संजय लीला भंसाली की फिल्म गुजारिश को लेकर अब मिश्रित प्रतिक्रियाएँ सामने आने लगी हैं। फौरी तौर पर तत्काल समीक्षा लिखने में माहिर आलोचकों में से कुछ ने इसे दो-ढाई सितारों तक सीमित रखा तो कुछ ने अपनी जेब का क्या जाता है, सोचकर तीन से चार सितारे भी दिए मगर संजीदगी से सिनेमा की परख करने वालों को अन्तत: लगा कि यह अधिकतम तीन सितारा पाने वाली फिल्म है जिसमें खूबियों और खामियों का अनुपात साठ-चालीस का है। एक प्रबुद्ध निर्देशक कुछ विदेशी फिल्मों से प्रेरणा लेकर यथासम्भव अच्छी फिल्म बनाने में सफल हो पाता है। संजय लीला भंसाली के साथ भी ऐसा ही है।
हमारे यहाँ अंग्रेजी में इन्स्पाइरेशन जैसा शब्द पकड़े जाने पर हाथ से आँख मूँदकर समर्पण की मुद्रा में आने का सबसे अच्छा हथियार है। बहुत से फिल्मकार जो मौलिकता पर दिमाग लगाना नहीं चाहते, बहुत सारे अच्छे विषय विदेशी फिल्मों से हासिल कर लेते हैं। गुजारिश भी विदेशी फिल्म द सी इनसाइड और प्रेस्टीज की खूबियों को खींचने वाली फिल्म है। इस टिप्पणी के साथ प्रकाशित चित्र स्पेनिश फिल्म द सी इनसाइड का है। वास्तव में जो फिल्में निर्देशक को प्रेरणा देती हैं, जिनके दृश्यों को सीधे-सीधे इस्तेमाल कर लिया जाता है, उनको बहादुरी से स्वीकार कर फिल्मकार अपनी जगह और बेहतर कर सकता है मगर हिन्दुस्तान में ऐसा कम होता है।
गुजारिश जैसे विषय हिन्दी सिनेमा में कई बार विभिन्न तरह से उठाये गये हैं। भंसाली खुद ब्लैक भी बना चुके हैं जो एक विदेशी फिल्म की बहुधा नकल थी। वक्त-वक्त पर कोशिश, शोर, राव साहेब, आनंद, मिली, तारे जमीं पर, माय नेम इज खान आदि बहुत सी फिल्में बनी हैं मगर तकलीफें अपने नितान्त समस्यावादी दृष्टिकोण से बढ़ते हुए एक चरम विषाद तक पहुँचकर दर्शकों की सिनेमाघर में एक बार आँखें नम कर सकती हैं, जेब और पर्स से पुरुष-स्त्री अपने रूमाल निकालकर आँसू पोछ सकते हैं मगर जिस तरह का अवसाद लेकर घर जाते हैं वह फिल्म के पक्ष में कोई भी वातावरण बनाने में कामयाब नहीं होता।
गुजारिश एक ऐसी फिल्म है जिसके अन्त में आप अपने-अपने हिस्से और समझ का अन्त लेकर घर जाते हैं। भारतीय सिनेमा में हितिक रोशन की जो नायक छबि है, वो ऐसे लाचार और असमर्थ किरदारों में कोई बेहतर सफलता हासिल नहीं कर सकती लिहाजा, काम की भरपूर सराहना के बावजूद, कई बड़े पुरस्कारों की दावेदारी और हासिली की सम्भावना के बावजूद नायक के लिए गुजारिश का बहुत महत्व नहीं रह जाता। दर्शकों को हमारे फिल्मकार बहुत सारे ट्रेक पर ले जाने का विफल प्रयास करते हैं।
हमारे देश में अच्छे और निर्बाध सफर के लिए फोर लेन से लेकर और आगे तक की सडक़ें बन गयी हैं मगर सिनेमा में मनोरंजन और सार्थकता के लिहाज से अभी भी ऐसा कोई मार्ग नहीं खोजा जा सका है, जहाँ से दर्शक अपनी जेब के खर्च किए पैसे से मनोरंजन के नाम पर परम सन्तोष प्राप्त कर सके। वो अभी भी कई बार ठगा सा खड़ा रह जाता है।
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