मंगलवार, 31 जनवरी 2012

गुड़िया : बिटिया की नन्हीं सखी



ईश्वर ने बचपन को जितना निर्लिप्त, जितना निर्मल और जितना स्वच्छ रखा है, उसकी कल्पना हर एक मन-स्मृतियों में एक तरह से चिरस्थायी होती है। बचपन हमारे जीवन में एक समय के पश्चात छूट अवश्य जाता है मगर इस तरह छूटता है कि वो हमारी ही निगाह बचाकर एक नन्हे पंछी की तरह चुपचाप हमारे मन के किसी कोने में जाकर बैठ जाता है। वहीं से वह हमारी चेतना के बीच एक बहुत ही पतला सा धागा बांध देता है। बचपन इसी धागे को कभी-कभार हमारे अकेलेपन में, बड़ी कठिनाइयों से मिल पाने वाली क्षणमात्र की सहजता में इस तरह झंकृत कर दिया करता है कि हम अपने आपको स्मृतियों के झूले में पाते हैं। हमारा छुटपन ऐसे ही कई बार मन-बिम्ब में प्रतिबिम्बित होने लगता है, तब हमको याद आता है बहुत सारा भूला हुआ, खोया हुआ अपना संसार जहाँ हमको सिर्फ और सिर्फ प्यार मिल रहा होता है, हमारी फिक्र हो रही होती है, माँ की गोद से लेकर पिता के कंधे पर बैठे गर्वोन्मत्त हम। कुछ देर में अचानक फिर दृश्य बदल जाता है, अपने संगी-साथियों के साथ हम खेल रहे हैं। पास-पड़ोस के हम सब, छोटे-बड़े सारे। खेलने के लिए कितना कुछ है, बाज़ार से खरीदे हुए खिलौने और नानी, दादी, बुआ, मौसी, माँ और दीदी की बनायी हुई गुडि़या...............

गुडि़या, बचपन का सबसे प्रिय खिलौना होता है। गुडि़या, बिटिया की नन्हीं सखी होती है। बिटिया के पास बहुत सारे खिलौने होते हैं लेकिन उसे गुडि़या अवश्य चाहिए। गुडि़या के बिना बिटिया के खिलौनों की पिटारी पूरी नहीं होती। कार होगी, तोता होगा, चिडि़या होगी, बत्तख होगी, झुनझुना होगा लेकिन अगर गुडि़या न हुई तो बिटिया की दुनिया अधूरी है। अपने मम्मी-पापा को उनकी रोज़मर्रा की स्वाभाविक-अस्वाभाविक और आकस्मिक व्यस्ताओं के लिए बिटिया तभी मुक्त करती है जब उसको, उसके आनंद की दुनिया की सारी चीज़ें जुटा दी जायें। बिटिया का चाहा, बिटिया के पास है तो फिर उसे न पापा की चिन्ता और न मम्मी की, न भूख की फिक्र और न प्यास की। 

बिटिया के मन की गुडि़या बनाकर देना आसान काम नहीं होता। चालीस-पचास साल पहले पारिवारिक और कौटुम्बिक अवधारणा में हमारे सरपरस्त हमारे अविभावक, नाते-रिश्तेदार, पास-पड़ोस हुआ करते थे। एक वृक्ष पूरी शाखाओं और यहाँ तक पत्तियों तक की चिन्ता किया करता था। उस वक्त तीज-त्यौहारों के स्वादिष्ट व्यंजनों का हुनर भी हमारे घर में होता था और घर-आँगन की सुन्दरता, रंग-रोगन की चिन्ताएँ भी मिलकर की जाती थीं। ऐसे ही वातावरण में किसी को सिलाई-बुनाई और तुरपाई का काम बड़ी सफाई के साथ आता था तो किसी को अनुष्ठानिक और मांगलिक अवसरों के गीत याद हुआ करते थे, अपने घर-परिवार का सांस्कृतिक वातावरण अलग ही हुआ करता था। परिवार की महिलाएँ उत्सवों, मांगलिक कार्यों और त्यौहारों पर गाती थीं, ढोलक और मंजीरे के साथ, नाचती थीं भक्ति और वन्दना के गीतों के साथ। इन्हीं में से किसी को गुडि़या बनाना भी आता था और सचमुच जो गुडि़या बनाता था, उसके आसपास बिटिया मँडराया करती थी, जि़द किया करती थी, पास बैठ जाया करती थी और तब तक मान-मनुहार, रूठना-मनाना, रोना-धोना और अधीर बने रहने की स्थिति रहा करती थी जब तक गुडि़या बन न जाये। ज़ाहिर है, गुडि़या का बन जाना आसान भी नहीं हुआ करता था। माँ, मौसी, दीदी, नानी, दादी, बुआ जो भी इस काम को किया करती थीं, उनके लिए अपने नियमित कामों में से समय निकालना मुश्किल हुआ करता था। फिर भी अगर बिटिया से वचन हार गयीं तो गुडि़या बनाकर देना होता था। बिटिया भी लगातार गुडि़या के बन जाने की एक नटखट और सुचिन्तित किस्म की बालसुलभ व्यग्रता के साथ जल्दी से जल्दी गुडि़या बन जाने के लिए बार-बार याद दिलाने और जि़द किए रहने के उपक्रम किया करती थी। हम जब यह सब बातें कर रहे हैं तो स्वाभाविक है, ऐसे सारे प्रसंगों और घटनाओं की याद ताज़ा हो रही हो।



