बुधवार, 14 जनवरी 2015

जीवन की पतंग

पतंग की बात हो रही थी, दिन में। बचपन और आनंद के दुर्लभ हो चले खेलों की बात करते हुए कौन भला ऐसा होगा जो थोड़ी देर छोटा न हो जाना चाहेगा। मैं भी हो गया। मुझे अचानक रामदास चाचा याद आ गये। पापा के दोस्त थे। स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई साथ-साथ की थी ग्वालियर में। नौकरियाँ दोनों को मिलीं पर अलग-अलग विभागों में। रामदास चाचा को जल्दी तरक्कियाँ मिलीं। वे जेलर भी बन गये थे, शायद सुपर‍िडेण्ट जेलर। महीनों में जब कभी उनका भोपाल आना होता तो शाम को घर जरूर आते। प्राय: उनका मुख्य काम पापा के आने के पहले मुझे बाजार ले जाना होता। छोटी उम्र थी, शायद आज जैसी या इससे ज्यादा ही नासमझी भी रही होगी। मैं उनसे अपने मन-पसन्द की वे सब चीजें दिलवाने की जिद करता जो पापा-मम्मी की नजरों में फिजूल या बेकार की रहती।

रामदास चाचा सब खरिदवाते। कम्पॉस बॉक्स नया, भले बस्ते में रखा हो, पेन-पेंसिल, रबर, कटर सब कहता, खरीद दो। वे दिलवाते। बड़े अच्छे चाचा जी। फिर उनसे कहता, पतंग दिला दो। वे पतंग की दुकान ले जाते। वहाँ एक छोड़ तीन पतंगें पसन्द कर लेता। उस समय छोटी पतंग दो पैसे और बड़ी पतंगें पाँच, दस और पन्द्रह पैसे में आतीं। अपने को बमुश्किल पाँच पैसे मिला करते। पतंग की कब लायी, कब फट गयी पता नहीं। चकरी, सद्दी, माँजे का भी दारिद्रय। ऐसे में चाचा मसीहा बनकर आते। उनसे एक चकरी, माँजा, सद्दी खरीद देने को कहता। पन्द्रह-बीस रुपए चाचा खर्चते मेरे ऊपर और अपन राजा। गर्व से उनका हाथ थामे घर लौटते। पापा नाराज होते, चाचा पर भी, कहते, ये नालायक है, तुम और इसे बिगाड़ने में लगे हो। इस पर रामदास चाचा उनसे हँसकर कहते, अन्नू को कुछ मत कहो, हमारा एक ही तो भतीजा है, वाकई उस वक्त अपन एक ही थे, भाई-बहन बाद में आये।

रामदास चाचा से बस इतना ही स्वार्थ रहता। चाचा फिर पापा के साथ बातचीत करते, ग्वालियर के हालचाल, भोपाल आने का कारण, नौकरी की बातें, प्रमोशन वगैरह। खाना-वाना साथ खाते, रसरंजन भी होता और बड़े भावुक होकर, गले मिलकर लौट जाते। उनकी पापा की आत्मीयता कमाल थी। अक्सर वो चिट्ठी भी लिखा करते, मुझे याद है उसमें पापा के लिए उनका सम्बोधन - डियर दादा, मधुर मिलन..........फिर सारा हाल। उनका आना वाकई अपने लिए बड़ा खास होता। एक बार पापा ने ऑफिस से लौटकर उनके बारे में मम्मी से बताया था, तब मैंने भी सुना था कि वे नहीं रहे। तब नहीं रहने का अर्थ ज्यादा समझ में नहीं आता था। बाद में जब समझ आया तब उनकी बहुत याद आती रही। आज भी आयी, उनका पूरा व्यक्तित्व जेलर की वर्दी में उनका आना, बड़ा रोबीला होता।

