल सफेद हो रहे हों तो होने दिया जाये, जा रहे हों तो जाने दिया जाये मगर उम्र के साथ शरीर से खर्च होती स्वाभाविक स्थितियों से भी सिनेमा के लोग तो खैर परदे पर अपनी छबि के कारण समझौता नहीं कर पाते और समाज के लोग अपनी हीरोशिप की वजह से स्वीकार नहीं पाते। चार लोगों के बीच भी हीरो दिखना होता है, भले ही हारा हुआ क्यों न हो। बहरहाल यही हाल पर्सनैलिटी के घटते प्रभाव का भी है। यह वह परम दशा है जब बढ़ती उम्र में भी घटियापन दिखाने और देखने में हा..हा..कार करने में मजा आता है। जनता के बीच मंच के हास्य कवि सम्मेलनों में भी घटियापन जमकर उघडऩर्तन करता है मगर क्या प्रभाव है कि सब हँसते हैं, अपनी हँसाई से भी और जगहँसाई से भी। टेलीविजन में ऐसे शो सरकस और इसी तर्ज के मुकाबले-महामुकाबले की शक्ल में खूब नजर आते हैं।

समाचार चैनलों के पास समाचार दोहराने-तिहराने और चोरहाने के बाद भी इतना समय बच जाता है कि वह इन चैनलों के ऐसे निम्रस्तरीय कार्यक्रमों की झलकियों में आधा-आधा घंटा निकाल दिया करता है। इन सबके मामले में सबके एक जैसे मापदण्ड हैं जिसका कुछ नहीं किया जा सकता। सभी चीजों का मूल्य निर्धारित है, मुफ्त में कोई कुछ नहीं करता है, बाजार की कीमत में सब घटित होता है, घटियापन से ही सही। अभी एक दिन एक ऐसे ही किसी कार्यक्रम में एक मसखरा देह के विभाजन प्रदेशों के आधार पर कर रहा था। जाहिर है, घटियापन चेहरे से टपक रहा था। उसके इस तमाशे पर ताल देने वाले और अच्छे नम्बर देने वाले भी शामिल थे।

देश की शासन व्यवस्था और चीजों को नियंत्रित करने वालों के लिए फिलहाज राखी का इंसाफ और बिग बॉस पर ही लगाम कसना मुश्किल हो रहा है, पता नहीं घटिया कॉमेडी शो के मामले में कब ये लोग चेतेंगे?

शनिवार, 27 नवंबर 2010

मृणाल सेन की भुवनशोम

रविवार, भारतीय सिनेमा की एक महत्वपूर्ण फिल्म पर चर्चा करने की परम्परा में मृणाल सेन की 1969 में आयी एक महत्वपूर्ण फिल्म भुवनशोम बड़ी प्रासंगिक लगती है। इकतालीस साल पहले यह श्वेत-श्याम फिल्म प्रदर्शित हुई थी। मृणाल सेन बंगला सिनेमा के एक उत्कृष्ट फिल्मकार हैं। इस फिल्म के माध्यम से हिन्दी में नये सिनेमा के आन्दोलन की एक तरह से शुरूआत हुई।

मृणाल सेन ने बहुत सी किताबें भी लिखीं, अपने अनुभवों को लिखकर बाँटने का उनका गहरा शौक रहा है। एक जगह उन्होंने यह बात लिखी है कि एक बार वे मुम्बई में टैक्सी करके एक स्थान से दूसरे स्थान पर गये तो उतरते वक्त टैक्सी ड्रायवर ने उनसे पैसे नहीं लिए, यह कहते हुए कि सर, मैं आपको जानता हूँ, आप भुवनशोम फिल्म के निर्देशक हैं।

भुवनशोम, फिल्म के मुख्य किरदार का नाम है जो विधुर है और एकाकी। वह ब्यूरोक्रेट है, एक अधिकारी। जीवन में अकेलेपन ने उसको जिद्दी, अख्खड़ और झक्की बना दिया है। वह अपने स्वभाव को संवेदनारहित व्यवहार के साथ जीता है। गल्तियाँ, बुराइयाँ, भ्रष्ट आचरण उसे बर्दाश्त नहीं। तुरन्त दण्डित करने में देर नहीं करता। मगर आसपास के परिवेश को सुधारना इतनी सख्ती के बावजूद उसके बस का नहीं। अपने अधीनस्थ को मुअत्तिल करने में वो देर नहीं करता। एक अजीब सी दुनिया उसके आसपास है जिसमें उसकी उपस्थिति झुंझलाहट से भरी है, हर वक्त।

एक दिन वो इस सारे माहौल से त्रस्त होकर कुछ दिनों के लिए अपनी बन्दूक लेकर शिकार के लिए सुदूर रेतीले स्थान की तरफ निकल जाता है। वहाँ उसे एक युवती गौरी मिलती है जिस पर भुवन शोम का कोई डर या आतंक नहीं। जिद्दी भुवन अपने समय को शान्ति और सहज बनाने के लिए भटकता है, गौरी से उसका बार-बार सामना होता है। गौरी, इस आदमी की झक्क और वृत्ति में अपनी सहज चंचलता और निस्पृह उपस्थिति से जगह बनाती है। आखिर, छुट्टियाँ खत्म हो गयीं और भुवन शोम की वापसी है। उनको लगता है कि कुछ छूट रहा है। व्यंग्य से हँसकर वो सूचित करते हैं कि बड़े स्टेशन पर उनका तबादला हो गया है। बड़ा स्टेशन यानी कमाई की जगह।

भुवनशोम निर्देशक और नायक की फिल्म है जिसमें नायिका की उपस्थिति लगभग ऐसे कन्ट्रास्ट की तरह है जो कहानी को दिलचस्प गति देने का काम करती है। सुहासिनी मुले ने गौरी के इस किरदार को आंचलिक सहजता के साथ निभाया है। साधु मेहर, एक बेईमान अधीनस्थ के किरदार में हैं, छोटा रोल है मगर रोचक है। दरअसल यह फिल्म बड़ी व्यापकता के साथ उत्पल दत्त की क्षमताओं को गहरे प्रभावों के साथ स्थापित करती है। एक श्रेष्ठ निर्देशक और एक श्रेष्ठ अभिनेता मिलकर परदे पर क्या सर्वश्रेष्ठ सृजित करते हैं, यह भुवनशोम देखकर ज्ञान होता है।

के.के. महाजन की सिनेमेटोग्राफी कच्छ के रेतीले सौन्दर्य को बखूबी चित्रित करती है। भुवनशोम के निशाना लगाने, चूकने और गौरी के निश्छल उपहास के दृश्य संवाद याद रह जाते हैं। कहा जाता है कि इस फिल्म में अपने स्वर से प्रस्तुतिकरण करते हुए अमिताभ बच्चन को तीन सौ रुपए का पारिश्रमिक मिला था।

शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

विवाद और फिल्म समारोह की एकचाल

फिल्म समारोहों के साथ विवादों का गहरा रिश्ता है। शायद ही कोई साल ऐसा जाता हो जब सरकारी फिल्म समारोह को किसी न किसी प्रकार की आलोचना का सामना न करना पड़ता हो। दरअसल सरकारी समारोहों में अब फिल्म से जुड़े सक्रिय लोगों ने रुचि लेना बन्द कर दिया है इसीलिए आयोजक खाली बैठे बीते कल के कुछ सामान्य से परिचित किस्म के चेहरों के साथ अपनी गतिविधियों की खानापूर्ति करते हैं और जैसे-तैसे समारोह को एक मुलम्मा देकर समाज के सामने पेश कर देते हैं। समारोहों में चयन किया हुआ ही दिखाया जाता है, चयन किस आधार पर किया गया, किस आधार पर श्रेष्ठ का आकलन किया गया, किस पूर्वाग्रह-दुराग्रह पर श्रेष्ठ होते हुए भी श्रेष्ठ को दरकिनार कर दिया गया, इस बात का कोई आधारभूत तर्क भी नजर नहीं आता।

किसी समय फिल्म समारोहों में श्रेष्ठता का चयन, उसका मानक और आकलन का अपना स्तर हुआ करता था। हालाँकि और जैसा कि जिक्र शुरू में हुआ, विवाद तब भी हुआ करते थे मगर बहुत से लोग चयनित सिनेमा को परदे पर देखते हुए उसकी श्रेष्ठता से सहमत भी होते थे। शीर्ष फिल्मकारों की भागीदारी लगभग कर साल होती थी। दक्षिण के चारों राज्यों, उड़ीसा, असम, पश्चिम बंगाल से अच्छी फिल्में देखने वालों तक पहुँचा करती थीं। उन फिल्मों के प्रदर्शन वक्त-वक्त पर दूरदर्शन भी करने में रुचि लेता था मगर बाद में यह सब होना बन्द हो गया।

गोवा में समारोह भेजकर एक अच्छे उपक्रम को एक तरह से काला पानी दे दिया गया है। पिछले चार-पाँच सालों से मुम्बई फिल्म जगत में आज के अपने फुरसत के वक्त हो अपनी बीते कल की पहचान से लाभ लेते हुए सरकारी समर्थन और अवसरों को तलाश करते हुए पर्सनैलिटियाँ इन समारोह में हैलो-हाय करती दिखायी देने लगी हैं।

अब इस बात की उत्सुकता नहीं रह जाती कि फिल्म समारोह का शुभारम्भ किस बड़ी फिल्म हस्ती की उपस्थिति में होगा, इस बात का आकर्षण भी नहीं रह गया कि मुख्य अतिथि को दीप जलाने में कौन सी बड़ी और गरिमामयी अभिनेत्री सहयोग करेगी। यश चोपड़ा ने व्यथित होकर इस बार के फिल्म समारोह में यह बात कह दी है कि गोवा अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह के लायक नहीं है।

यहाँ एक अच्छा कन्वेन्शन हॉल नहीं है, जिस तरह से आज के समय की मांग है, बारह स्क्रीन का सिनेमाघर आज तक गोवा में बन नहीं पाया जबकि लगभग एक दशक होता आ रहा है, समारोह यहाँ आये हुए। इसके विपरीत पुणे और मुम्बई में संस्थाएँ अपने संसाधनों से ज्यादा उत्कृष्ट और अच्छे फिल्म समारोह आयोजित कर पाती हैं। पण्डित जवाहरलाल नेहरु की रुचि पर जो फिल्म समारोह लगभग छ: दशक पहले 1952 में प्रारम्भ हुआ था, वह जितनी आलोचनात्मक प्रतिक्रि याओं का शिकार हो रहा है, वह दुखद है।