गुडि़या जो बिटिया की काँख में दबी दुनिया की सैर कर लिया करती है, उसका बनना बड़ा ही सृजनात्मक किस्म का हुआ करता था। परिवार की गुणी महिलाएँ पुराने इस्तेमाल में आये मगर अनुपयोगी रंग-बिरंगे कपड़ों को सहेजकर रखा करती थीं जो वक्त पड़ने पर ऐसे काम आया करते थे। छोटे-बड़े टुकड़े, बची चिन्दियाँ, रंगीन धागे, पुराने चुटीले, भिन्न-भिन्न रंगों के बटन आदि से ही गुडि़या बनाने में मदद ली जाती थी। गुडि़या का आकार पहले तय हो जाया करता था। बिटिया स्वयं बताती थी कि उसे कितनी बड़ी गुडि़या चाहिए। एक बालिश्त या उससे छोटी भी और बड़ी तो फिर बड़ी से बड़ी, जिस आकार-प्रकार की गुडि़या, उसी आकार-प्रकार का जतन मगर गुडि़या बनाना, भले समय का अभाव हो, घरेलू कामकाज से फुरसत निकालना कठिन हो, होता लगन का ही था। इसे अपनी बिटिया के लिए खानापूर्ति समझकर कोई नहीं करता था। बिटिया का भरोसा जो इसके साथ जुड़ा रहता था। हर बिटिया अपने परिवार में जिससे गुडि़या बनवाती थी, वह इस परम विश्वास को बनाये रखती थी कि मेरी गुडि़या सबसे अच्छी बनेगी। गुडि़या जल्दी से जल्दी बन जाये, इस अधीरता के साथ मगर सुन्दर बने, इस धीरज के साथ, बिटिया की आँखों से होकर ही पूरा सृजन हुआ करता था। 

बिटिया के धीरज को साधना कई बार माँ के बस में भी नहीं होता लेकिन विश्वास दिलाकर यह काम पूरा किया जाता था। गुडि़या बनना कब शुरू होगी, इसका जवाब बिटिया को तत्काल नहीं मिलता था लेकिन अपनी माँ के किए वादे और दिन की प्रतीक्षा भी व्याकुल होकर की जाती थी। माँ, बिटिया की अकुलाहट का समाधान करते हुए, कुछ-कुछ समय लेकर बताया करती थी कि कपड़ा इकट्ठा कर लिया है, सामान जुटा लिया है, सजाने की चीजें़ मिलती जा रही हैं, बस जल्दी ही काम शुरू हो जायेगा। जिस दिन काम शुरू हुआ, वह दिन बिटिया की घोर प्रसन्नता का दिन होता। पालथी मारकर बैठी नन्हीं बिटिया के सामने माँ उसके सपने से एक-एक करके झीना परदा हटा रही है, उसकी गुडि़या बनना शुरू हो रही है। माँ ने पहले एक देह गढ़ी है, दो पैर, दो हाथ लगाये हैं, पेट में चिन्दियाँ भर दी हैं, सिर गोल-गोल बनाया जा रहा है, बन जाने के बाद उसे दोनों कंधों के बीच रखकर सुई-धागे से सिल दिया जायेगा। बिटिया ये सब देख रही है, बीच-बीच में माँ मुस्कुराते हुए अपनी बिटिया के चेहरे की तरफ निहार लेती है, बिटिया की आँखें चमक रही हैं, वो मम्मी को देखकर मुस्कुरा देती है, अपनी खुशी छिपा पाना उसके लिए सम्भव नहीं होता। काम करते हुए माँ को बीच-बीच में उठना भी होता है, कई बार यह काम दूसरे ज़रूरी कामों की वज़ह से पिछड़ भी जाता है, जिसकी सफाई माँ, बेटी को दिया भी करती है। गुडि़या कब बन जायेगी, इसका आश्वासन एक-एक दिन आगे भी बढ़ता जाता है कई बार। काम अधूरा रह जाता है जो अधबनी गुडि़या सभी ज़रूरी सामानों के साथ एक जगह कहीं रख दी जाती है। कई बार आगे का काम कुछ समय या दिनों के लिए रुक जाता है तो कई बार जल्दी पूरा होने की बारी भी आ जाती है।

