रविवार, 21 नवंबर 2010

दहेज, साठ साल पहले

व्ही. शान्ताराम बीसवीं सदी के ऐसे महत्वपूर्ण फिल्मकार थे जिन्होंने सामाजिक प्रतिबद्धतापूर्ण फिल्मों का निर्माण अपने समय में बड़े साहस के साथ किया। दो आँखें बारह हाथ, पड़ोसी, डॉ. कोटनीस की अमर कहानी और दहेज जैसी श्रेष्ठ फिल्में उनके सरोकारों का सशक्त प्रमाण हैं। रविवार के दिन हम आज उनकी एक उल्लेखनीय फिल्म दहेज पर चर्चा करते हैं। भारतीय समाज की सबसे बड़ी सामाजिक बुराई दहेज को लेकर बाद में तो ड्रामा वेल्यू के हिसाब से बहुत सारी नाटकीय फिल्में बनीं मगर साठ साल पहले की दहेज नाम से ही शान्ताराम द्वारा बनायी गयी फिल्म इन सब तमाम फिल्मों में श्रेष्ठ और समय से कहीं ज्यादा आगे है।

दहेज फिल्म में पृथ्वीराज कपूर की मुख्य भूमिका थी। करण दीवान, जयश्री, उल्हास, केशवराव दाते, ललिता पवार फिल्म के दूसरे प्रमुख कलाकार थे। यह फिल्म एक युवती चन्दा और युवक सूरज की कहानी है जिनका विवाह, सूरज की लालची माँ और कुटिल रिश्तेदारों की वजह से जिन्दगी का सबसे बड़ा अभिशाप बन जाता है। सूरज की माँ दहेज में बहुत सारे सामान की अपेक्षा करती है और उसकी अन्तहीन मांग को पूरा कर पाना पिता के लिए असम्भव हो जाता है। चन्दा अपने कायर पति की वजह से सास के बड़े जुल्म सहती है और हर वक्त उसे इस बात के लिए साँसत में रहना होता है कि न जाने कब सास घर से तिरस्कार करके उसे बाहर कर दे और अपने बेटे का दूसरा विवाह कर दे।

चन्दा के आदर्शवादी पिता अपनी बेटी को मिलने वाली प्रताडऩा से भयभीत और चिन्तित, उसकी सास की इच्छा पूरी करने का भरसक प्रयत्न करते हैं। एक दिन वे बहुत बुरी तरह अपमानित और बेइज्जत होकर बेटी के ससुराल से लौटते हैं और अपना घर बेचकर बेटी के लिए तमाम सामान जुटाकर जब बेटी के ससुराल पहुँचते हैं तो वहाँ त्रासद घटना से सामना होता है। सास की मार से भयभीत बेटी ने अपने को एक कमरे में बन्द कर लिया है। सास दरवाजा तोडक़र बहू को मारने जाती है। दरवाजा टूटकर उस पर घिर जाता है और वह अपने पिता की गोद में दम तोड़ देती है।

फिल्म का अन्त अत्यन्त मार्मिक है। देखते हुए आँखें भीग जाती हैं। गोद में दम तोड़ती बेटी से पिता बिलखते हुए कहता है कि बेटी यह गरीब बाप तेरे लिए सब लेकर आया है। इस पर बेटी कहती है, पिताजी एक चीज देना भूल गये। पिता पूछता है, क्या बेटी? मरती हुई बेटी के आखिरी शब्द होते हैं, कफन। पिता के रूप में पृथ्वीराज कपूर ने मन को छू जाने वाला अभिनय किया है वहीं ललिता पवार ने निर्मम सास के रोल को अपने तेवर से सार्थक बनाया। जयश्री की भूमिका ही इस फिल्म को गहरी संवेदना प्रदान करती है।

दहेज, फिल्म का प्रभाव ऐसा हुआ था कि बिहार के विधायकों ने फिल्म के प्रदर्शनकाल में बड़ी प्रेरणा ग्रहण की थी और दहेजविरोधी बिल पास होने में भी इसका बड़ा योगदान माना जाता है। ऐसी सार्थक और झकझोरकर रख देने वाली फिल्मों को आज याद करना भी रोम सिहरा देता है।

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