फाल्के अवार्ड सम्मानितों की दुर्लभ प्रदर्शनी

सरकारी संस्थाएँ कई बार अपनी सार्थकता को भूलकर बड़ी दूर उद्देश्यों के स्मृति-लोप में अक्सर चली जाया करती हैं। जिन कामों को लेकर उनकी स्थापना हुई है, वह किस तरह से कितना किया गया इसको लेकर अक्सर आलोचनाएँ और बहसें चला करती हैं। कान में बाजा चाहे जितना बजाओ, कई बार फर्क नहीं पड़ता मगर कई बार कुछ ऐसा काम भी दिखायी दे जाता है, जो एक अलग पहचान स्थापित करता है। भारत सरकार के पुणे स्थित राष्ट्रीय फिल्म अभिलेखागार ने एक बहुत महत्वपूर्ण प्रदर्शनी उन फिल्मकारों पर तैयार की है जिन्हें अब तक दादा साहब फाल्के पुरस्कारों से नवाजा गया है।

दादा साहब फाल्के भारतीय सिनेमा के पितामह थे जिन्होंने अपनी असाधारण जिजीविषा और संघर्ष के साथ सिनेमा का स्वप्र केवल देखा ही नहीं था बल्कि साकार भी किया था। उन्होंने ही भारत की पहली फिल्म राजा हरिश्चन्द्र 1913 में बनायी थी। सिनेमा का जन्म ही उनके सिनेमा से हुआ था इसीलिए आने वाला 2013 का साल सिनेमा की शताब्दी का साल होगा। यह महत्वपूर्ण है कि फिल्म जगत आज भी तमाम भटकाव के बावजूद अपने पितामह को भूला नहीं है, वक्त-वक्त पर रस्मी तौर पर ही सही उनको याद कर लिया करता है। भारत सरकार ने एक बड़ी पहल दादा साहब फाल्के के नाम पर एक बड़ा पुरस्कार स्थापित करके की थी। यह पुरस्कार फिल्मकार को उनके जीवनपर्यन्त असाधारण और उत्कृष्ट सृजन के लिए प्रदान किया जाता है।

पुरस्कार की स्थापना 1969 में की गयी थी और पहला पुरस्कार फस्र्ट लेडी ऑव सिल्वर स्क्रीन देविका रानी को प्रदान किया गया था। तब से अब तक यह पुरस्कार पृथ्वीराज कपूर, कानन देवी, नितिन बोस, रायचन्द बोराल, सोहराब मोदी, जयराज, नौशाद, दुर्गा खोटे, सत्यजित रे, व्ही. शान्ताराम, राजकपूर, अशोक कुमार, लता मंगेशकर, भालजी पेंढारकर, दिलीप कुमार, शिवाजी गणेशन, कवि प्रदीप, बी.आर. चोपड़ा, हृषिकेश मुखर्जी, आशा भोसले, यश चोपड़ा, देव आनंद, मृणाल सेन, अडूर गोपालकृष्णन, श्याम बेनेगल, तपन सिन्हा, व्ही.के. मूर्ति, मन्नाडे और डी. रामानायडू आदि को प्रदान किया जा चुका है।

इस सम्मान से अब तक सम्मानित होने वाले सभी फिल्मकार, कलाकार और खासतौर पर स्वर्गीय गुरुदत्त की फिल्मों का छायांकन करने वाले व्ही.के. मूर्ति जैसे लोग भारतीय सिनेमा के आधार स्तम्भ हैं। सौ साल के सिनेमा का जब भी मूल्याँकन और आकलन होगा, ऐसी विभूतियों के नाम सर्वोपरि होंगे। ऐसे सम्मानितों की एक प्रदर्शनी की परिकल्पना वास्तव में एक सराहनीय आयाम है जिसके लिए राष्ट्रीय फिल्म अभिलेखागार को बधाई दी जाना चाहिए।

अभिलेखागार ने यह प्रदर्शनी गोवा में आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में प्रदर्शित की है जिसे काफी सराहा गया है। राष्ट्रीय फिल्म अभिलेखागार को चाहिए कि यह प्रदर्शनी उसके गोदाम में ही सिमटकर न रह जाये। बेहतर होगा कि इसे वे देश के अनेक स्थानों तक ले जाएँ। अभिलेखागार इस प्रदर्शनी को अलबम स्वरूप में भी प्रकाशित कर व्यापक कर सकता है।

मंगलवार, 23 नवंबर 2010

दया, हमदर्दी और लाचारी के कथानक

संजय लीला भंसाली की फिल्म गुजारिश को लेकर अब मिश्रित प्रतिक्रियाएँ सामने आने लगी हैं। फौरी तौर पर तत्काल समीक्षा लिखने में माहिर आलोचकों में से कुछ ने इसे दो-ढाई सितारों तक सीमित रखा तो कुछ ने अपनी जेब का क्या जाता है, सोचकर तीन से चार सितारे भी दिए मगर संजीदगी से सिनेमा की परख करने वालों को अन्तत: लगा कि यह अधिकतम तीन सितारा पाने वाली फिल्म है जिसमें खूबियों और खामियों का अनुपात साठ-चालीस का है। एक प्रबुद्ध निर्देशक कुछ विदेशी फिल्मों से प्रेरणा लेकर यथासम्भव अच्छी फिल्म बनाने में सफल हो पाता है। संजय लीला भंसाली के साथ भी ऐसा ही है।

हमारे यहाँ अंग्रेजी में इन्स्पाइरेशन जैसा शब्द पकड़े जाने पर हाथ से आँख मूँदकर समर्पण की मुद्रा में आने का सबसे अच्छा हथियार है। बहुत से फिल्मकार जो मौलिकता पर दिमाग लगाना नहीं चाहते, बहुत सारे अच्छे विषय विदेशी फिल्मों से हासिल कर लेते हैं। गुजारिश भी विदेशी फिल्म द सी इनसाइड और प्रेस्टीज की खूबियों को खींचने वाली फिल्म है। इस टिप्पणी के साथ प्रकाशित चित्र स्पेनिश फिल्म द सी इनसाइड का है। वास्तव में जो फिल्में निर्देशक को प्रेरणा देती हैं, जिनके दृश्यों को सीधे-सीधे इस्तेमाल कर लिया जाता है, उनको बहादुरी से स्वीकार कर फिल्मकार अपनी जगह और बेहतर कर सकता है मगर हिन्दुस्तान में ऐसा कम होता है।

गुजारिश जैसे विषय हिन्दी सिनेमा में कई बार विभिन्न तरह से उठाये गये हैं। भंसाली खुद ब्लैक भी बना चुके हैं जो एक विदेशी फिल्म की बहुधा नकल थी। वक्त-वक्त पर कोशिश, शोर, राव साहेब, आनंद, मिली, तारे जमीं पर, माय नेम इज खान आदि बहुत सी फिल्में बनी हैं मगर तकलीफें अपने नितान्त समस्यावादी दृष्टिकोण से बढ़ते हुए एक चरम विषाद तक पहुँचकर दर्शकों की सिनेमाघर में एक बार आँखें नम कर सकती हैं, जेब और पर्स से पुरुष-स्त्री अपने रूमाल निकालकर आँसू पोछ सकते हैं मगर जिस तरह का अवसाद लेकर घर जाते हैं वह फिल्म के पक्ष में कोई भी वातावरण बनाने में कामयाब नहीं होता।

गुजारिश एक ऐसी फिल्म है जिसके अन्त में आप अपने-अपने हिस्से और समझ का अन्त लेकर घर जाते हैं। भारतीय सिनेमा में हितिक रोशन की जो नायक छबि है, वो ऐसे लाचार और असमर्थ किरदारों में कोई बेहतर सफलता हासिल नहीं कर सकती लिहाजा, काम की भरपूर सराहना के बावजूद, कई बड़े पुरस्कारों की दावेदारी और हासिली की सम्भावना के बावजूद नायक के लिए गुजारिश का बहुत महत्व नहीं रह जाता। दर्शकों को हमारे फिल्मकार बहुत सारे ट्रेक पर ले जाने का विफल प्रयास करते हैं।

हमारे देश में अच्छे और निर्बाध सफर के लिए फोर लेन से लेकर और आगे तक की सडक़ें बन गयी हैं मगर सिनेमा में मनोरंजन और सार्थकता के लिहाज से अभी भी ऐसा कोई मार्ग नहीं खोजा जा सका है, जहाँ से दर्शक अपनी जेब के खर्च किए पैसे से मनोरंजन के नाम पर परम सन्तोष प्राप्त कर सके। वो अभी भी कई बार ठगा सा खड़ा रह जाता है।

सोमवार, 22 नवंबर 2010

गोवा में बिना ध्वनि का फिल्म समारोह

अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह का रस्मी आगाज हर साल की तरह इस साल भी 22 नवम्बर से हो गया है। गोवा में पिछले कई वर्षों से सिमट कर रह गये इस फिल्म समारोह में बॉलीवुड की गहरी छाया भी कुछ सालों से व्याप्त हो गयी है। एक वक्त वो भी था जब इस समारोह को व्यापक रूप से आकर्षण हासिल था। एक साल यह समारोह दिल्ली में हुआ करता था, उसके अगले साल देश के किसी मेजबान राज्य में। इस तरह से हर दूसरे साल दिल्ली में यह समारोह लौटता था। इस श्रृंखला के कारण इस समारोह को लोकप्रियता और भागीदारी दोनों स्तर पर महत्वपूर्ण माना जाता था।

हालाँकि एक दशक पहले से भी पहले के इस समय में प्राय: हर साल यह समारोह किसी न किसी कारण से विवाद का हिस्सा भी बनता था। फिल्मकार समारोह से नाराज रहने के बावजूद इसमें शामिल होते थे। अपर्णा सेन और अमोल पालेकर जैसे कलाकार-निर्देशक तो आयोजन स्थल पर ही समारोह के स्तर, व्यवस्था और चयन को लेकर प्रतिवाद किया करते थे। लेकिन धीरे-धीरे ऐसे विरोध भी थम गये और आयोजक फिल्म समारोह निदेशालय ने भी उन उम्मीदों और अपेक्षाओं को पूरा करने पर कभी गम्भीरता से विचार नहीं किया, जो लाजमी भी हुआ करती थीं।

प्रतिक्रियाहीन यह उपक्रम एक बार गोवा चले जाने और वहीं नींव खोदकर स्थापित कर दिए जाने के बाद और भी बैठ सा गया। बाद के सालों में ऐसी स्थिति आयी कि यह समारोह आम चर्चाओं के दायरे से भी बाहर चला गया। फिल्मों के चयन को लेकर सार्थक मापदण्डों का निर्धारण सही तरीके से नहीं हो पाता रहा।