माँ, बिटिया को बताती है कि सबसे बड़ा काम तो पूरा हो ही गया है, गुडि़या के हाथ, पैर और सिर लगा ही दिया है, अब आँख, नाक, कान वगैरह बनाना है, फिर उसके कपड़े और गुडि़या तैयार। बिटिया यह सब सुनते हुए अपनी नन्हीं-नन्हीं आँखों में जैसे बनी हुई पूरी गुडि़या देख लेती है, और खिलखिलाकर अपनी माँ के जतन को सार्थक कर देती है। माँ, अब सही मायनों में गुडि़या को रच रही है। उसे खूबसूरत दो आँखें बनाना है, फिर उसके बाद नाक की बारी आयेगी, नाक बन जायेगी तब फिर मुँह बनाया जायेगा। रंग-बिरंगे धागे और सुई से ये काम किया जा रहा है। नाक अलग से बनाकर लगाना होती है जबकि आँख और मुँह सुई और धागे की मदद से बन जाता है। हाँ नाक की ही तरह दोनों कान भी अलग से ही बनाकर लगाये जाते हैं, उन्हें अलग से बनायी हुई नाक की ही तरह सिल भी दिया जाता है। इन सबके बाद आती है, बाल की बारी, तो बाल पुराने चुटीले से बनाकर सिल दिये जाते हैं। बिटिया के कहने पर ही उसकी एक या दो चोटी की जाती है। 

बिटिया अब जल्दी में है, माँ से कहती है, अब गुडि़या बन गयी है, जल्दी से इसके कपड़े बनाकर पहना दो। गुडि़या के कपड़े जल्दी से बनाकर पहनाना माँ के लिए सम्भव नहीं है, वह गुडि़या बना लेने के बाद विचार करेगी कि किस तरह के कपड़े बनाये और पहनाये जायें? साड़ी, ब्लाउज या घाघरा-चोली और ओढ़नी। गुडि़या, दुल्हन की तरह भी बनती है और गुडि़या, बिटिया की तरह भी। ज़्यादातर बिटिया, गुडि़या भी बिटिया की तरह ही बनवाना पसन्द करती है। इस तरह फिर पुराने बचे कपड़े और चिन्दियों से गुडि़या के कपड़े बनाये जाते हैं। माँ हाथ की सिलाई से अपना कौशल दिखाती है। छोटे-छोटे कपड़े बनकर तैयार हो जाते हैं। कपड़े बन गये तो बिटिया से अब इन्तज़ार हो पाना मुश्किल होता है, वह कहती है अपनी मम्मी से, जल्दी से पहना दो और मेरी गुडि़या मुझे दे दो। माँ, बिटिया के चेहरे पर खुशी देखकर अपनी सर्जना पर भावुक हो रही है। वह बेटी को गुडि़या के रूप में उसकी एक ऐसी सखी देने जा रही है, जिसके साथ बेटी की एक अलग ही दुनिया बन जायेगी जहाँ जाने क्या-क्या होगा! माँ का हुनर है, सुन्दर सजीले कपड़े गुडि़या को पहना दिये गये हैं, कपड़े इस तरह बनाये गये हैं कि उनको बार-बार बदलना न पड़े, इसी कारण उनको भी सुई धागे से सिल दिया गया है। कपड़े पहना देने के बाद माँ के हाथ में बिटिया ज़्यादा देर तक गुडि़या को रहने नहीं देना चाहती, वह लगभग छीन लेने को आतुर है, बहुत सारी सखी-सहेलियों को दिखाने की जल्दी है लेकिन माँ भी एक बार इत्मीनान कर लेना चाहती है कि सबकुछ ठीकठाक है कि नहीं, गुडि़या पूरी होकर अच्छी दिख रही है कि नहीं। इस इत्मीनान के होते ही खूब सारे प्यार-दुलार के साथ वो फिर गुडि़या अपनी प्राण-प्यारी बिटिया को सौंपती है, जिसे लेकर बिटिया उड़न-छू हो जाती है, आकाश में उड़ चली खूबसूरत पतंग की तरह जिसे अब खुशियों के पंख फैलाने से कोई रोक नहीं सकता........................

