गुरुवार, 31 जुलाई 2014

बहन, सरोकारों की संवाहक

राखी का त्यौहार आने को है। बहन आने को है। घर में बहन का आना कितनी सारी अनुभूतियों को जाग्रत करता है, बयाँ कर पाना मुश्किल होता है, एकदम नेत्र सजल हो जाते हैं। बहन के साथ हमारा बचपन बीतता है। हम यदि उससे छोटे होते हैं तो उसका हुक्म खुशी-खुशी बजाते हैं। बहन यदि हमसे छोटी होती है तो वह हमारा हर कहा करके देती है। बहन का ग्लास भर दिया पानी ही बड़ा मायने रखता है, फिर चाय या और कुछ आपका-उसका मनचाहा तो कमाल का होता है।
बहन जब अपने घर जाती है, हम उसे पराया घर कहते हैं पर दरअसल वह उसका अपना घर होता है, जहाँ हम खुशी-खुशी और रोते-रोते भी उसे भेजकर अपना कर्तव्य निर्वहन कर लिया करते हैं, उस घर जाने के बाद हमारी स्मृतियों में उसका वही सान्निध्य रह जाता है जो हमने बचपन में जिया होता है। लड़ते-झगड़ते, रूठते-मनाते, बाँटते-छीनते, छेड़ते-चिढ़ाते बहुत कुछ हमारा बहन ले जाती है और बहुत कुछ अपना हमें दे जाती है। समय-समय पर उसे याद करके हम अपनी आँखें भिगोया करते हैं, मुस्कुरा उठते हैं, आँसू पोंछकर।
बहन, माँ का उदार रूप हुआ करती है। व‍‍ह माँ और पिता दोनों के साथ हमारे सरोकारों की संवाहक होती है। बचपन में पिता और माँ को वही बताया करती है कि हमें क्या चाहिए जो उनसे हम कह नहीं पा रहे हैं। बहन ऐसे सवाल और ऐसी कठिनाइयाँ जादू से हल कर दिया करती है। बहन का मन बहुत विराट होता है। अपने ही घर में वह खुशी-खुशी यह अनुभव जिया करती है कि उससे ज्यादा जगह उसके भइया की है लेकिन उसे इस बात पर जरा भी ईर्ष्या नहीं होती बल्‍िक इसका संज्ञान लेने की भी उसमें चतुराई नहीं होती। वह अपने जन्मदिन से, अपने कपड़ों से लेकर अपनी सारी हिस्सेदारी को लेकर गजब की सहिष्णु हुआ करती है।
राखी के त्यौहार की बहन को साल भर प्रतीक्षा होती है। उस दिन वह पानी तभी पीती है जब भाई को राखी बांध ले। उसका दिया नारियल, रूमाल और माथे पर किया तिलक आपको पल भर में अपनी भटकी और बहकी आत्मा के सामने खड़ा कर दिया करता है। बहन हमेशा अपने भाई और उससे जुड़कर बढ़े समाज की सदिच्छा की कामना करती है। वास्तव में तो बहन हमारी अपनी अस्मिता और हमारे अपने समूचे आसपास में हमारे जिए रहने की कामना करने वाली वह विलक्षणा है जिसका आधा हृदय उसके पास होता है और आधा भाई के पास।
मुझे याद है, भोपाल के जयप्रकाश अस्पताल में जब मैं अपने पापा के साथ सायकिल पर आगे लगी छोटी सीट पर बैठकर अपनी बहन को देखने गया था, तब वहाँ की एक नर्स सिस्टर ने मेरा गाल पकड़कर कहा था, देखो तुम्हारी बहन आ गयी, अब यह तुम्हारे घर का सारा सामन ले जायेगी। उस समय मैं रोने लगा था, छोटी सी बहन गुड्डन माँ के बगल में लेटी हुई थी। मैं मम्मी से कहने लगा, घर चलो, इसे यहीं रहने दो......
आज हँसी आती है। सच कहूँ वह घर का कुछ भी सामान लेकर नहीं गयी बल्कि जीवन में वो यश हासिल किया जिसने माँ-पिता को असीम सुख और गर्व से भर दिया। वह डॉक्टर बनी और हम सबको गौरव प्रदान किया। आज जब वह हम सबकी तकलीफों को अपनी दवाओं और कई बार सुइयों से भी दूर कर दिया करती है तब यह एहसास होता है कि रिश्तों के इस संसार में यह भागीदारी कितनी सुखद है, अविस्मरणीय अनुभूति की तरह, सदैव मन में बनी रहने वाली और अक्सर ऐसे वक्तों में मन से छलक कर बाहर आ जाने वाली.........