उनकी दिलायी पतंगें कई दिन चलतीं। पतंग उड़ाने के लिए जरूरी है कोई आपका सहायक उसे दूर तक ले जाकर ऊँचा उछाले, युक्तिपूर्वक, जिसे हम छुट्टी देना कहते थे, इस काम के लिए कोई मिलता नहीं था। मोहल्ले के जूनियर साथी इस लालच में कि उड़ने लगने के बाद उन्हें भी उड़ाने दूँ, छुट्टी दिया करते थे। घर के सामने स्कूल के मैदान से लेकर, घर की छत और कहाँ नहीं पतंग उड़ायी। पतंग के चक्कर में कई बार गिरे, पड़े और मम्मी से खासे पिटे भी। लेकिन तब डाँट, फटकार और पिटायी का प्रतिवर्ती प्रभाव दुस्साहस में तब्दील होकर और समृद्ध हुआ करता था। पतंगें खूब ऊँची उड़ायीं, अपनी कटी तो दुख मनाया, दूसरे की काटी तो खुश हुए। एक समय पतंग के साथ-साथ अपनी कामनाओं के उड़ने का भी हुआ करता था। आज याद आता है तो आकाश में पतंगे उस उदारता से दिखायी नहीं पड़तीं जो अपनी गोद में कामनाओं को बैठाकर दूर कहीं ऊँचे ले जायें.............

शनिवार, 10 जनवरी 2015

गुलाब विश्व में रमण करते हुए

तय नहीं कर पाया कि इसे गुलाब का गाँव कहूँ या विश्व। गुलाब है इसलिए गाँव कहने में सहज महसूस नहीं किया। गुलाब का विश्व ठीक है। ऐसा ही एहसास करने की भी कोशिश की जब सतह से तेज भागती ठण्डी हवा ने मुट्ठी भर महक भी उस सड़क पर उड़ेल दी, जहाँ से होकर जा रहा था। दायीं ओर निगाह गयी तो सड़क किनारे गाड़ियों को कतार में खड़ा पाया। बड़ा सा बगीचा था जिसमें सफेद कनातों से घिरा वह विश्व था, जिसे गुलाबों का विश्व कहा जा सकता है। महक का रास्ता वहीं से होकर आया था, चेतना झंकृत सी हो गयी।
गुलाब के फूल का अपना महत्व है। अपने स्वभाव का वह अलग सा ही फूल है, जितना ही खूबसूरत, उतना ही पल भर में बिखर जाने वाला। उसको सहेजना कठिन है और छूना जितना सुखद उतना ही जोखिम भरा। गुलाब की खूबसूरती के चारों तरफ उसकी हिफाजत करने वाले सख्त काँटों को देखकर मन सिहर उठता है पर फिर भी गुलाब से आँख कहाँ हटती है! राजकपूर की फिल्म मेरा नाम जोकर में वे शायद अपनी टोपी के अन्दर गुलाब ही छुपाकर रखते थे, नायिका को देने के लिए।
गुलाब बहुत सारे रंगों, आकारों और विन्यासों में देखा। वर्षों पहले शहर के ही एक अखबार के ‍लिए ऐसी प्रदर्शनी देखकर, सम्पादक जी की चाहत अनुसार कविताई रिपोर्टिंग करने का काम मिला था, वह याद आ गया। उस समय यह प्रदर्शनी बड़ी झील के किनारे लगी थी, अब वह अस्पताल के सामने लगने लगी है। मन कहता है कि इतने सारे गुलाबों की महक से अस्पताल में उन तक महक पहुँचती होगी तो उन्हें बहुत अच्छा लगता होगा, जिनकी तबियत खराब होती होगी।
शहर में दिन शुरू होते ही प्रेमी-प्रेमिका चेहरा बांध-बूँधकर मोटरसायकिल में जाने कहाँ-कहाँ घूमने निकल जाते हैं। वे तालाबों के किनारे या बाग-बागीचों में आबोहवा या प्रकृति के प्रति अनुराग के वशीभूत होकर अपना समय नहीं बिताते होंगे, ज्यादातर झुँझलाते या बहस करते दीखते हैं या उलाहने देते हुए। घण्टे भर गुलाब विश्व में रमते हुए ऐसा कोई जोड़ा नहीं दीखा जो गुलाब की खूबसूरती देखने-दिखाने आया हो।
गुलाब की खूबसूरती को सराहने वालों का अन्दाज दिलचस्प होता है। रमण करने वालों को सभी के सभी गुलाब सुन्दर, खूबसूरत, ब्यूटीफुल और वाओ लगते हैं। वास्तव में इस फूल की प्रकृति अचम्भित करके रख देती है। गुलाब का विभिन्न रंगों में यहाँ व्यक्त होना, उनका विन्यास चकित करके रख देता है। मुख्य रूप से तो सुर्ख-रक्ताभ गुलाब की खूबसूरती का शायद ही कोई पर्याय हो। लाल गुलाब से ध्यान मुश्किल से हटता है। आमतौर पर गुलाब, नाम के अनुरूप गुलाबी और गुलाबी में भी गहरे और हल्के रंगों की अनेक छायाओं में दिखायी देते हैं। पीला गुलाब देखना बहुत सुहाता है। यदि कहें कि सुर्ख लाल रंग का गुलाब मादकता का बोध कराता है तो पीला गुलाब मद्धम मुस्कुराता-लजाता सा महसूस होता है। सफेद गुलाब की शालीनता को उसके अनूठेपन में परिभाषित किया जा सकता है।
प्रयोगधर्मी समय में गुलाब उपरोक्त प्रमुख रंगों के अतिरिक्त नीले, हरे, बैंगनी आदि अनेक रंगों में दिखायी देते हैं किन्तु मूलभूत रूप से लाल, गुलाबी, पीला और सफेद गुलाब सीधे हमारे संज्ञान से जुड़ा है। गुलाब के फूलों की अनुभूति सीधे अनुराग से जुड़ी है। हमारे सिनेमा में ऐसे कितने ही दृश्य यादगार हैं जिसमें नायिका या तो स्वयं अपने बालों, जूड़े में गुलाब लगा रही होती है या उसका नायक प्रेम में भरकर मुस्कुराते हुए उसके बालों में गुलाब लगाता है। ऐसे दृश्य बहुत से एहसासों का पुनर्स्मरण कराते हैं। गुलाब पेश करना और उसका स्वीकार लिया जाना किसी के भी जीवन का दुनिया जीत लिए जाने जैसी अनुभूति रहा होगा, निश्चित ही। स्मृतियों में किताब में रखे-रखे सूख गये गुलाब भी याद आते होंगे जो देना थे मगर दे नहीं पाये। गुलाब का फूल शाहजहाँ की तस्वीर में उनके हाथों में हमेशा रहा है।
आज शायद ही किसी को गुलाब के सहारे अपनी ख्वाहिशों की दुनिया जीतने का ख्याल कभी आता हो..........