गुडि़या का रिश्ता बिटिया से इसी तरह बनता है। बिटिया, गुडि़या का पूरा ख्याल रखती है। उससे बात करती है, माँ का वो सारा व्यवहार जो अपनी बिटिया से होता है, वही का वही व्यवहार बिटिया का गुडि़या के संग होता है। गुडि़या को बिटिया एक जगह बैठने और शरारत नहीं करने का अनुशासन भी सिखाती है। कभी-कभी बिटिया गुडि़या के कान भी पकड़ लेती है, स्नेहिल चपत भी मार देती है, फिर गुडि़या रोने लगती है तो उसको चुप भी कराती है और समझाती है, आगे से ऐसा काम मत करना। गुडि़या को अच्छे से ओढ़ाकर साथ सुलाना, फिर खुद सोना और सुबह खुद जागने के बाद जगाना दोनों जवाबदारियाँ बिटिया की होती हैं, तैयार करना भी। चलना-फिरना और दौड़ना भी वही सिखाती है और वक्त पड़ने पर तबीयत खराब हो जाने या जुकाम हो जाने पर दवा भी बिटिया ही लगाती है। बिटिया हमेशा गुडि़या के स्पर्श में रहती है। गुडि़या बिटिया को एक ऐसी संगत देती है जिससे बिटिया का बचपन सुरीले संगीत की तरह मनोरम और मुग्ध कर देने वाला होता है।

बिटिया, गुडि़या के लिए अपने खाने से चार चीजें बचाकर रखती है और उसे खिलाती है। कई बार मौसम के अनुरूप गुडि़या का ख्याल रखा जाता है। यदि गुडि़या सरदी के मौसम में स्वेटर नहीं पहने है तो उसको अच्छी कपड़े से ढाँपे रखकर बिटिया उसके प्रति अपनी चिन्ता का परिचय भी देती है। बिटिया इस बात की भी चिन्ता करती है कि गुडि़या की सहेली और मित्रों की भी एक दुनिया बने, इस नाते वो अपने घर में और गुडि़या या गुड््डा बनवाये जाने की जिद करती है, माँ फिर बिटिया की जिद को सिरमाथे रखती है और फिर शुरू होता है एक नया सृजन। गुड््डा बने या गुडि़या या गुड््डे बनें या गुडि़याएँ फिर तो बिटिया का बचपन और उसके बचपन की दुनिया खूब समृद्ध होती जाती है। बिटिया, गुडि़या के साथ मिलकर खेलती है, सखी-सहेलियाँ मिलकर फिर शादी-ब्याह भी रचाती हैं। 

यह एक सिलसिला है, पीढि़यों से चला आया है। गुडि़या के बारे में हमें हमारे अविभावकों ने, हमारे पूर्वजों ने बहुत कुछ बताया है। बचपन में कितनी ही तरह की गुडि़याएँ हमने अपने पास, मित्रों के पास, इस गाँव से उस गाँव, इस शहर से उस शहर तक आते-जाते देखी हैं। गुडि़या न केवल हमारे अपने घर, प्रदेश या देश का सरोकार है, बल्कि दुनिया में गुडि़या अपने-अपने रूप-रंग, रहन-सहन, संस्कृति और परम्परा की पहचान और हिस्सा बनी हुई है। जापानी गुडि़या से लेकर चीन की गुडि़या और फेयरी टेल का संसार अलौकिक रहा है। भारतीय परम्परा में गुडि़या अलग-अलग राज्यों-प्रान्तों और आंचलिक परिवेश में जीवनशैली और परम्पराओं की जीवन्त छबियों को हमारे बीच प्रतिष्ठित करती है। बचपन, गुडि़या के खेल के बिना व्यतीत होता ही नहीं है। एक डोर है जो गुडि़या और बिटिया के बीच स्पन्दन के संवेदनशील सेतु का काम करती है। अब के आधुनिक समाज में गुडि़या की पहचान को धूमिल करने को ज़्यादा तत्पर टेडी बिअर का संसार हमारी स्मृतियों से भले उसे प्रशान्त जल में दिखायी पड़ते बिम्ब को पल भर में अस्थिर कर दे मगर गुडि़या की बिटिया के हृदय में बनी अमिट जगह को पल भर भी धुंधला नहीं सकती।