जूरी सर्वोपरि होती है मगर उस जूरी में वे फिल्मकार शामिल होने लगे जिनका खुद का सार्थक काम कभी चर्चा का विषय नहीं रहा। खाली बैठे निर्देशक और कलाकारों की समितियाँ फिल्में चयन करने लगीं और धीरे-धीरे इस समारोह में जिनकी भी रुचि पहले हुआ करती थी, वो भी समाप्त हो गयी। इस बार भी 22 नवम्बर से यह समारोह शुरू हो रहा है जो 2 दिसम्बर तक चलेगा।

इण्डियन पैनोरमा की फिल्मों को दिखाये जाने की शुरूआत 23 नवम्बर से होगी। इस बार एन. चन्द्रा की अध्यक्षता वाली फीचर फिल्मों की दस सदस्यीय जूरी ने बीस दिनों में एक सौ चालीस फिल्में देखकर भारतीय पैनोरमा के लिए छब्बीस फिल्मों का चयन किया वहीं सिद्धार्थ काक की नॉन-फीचर फिल्मों की पाँच सदस्यीय जूरी ने पाँच दिनों में सन्त्यावने फिल्में देखकर उन्नीस फिल्में चुनीं जो इस बार के समारोह में दिखायी जायेंगी।

फीचर फिल्मों में एक तरफ थ्र्री ईडियट्स, रावण, तेरे बिन लादेन, आय एम कलाम और वकअप सिड जैसी हिन्दी फिल्में शामिल हैं वहीं भारतीय भाषाओं की फिल्मों में रितुपर्णाे घोष, गौतम घोष, गिरीश कासरवल्ली, सुधांशु मोहन साहू निर्देशित फिल्में चयनित हैं। अचरज है, बाजार से में आकर चैनलों पर जिन फिल्मों का प्रीमियर हो चुका, वे फिल्में समारोह का हिस्सा हैं। हैरत है कि राष्ट्रीय स्तर का फिल्म समारोह अब इस दशा पर आ पहुँचा है और औपचारिकता की पराकाष्ठा पर है।

रविवार, 21 नवंबर 2010

दहेज, साठ साल पहले

व्ही. शान्ताराम बीसवीं सदी के ऐसे महत्वपूर्ण फिल्मकार थे जिन्होंने सामाजिक प्रतिबद्धतापूर्ण फिल्मों का निर्माण अपने समय में बड़े साहस के साथ किया। दो आँखें बारह हाथ, पड़ोसी, डॉ. कोटनीस की अमर कहानी और दहेज जैसी श्रेष्ठ फिल्में उनके सरोकारों का सशक्त प्रमाण हैं। रविवार के दिन हम आज उनकी एक उल्लेखनीय फिल्म दहेज पर चर्चा करते हैं। भारतीय समाज की सबसे बड़ी सामाजिक बुराई दहेज को लेकर बाद में तो ड्रामा वेल्यू के हिसाब से बहुत सारी नाटकीय फिल्में बनीं मगर साठ साल पहले की दहेज नाम से ही शान्ताराम द्वारा बनायी गयी फिल्म इन सब तमाम फिल्मों में श्रेष्ठ और समय से कहीं ज्यादा आगे है।

दहेज फिल्म में पृथ्वीराज कपूर की मुख्य भूमिका थी। करण दीवान, जयश्री, उल्हास, केशवराव दाते, ललिता पवार फिल्म के दूसरे प्रमुख कलाकार थे। यह फिल्म एक युवती चन्दा और युवक सूरज की कहानी है जिनका विवाह, सूरज की लालची माँ और कुटिल रिश्तेदारों की वजह से जिन्दगी का सबसे बड़ा अभिशाप बन जाता है। सूरज की माँ दहेज में बहुत सारे सामान की अपेक्षा करती है और उसकी अन्तहीन मांग को पूरा कर पाना पिता के लिए असम्भव हो जाता है। चन्दा अपने कायर पति की वजह से सास के बड़े जुल्म सहती है और हर वक्त उसे इस बात के लिए साँसत में रहना होता है कि न जाने कब सास घर से तिरस्कार करके उसे बाहर कर दे और अपने बेटे का दूसरा विवाह कर दे।

चन्दा के आदर्शवादी पिता अपनी बेटी को मिलने वाली प्रताडऩा से भयभीत और चिन्तित, उसकी सास की इच्छा पूरी करने का भरसक प्रयत्न करते हैं। एक दिन वे बहुत बुरी तरह अपमानित और बेइज्जत होकर बेटी के ससुराल से लौटते हैं और अपना घर बेचकर बेटी के लिए तमाम सामान जुटाकर जब बेटी के ससुराल पहुँचते हैं तो वहाँ त्रासद घटना से सामना होता है। सास की मार से भयभीत बेटी ने अपने को एक कमरे में बन्द कर लिया है। सास दरवाजा तोडक़र बहू को मारने जाती है। दरवाजा टूटकर उस पर घिर जाता है और वह अपने पिता की गोद में दम तोड़ देती है।

फिल्म का अन्त अत्यन्त मार्मिक है। देखते हुए आँखें भीग जाती हैं। गोद में दम तोड़ती बेटी से पिता बिलखते हुए कहता है कि बेटी यह गरीब बाप तेरे लिए सब लेकर आया है। इस पर बेटी कहती है, पिताजी एक चीज देना भूल गये। पिता पूछता है, क्या बेटी? मरती हुई बेटी के आखिरी शब्द होते हैं, कफन। पिता के रूप में पृथ्वीराज कपूर ने मन को छू जाने वाला अभिनय किया है वहीं ललिता पवार ने निर्मम सास के रोल को अपने तेवर से सार्थक बनाया। जयश्री की भूमिका ही इस फिल्म को गहरी संवेदना प्रदान करती है।

दहेज, फिल्म का प्रभाव ऐसा हुआ था कि बिहार के विधायकों ने फिल्म के प्रदर्शनकाल में बड़ी प्रेरणा ग्रहण की थी और दहेजविरोधी बिल पास होने में भी इसका बड़ा योगदान माना जाता है। ऐसी सार्थक और झकझोरकर रख देने वाली फिल्मों को आज याद करना भी रोम सिहरा देता है।

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

बैण्ड, बाजा, बारात

देवोत्थान एकादशी से शादी-ब्याह के प्रतिबन्ध समाप्त हो गये हैं। एक बार फिर हमारे आसपास चारों तरफ सुबह एवं रातों को बैण्ड-बाजे पर बजती फिल्मी धुनें, नाच-गाना और मस्ती का आलम नजर आने वाला है। सर्दी का मौसम अच्छे खानपान का मौसम भी होता है लिहाजा उस दृष्टि से समय की अनुकूल है। शादी-ब्याह में खिलाए जाने वाले खाने की विविधाताएँ और समृद्ध झाँकी के भी नये-नये मौलिक आकल्पन और पेश करने के ढंग हर बार की तरह इस बार भी बदले होंगे। यह कम दिलचस्प नहीं है कि मनुष्य जीवन के प्रत्येक हिस्से से सिनेमा और खासकर सिनेमा का गीत-संगीत कितना गहरे जुड़ा रहता है। इसके बगैर जीवन में भला कहा रस या रंग दिखायी देता है।

दिसम्बर माह के पहले पखवाड़े में यश चोपड़ा के बैनर की एक फिल्म, बैण्ड बाजा बारात प्रदर्शित होने जा रही है। यह एक खूबसूरत कहानी है जिसमें आजकल के बदले चलन में जहाँ पैसा खर्च करके हर मुसीबत, औपचारिकता, जतन-प्रयत्न और जहमत से बचकर इन्स्टेन्ट अपेक्षाओं के बन चुके रिवाज को दिलचस्प ढंग से दर्शाया गया है। अनुष्का शर्मा, यश चोपड़ा कैम्प की फिल्म रब ने बना दी जोड़ी से परदे पर परिचित हुई थीं। इस बीच उनकी और कोई उल्लेखनीय फिल्म दिखायी नहीं दी। उनको परिचित कराने वाले कैम्प ने एक बार फिर उनको इस फिल्म के माध्यम से मौका दिया है। बैण्ड बाजा बारात में एक युवती और एक युवक शादी-ब्याह के काम को असाइनमेंट की तरह लेते हैं, हर काम आसान करके देते हैं और उसका पैसा लेते हैं।

अब हमारे संस्कारों में जिस तरह की व्यावसायिकता हावी हो गयी है, सारा का सारा फिल्मीकरण हो गया है, ऐसे में जो शेष चीजें खतरें में थीं वे सब भी नयी पीढ़ी ने अपनी तरह से लगभग रेडीमेड सी कर ली हैं। हालाँकि विवाह संस्कारों में भी ऐसे प्रोफेशनलिज्म का आना दूसरी तरह से अच्छा इसलिए लगता है कि इसके बहाने मांग पर ही सही व्यवस्था करने वाले पारम्परिक गीत-संगीत, पुराने जानकारों और पीढिय़ों-परम्पराओं से सीखकर आने वाले लोगों की तरफ जा रहे हैं। राजश्री और यशराज की फिल्मों की कहानी में विवाह अपने व्यापक और विस्तारित आयामों में एक घटनाक्रम, एक प्रसंग की तरह मुकम्मल भव्यता से घटित होने वाला दृश्य बनता है। गीत गाता चल, कभी-कभी, चांदनी, हम आपके हैं कौन आदि बहुत सी फिल्मों के नाम ऐसे वक्त में याद किए जा सकते हैं।

हम एक पूरा बड़ा समय बिसरा गये हैं जिसमें नानी, मौसी, बुआ और भाभियाँ तीज-त्यौहार की कथाएँ कहा करती थीं, बन्ना-बन्नी गाने में परिवार की महिलाओं को दक्षता हासिल होती थी, इसलिए क्योंकि उनको सिखाया जाता था। किस्म-किस्म के पकवानों की वे विशेषज्ञ होती थीं, उनके हाथों में स्वाद बसता था। अब तो सब कुछ बाजार से ले आया जाता है। हिन्दी फिल्मों में कभी-कभार जब ऐसे दृश्य लौटते हैं तो उन फिल्मों की याद दिलाते हैं। बैण्ड बाजा बारात आज के समय की फिल्म हो सकती है जो हमें सिनेमा और हमारी परम्पराओं में बहुत सारे छूटे और बिसरे वक्त को तरोताजा करने में पुनरावलोकन की तरह हो, देखना होगा।