गुरुवार, 8 जनवरी 2015

भीतर फूल से धर्मेन्द्र

धर्मेन्द्र बीते 8 दिसम्बर को अस्सीवें वर्ष में प्रवेश कर गये हैं। साल दर साल बढ़ती उम्र का एहसास रोमांचक है, तब जब वर्षों से हर जन्मदिन पर उनके साथ होने का सान्निध्य रहा हो। इस साल का जन्मदिन सक्रियता और व्यस्तताभरा है क्योंकि वे शूटिंग कर रहे हैं। शूटिंग में ही उनका यह विशेष जन्मदिन मनाया जायेगा। अपने हर जन्मदिन पर वे अपने चाहने वालों से दिन भर मिलते हैं। सबसे पुराने रिश्ते निबाहने वाले इस खूबसूरत और विनम्र इन्सान को बधाई देने दिन भर साथ के कलाकार आते हैं, वे कलाकार भी आते हैं जो बेटों के मित्र हैं, वे भी जिनके साथ काम किया है, निर्देशक आदि सभी। इसके अलावा वे थोड़ी-थोड़ी देर में बड़ी चिन्ता और जिम्मेदारी से मुख्य दरवाजे के बाहर भी चले जाया करते हैं जहाँ भीड़ भर चाहने वाले उनसे मिलने की ललक लिए खड़े रहते हैं। वे सभी से मिलते हैं। बाहर गये तो फिर मुरीदों के होकर रह जाते हैं। सबके मन की इच्छा पूरी करते हैं। मन की इच्छा फोटो खिंचवाना, दूरदराज से साथ लेकर आये तोहफों को प्रेमपूर्वक स्वीकार करना। धर्मेन्द्र किसी को निराश नहीं करते। मिलने वाले सुखद स्मृतियाँ लेकर जाते हैं। सुरक्षा गार्डों को वे कह देते हैं किसी पर जोर-जबरदस्ती बिल्कुल नहीं करना है। कोई कहता है कि धर्मेन्द्र का सीना बहुत बड़ा है, कोई फीता नहीं ऐसा जो नाप सके।