 लोकरंग की इस बार की परिकल्पना में बिटिया के माध्यम से ही हम अपनी परम्परा और सांस्कृतिक सरोकारों की बहुआयामीयता में खूबसूरत और नयनाभिराम विस्तार के साक्षी बनने जा रहे हैं। गुडि़या, बिटिया की नन्हीं सखी है, जी हाँ, बिटिया की काँख में घूमती-फिरती, सुरक्षित रहती नन्हीं सखी, हमने उस सखी को सिरजने का उपक्रम एक प्रदर्शनी, एक सर्जना स्थल बनाकर करने का प्रयत्न किया है। भरोसा है, यहाँ सबको अपनी दुनिया याद आयेगी, अपना बचपन याद आयेगा, कुछ किस्से याद आएँगे, गीत और कविताओं की पंक्तियाँ सूझेंगी और याद आयेंगी.................................
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शनिवार, 14 जनवरी 2012

लापतागंज में सन्यास का रोग


शुक्रवार की रात लापतागंज धारावाहिक की कड़ी में देर रात का एक दृश्य नजर को ठिठकने पर मजबूर करता है जिसमें मौसी, हनुमान जी की मूर्ति के पास बैठी रो रही हैं और अपने भाई छोटू, लापतागंज के मामा को सद्बुद्धि देने की प्रार्थना कर रही है। 

दरअसल बातों के धनी और स्वभाव से आलसी मामा को एक दिन एक गाड़ीवान एक बाबा के सान्निध्य में क्या ले गया, मामा की दृष्टि ही अस्थायी रूप से विचलित हो गयी। शान्ति की तलाश, शान्ति की खोज में ओम शान्ति जपने वाले बाबा की गुडबुक में मामा जिस तरह से आ गये वह भी कम चमत्कार नहीं था। तीन-चार कडिय़ों में यह दिखाया गया था कि किस तरह बाबा के सामने हाथ जोड़े नेता, डॉक्टर, पुलिस और तमाम लोग बैठे हैं और सिनेमा के गाने और कलाकारों के संवादों के उदाहरणों से शान्ति का मार्ग प्रशस्त करने वाले बाबा की हाँ में हाँ मिला रहे हैं।

लापतागंज के मामा जिन परिस्थितियों में बाबा का शिष्यत्व स्वीकार करते हैं उस समय उनके साथ दो तरह की समस्याएँ होती हैं, एक आराम-विश्राम की स्थितियाँ न बन पाना और दूसरा मनपसन्द भोजन-पकवान उपलब्ध न हो पाना। बाबा के आश्रम में दोनों ही सुख को अपने सामने देखकर मामा का मन डोल जाता है। सन्यास की तरफ बढ़ते मामा खुद लापतागंज में अपने बाबा की एजेंसी की तरह सक्रिय हो जाते हैं। आरम्भ में विरोध मगर जल्द ही बाबा के दसियों अनुयायी उनकी ताली के साथ ताली बजाने लगते हैं और एक माहौल बनने लगता है।

मौसी, मामा की बहन अपने भाई के इस खोये-खोये बरताव से भारी दुखी है, रो-रोकर बुरा हाल हुआ है उनका। उनको कभी लगता है, बीमारी है, कभी लगता है बाहर की व्याधि है। लल्लन जी मामा के शोरगुल से तंग आकर पुलिस बुला लेते हैं मगर वह भी मामा के पाँव छूकर चली जाती है। मामा से प्रेरित हो एलिजा, सुत्ती और चौरसिया पान वाला भी सन्यास ले रहे हैं। कुल मिलाकर अफरा-तफरी। सुत्ती की घरवाली मिरचा सन्यासिन बन सुत्ती का मोहभंग करना चाहती हैं मगर सुत्ती की आँखों पर मामा का मोहपाश जो है, परदे की तरह।

शुक्रवार को लापतागंज के समाप्त होते-होते एक कार आकर रुकती है जिसमें एक तरफ से बाबा अपने माडर्न रूप में और दूसरी तरफ से एक खूबसूरत युवती उतरते हैं। शायद सोमवार को खुलासा हो, कि एक तरफ मामा अपने चेलों के साथ सन्यास की तैयारी में हैं बाबा की प्रेरणा से उधर बाबा सन्यास त्याग कर मोह-मोहब्बत से अपनी जिन्दगी सँवार चुके हैं। देखते हैं क्या होता है......................