रविवार, 13 जुलाई 2014

सांस्कृतिक अस्मिता और जोहरा सहगल

जोहरा सहगल का नहीं रहना, अकल्पनीय और अविश्वसनीय इसलिए लगता है कि वे हमारी पिछली स्मृतियों तक बड़ी सचेत थीं। उनका सचेत होना किसी चमत्कार से कम न था। उनमें एक पूरी की पूरी सदी स्पन्दित होती थी। एक शख्सियत किस तरह आपको सुखद तरीके से हतप्रभ कर देती है, वैसा उनको देखना होता था। उनके बारे में सोचते हुए अस्सी-नब्बे साल पीछे दौड़कर ठहरना होता है, तब के देशकाल की कल्पना करनी होती है, सामाजिक वातावरण और स्थितियों के बारे में कल्पना करनी होती है, परतंत्र भारत में भारतीयता का एक खाका बुनना होता है और फिर उस पूरे सन्दर्भ में जोहरा जी के व्यक्तित्व की कल्पना होती है। दरअसल पूरा का पूरा परिवेश हमारे सामने अनेक तरह के पिछड़ेपन, परिमार्जनहीनता और मूल्यों के धरातल पर डाँवाडोल होते विश्वास का प्रकट होता है।

ऐसे वातावरण में एक शख्सियत पन्द्रह-सत्रह साल की उम्र में किस तरह तमाम विरोधाभासों के बीच एक सांस्कृतिक धरातल की कल्पना करती होगी, एक युवती किस तरह यह निश्चय अपने आपमें करती होगी कि आने वाले समय में इस देश में मनुष्यता और भारतीय अस्मिता में सांस्कृतिक मूल्यों की स्थापना और उससे ऊर्जा, शक्ति तथा सामर्थ्य अर्जित कर के एक बड़ी भूमिका का सूत्रपात किया जाना बेहद जरूरी है।अंग्रेजों की पराधीनता के सालों में अनेक विरोधाभासों, दमन और प्रतिकूलताओं के बावजूद साहित्य, कला और संस्कृति, नाटकों ने जो भूमिका अदा की है, उसका समय-समय पर प्रबुद्धजनों ने श्रेष्ठ आकलन किया है। वास्तव में सुप्त मन:स्थिति और सोयी चेतना को अभिव्यक्तियों ने ही जाग्रत करने का काम किया। जोहरा जी की सक्रियता और उपस्थिति की जरा उस धरातल पर कल्पना कीजिए।

जोहरा जी तो भारतीय स्वतंत्रता के साल में परिपक्व उम्र और सजग चेतना में थीं। उनकी भूमिका को देश के सांस्कृतिक पुनरुत्थान के परिप्रेक्ष्य में सोचकर जरा देखा जाये जब वे अल्मोड़ा में उदयशंकर की अकादमी में भारतीय बैले की अवधारणा के बीज मंत्रों के साथ अनूठे और असाधारण प्रयोग कर रही थीं। सोचा जा सकता है उनका पृथ्वीराज कपूर जैसे यायावर रंगकर्मी और उनके समूह का हिस्सा बनकर देश के कोने-कोने में जाना, तमाम मुसीबतें और परेशानियों में साथ बने रहना और रंगमंच की बुनिया की स्थापना में अपना योगदान करना। जानकारों को उनकी सक्रियता और उनके योगदान के बारे में बहुत कुछ पता होगा। जोहरा जी के कृतित्व और व्यक्तित्व को केवल बीस साल के हाल के सिने-कैरियर से बहुत पीछे जाकर जरा देखें और अपने सारे संवेदनात्मक आग्रहों के साथ विचार करें तो बहुत दूर तक साफ-धुंधला-मिलाजुला नजर आयेगा, जिसे दृष्टि को और साफ करके देखने से इस महान कलाकार, एक विलक्षण प्रतिभा के होने का अर्थ समझ में आयेगा।

....................उनका जाना एक बड़ी सांस्कृतिक विरासत में अब तक उनके रूप में बने रहने वाले सम्बल का हमारे बीच से खत्म होना भी है।

बुधवार, 9 जुलाई 2014

मिष्ठान्न चेतना


पता नहीं क्या रहा, मिठाई का मोह तमाम चेतावनियों और समझाइशों के बावजूद नहीं गया। आज मिठाई का भाव प्राण सुखा देता है मगर आत्मा को तर रखने का लोभ संवरण छूटता नहीं। कल की याद है कि बारह रुपए किलो बरफी मिला करती थी, न्यूमार्केट के देहली स्वीट हाउस में जो कभी का बन्द हो गया, ज्वेलरी की दुकान खुल गयी और फिर किसी और की भी।