बड़े घरानों की तैयारियाँ

लम्बे समय तक फिल्म निर्माण के बड़े घराने यदि चुपचाप बैठे रहें तो उनकी सक्रियता को लेकर न सिर्फ शक होता है बल्कि नाउम्मीदी भी बढ़ती चली जाती है। वास्तव में हानि-लाभ के ऐसे भयानक जोखिम, जैसे आज के समय में सिनेमा को लेकर, वैसे पहले बहुत कम देखने को मिले हैं। एक जमाना था जब बड़े सितारों की फिल्में चलते हुए भी आज की ताजा खबर और जंगल में मंगल टाइप की फिल्मों को सफलता और लाभ दोनों मिल जाया करते थे। इतना ही नहीं ऐसी फिल्मों के सितारों की भी अच्छी-खासी दाल-रोटी चल जाया करती थी मगर अब खतरे ज्यादा हो गये हैं।

पिछले कुछ समय से फिल्म निर्माण के बड़े घराने आज के तमाम जोखिमों का बारीकी से आकलन कर रहे हैं। कुछ घराने ऐसे हो गये हैं जिनके मुख्य फिल्मकार खुद फिल्में निर्देशित नहीं करते, दूसरे निर्देशकों को मौके देते हैं मगर मौकों के साथ खुद भी अपने हस्तक्षेप और निगरानियाँ बराबर रखते हैं। राकेश रोशन ने काइट्स के साथ ऐसी ही निगरानी रखी मगर अनुराग बासु क्या बना रहे हैं इस तह तक शायद वह नहीं पहुँच पाये। अब उन्हें अपने बेटे के लिए खुद फिल्म निर्देशित करने की तैयारी करना पड़ रही है। यश चोपड़ा भी अस्सी साल की उम्र में एक बार फिर तैयार हो रहे हैं। वीर-जारा उनका अनुभव बुरा नहीं था। अभी भी वे उत्साह और ऊर्जा से भरे हैं।

उनके बेटे आदित्य निर्देशक के रूप में और उदय अभिनेता के रूप में भले लम्बे समय से उल्लेखनीय न कर पा रहे हों मगर उनके मन में अच्छी कहानी, अच्छी फिल्म का जज्बा बरकरार है। वे नये साल में एक फिल्म शुरू कर रहे हैं। उम्मीदें अमिताभ बच्चन की भी हैं और शाहरुख खान की भी। यश चोपड़ा ही जानते हैं कि उनकी फिल्म की स्टार कास्ट क्या होगी। इधर उनके भतीजे, रवि चोपड़ा ने भी अगले साल बी.आर. फिल्म्स के बैनर पर अगली फिल्म बनाने की पहल शुरू कर दी है। बागवान निर्देशित करके रवि, अपने आत्मविश्वास को बनाए हुए हैं भले ही बाबुल ने उनको वह प्रतिसाद न दिया हो जिसकी उनको आशा थी। इधर शो-मैन सुभाष घई कैसे पीछे रहते।

अपना जन्मदिन, मुक्ता आर्ट्स की वर्षगाँठ सभी को जश्रपूर्वक मनाने वाले घई ने अपने बैनर पर एक साथ तीन फिल्में घोषित की हैं। इनमें से एक वे खुद निर्देशित कर रहे हैं, दूसरी फिल्म प्रियदर्शन को दी है और तीसरी फिल्म के लिए निर्देशक ढूँढा जा रहा है या कह लीजिए तय किया जा रहा है।

लक्ष्यों की राह और नया साल

अब जाते हुए साल पर सितारों का आकर्षण कम हो गया है। सभी को नये साल के अनुबन्धों की चिन्ता सताने लगी है। नया साल नये संकल्पों के साथ शुरू होता है। समयबद्ध ढंग से काम करने वाले फिल्मकार-कलाकार हर चीज सुनिश्चित रखते हैं। ट्रेड गाइड में हम देखते हैं कि निर्माता छ:-छ: महीने आगे तक की योजना बनाते हुए अपनी फिल्म का प्रदर्शन तय कर देते हैं। बहुत कम निर्माता ऐसे होते हैं कि घोषित किए गये समय पर अपनी फिल्म प्रदर्शित कर सकें। तयशुदा कार्यक्रम उनके होते हैं मगर व्यवधान अनेक स्तरों पर आते हैं। सबसे ज्यादा समस्याएँ हीरो और हीरोइनों की तारीख और उपलब्धता को लेकर होती है। कलाकारों को तभी तक मजा आता है जब तब तय शेड्यूल पर सारी चीजें होती रहें।

यदि निर्माता व्यावसायिक कारणों अथवा आर्थिक परिस्थितियों के चलते अपनी शूटिंग शेड्यूल में परिवर्तन करता है तो कलाकार को मुश्किलें होती हैं। कई बार कलाकार किसी खास प्रोजेक्ट पर अधिक रुचि लेकर, चलते हुए काम को प्रभावित करता है। ऐसे कई कारण होते हैं जिनके चलते फिल्में लेट हुआ करती हैं। इस समय अभिनेत्रियों में दीपिका पादुकोण, कैटरीना कैफ, करीना कपूर, प्रियंका चोपड़ा के नाम लगातार चलने वाले और मांग बरकरार रखने वाले कलाकारों में शामिल हैं। इसी तरह अभिनेताओं में सलमान खान, आमिर और शाहरुख एक-एक प्रोजेक्ट करने वाले कलाकार माने जाते हैं। ह्रितिक रोशन भी इनमें शुमार होते हैं। वे भी एक वक्त में एक ही फिल्म करना चाहते हैं। उनके अलावा अक्षय कुमार का समय अपने समकालीनों में अजय देवगन से अच्छा चल रहा है।

हालाँकि उनके प्रति अतिरिक्त मोह रखने वाले प्रकाश झा, राजकुमार सन्तोषी और रोहित शेट्टी जैसे निर्देशक उन्हें अपनी फिल्म में रिपीट करते रहते हैं पर और बेहतर स्थितियों में रणबीर कपूर और नील नितिन मुकेश को हम देखते हैं। आमिर खान के भांजे इमरान की गाड़ी धीमी ही चल रही है। इससे अलग इरफान खान सभी कलाकारों के बरक्स एक समानान्तर सक्रिय लकीर की तरह अपनी पूछ-परख बनाए रखते हैं। उनकी एक फिल्म पान सिंह तोमर की प्रतीक्षा की जा रही है। संजय दत्त भी आने वाले साल में दो-तीन फिल्मों के लिए अनुबन्धित हैं वहीं देओल परिवार को एक साथ यमला पगला दीवाना में देखा जा सकेगा।

इन कलाकारों में एक अभिनेत्री इस समय सबसे आगे आने वाले साल में अपनी फिल्मों को लेकर है, फिल्में क्या परिणाम देंगी वह तो आगे पता चलेगा मगर दीपिका पादुकोण को 2011 में एक साथ लगभग सात-आठ फिल्मों की शूटिंग करना है।

सोमवार, 15 नवंबर 2010

बदजुबानी लहजे का इन्साफ

विषय पर बड़ी सावधानी के साथ बात करने को जी चाहता है, खतरा यह भी लगता है कि आजकल के चलन में सब लोकप्रियता के नाम पर है, हादसे भी और विवाद भी सो पता नहीं अपना लिखा, अपना उठाया मुद्दा जमाने के हिसाब से कौन सी राह पकड़ ले मगर इस बात पर चुप रहना भी मूर्खता होगी, कि एक बदतमीज और अशिष्ट स्त्री अपनी परममूढ़ता के चरम पर इस सीमा तक जा सकती है कि उसकी बात से एक आदमी अपनी जान से भी हाथ धो बैठे।

राखी सावन्त के रूप में बात हम एक ऐसी युवती की कर रहे हैं जो पिछले वर्षों में सिर्फ इसलिए कामयाब होती चली गयी क्योंकि हर शहर में उसके नाच के शो एनवक्त पर अश£ीलता के खतरों और उनसे बरप उठने वाली अराजकता के डर से निरस्त किए जाते रहे। अनेक शहरों में उसे अपने भद्दे नाच और उससे खड़ी हो जाने वाली कानून-व्यवस्था की मुश्किलों को लेकर उल्टे पैरों वापस लौटना पड़ता था। दुर्भाग्य यह है कि राखी सावन्त इतने पर ही प्रसिद्ध होती चली गयी। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया उसके नाचने से लेकर नहीं नाचने और नहीं नाच पाने से उठी झल्लाहट तक को रसीली खबर बनाकर बेचता-दिखाता रहा। आखिरकार राखी सावन्त को कुछ चैनलों ने सीधे इस तरह मान्यता प्रदान की जैसे वह हमारे समय की सबसे बड़ी मीडिया महारानी हो। बड़े-बड़े रिपोर्टर भी उसकी स्तरहीनता को उफान देने में चुटकी बजाते हुए आगे आये।

चैनलों में उसके कार्यक्रम शुरू हुए, उसका स्वयंवर का अच्छा-खासा धारावाहिक चलता रहा। एक कदम आगे जाकर राखी का इन्साफ नाम का रीयलिटी शो एक चैनल ने शुरू कर दिया जिसमें कायिक और वाचिक परम्परा दोनों में ही लगभग अनावृत्त राखी सावन्त को देखते-बोलते घर बैठे दर्शक निहाल होते रहे। युवाओं और किशोर बच्चों को राखी की भदेस वाचालता में रस आने लगा और आखिर तार्किकता में अपढ़ और लगभग निरक्षर हीनवृत्ति को अपने मुँह से लगभग फेंकने वाली इस इन्साफकर्ता ने एक आदमी को मौत का रास्ता दिखा दिया। अब कानूनी परिस्थितियाँ बन रही हैं तो चैनल भी अपनी जवाबदारी से पल्ला झाड़ रहा है।

कुछ समय पहले तक एक शो हम किरण बेदी का देखते थे जिसकी अपनी मर्यादा और प्रासंगिकता नजर भी आती थी। किरण बेदी एक अनुभवी पुलिस प्रशासन और समाज सेवी हैं उनका अपना तरीका किसी भी बात को सुनने और समाधान प्रस्तुत करने का बिल्कुल अलग होता था लेकिन पता नहीं कैसे एक चैनल समाज की सेवा के लिए इन्साफ करने का दायित्व राखी सावन्त जैसी सदा निरर्थक और विफल कलाकार को देने पर अमादा हो गया और परिणाम इस रूप में सामने आया। हो सकता है, इसके सभी जिम्मेदार, कन्नियाँ काट रहे हों, दोषारोपण कर रहे हों, मुँह छिपा रहे हों मगर रीयलिटी शो की पहचान बनती जा रही बदजुबानी ने एक हादसा पेश कर दिया है। पता नहीं और कितने हादसे होंगे?