लापतागंज मनोरंजन का एक पूरा परिवेश गढ़ता है। उसको लगातार देखते हुए अच्छे मनोरंजन की चाहत वाले दर्शक उससे जुड़ ही जाते हैं। अनूप उपाध्याय अपनी अदायगी से एक अलग पासंग के साथ लोकप्रिय हो गये हैं। एक तरफ रोहिताश्व गौर मुकुन्दी की कद्र लापतागंज के सबसे समझदार व्यक्ति के रूप में है वहीं मामा अनूप उपाध्याय मामा बात-बात में पिताजी की दुहाई देते हुए हँसी का जैसे पिटारा खोल देते हैं। इन सब में श्रेष्ठ शुभांगी गोखले मौसी हैं जिनका स्नेहिल, छोटे भाई पर जान छिडक़ता चरित्र उभरकर सामने आता है। उनकी खूबी अपने किरदार में इस कदर डूब जाना है कि शुभांगी और मौसी एकाकार हो गये हैं। एक बातचीत में अनूप उपाध्याय ने कहा भी था कि लापतागंज में हमारी बहन का किरदार निभाते हुए वे मेरी सगी बहन ही लगती हैं।

फूहड़ और निरर्थक तथा चमचमाते मगर निहायत नकली धारावाहिकों के बीच ऐसे सार्थक धारावाहिकों का संघर्ष निश्चय ही कठिन है मगर यह भी उतना ही सच है कि शनै: शनै: ही सही लापतागंज ने अपने बड़ी संख्या में स्थायी दर्शक बना लिए हैं।

सोमवार, 9 जनवरी 2012

सौ साल का सिनेमा


इसी साल दो हजार बारह में सिनेमा अपनी स्थापना के सौंवे वर्ष में प्रवेश करेगा। हम ऐसे वक्त में हमारे लिए सिनेमा के एक्सीलेंस को जानने-समझने के लिए पुनरावलोकन के अनेक अवसर उपलब्ध रहेंगे। हालाँकि जहाँ एक तरफ अवसर उपलब्ध रहेंगे वहीं हमारी सुरुचि में सिनेमा के इतिहास को जानने की कितनी जिज्ञासा या जगह रहेगी यह कह पाना जरा कठिन है।

बावजूद इसके कि हर जगह डीवीडी और सीडी अनेक सुलभ-दुर्लभ फिल्मों की उपलब्ध हो जाया करती है। कुछ रसिक और रुझानी लोगों ने जखीरा खरीदकर अपने लिए इकट्ठा किया है और देख-देख कर आनंदित होते और अपना ज्ञान समृद्ध करते हैं वहीं बड़ी संख्या चालू और उपलब्ध मनोरंजन में ही खोयी हुई है। उसने अपनी सीमाएँ बांध रखी हैं या तय कर रखी हैं। लेकिन सिनेमा के यशस्वी समय और उत्कृष्ट प्रतिमानों को जरा ठहरकर धीरज के साथ थोड़ा-थोड़ा ही सही वक्त निकालकर देखा जाये तो हम अपने आपको सौ साल में रचे रचनात्मक प्रतिमानों के ऐसे हिन्द महासागर में अपने आपको पायेंगे जहाँ डूबकर अप्रतिम अनूठा सुख हासिल हो सकता है।

यहाँ किसी एक दो चार या दस नामों का जिक्र करना या दस-पच्चीस फिल्मों के उदाहरण दे देने से बात पूरी नहीं हो जाती बल्कि हमारे सामने इतना और ऐसा असमंजस है कि कितनी सारी धाराएँ हैं कितना सारा विस्तार है कितने सारे आयाम हैं सबमें जाये बगैर मन नहीं मानेगा बल्कि यदि हम कोई एक सिरा भी तरीके से छू पाये तो बड़ी लम्बी राह तय करनी पड़ेगी। लेकिन जैसा कि पहले कहा इसके सुख अनन्त हैं यदि हम सिनेमा के अर्थात को जरा सी भी संवेदनशीलता के साथ समझें।

पुरोधाओं ने इस माध्यम के महापुरुषों ने असाधारण काम किया है बड़े संघर्ष किए हैं ऐसे छोर पर जाकर ठहर गये हैं जहाँ उन्हें रास्ता खत्म होता लगा है लेकिन फिर वहीं से अपना रास्ता बनाकर बड़े आगे भी गये हैं। सिनेमा की शताब्दी की बेला को नजरअन्दाज नहीं करना चाहिए बल्कि कुछ सोचना शुरू करना चाहिए। दो महीने बाद जब पूरे सौ होंगे तब हमारे लिए आरम्भिक एक का मोल कल्पनातीत हो जायेगा......................