घर का सामान सौदा लेने बाजार जाते थे तो , साठ पैसे बचाकर पचास ग्राम लेकर वहीं खा-मुँह पोंछकर ही घर वापस आते थे। अब याद आती है तो हँसी आती है, तीज-त्यौहार में मम्मी पाव-आध किलो मावा मंगवाया करती थीं, उसे भी खरीदने के पहले चखकर देखने का ड्रामा जरूरी होता था, स्वाद चेतना जाग्रत करने के लिए। खरीद कर चले तो रास्ते में दो बार सायकिल रोक कर बंधा मावा खोलकर थोड़ा सा खा लिया करते थे। 

न्यूमार्केट की अन्नपूर्णा मिष्ठान भण्डार की लाल चॉकलेट परत वाली मिठाई बेहद पसन्द थी, वह आज तक दिमाग में फिट है, वो भी बाजार जाने पर पचास पैसे-एक रुपये काट लेने पर ले लिया करता। वह मिठाई डॉक्टरनी (बहन) को भी मजेदार लगती। मम्मी की नजरों से छुपा कर खाते क्योंकि वे उस मिठाई को रिजेक्ट करती थीं, कहती थीं, अच्छी नहीं होती पर आज भी दो-चार महीने में सौ ग्राम खा कर अपने छुटपन में कुछ देर को जाता हूँ। अक्सर मम्मी-पापा के साथ उनके परिचितों के घर जाते तो उन्हीं के कथनानुसार नाक कटाने का काम जरूर करते, मिठाई देखते ही दोनों हाथों में उठा लेते। जल्दी-जल्दी खाने लगते। मम्मी चुपके से चिकोटी काटतीं तो रोने लगते, सामने वाले को बता भी देते कि डाँट रही हैं तिस पर उनको परिचित कहते, बच्चा है, खाने दो...........अपन खुश। रोना छोड़कर खाने लगते।

मिठाई के प्रति अनुरक्ति आज भी कम नहीं है। संकल्पते कई बार हैं कि कम खायेंगे या दूर रहेंगे पर ऐसा हो नहीं पाता। कुछ दिन दूर रहे भी ताे जब पास आये तब सारा हिसाब बराबर कर लिया। शहर और कस्बों की मिठाइयों को भी खाने का बड़ा शगल है। बेहट से लगाकर हरदा, टिमरनी, दमोह, छतरपुर, सागर, टीकमगढ़ आदि सभी जगह का देशज स्वाद दोहराया-तिहराया ही नहीं बल्कि कितने ही बार मन को कृतार्थ किया है। अपने सब मित्र, आदरणीय जो प्रेम देते हैं, वह अविस्मरणीय है, साथ खाना, नाश्ता करो तो बहुत अपनेपन के साथ अपनी बरफी, कलाकन्द प्लेट में सरका देते हैं, इससे बड़ा उपकार, प्रेम और भाईचारा क्या होगा............!!

सोमवार, 7 जुलाई 2014

एक जुलाई की याद


दिन भर 1 जुलाई को लेकर पुरानी स्मृतियाँ कौंधती रहीं। कुछ अपने पर हँसी भी आती रही। बचपन में अपने लिए यह दिन स्कूल खुलने का होता रहा है। नयी क्लास में पहला दिन। घर के बड़े होने के कारण छुटपन में नक्शेबाजी खूब रही, भले पढ़ाई में लद्धढ़ ही थे। हर सुबह स्कूल हमेशा रो-रोकर ही गये जैसे पता नहीं कौन सा जुल्म किया जा रहा हो। माता-पिता ने, जाहिर है, ख्वाहिश क्यों न रही होगी, शुरूआत रीजनल स्कूल से करायी लेकिन पढ़कर ही नहीं दिया। आखिरकार निगाह के सामने रहें, सो हिन्दी स्कूल में आ गये लेकिन वहाँ भी हर सुबह आँख खुलते ही स्कूल न जाने के बहाने सोचने लगते।

जैसा कि ऊपर नक्शेबाजी खूब रही लिखा, हाँ साहब व्यवस्था पूरी चाहिए, स्कूल खुलने के पहले नया बस्ता हो, वाटर बैग (पानी की बोतल), कम्पॉस, पेन-पेंसिल, रबर, कटर, स्केल, जूते, मोजे, बरसाती, छाता सब कुछ। किताबें, कॉपियाँ भी ले लेने के लिए बड़ा उतावलापन, मम्मी-पापा की आफत करके, दुकान में भले भीड़ हो, अपने को चाहिए। भले साल भरे ढंग से पढ़ें नहीं, जी चुरायें, स्कूल रोते हुए जायें या न भी जायें।