शनिवार, 13 नवंबर 2010

रस्किन बॉण्ड की कहानी - ब्ल्यू अम्ब्रेला

हालाँकि विशाल भारद्वाज ने संगीत निर्देशक से निर्देशक होते हुए आज अपनी ख्याति के व्यापक विस्तार में हैं मगर आरम्भ में गुलजार की फिल्म माचिस के संगीतकार के समय से उनको देखते हुए यह महसूस किया है कि उनकी रचनात्मक दृष्टि और चयन प्रक्रिया दोनों समकालीन युवा फिल्मकारों से काफी अलग हैं। अपने लिए बाद में उन्होंने विविधतापूर्ण फिल्में चुनीं मगर बच्चों के लिए शुरू में उन्होंंने एक के बाद एक जो दो फिल्में मकड़ी और ब्ल्यू अम्ब्रेला बनायी उनको देखते हुए, उस दुनिया में होना, एक अनूठा अनुभव है। खासतौर पर ब्ल्यू अम्ब्रेला बड़ी दिलचस्प और कहीं-कहीं सीधे मन को छू जाती है।

रविवार को हम एक फिल्म पर बात करते हैं जो अपने वक्त की उल्लेखनीय और प्रभाव छोडऩे वाली फिल्में होती हैं। बाल दिवस, इस बार इस रविवार को है लिहाजा बच्चों के लिए ब्ल्यू अम्ब्रेला की चर्चा ज्यादा समीचीन और सार्थक लगती है। अब हमारे यहाँ फिल्में प्राप्त करना और देखना कठिन प्रक्रिया नहीं है, सीडी और डीवीडी में सब उपलब्ध है, लिहाजा बच्चे इस फिल्म को देखकर बाल दिवस मना सकते हैं।

विशाल भारद्वाज ने रस्किन बॉण्ड की कहानी को फिल्म का मूल और मुख्य आधार बनाकर अपनी टीम के साथ पटकथा का हिन्दुस्तानी परिवेश में परिष्कार किया है। फिल्म में हम इस कहानी को हिमाचलप्रदेश के खूबसूरत आंचलिक सौन्दर्य और ठण्ड के खुशगवार मौसम में घटित होते देखते हैं। कहानी एक लालची दुकानदार, उसका नौकर और एक बच्ची के आसपास घूमती है। यह बच्ची जापानी सैलानियों के एक समूह को अपनी गाँव की खूबसूरती दिखा रही है। वह एक सुन्दर जापानी युवती की नीली खूबसूरत छतरी पर मोहित हो जाती है और जापानी युवती उस बच्ची के अनुष्ठानिक कण्ठहार पर। मासूम प्रस्ताव पर दोनों में छतरी और हार की अदल-बदल हो जाती है। अब बच्ची शान से पूरे गाँव में नीली छतरी लगाकर खेलती-घूमती है।

इस छतरी पर एक लालची दुकानदार की नीयत खराब हो जाती है और वह येन-केन-प्रकारेण इसे चुराने की फिराक में लग जाता है। एक दिन वह अपने इरादे में सफल हो जाता है लेकिन वह बच्ची, अपनी अक्ल और चतुराई से चोरी का पता लगाती है और दुकानदार पकड़ा जाता है। बाद में दुकानदार प्रायश्चित भी करता है। कुल मिलाकर एक बड़ी रोचक कहानी है जिसमें श्रेया शर्मा ने बच्ची की भूमिका अच्छी निभायी है मगर सबसे श्रेष्ठ साबित होते हैं लालची दुकानदार की भूमिका में पंकज कपूर। नंदू का यह किरदार एक पूरी मन:स्थिति और मनोविज्ञान को समझने में आनंद भी प्रदान करता है। यह एक एकाकी किरदार है जिसे गाँव के बच्चे खूब तंग करते हैं और वह भी अपने प्रतिवाद में उतना ही बुरा है, जितना एक बच्चों की फिल्म में किसी नकारात्मक चरित्र को होना चाहिए।

शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

प्रकाश झा और आरक्षण

भोपाल में फिर एक बार गहमागहमी है। प्रकाश झा नयी फिल्म के लिए तैयार होकर आ गये हैं। जगहें देख ली गयी हैं। कला निर्देशक जयन्त देशमुख की परिकल्पना में आरक्षण फिल्म के लिए तैयार किए जाने वाले स्थानों का ब्ल्यू प्रिंट तैयार है, उनका काम शुरू भी हो गया है। निर्देशक के लिए फिल्म बनाना आसान नहीं होता। कैमरे के साथ केवल कलाकारों को स्क्रिप्ट के अनुसार निर्देशित करना और अपने मन की सन्तुष्टि के दृश्य प्राप्त करना ही केवल फिल्म बनाना नहीं है और न ही फिल्म बनाना यह है कि शूटिंग खत्म करके पोस्ट प्रोडक्शन के काम में अपनी रचनात्मकता को एकाग्र करे और फिल्म बनाकर दर्शकों के सुपुर्द कर दे और फैसला देखे। काम इन सबके अलावा दूसरे बहुत जरूरी हैं जिनमें बहुत सारी अधिकृत से ज्यादा अनपेक्षित और अनाधिकृत अपेक्षाओं का सामना करना एक मुख्य मुद्दा रहता है।

काम निर्बाध रूप से होता रहे और व्यवधानकर्ता चैन से बैठे रहें यह बड़ी चुनौती है। रूठे को मनाना बड़ा सरदर्द है और दिलचस्प यह है कि बनती हुई फिल्म का बड़ा कलाकार नहीं रूठता और न ही तकनीशियन और सहायक, उन सबमें यारबाजी से लेकर अबे-तबे और इससे ज्यादा आगे जाकर भी जो व्यवहार किया जाता है, वह प्यार के व्यवहार का हिस्सा होता है। सभी इसके अभ्यस्त होते हैं। मुसीबत वहाँ होती है जहाँ सो-काल्ड संवेदनशील लोग मजबूरी में जोड़े जाते हैं। उनकी सद्इच्छा बनी रहे, इसके लिए अतिरिक्त सावधानियाँ जरूरी होती हैं।

प्रकाश झा ने राजनीति बनाते हुए इसके झंझावात बहुत झेले। जो उनके बहुत नजदीक थे, उन्होंने कभी व्यवधान खड़े नहीं किए मगर यहाँ शूटिंग करते बहुत कम दिन ही ऐसे रहे होंगे जब उनको सिरदर्द न हुआ हो। लेकिन प्रकाश झा की खासियत गरल को बखूबी गले के नीचे रख लेने की है। एक बार फिर वे उसी धीरज और धैर्य के साथ मध्यप्रदेश की राजधानी में फिल्म बनाने आ गये हैं। वे कुछ धारावाहिक भी बनाएँगे।

इस बात को मानना होगा कि भोपाल को सिनेमा के नक्शे में एक अच्छी जगह देने का काम उन्होंने किया। भोपाल में रमना और लगातार काम करना आने वाले समय में इस नाते उनके निमित्त जाना जायेगा कि इस शहर से बड़ी फिल्में, बड़े स्तर के धारावाहिक बनकर देश और चैनलों की शोभा बनेंगे। सहायकों, तकनीशियनों और अपेक्षानुसार कलाकारों को भी इसमें रोजगार से लेकर परिष्कार तक के अवसर होंगे। आरक्षण इसलिए भी बड़ी हाई-लाइट है क्योंकि वह महानायक की फिल्म है।

प्रकाश झा अपनी फिल्म की स्क्रिप्ट की गोपनीयता भी बखूबी रखते हैं। हालाँकि आरक्षण आज कोई बड़ा आन्दोलन या ऊष्मा का विषय नहीं रह गया है, पर हमारे लिए यह देखना दिलचस्प होगा कि प्रकाश झा किस फूंकनी से राख में दबी-छिपी चिंगारी को हवा देते हैं?

गुरुवार, 11 नवंबर 2010

सिनेमा का इतिहास कहाँ है?

भारत का सिनेमा धीरे-धीरे अपनी शताब्दी की ओर बढ़ रहा है। 2012 से सिनेमा का सौवाँ साल शुरू होगा। एक वर्ष तक सिनेमा का सौवाँ वर्ष मनाया जायेगा। इस सफर के आयाम विस्तारित हैं। बहुत सारी विविधताओंं में बड़ी दूर तक जाकर सिनेमा का आकलन करना होगा तब समग्रता में सौ साल की यात्रा पर बात हो सकेगी। हमारे देश में सिनेमा का सपना देखने वाले दादा साहब फाल्के का व्यक्तिगत जुनून था सिनेमा। यह बात सच है कि विलक्षण काम जुनून से ही सम्भव हो पाते हैं। दादा साहब फाल्के ने रतलाम में आकर लिथोग्राफी का प्रशिक्षण हासिल किया था, सिनेमा के पितामह से जुडऩे का एक श्रेय मध्यप्रदेश को इस तरह है। उन्होंने फिल्म बनाने की तैयारी बहुत सारा ज्ञान और विधियाँ अर्जित करके की। जीवन में जो संघर्ष किए उनकी बात बहुत कम सुनने में आती है।

भारत की पहली फिल्म राजा हरिश्चन्द्र बनाने वाले फाल्के का बाद का जीवन बड़ी कठिनाइयों और अभावों में व्यतीत हुआ। उनके नहीं रहने के बाद उनके सामान, उपकरण आदि सब लावारिस हालत में मिले थे। यश चोपड़ा ने हाल ही बातचीत में बताया था कि अभिनेता जयराज को जब दादा साहब फाल्के पुरस्कार मिला था, तब उनको कहीं से मालूम हुआ था कि फाल्के का परिवार दुखद दिन व्यतीत कर रहा है, तब जयराज ने पुरस्कार की राशि ले जाकर उनके परिवार को दे दी थी और कहा था कि अब जाकर मुझे सच्चा सुकून मिला है। फाल्के बुनियाद थे और अब सिनेमा अपने पैरों पर ही नहीं खड़ा बल्कि सरपट दौड़ रहा है। बाज-वक्त कभी किसी आयोजन के अवसर पर कृत्रिम सी श्रद्धांजलि सिनेमा जगत के लोग अपने पितृ पुरुषों को देते हैं, ऐसे लोग दामले, फ त्तेलाल को नहीं जानते कि उनका सिनेमा के लिए क्या योगदान रहा है।

सिनेमा को पढऩे के लिए आज की पीढ़ी के पास कोई आदर्श किताब नहीं है। वरिष्ठ फिल्म समीक्षक मनमोहन चड्ढा ने बीस साल पहले हिन्दी में एक किताब हिन्दी सिनेमा का इतिहास लिखी थी जिसे राष्ट्रपति के स्वर्ण कमल पुरस्कार से भारत सरकार ने नवाजा था। यह हिन्दी की सिनेमा के इतिहास को मुकम्मल प्रामाणिकता के साथ बताने वाली अकेली किताब थी जो अब दुर्लभ है। इधर इस पुस्तक के लेखक मनमोहन चड्ढा पुणे फिल्म इन्स्टीट्यूट से पहले डिप्लोमा लेने, फिर अध्यापन करने के बाद देहरादून में रह रहे हैं। उनको सिनेमा की शताब्दी की बेला में शेष बीस सालों के इतिहास को भी इस किताब की पाण्डुलिपि में समाहित कर लेना चाहिए और हिन्दी का कोई प्रकाशक भी इसे प्रकाशित करने के काम को तवज्जो दे। यह जरूरी है।