रविवार, 1 जनवरी 2012

बेहट का रास्ता


बेहट, ग्वालियर से लगभग चालीस-पैंतालीस किलोमीटर दूर संगीत सम्राट तानसेन की जन्म स्थली है। ग्वालियर में हर साल आयोजित होने वाले तानसेन समारोह के अन्तिम दिन सुबह की एक सभा बेहट में भी आयोजित की जाती है। यह एक लम्बी परम्परा है और लम्बे समय से ही इसका निर्वाह किया भी जा रहा है। एक समय रहा है जब शास्त्रीय संगीत के बड़े कलाकारों ने बेहट की सभा में गाने या वादन करने को ज्यादा महत्व दिया है। इसके पीछे उनका संवेदनशील और भावुक आग्रह यह रहा है, कि एक महान कलाकार की पुण्य भूमि पर अपनी आदरांजलि का आत्मसुख अलग और अनूठा है। मुख्य स्थल की सभा सुबह और शाम मिलाकर पाँच होती हैं जिनमें कलाकारों की परम्परागत शिरकत होती ही है। 

इस बार इस समारोह के लिए एक अलग स्थल का चयन कतिपय कारणों से करना पड़ा लेकिन यह शहर के मध्य ही स्थित था, बैजाताल। बरसों पहले संजोये एक छोटे से ताल के बीचों-बीच प्रस्तुति के लिए मंच है। सामने से देखने के लिए सीढिय़ाँ। सम्भागायुक्त कार्यालय के ठीक सामने इस स्थल पर एक सप्ताह पहले से मंच और परिसर आकल्पन का काम शुरू हुआ तो दिलचस्प बात यह देखने में आयी कि शहर के लोगों ने दिन-प्रतिदिन होते इस निर्माण कार्य को सुरुचि से देखा। रात बारह बजे तक परिवार यह देखने आते थे कि किस तरह मंच परिकल्पित किया जा रहा है। आकल्पन करने वाले कलाकार चमन भट्टी ने अपने सहयोगियों के साथ इस काम में दिन-रात एक किया और एक सुन्दर मंच बनकर तैयार हुआ। मूर्धन्य कलाकारों ने यहाँ गायन और वादन किया जिसमें तानसेन सम्मान से सम्मानित सविता देवी सहित आरती अंकलीकर, अश्विनी भिड़े, व्यंकटेश कुमार, पण्डित रोनू मजूमदार, विश्वजीत रायचौधुरी और संजय गुहा आदि शामिल थे। 

ग्वालियर में तानसेन समारोह के पहले दिन मौसम एकदम सामान्य सा था। बरसों से तानसेन समारोह में शामिल हो रहे लोगों का कहना था कि हमें चार डिग्री तापमान तक की तो याद है पर इस बार न जाने कैसा मौसम है, कुछ पता ही नहीं चल रहा सर्दी का। अगली शाम ऐसा लगा जैसे मौसम ने इन बातों पर कान दिया, यही वजह रही थी, एकदम सर्दी बढक़र गयी और ठिठुरन में तब्दील हो गयी। बताया गया, कहीं हिमपात हुआ है। बहरहाल ऐसे ही सिसियाते अनुभवों में अच्छे और प्रतिबद्ध कलाकारों को सुना, दाद उनकी कला की और सबसे ज्यादा डूबकर गाने और वादन करने का ऐसा आलम कि मौसमी अनुभूति से जैसे ऊबरे हुए महसूस हुए, सचमुच धन्य हैं वे सभी जिन्होंने ठण्ड, आसपास ताल में संग्रहीत पानी और गहरी रात में अपने होने को सम्पूर्ण रचनात्मकता के साथ सार्थक कर बताया।

