राखी का त्यौहार आने को है। बहन आने को है। घर में बहन का आना कितनी सारी अनुभूतियों को जाग्रत करता है, बयाँ कर पाना मुश्किल होता है, एकदम नेत्र सजल हो जाते हैं। बहन के साथ हमारा बचपन बीतता है। हम यदि उससे छोटे होते हैं तो उसका हुक्म खुशी-खुशी बजाते हैं। बहन यदि हमसे छोटी होती है तो वह हमारा हर कहा करके देती है। बहन का ग्लास भर दिया पानी ही बड़ा मायने रखता है, फिर चाय या और कुछ आपका-उसका मनचाहा तो कमाल का होता है।
बहन जब अपने घर जाती है, हम उसे पराया घर कहते हैं पर दरअसल वह उसका अपना घर होता है, जहाँ हम खुशी-खुशी और रोते-रोते भी उसे भेजकर अपना कर्तव्य निर्वहन कर लिया करते हैं, उस घर जाने के बाद हमारी स्मृतियों में उसका वही सान्निध्य रह जाता है जो हमने बचपन में जिया होता है। लड़ते-झगड़ते, रूठते-मनाते, बाँटते-छीनते, छेड़ते-चिढ़ाते बहुत कुछ हमारा बहन ले जाती है और बहुत कुछ अपना हमें दे जाती है। समय-समय पर उसे याद करके हम अपनी आँखें भिगोया करते हैं, मुस्कुरा उठते हैं, आँसू पोंछकर।
बहन, माँ का उदार रूप हुआ करती है। वह माँ और पिता दोनों के साथ हमारे सरोकारों की संवाहक होती है। बचपन में पिता और माँ को वही बताया करती है कि हमें क्या चाहिए जो उनसे हम कह नहीं पा रहे हैं। बहन ऐसे सवाल और ऐसी कठिनाइयाँ जादू से हल कर दिया करती है। बहन का मन बहुत विराट होता है। अपने ही घर में वह खुशी-खुशी यह अनुभव जिया करती है कि उससे ज्यादा जगह उसके भइया की है लेकिन उसे इस बात पर जरा भी ईर्ष्या नहीं होती बल्िक इसका संज्ञान लेने की भी उसमें चतुराई नहीं होती। वह अपने जन्मदिन से, अपने कपड़ों से लेकर अपनी सारी हिस्सेदारी को लेकर गजब की सहिष्णु हुआ करती है।
राखी के त्यौहार की बहन को साल भर प्रतीक्षा होती है। उस दिन वह पानी तभी पीती है जब भाई को राखी बांध ले। उसका दिया नारियल, रूमाल और माथे पर किया तिलक आपको पल भर में अपनी भटकी और बहकी आत्मा के सामने खड़ा कर दिया करता है। बहन हमेशा अपने भाई और उससे जुड़कर बढ़े समाज की सदिच्छा की कामना करती है। वास्तव में तो बहन हमारी अपनी अस्मिता और हमारे अपने समूचे आसपास में हमारे जिए रहने की कामना करने वाली वह विलक्षणा है जिसका आधा हृदय उसके पास होता है और आधा भाई के पास।
मुझे याद है, भोपाल के जयप्रकाश अस्पताल में जब मैं अपने पापा के साथ सायकिल पर आगे लगी छोटी सीट पर बैठकर अपनी बहन को देखने गया था, तब वहाँ की एक नर्स सिस्टर ने मेरा गाल पकड़कर कहा था, देखो तुम्हारी बहन आ गयी, अब यह तुम्हारे घर का सारा सामन ले जायेगी। उस समय मैं रोने लगा था, छोटी सी बहन गुड्डन माँ के बगल में लेटी हुई थी। मैं मम्मी से कहने लगा, घर चलो, इसे यहीं रहने दो......
आज हँसी आती है। सच कहूँ वह घर का कुछ भी सामान लेकर नहीं गयी बल्कि जीवन में वो यश हासिल किया जिसने माँ-पिता को असीम सुख और गर्व से भर दिया। वह डॉक्टर बनी और हम सबको गौरव प्रदान किया। आज जब वह हम सबकी तकलीफों को अपनी दवाओं और कई बार सुइयों से भी दूर कर दिया करती है तब यह एहसास होता है कि रिश्तों के इस संसार में यह भागीदारी कितनी सुखद है, अविस्मरणीय अनुभूति की तरह, सदैव मन में बनी रहने वाली और अक्सर ऐसे वक्तों में मन से छलक कर बाहर आ जाने वाली.........
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