सार्थक ज्ञान और जानकारियों के अभाव में ही बुद्धिहीनता की खतरतवारें उग जाया करती हैं। सिनेमा पर अज्ञान के साथ बात न हो, इसके लिए सिनेमा के सौ साल के इतिहास का मुकम्मल पुनर्लेखन जरूरी है।

बुधवार, 10 नवंबर 2010

खिसकती धरती को पकडऩे का जतन

सितारा स्टेटस का बने रहना या खतरे में पडऩा दोनों ही मामले कलाकार के लिए चिन्ताजनक होते हैं। जिसका बना रहता है वह येन केन प्रकारेण उस पर कायम रहना चाहता है और जिसका खतरे में पड़ता है, वह हर तरह से खिसकती जमीन को थामने की कोशिश करता है। छठवें दशक तक मुश्किलें नहीं थीं। शेर और बकरी सभी एक घाट से पानी पी सकते थे। अशोक कुमार के समय में भी दिलीप कुमार, देव आनंद और राजकपूर के लिए जगह थी। इनकी बनी जगहों के बीच भी राजेन्द्र कुमार, जॉय मुखर्जी, शम्मी कपूर, सुनील दत्त, राजकुमार और गुरुदत्त जैसे कलाकार सुरक्षित थे। इन सबके बीच ही मोतीलाल, राजेन्द्रनाथ, जॉनी वाकर, मेहमूद जैसे कलाकारों ने अपना एक स्थान बना रखा था।

अच्छा सिनेमा सबकी जरूरत हुआ करती थी। कोई किसी की रस्सी पर सरौता लगाने का काम नहीं करता था। सबको काम करने का मौका था। सभी श्रेष्ठ फिल्मों के निर्माण में अपनी अहम रचनात्मक भूमिका अदा किया करते थे। राजेश खन्ना युग से एक नया ही मौसम हमारे सामने आया जब सितारे ने सचमुच सितारा स्टेटस हासिल की। वह देर से उठने से लेकर सेट पर देर से आने के लिए भी प्रसिद्ध हुआ। बड़े से बड़े कलाकार उसका इन्तजार किया करते। इतना ही नहीं उसके मूड की भी फिक्र किया करते, मूड के पूरब या पश्चिम होने के अन्देशे को लेकर घबराया करते।

हृषिकेश मुखर्जी ने आनंद और बावर्ची फिल्म राजेश खन्ना के ऐसे ही रवैये के बीच किस तरह पूरी की, ये वो ही जानते थे। तब युवतियों में अपनी अदा और अन्दाज से खन्ना ने अपनी मजबूत जगह बनायी थी। इस जगह को हृषिकेश मुखर्जी, यश चोपड़ा, सलीम-जावेद, प्रकाश मेहरा और मनमोहन देसाई जैसे निर्देशकों, लेखकों ने अमिताभ बच्चन के माध्यम से हिलाने का काम किया। इन्हीं नामों ने रूमानी सिनेमा का राजेश खन्ना युग समाप्त सा कर दिया।

अमिताभ बच्चन गम्भीर, प्रतिबद्ध और अनुशासित होकर फिल्मों में आये। उस समय वे निर्देशकों के नायक थे। सत्तर का दशक अमिताभ बच्चन के उत्थान का दशक रहा। बाद में आमिर, सलमान और शाहरुख आये। अजय देवगन, अक्षय कुमार, हिृतिक रोशन आये। सबके पास अपना-अपना समय था, जितनी श्रेष्ठ फिल्में वे कर सके, जितना लगन से वे अपना किरदार निभा सके, उतना उन्होंने दर्शकों के दिलों में राज किया। आज पहले नम्बर पर रणवीर कपूर का नाम है, दूसरे नम्बर पर नील नितिन मुकेश अपनी जगह टिके रहने का प्रयास कर रहे हैं मगर सभी की जगहें अस्थिर हैं।

ऐसा लगता है कि आने वाले समय में स्थायी तो दूर, कुछ स्थिर समय में भी कोई सितारा अपनी जगह पर बना रहने की सुरक्षा प्राप्त नहीं कर सके गा। दर्शक अब सिनेमा को उसकी समग्रता में परखकर उसकी श्रेष्ठता के मानक तय करने लगा है।

मंगलवार, 9 नवंबर 2010

हँसने, हँसाने के नाम पर

बड़े अरसे बाद गोलमाल थ्री में जॉनी लीवर दिखायी दिए। देखकर लगा कि लम्बे समय परदे से दूर रहकर भी कलाकार कितना पिछड़ जाता है। हालाँकि जानी की ऐसी स्थिति कभी नहीं रही कि उनका शुमार कोई बड़े हास्य अभिनेता के रूप में रहा हो। उन्होंने लम्बा समय स्ट्रगल खूब किया है। उनको बाद में सफलता मिली भी मगर वह सफलता उनको दरअसल अपने हुनर की वजह से मिली न कि कोई प्रतिभा या दक्षता के कारण। उन्होंने उस पूरे खाली समय में अपना अधिपत्य जमाया जब कोई दूसरा हास्य कलाकार सक्रिय न था। यह बीच का ऐसा समय था जब बहुत सारे नायक कॉमेडी सिनेमा के सिरमौर बन गये थे। अनिल कपूर से लेकर शाहरुख खान, सलमान और आमिर, अक्षय कुमार से लेकर संजय दत्त और सुनील शेट्टी तक मसखरी की हद तक जाकर अपना अन्दाज स्थापित कर रहे थे।

जॉनी लीवर ने उस वक्त अपनी जगह का विस्तार किया जब इन सितारों का भी कॉमेडी रंग उतरने लगा। उस पाँच-सात साल के बीच वे उभर कर सामने आये। वे एक अनिवार्यता सी भी बने। शक्ति कपूर घटिया कॉमेडी और उसके बाद स्कैण्डल में फँसकर अपना स्थान गवाँ बैठे। इसी बीच राजपाल यादव का उदय हो गया। वे व्यावसायिक सिनेमा के नये कॉमेडी आयकॉन बन गये। देखा जाये तो राजपाल यादव को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने अपनी उपस्थिति और सक्रियता से जॉनी लीवर युग को पूरी तरह शून्य कर दिया। लेकिन एक दूसरा पहलू यह भी है कि उनकी अपनी मौलिकता भी एक सीमा के बाद अप्रभावित करने लगी। सिनेमा की भाषा में एक जैसे काम करने वाले या एकरस को टाइप्ड कहा जाता है। सो राजपाल यादव भी जल्दी ही टाइप्ड हो गये। उनको अभिनेता आशुतोष राणा ने शुरूआती समर्थन और प्रोत्साहन दिया था मगर आशुतोष से भी आगे उनका जहाँ बन गया।

इस समय अब राजपाल यादव का कैरियर भी उतार पर है। दो वर्ष पहले यह तक होने लगा था कि राजपाल यादव के लिए कैरेक्टर विशेष रूप से निर्देशक लिखवाते थे। प्रियदर्शन के वे प्रिय पात्र बने लेकिन प्रियदर्शन के सिनेमा से ही उनका चेहरा और काम उकताऊ हो गये। राजपाल यादव अब उतने लोकप्रिय नहीं रहे। इधर प्रियदर्शन ने राजपाल की उपस्थिति में ही जॉनी लीवर को खट्टामीठा में लेकर फिर उन्हें आजमाने की कोशिश की। एक दूसरी कोशिश रोहित शेट्टी ने गोलमाल थ्री में की। मगर यह बात नजर आने लगी है कि जॉनी लीवर उस तरह का तिल हो गये हैं जिसमें तेल नहीं है। आराम ने काया को बेडौल कर दिया है। अदा और अन्दाज भी अब लुभाते नहीं।

ऐसा लगता है कि हास्य के नाम पर आज के समय फिर सिनेमा में संक्रमण काल सा है। सब कुछ फूहड़ता के भरोसे है और हास्य बेमन और अरुचि का सबब बनकर रह गया है।

चुटकुलेबाजी से फिल्म नहीं चलती

विपुल शाह की फिल्म एक्शन रीप्ले को दर्शकों ने नकार दिया है। एक दिन बाद लगने वाली गोलमाल थ्री का भी स्वागत उतने उत्साह से नहीं हुआ है, जैसी कि अपेक्षा की जा रही थी। जो शुरूआती गहमागहमी हमें देखने में भी आयी वो किसी सुपरहिट फिल्म का स्वागत जैसी नहीं है। दोनों ही फिल्मों के प्रति प्रबुद्ध समीक्षकों का रुख देखकर लगता है कि दीपावली, दो काबिल माने जाने वाले निर्देशकों के लिए आतिशबाजी उड़ाने का सबब बनकर आयी है। निर्देशक का भी विफल फिल्म से बड़ा नुकसान होता है, मगर वह कुछ ही समय में अपनी धूल झाडक़र खड़ा हो जाता है और अगले काम की तलाश करने लग जाता है। उसे अगला काम मिल भी जाता है। चोट लम्बे समय वो सहलाता रह जाता है जो पैसे लगाता है या पैसे लगाने की भागीदारी में चार लोगों को जोडक़र सपने देखता है।

राष्ट्रीय स्तर पर एक्शन रीप्ले की समीक्षा करते वक्त उसे एक सितारा दिया जाना, वास्तव में एक बुरी फिल्म को रेखांकित करने की तरह है। ऐसा किसी एकाध समीक्षक ने नहीं किया बल्कि कई लोगों ने किया है। इससे साबित होता है कि अच्छी फिल्मों की श्रेणी में दोनों ही फिल्में नहीं आ पायीं। विपुल शाह ने वक्त-वक्त पर आँखें, दीवार, वक्त जैसी फिल्में बनायीं हैं। अक्षय कुमार उनके प्रिय अभिनेता हैं मगर इस बार कुछ ज्यादा ही एक्सपेरिमेंट हो गया।

एक्शन रीप्ले और गोलमाल थ्री को देखकर यही लगता है कि कॉमेडी फिल्में बनाने वाले निर्देशक, स्क्रिप्ट के नाम पर अन्तहीन चुटकुलेबाजी को ही आधार बनाकर काम करते हैं। अब केवल चुटकुलेबाजी पर तो फिल्म चलने से रही। हालाँकि अब यह चुटकुलेबाजी बहुत जगहों पर हो रही है। मंचों पर हास्य कवि भी यही कर रहे हैं। अपने चुटकुले भी सुना रहे हैं और दूसरों के भी अपने बताकर।

