शनिवार, 27 नवंबर 2010

मृणाल सेन की भुवनशोम

रविवार, भारतीय सिनेमा की एक महत्वपूर्ण फिल्म पर चर्चा करने की परम्परा में मृणाल सेन की 1969 में आयी एक महत्वपूर्ण फिल्म भुवनशोम बड़ी प्रासंगिक लगती है। इकतालीस साल पहले यह श्वेत-श्याम फिल्म प्रदर्शित हुई थी। मृणाल सेन बंगला सिनेमा के एक उत्कृष्ट फिल्मकार हैं। इस फिल्म के माध्यम से हिन्दी में नये सिनेमा के आन्दोलन की एक तरह से शुरूआत हुई।

मृणाल सेन ने बहुत सी किताबें भी लिखीं, अपने अनुभवों को लिखकर बाँटने का उनका गहरा शौक रहा है। एक जगह उन्होंने यह बात लिखी है कि एक बार वे मुम्बई में टैक्सी करके एक स्थान से दूसरे स्थान पर गये तो उतरते वक्त टैक्सी ड्रायवर ने उनसे पैसे नहीं लिए, यह कहते हुए कि सर, मैं आपको जानता हूँ, आप भुवनशोम फिल्म के निर्देशक हैं।

भुवनशोम, फिल्म के मुख्य किरदार का नाम है जो विधुर है और एकाकी। वह ब्यूरोक्रेट है, एक अधिकारी। जीवन में अकेलेपन ने उसको जिद्दी, अख्खड़ और झक्की बना दिया है। वह अपने स्वभाव को संवेदनारहित व्यवहार के साथ जीता है। गल्तियाँ, बुराइयाँ, भ्रष्ट आचरण उसे बर्दाश्त नहीं। तुरन्त दण्डित करने में देर नहीं करता। मगर आसपास के परिवेश को सुधारना इतनी सख्ती के बावजूद उसके बस का नहीं। अपने अधीनस्थ को मुअत्तिल करने में वो देर नहीं करता। एक अजीब सी दुनिया उसके आसपास है जिसमें उसकी उपस्थिति झुंझलाहट से भरी है, हर वक्त।

एक दिन वो इस सारे माहौल से त्रस्त होकर कुछ दिनों के लिए अपनी बन्दूक लेकर शिकार के लिए सुदूर रेतीले स्थान की तरफ निकल जाता है। वहाँ उसे एक युवती गौरी मिलती है जिस पर भुवन शोम का कोई डर या आतंक नहीं। जिद्दी भुवन अपने समय को शान्ति और सहज बनाने के लिए भटकता है, गौरी से उसका बार-बार सामना होता है। गौरी, इस आदमी की झक्क और वृत्ति में अपनी सहज चंचलता और निस्पृह उपस्थिति से जगह बनाती है। आखिर, छुट्टियाँ खत्म हो गयीं और भुवन शोम की वापसी है। उनको लगता है कि कुछ छूट रहा है। व्यंग्य से हँसकर वो सूचित करते हैं कि बड़े स्टेशन पर उनका तबादला हो गया है। बड़ा स्टेशन यानी कमाई की जगह।

भुवनशोम निर्देशक और नायक की फिल्म है जिसमें नायिका की उपस्थिति लगभग ऐसे कन्ट्रास्ट की तरह है जो कहानी को दिलचस्प गति देने का काम करती है। सुहासिनी मुले ने गौरी के इस किरदार को आंचलिक सहजता के साथ निभाया है। साधु मेहर, एक बेईमान अधीनस्थ के किरदार में हैं, छोटा रोल है मगर रोचक है। दरअसल यह फिल्म बड़ी व्यापकता के साथ उत्पल दत्त की क्षमताओं को गहरे प्रभावों के साथ स्थापित करती है। एक श्रेष्ठ निर्देशक और एक श्रेष्ठ अभिनेता मिलकर परदे पर क्या सर्वश्रेष्ठ सृजित करते हैं, यह भुवनशोम देखकर ज्ञान होता है।

के.के. महाजन की सिनेमेटोग्राफी कच्छ के रेतीले सौन्दर्य को बखूबी चित्रित करती है। भुवनशोम के निशाना लगाने, चूकने और गौरी के निश्छल उपहास के दृश्य संवाद याद रह जाते हैं। कहा जाता है कि इस फिल्म में अपने स्वर से प्रस्तुतिकरण करते हुए अमिताभ बच्चन को तीन सौ रुपए का पारिश्रमिक मिला था।

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