लम्बे समय तक फिल्म निर्माण के बड़े घराने यदि चुपचाप बैठे रहें तो उनकी सक्रियता को लेकर न सिर्फ शक होता है बल्कि नाउम्मीदी भी बढ़ती चली जाती है। वास्तव में हानि-लाभ के ऐसे भयानक जोखिम, जैसे आज के समय में सिनेमा को लेकर, वैसे पहले बहुत कम देखने को मिले हैं। एक जमाना था जब बड़े सितारों की फिल्में चलते हुए भी आज की ताजा खबर और जंगल में मंगल टाइप की फिल्मों को सफलता और लाभ दोनों मिल जाया करते थे। इतना ही नहीं ऐसी फिल्मों के सितारों की भी अच्छी-खासी दाल-रोटी चल जाया करती थी मगर अब खतरे ज्यादा हो गये हैं।
पिछले कुछ समय से फिल्म निर्माण के बड़े घराने आज के तमाम जोखिमों का बारीकी से आकलन कर रहे हैं। कुछ घराने ऐसे हो गये हैं जिनके मुख्य फिल्मकार खुद फिल्में निर्देशित नहीं करते, दूसरे निर्देशकों को मौके देते हैं मगर मौकों के साथ खुद भी अपने हस्तक्षेप और निगरानियाँ बराबर रखते हैं। राकेश रोशन ने काइट्स के साथ ऐसी ही निगरानी रखी मगर अनुराग बासु क्या बना रहे हैं इस तह तक शायद वह नहीं पहुँच पाये। अब उन्हें अपने बेटे के लिए खुद फिल्म निर्देशित करने की तैयारी करना पड़ रही है। यश चोपड़ा भी अस्सी साल की उम्र में एक बार फिर तैयार हो रहे हैं। वीर-जारा उनका अनुभव बुरा नहीं था। अभी भी वे उत्साह और ऊर्जा से भरे हैं।
उनके बेटे आदित्य निर्देशक के रूप में और उदय अभिनेता के रूप में भले लम्बे समय से उल्लेखनीय न कर पा रहे हों मगर उनके मन में अच्छी कहानी, अच्छी फिल्म का जज्बा बरकरार है। वे नये साल में एक फिल्म शुरू कर रहे हैं। उम्मीदें अमिताभ बच्चन की भी हैं और शाहरुख खान की भी। यश चोपड़ा ही जानते हैं कि उनकी फिल्म की स्टार कास्ट क्या होगी। इधर उनके भतीजे, रवि चोपड़ा ने भी अगले साल बी.आर. फिल्म्स के बैनर पर अगली फिल्म बनाने की पहल शुरू कर दी है। बागवान निर्देशित करके रवि, अपने आत्मविश्वास को बनाए हुए हैं भले ही बाबुल ने उनको वह प्रतिसाद न दिया हो जिसकी उनको आशा थी। इधर शो-मैन सुभाष घई कैसे पीछे रहते।
अपना जन्मदिन, मुक्ता आर्ट्स की वर्षगाँठ सभी को जश्रपूर्वक मनाने वाले घई ने अपने बैनर पर एक साथ तीन फिल्में घोषित की हैं। इनमें से एक वे खुद निर्देशित कर रहे हैं, दूसरी फिल्म प्रियदर्शन को दी है और तीसरी फिल्म के लिए निर्देशक ढूँढा जा रहा है या कह लीजिए तय किया जा रहा है।
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