मिमिक्री के तमाम शो जो टेलीविजन के चैनलों पर दिखायी देते हैं वो तो चुटकुलेबाजी पर ही टिके हुए हैं। एक माहौल बना दिया गया है जिसके साथ लोग हँसने का काम कर रहे हैं। मिमिक्री शो का हँसना, निहायत ही नकली और अशिष्ट किस्म का होता है, देश के दर्शक उसके भी साथ हैं और मुफ्त में लुत्फ लेने में लगे हैं। मनोरंजन का मामला जिस तरह से मंच से लेकर टेलीविजन तक और टेलीविजन से लेकर सिनेमा तक बड़े मामूली ढंग से लिया जाने लगा है उसी का परिणाम फूहड़ और घटिया हास्य फिल्मों का खरपतवार की तरह आना है।

खत्म होते साल में अपने ही कारणों से दुर्दशा को प्राप्त होने वाली फिल्में इस रस्ते से भी आयी हैं और फ्लॉप हो गयी हैं। जल्दी ही ये फिल्में सिनेमाघर से उतरकर चैनलों की शोभा बनेंगी और भुला दी जाएँगी। सिनेमा तब तक अच्छा नहीं हो सकेगा, जब तक ऐसी फिल्मों का स्थान ऐसी ही दूसरी फिल्में लेती रहेंगी।

शनिवार, 6 नवंबर 2010

भूमिका में त्रासद आयाम रचती जि़न्दगी

रविवार एक यादगार फिल्म को उसकी विशिष्टताओं के साथ याद करने का हमारा दिन होता है। इस बार हम स्वर्गीय स्मिता पाटिल की अविस्मरणीय फिल्म भूमिका को चुन रहे हैं जिसका निर्देशन प्रतिष्ठित फिल्मकार श्याम बेनेगल ने किया था। आज हम जिस तरह से सत्तर के दशक की नकल पर बन रही फिल्मों का हौव्वा-तौबा देख रहे हैं, भूमिका उसी दशक की एक सार्थक फिल्म है जिसे 1977 में प्रदर्शित किया गया था। इस फिल्म की कहानी को लेकर यह बात छुपायी नहीं गयी थी कि यह मराठी फिल्मों की मशहूर अभिनेत्री हंसा वाडकर के जीवन पर बनी है। भूमिका, हंसा वाडकर की आत्मकथा सांगते एका, पर आधारित थी।

सत्तर का दशक बेशक अपने आपको प्रबुद्ध साबित करने वालों के सिनेमा का समय था, जिसमें अमिताभ बच्चन जैसे एंग्रीयंग मैन का उदय हुआ मगर यही दशक सार्थक सिनेमा आन्दोलन के परवान चढऩे का भी था जिसमें श्याम बेनेगल, गोविन्द निहलानी, केतन मेहता और प्रकाश झा जैसे लोग फिल्में बनाकर अपनी एक अलग, समानान्तर मगर मोटी लकीर खींच रहे थे, जो अच्छे सिनेमा के जिज्ञासु और जानकार दोनों के लिए आकर्षण का केन्द्र बनी थी। भूमिका की पटकथा लिखने में श्याम बेनेगल के साथ अभिनेता, निर्देशक और रंगकर्मी गिरीश कर्नाड और पण्डित सत्यदेव दुबे ने भी सहयोग किया था। इस फिल्म की नायिका ऊषा एक अभिनेत्री है, जिसका जीवन द्वन्द्व और झंझावातों से भरा है। एक अधेड़ आदमी उसका पति है जो उसकी माँ का कभी प्रेमी रहा था और उससे दस साल की उम्र में चार आने के बदले विवाह का वचन कुटिलतापूर्वक ले लेता है। यह भूमिका अमोल पालेकर ने बखूबी निभायी है।

अमोल, एक शोषक पुरुष के रूप में अपनी भूमिका के साथ पूरा न्याय करते हैं वहीं ऊषा की भूमिका निबाहने वाली स्मिता पाटिल, भावाभिव्यक्ति से शोषण, पीड़ा और इस सबके बावजूद भीतर-बाहर से इन तमाम विरोधाभासों से लडऩे वाली स्त्री के रूप में गहरा प्रभाव छोड़ती हैं। यह स्त्री, अपने आसपास के परपीडक़ और शोषक परिवेश के बीच अपने जीवट के साथ खड़ी रहती है और सफलता, सम्पन्नता और प्रतिष्ठा अर्जित करती है।

इस ऊषा में अपनी सन्तुष्टि और आराम का जीवन जिए जाने की भी हिम्मत और हौसला अब आ गया है। नायिका के जीवन में और भी पुरुष आते हैं मगर अपनी भूमिका में वह शोषित होने या किए जाने की दयनीयता से उबर चुकी है। फिल्म के उत्तरार्ध में स्मिता पाटिल, अपने किरदार में जिस तरह विद्रोही चरित्र को प्रस्तुत करती हैं, वह सचमुच उन्हीं के द्वारा निभाया जा सकना सम्भव था। नसीरुद्दीन शाह, अमरीश पुरी, अनंत नाग फिल्म के अहम कलाकार हैं।

इस फिल्म का कैमरा वर्क गोविन्द निहलानी का है। चौथे-पाँचवें दशक के परिवेश के अनुरूप गीत रचना मजरूह सुल्तानपुरी और वसन्त देव ने की थी। वनराज भाटिया ने भूमिका का उसी मिजाज़ का संगीत भी तैयार किया था। श्याम बेनेगल की फिल्मोग्राफी की यह एक सशक्त फिल्म है, जो अपने आपमें अविकल्प और अकेला उदाहरण है उत्कृष्ट सिनेमा का।

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

हिन्दी फिल्मों में दीपावली

अपनी विराट भव्यता में दीपावली का त्यौहार किसी फिल्म में यदि दिखायी देता है तो वह करण जौहर की एक बहुत अच्छी फिल्म कभी खुशी कभी गम में है। अमिताभ बच्चन, जया बच्चन, शाहरुख खान, हिृतिक रोशन, काजोल और करीना स्टारर यह फिल्म आकलन की दृष्टि से देखा जाए तो एक बड़ी परफेक्ट स्टारकास्टिंग वाली फिल्म है। फिल्म की अपनी कहानी, संवेदनशील और भावनात्मक तो है ही मगर उसके साथ दृश्यों के प्रस्तुतिकरण, सिनेमेटोग्राफी के श्रेष्ठ कमाल के साथ उसको परदे पर देखना अनुभूतिजन्य है। परिवार के मुखिया रायचन्द के घर दीपावली अपने दृश्यों में याद रहती है। महल से भव्य जगमगाता घर, दीए, पूजा-आरती-प्रार्थना और रिश्तों का फलसफा, बड़ी खूबसूरती से बुना गया तानाबाना है। करण जौहर जैसे अपेक्षाकृत युवा की कल्पना ऐसे फिल्मांकन के लिए बड़ी सराहना का विषय है।

हिन्दी फिल्मों में दीपावली फिल्मों के नामों में प्रमुख रही है। यादगार अच्छे-बुरे प्रसंग, इस त्यौहार में घटने वाली घटनाओं को तानेबाने में बुनकर शामिल किए गये हैं। इसी तरह की विविध आयामी अनुभूतियों के गाने, विभिन्न फिल्मों में वक्त-वक्त पर शामिल किए गये हैं। विजय आनंद निर्देशित फिल्म गाइड में वहीदा रहमान पर, पिया तो से नैना लागे रे, गाना अनूठी खूबी के साथ फिल्माया गया है। शैलेन्द्र के लिखे इस गीत में एक अन्तरा दिवाली पर है, जग ने उतारे, धरती पे तारे, पर मन मेरा मुरझाए, तुम बिन आली, कैसी दीवाली, मिलने को जिया अकुलाए.. .. .., खूबसूरत कन्दील जगमगा रही हैं, अनार अपना रंग बिखेर रहे हैं और रूपक ताल में वहीदा रहमान का कथक आधारित नृत्य। अपने वक्त की ये अलग ही क्लैसिक यादें हैं जिनका आज भी कोई तोड़ नहीं है।

कैफी आजमी ने चेतन आनंद की फिल्म हकीकत में एक गीत लिखा था, आयी अबकी साल दिवाली, मुँह पर अपने खून मले, चारों तरफ है घोर अंधेरा, घर में दीप जले, मदन मोहन का संगीत था और लता की आवाज। भारत-चीन युद्ध की पृष्ठभूमि पर बनी 1964 की इस फिल्म में मारे गये फौजियों और अशान्ति का परिप्रेक्ष्य था। राजकपूर की फिल्म श्री चार सौ बीस और रामगोपाल वर्मा की फिल्म सत्या में नायक अपनी प्रेमिका को दीवाली की रात मुम्बई दिखाने ले जाता है। चालीस के दशक में जयन्त देसाई ने दीवाली नाम से ही फिल्म बनायी थी। 1956 में दीवाली की रात और घर घर में दीवाली नाम से दो अलग-अलग फिल्में बनी। चिराग में आशा पारेख और चाची चार सौ बीस में कमल हासन की बेटी दीवाली के पटाखों से घायल होते हैं। घर-घर में दीवाली है, लाखों तारे आसमान में, एक मगर ढूँढे न मिला, देख के दुनिया की दीवाली, मन मेरा चुपचाप जला, से लेकर दीपावली मनाएँ सुहानी तक कितने ही गीत हमारे जेहन में होते हैं।

फिल्म जंजीर का क्लायमेक्स खास दीवाली के दिन को केन्द्रित कर रचा गया था वहीं धर्मेन्द्र की फिल्म फागुन में साडिय़ाँ दीवाली के रॉकेट से जलकर खाक हो जाती हैं। नायक एक साड़ी बचा पाता है मगर उसे अपनी खोयी हुई पत्नी उसी दिन मिल जाती है जिसे वो साड़ी ओढ़ाता है, दीवाली उसके लिए सुखद हो जाती है।

बुधवार, 3 नवंबर 2010

फिल्में देखना त्यौहार मनाना नहीं होता

पता नहीं कैसे यह अवधारणा बन गयी है कि तीज-त्यौहार मनुष्य फिल्में देखकर मनाता होगा। फिल्मेें देखना रूटीन में ही कम होता जा रहा है। हमारे फिल्मकार आज तक यह निष्कर्ष नहीं निकाल पाये कि दर्शक का रुझान सिनेमाघर जाकर फिल्में देखने में क्यों कम होता जा रहा है? आज का सिनेमा ऐसा है कि उसे युवा पीढ़ी ही देखती है। इन दर्शकों में भी कुछ और विभाजन भी हो गया है।