समारोह के आखिरी दिन छठवीं सभा बेहट में नियत थी ही, बेहट जाने की बात वहाँ संस्कृति विभाग के अधिकारी और शिल्पकार अनिल कुमार, उस्ताद अलाउद्दीन खाँ संगीत अकादमी के कार्यक्रम अधिकारी राहुल रस्तोगी और हम मिलकर दो दिन पहले से कर रहे थे। बेहट, मेरा जाना पहली बार हो रहा था। मन में कौतुहल था, एक महान गायक की जन्म स्थली देखने का। अनिल कुमार ने बताया था कि बरसों से वे बेहट की सभा के साक्षी हैं, बड़े-बड़े कलाकार वहाँ गाते और वादन करते रहे हैं। जहाँ कार्यक्रम होता है, उसके पीछे ही शिव मन्दिर है जो देखने में एक तरफ से टेढ़ा दिखायी देता है। इसके बारे में किम्वदन्ती है कि तानसेन यहीं मन्दिर में आकर संगीत साधना किया करते थे। एक बार उन्होंने ऐसी तान लगायी कि उसके असर से मन्दिर टेढ़ा हो गया। यह सरोकार तानसेन के संगीत के प्रति समर्पण और अन्त:स्थल से कण्ठ तक आने वाली संगीत सलिला से जुड़ते हैं। उस मन्दिर को जाकर देखना बड़ा सुखद रहा और देखते हुए लगातार साधक का छबि-स्मरण होता रहा।

इस बार धु्रपद गायक अफजल ने वहाँ गाया और अपनी आदरांजलि पेश की। ग्वालियर से बेहट जाते हुए रास्ते में दोनों ओर सरसों के पीले फूल दूर तक अपनी स्वर्णिम आभा से आच्छादित दिखायी दे रहे थे। यह पूरा क्षेत्र और मुरैना के आसपास के ग्रामीण अंचल सरसों की खेती और तेल की पिराई के लिए प्रसिद्ध हैं। एक मशहूर ब्राण्ड सरसों का तेल भी यहीं का है। सडक़ मार्ग का वाहन से एक-डेढ़ घण्टे का यह सफर अनेक अनुभवों भरा साबित हुआ। पन्द्रह-बीस किलोमीटर जब बेहट रह गया था, वहीं से आसपास के रहवासियों का जैसे रेला आयोजन स्थल की तरफ बढ़ा चला जा रहा था। जाने कितने लोग तेजी से पैदल जा रहे थे, उनमें हर उम्र और अवस्था वाले शामिल थे, बड़े बुजुर्ग भी।

बेहट में दूध-मावे की जमी हुई बरफी बड़ी स्वादिष्ट मिलती है। छोटी-छोटी दुकाने हैं जहाँ बेचने वाले अपनी विश्वसनीयता और सहजता के साथ आपको बरफी तौलकर देते हैं। मिठाई की दुकान में बिना चखे रहा नहीं जाता, शहरी दुकानदार मांगने पर मुँह बनाकर एक टुकड़ा हाथ में पटक देता है मगर यहाँ एक पूरी बरफी देकर चखाने का दिल और साहस है, कि देख लो माल चोखा है। वाकई बरफी थी भी शानदार। बेहट की सभा वाले दिन गाँव में ही हजार-पन्द्रह सौ लोगों के भोजन का प्रबन्ध होता है, इस बार भी था, मगर हमें वापसी में जल्दी ग्वालियर पहुँचना था, लिहाजा मटर, आलू और टमाटर की रसेदार सब्जी, पूड़ी, गुलाब जामुन और बरफी हम लोगों के लिए पॉलीथिन में दे दी गयी। बीस-बाइस किलोमीटर दूर जाकर एक गाँव में सडक़ किनारे घर के सामने चबूतरे पर हम पाल्थी लगाकर बैठ गये, घर से बरतन मांग लिया और जमकर खाया, संगत में रोजमर्रा से ज्यादा खा गये लेकिन जो मजा आया वह अभी भी वैसा का वैसा ही है। वहीं जिनका घर था, उन्होंने बताया कि साहब जरा आगे जाकर उल्टे हाथ तरफ ही आपको ऊदल की तलवार मूठ तक गड़ी मिलेगी, उसे उतरकर देखना मत भूलिएगा। हम जिज्ञासा और कौतुहल में पूछते-पूछते गये और उस स्थान पर ठहर गये जहाँ, मूठ की आकृति का विशाल पत्थर जमीन में गहरे धँसा था। और भी लोग अचम्भित भाव से उसे देख रहे थे, हम भी शामिल थे। बेहट से लौटते हुए ये अनुभव जहन में लगातार बने रहे। तानसेन, मन्दिर, मिठाई, देशज भोजन चटखदार नाक, कान और गला खोल देने वाला, ऊदल की तलवार आदि, आदि।
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