साल के बारह महीनों में जो रुतबा जनवरी को हासिल होता है वह दिसम्बर को नहीं होता। खासतौर से सिनेमा में पूरा साल तमाम तीज-त्यौहारों के साथ-साथ विभिन्न मौसमों के अनुकूल सिनेमा सेलीब्रेशन के सिद्धान्त, मीडिया सलाहकार अपने निर्देशक-निर्माता को बनाकर देते हैं मगर उनमें से कुछ ही कारगर रहते हैं, शेष अपने परिणामों के माध्यम से अपनी विफलता को सिद्ध करने में कोई लाग-लपेट नहीं दिखाते। दरअसल दर्शक का मारा सिनेमा बड़ी दुर्दशा को प्राप्त होता है।
अब सिनेमा लम्बे समय तक सिनेमाघर में रस्में निभाने वाली चीज नहीं है। पिछले पन्द्रह-बीस सालों में हमारे पास इस तरह का सिनेमा भी नहीं है जिसकी हैसियत चार शो तो दूर, तीन या एक शो में भी नजर आये। मल्टीप्लेक्स में विभिन्न तरहों से एक साथ तीन-चार प्रदर्शित होने वाली फिल्मों का आकल्पन किया जाता है मगर उसका कोई विशेष लाभ दिखायी नहीं देता।
जिस तरह बीस-पच्चीस साल पहले निरन्तर चलने वाली फिल्म के चार से तीन शो में आने पर दोपहर के शो में एक फिल्म अपने ही ढंग के आकर्षण की लगायी जाती थी। वह भी एक से अधिक बार आकर मुनाफा दे जाती थी। अब ऐसा सौभाग्य नयी फिल्मों को भी बमुश्किल ही मिल पाता है। नवम्बर के महीने में भव्य किस्म के सिनेमा की आतिशबाजियाँ आकाश में बिखकर ध्वस्त हो चुकी हैं। तमाम फ्लॉप हैं मगर बाजार रिपोर्ट उनके बाजार के स्तर तक ही सफल हो जाने की भी है।
गोलमाल थ्री बनाने वाले निर्माता ने भी इस बात के लिए चैन की साँस ली है कि न केवल खर्चा पूरा हो गया बल्कि मुनाफा भी मिल गया। दबंग के अपने किस्म के जैकपॉट रहे। बेटे अरबाज की इस फिल्म को पिता सलीम ने कई क्षेत्रों में खुद डिस्ट्रीब्यूट किया और इस तरह परिवार में पच्चीस करोड़ की अतिरिक्त आय हुई। पिता का ऐसा समर्थन पूरे परिवार के लिए खुशी का मौसम बन गया। अन्य स्वाभाविक मुनाफे जो थे, सो थे ही।
दिसम्बर माह में अब क्या होने वाला है, लगता नहीं कि बहुत खास होने वाला है। हाँ, बहुत गुंजाइश इस बात की है कि हमें आशुतोष गोवारीकर के निर्देशन में खेलें हम जी जान से के रूप में एक बहुत प्रभावी फिल्म देखने को मिले। यह बात अलग है कि उसको व्यावसायिक सफलता उस तरह की न मिले। इसके अलावा नो प्रॉब्लम, बैण्ड बाजा बारात, तीस मार खाँ और टूनपुर का सुपरहीरो फिल्में जाते हुए साल के आखिरी माह की मेहमान हैं।
इन फिल्मों में बैण्ड बाजा बारात, यशराज कैम्प की फिल्म होने के बावजूद समृद्ध सितारों की फिल्म नहीं है, फिर भी उसको एक मनोरंजक फिल्म के रूप में और दूसरी फिल्मों से अधिक पसन्द किया जा सकता है। अक्षय कुमार की तीस मार खाँ और अजय देवगन की टूनपुर का सुपरहीरो के दर्शक कोई अतिरिक्त-शेष-विशेष होंगे, इसका भी कोई भरोसा नहीं है।
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