बहुत सारे छात्र जो शहरों में सुदूर अंचलों से किस्म-किस्म की शिक्षा प्राप्त करने के लिए, अपना नौकरी और रोजगार में भविष्य सँवारने के लिए आते हैं, उनमें से बहुत से आश्वस्त और निश्चिंत किस्म के युवा कई बार अपनी पढ़ाई को एक तरफ रखकर फिल्में देखने चले जाते हैं। अक्सर मॉर्निंग शो में नजर आने वाली भीड़ में ऐसे युवाओं का समूह खूब हो-हल्ला करता मिलता है, जो पता नहीं फिल्म भी कितनी देखता होगा। दिन के शो की भी ऐसी ही स्थिति रहती है। टीन एजर्स अपनी समझ का सिनेमा देखकर भी उसके साथ व्यावसायिक न्याय नहीं कर पाते। फिल्मों को जब तक घर और परिवार पसन्द करके देखने नहीं जाता तब तक उसका चलना प्रमाणित नहीं हो पाता। इतनी या अन्यथा जनसंख्या फिल्में नहीं चलाती।

हमारे सामने अभी रामगोपाल वर्मा की फिल्म रक्तचरित्र की विफलता का एक उदाहरण है। बड़े और ठसक वाले प्रभावशाली कलाकार भी एक सुपरहिट तेलुगु फिल्म के हिन्दी संस्करण को सफल नहीं बना पाए। सिनेमा की ट्रेड गाइडें जिस तरह का कलेक्शन इन फिल्मों के पहले शो का या एक सप्ताह का बतलाती हैं, वह दुखद आश्चर्य की तरह है। कमाल यह है कि फिर भी फिल्में बन रही हैं।

इधर रोहित शेट्टी ने एक दरजन सितारों को लेकर एक फूहड़ फिल्म बना ली है जो दर्शकों के सिर पर इसी दीपावली में मढ़ दी जायेगी। पता नहीं कितनी सफलता उसको मिलती है। इस फिल्म के प्रोमो, इसे एक निरर्थक फिल्म प्रमाणित करते हैं। सिनेमाघर क्या कहेगा, यह दो-तीन दिन में मालूम हो ही जायेगा। फिल्मी आतिशबाजी के लिए दीपावली सबसे बड़ा मौका होता है। निराशाजनक पहलू यह है कि कुल दो फिल्में रिलीज हो रही हैं। इस पर भी ऐसी फिल्मों को दिखाने के लिए थिएटर अचानक टिकिट की कीमतें वगैरह भी बढ़ाकर दर्शकों की जेब से रुपए छुड़ाने का काम करने में लग जाते हैं।

बस अच्छा सिनेमा ही हमारे यहाँ नहीं बनता, यदि बने तो सबका बेड़ा पार लगाये। अभी हम देख रहे हैं कि बड़े और मँहगे सिनेमा की आतिशबाजी छूटने को है और गलियारे में दस तोला, अल्लाह के बन्दे जैसी कम बजट की अच्छी फिल्में धमाकों और नतीजों के बाद सामने आने की कतार में हैं। देखिए क्या होता है.. .. .. ..

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

फिल्मों का चलना, न चलना

फिल्मों की सफलता की स्थितियों में जितना असमंजस पिछले पन्द्रह बीस सालों में दिखायी देता है, वैसा उसके पहले कभी नहीं था। मशहूर फिल्मकार यश चोपड़ा ने पिछले दिनों एक विशेष बातचीत में यह बात की थी कि अब फिल्मों के साथ सिनेमाघरों में दिनों तक चलने का चलन पूरी तरह समाप्त हो चला है। एक जमाना था जब खुद उनकी वक्त, दीवार, त्रिशूल और कभी-कभी जैसी फिल्मों में चलते रहने का रेकॉर्ड कायम किया था। उन्होंने यह भी बताया कि किस तरह उनके बेटे आदित्य चोपड़ा की फिल्म दिलवाले दुल्हनियाँ ले जाएँगे, निरन्तर मुम्बई में चल रही है। आज स्थितियाँ यह हैं कि एक फिल्म का जीवन कुल मिलाकर अधिकतम दो माह भी नहीं है शायद।

दबंग जैसी सफल, सुपरहिट फिल्म खूब अच्छी ओपनिंग के बाद भी महीने भर के पहले ही सिनेमाघरों से बाहर हो गयी। जल्दी ही निर्माताओं ने उस फिल्म के डीवीडी और सीडी जारी कर दिए। चैनलों में भी वह शेड्यूल होने की स्थितियों में है। कोई भी चैनल छाती ठोंककर फिल्म एलाउंस कर सकता है। सिनेमा और उसके अस्तित्व की क्षणभंगुरता शोचनीय है। सिनेमा की स्थितियाँ भी दयनीय हैं। हमारे दर्शकों के बीच से जिस तरह सिनेमा का प्रभाव धीरे-धीरे समाप्त हुआ है, वह आश्चर्यजनक है। अब दर्शक की मनपसन्द के नायक-नायिका नहीं रहे। गाने और घटनाओं में दर्शकों को कोई आकर्षण नहीं है। किसी भी किस्म का किरदार दर्शकों को याद नहीं रहता। निर्देशक अपने नाम से पहचाना नहीं जाता।

हीरोइनों की स्थिति सबसे ज्यादा चिन्ताजनक है, जिनका कैरियर बमुश्किल दो-तीन साल का ही है। इनमें से भी पता नहीं कितनी आयटम सांग पर नाचने लगी हैं। उनके चेहरे भी अब पहचाने नहीं जाते। इनमें से कई के फोटो, अखबारों के व्यावयायिक पेजों पर किसी न किसी ज्वेलरी, मोबाइल कम्पनी या अन्य उत्पाद के ब्रांड एम्बेसेडर बनने के साथ धीरे-धीरे धूमिल हो जाया करते हैं। आगे बढऩे की सीढिय़ाँ संदिग्ध हैं, पीछे जाने की सडक़ पर उल्टा चलने का अभ्यास जैसा सिनेमा हो गया है बहुधा। सिनेमा से चैनल तक सरलीकरण का विस्तार ऐसा है कि हम बड़ी जल्दी जल्दी बड़े भाव से घटी दर तक आते हुए लोगों को देखते हैं। जितने आयामों के साथ सिनेमा बनता है, उन सबमें बावजूद तकनीक के बड़े बेहतर हो जाने, संसाधन बड़े श्रेष्ठ हो जाने के बाद भी कमिटमेंट की भारी कमी है।

हर आदमी खूब समय दे रहा है जी-जान से लगा हुआ है मगर किसी भी बड़े लक्ष्य के साथ नहीं। लक्ष्य स्पष्ट नहीं हैं लिहाजा लेबल ऑफ एक्सीलेंस भी कुछ नहीं है। फिल्म का चलना, न चलना इन्हीं यथार्थों के बाहर की सचाई है।

सोमवार, 1 नवंबर 2010

समीक्षाएँ और सितारे

फिल्म समीक्षा को लेकर आज बात करें तो स्थितियाँ बड़ी विकट नजर आती हैं। फिल्म समीक्षा के स्तर का निर्धारण सितारों से होता है। जाहिर है फिल्म का स्तर भी सितारों से ही होता है। दोनों जगह अलग-अलग तरह के सितारे हैं। एक सितारा सिनेमा का है दूसरा सितारा, समीक्षक के पास होता है। फिल्मों को देखकर आकलन किया जाता है और प्रदर्शन के बाद हमें तत्काल ही मालूम हो जाता है कि समीक्षक ने क्या देखा और क्या तय किया? प्रश्र अब आदर्श समीक्षा को लेकर उठने लगा है। तकनीक और सम्प्रेषण के व्यवहारिक साधन इतने त्वरित और तीव्र प्रभाव के साथ आप तक पहुँचते हैं कि आप खुद चकित हैं।

मुम्बई में अमूमन फिल्म, समीक्षकों को एक दिन पहले दिखा दी जाती है। विशेष मेहमानों और पत्रकारों के लिए उसका विशेष शो इसीलिए रखा जाता है ताकि इनायत रहे। अब सब रिश्ते भी सौहाद्र्र के बनाने में विश्वास करते हैं। अच्छा परिचय समीक्षा को बहुत प्रभावित करता है यह भी सच है। कई आदर्श और अपनी कलम से साथ टू द पाइंट होने वाले समीक्षक हालाँकि रिश्तों की परवाह नहीं करते। कई बार फिल्म बनाने वालों पर भी सख्त किस्म के, एकदम सख्त न भी कहिए तो मुलायम न रहने वाले समीक्षकों का दबाव-प्रभाव रहता है, जो, जो देखते हैं, अपना आकलन करके साफ-साफ लिखने में विश्वास करते हैं। ऐसे समीक्षकों से सिनेमा का सच्चा आकलन भी होता रहता है। बहरहाल मुम्बई के बाहर स्थितियाँ ऐसी नहीं हैं। समीक्षकों को फिल्म का विश£ेषण पता नहीं होता। भावुक उदारता से सितारे दे दिया करते हैं। इण्टरनेट पर मनोरंजन के तमाम डॉट कॉम में समीक्षा अपना अपना दृष्टिकोण होता है। बहुत से अखबारों को समीक्षा अगले दिन छापना अपरिहार्य है।

बहुत से अखबार, रविवार का दिन मुकर्रर करते हैं। इस तरह शुक्रवार को सिनेमाघर में लगी फिल्म पर व्यवस्थित टिप्पणी आसानी से सम्भव हो जाया करती है। अलग-अलग स्थितियों और अपरिहार्यताओं के कारण समीक्षा के पृथक रंग दिखायी देते हैं। एक फिल्म पर आप चार जगह पढक़र अलग-अलग राय जान पाते हैं। निष्पक्ष, निष्कपट और इसके उलट पूर्वाग्रहग्रस्त टिप्पणियाँ भी अपना आकर्षण रखती हैं। समीक्षाएँ, सिनेमा की अब रिपोर्टिंग ज्यादा हो गयी हैं। समुचित जानकारी और अनुभव के अभाव में अच्छी टिप्पणी अब दुर्लभ है।

यह बात भी उतनी ही सच है कि अब सिनेमा उस तरह का होता भी नहीं कि लिखने वाला बहुत ज्यादा कसरत करके कलम उठाए मगर बुरी फिल्म की अच्छे ढंग से बुरी समीक्षा करना भी एक किस्म का रचनात्मक हुनर है। हिन्दी सहित भारतीय भाषाओं में ऐसे हुनरमंद समीक्षक कम हैं।