परीक्षाएँ जैसे-तैसे पास करके ही खुश। याद करने पर हँसी आती है, परीक्षा देने के बाद हर दो-चार दिन में मन्दिर जरूर जाया करते थे, ध्यानपूर्वक, प्रार्थना वही, पास हो जायें। हो जाते थे, सप्लीमेण्ट्री आयी तो दो-एक दिन रो-धोकर, जैसे हमने कॉपी में सब कुछ लिखा हो पर नम्बर ही नहीं आये, फिर उसे पास करने की थोड़ी-मोड़ी निष्ठा, खैर उसमें भी फिर पास।

एक बार की याद है, शायद सातवीं क्लास, मॉडल स्कूल में। छमाही की परीक्षा में छ: में से पाँच विषयों में लाल अण्डरलाइन। एक राजाराम शास्त्री सर थे, घर भी आते-जाते थे, उन्होंने बावजूद इसके कि हमारी क्लास का एक भी विषय नहीं पढ़ाते थे, विशेष रूप से क्लास में आये और बाहर निकालकर जमकर तमाचेबाजी की, खूब रुलाया। शाम को फिर घर आ गये, चाय पी, हलुआ खाया और पापा को बताया कि आज हमने सुनील को खूब मारा, पाँच विषय में रह गया। ऐसे ही करेगा तो सालाना में क्या होगा?

यह सब तो खैर स्मृतियों के पुनरावलोकन हैं, यह बात जरूर कहूँगा कि माता-पिता ने अच्छी पढ़ाई के लिए हर जरूरत पूरी की, उनका अपना निश्चित रूप से एक सपना रहा, मेरे स्वभाव, अलाली की वृत्ति और कामचोरी के बावजूद कोई कमी बाकी नहीं रखी। अपना तो खैर क्या कहूँ क्या हो गया लेकिन भाई-बहनों ने अच्छे प्रतिसाद दिए और वे सब आकाँक्षाएँ पूरी कीं जो अविभावकों की रहीं, मेरे हिस्से की भी पूरी कीं.......

टा टा का सुख

बच्चों के लिए घर से जाते हुए माता-पिता को खुशी-खुशी टा टा करना एक बड़ा ही सुखदायी काम होता है जो दोनों ओर बड़ा आनंद प्रदान करता है। प्राय: तो यह होता है कि छोटे बच्चों को घर छोड़कर माता-पिता के लिए घर से बाहर जाना ही आसान नहीं होता, उनका पीछे लगना, दौड़ना, जिद करना और रोना बड़े प्रासंगिक मसले हैं और हर बच्चे, माता-पिता के पास ऐसे दिलचस्प किस्से-कहानी होंगे।

अपन भी किया करते रहे हैं। हमारा स्कूल 12 बजे का होता था। पापा दफ्तर दस-सवा दस बजे के बीच निकला करते थे। दरवाजे के बाहर सीढ़ी उतरते ही और आगे फाटक से आगे जाते ही अपन टा टा किया करते थे। उसका उत्तर भी पापा देते। फिर वो आगे बढ़ जाते तो अपन फाटक के बाहर खड़े हो जाते, पीछे से आवाज लगाते, पापा टा टा, पापा मुड़कर हाथ हिलाकर उत्तर देते। बड़े आगे सड़क तक मुड़ते हुए वे दो-तीन बार मुड़कर देखते, मुझे खड़ा पाते, टा टा का आदान-प्रदान होता, सड़क से सीधे हाथ मुड़ जाने के बाद अपन अन्दर भाग आते........

शाम को उनके लौटने की बेसब्र प्रतीक्षा होती। फाटक के बाहर पुलिया पर बैठा रहता और दूर मोड़ से उनका आना निहारता रहता। वे आते दीख जाते तो आँखों में चमक आ जाती। जब वे बिजली घर के बराबर तक आ जाते तब मैं घर के अन्दर काम करती हुई मम्मी की नजर बचाकर पापा की तरफ दौड़कर जाता। पास पहुँचकर हाथ पकड़ लेता और साथ-साथ वापस आते।

कई बार वे न्यूमार्केट से सब्जी लेते हुए आते थे। उनकी जेब में हमेशा रूमाल हुआ करता था। उसी रूमाल में वे सब्जी ले आते। रूमाल के चारों कोनों को वे तिर्यक तरीके से बांधकर उसमें कई सब्जियाँ ले आते, आलू, भिण्डी, टमाटर, मिर्च, नीबू आदि। घर में रूमाल की गाँठों को खोलकर सब्जी डलिया में निकाली जाती। मुझे सजा-जमाकर रखने में मजा आता..............उसके बाद रूमाल को धुलवाना और अगले दिन सुबह सुखाकर उनको सौंपना एक जिम्मेदारी का काम हुआ करता था, शायद मैं नहीं किया करता था, वो काम मम्मी का रहा, हमेशा............