बात वाकई सही है। एक बात बड़ी स्वाभाविक और एक सी ही देखी है। धर्मेन्द्र की इण्डस्ट्री में सभी तारीफ करते हैं। इसकी वजह यह है कि वे सबको प्रोत्साहित करने वाले कलाकार हैं। उन्होंने अपने बेटों के साथ काम करने वाली पीढ़ी की भी पीठ थपथपायी और उनके साथ काम किया। सेट पर शूटिंग के वक्त उनका काम के प्रति समर्पण अलग सा है। वे पूरी तरह निर्देशक के मित्र हो जाते हैं। सहायक निर्देशक जो दृश्य के बारे में बतलाने आते हैं उनके साथ भी उनका व्यवहार बड़ा आत्मीय होता है। सेट पर उनके होने को अनुशासन की तरह भी लिया जाता है। धर्मेन्द्र मिल रहे आदर को अपनी पूँजी मानते हैं वे कहते हैं कि ये सब बच्चे लोग इतनी इज्जत देते हैं, इतना प्यार करते हैं, मुझे लगता है कि पचास साल से ज्यादा समय जो इस संसार को दिया है वह व्यर्थ नहीं गया है।

धर्मेन्द्र को अपने सब निर्देशक याद आते हैं। वे उस स्वर्णिम काल को याद करते हैं जब बड़ी ही स्वस्थ स्पर्धा के साथ अच्छी-अच्छी फिल्में बना करती थीं। एक साथ पाँच-छः निर्देशक अपनी-अपनी फिल्मों के साथ सक्रिय रहा करते थे। एक साथ अनेक नायक अपनी-अपनी फिल्मों में काम करते हुए अपना श्रेष्ठतम देने का प्रयास करते करते थे। फिल्में चलती थीं, एक-दूसरे की सराहना होती थी। परिवारों की तरह मिलना-जुलना हुआ करता था। अवार्डों-समारोहों की आब देखते ही बनती थी। अवार्ड मिलना-नहीं मिलना एक बात होती थी लेकिन काम किसने अच्छा किया, इस बात को लेकर श्रेय देने से पीछे कोई हटता नहीं था। धर्मेन्द्र कहते हैं कि मेरा सौभाग्य रहा कि बहुत गुणी डायरेक्टरों के साथ काम किया, बिमल राय, हृषिकेश मुखर्जी, रामानंद सागर, असित सेन, रघुनाथ झालानी, मोहन कुमार, जे. ओमप्रकाश, बी. आर. चोपड़ा, यश चोपड़ा, ओ. पी. रल्हन, रमेश सिप्पी आदि कितने ही अलग दृष्टि और सिद्धान्तों के फिल्मकार जिन्होंने अपनी फिल्में मनोयोग से बनायीं, उनकी पटकथा पर गम्भीरता से काम किया, गीत-संगीत को देखा और यहाँ तक कि सहायक कलाकारों, एक्स्ट्रा तक को साथ लेकर चले। 

परदे पर धर्मेन्द्र के होने का मतलब दर्शक जानते हैं। उनकी फिल्मों के नाम सभी को याद हैं। सबने वे फिल्में कई-कई बार देखी हैं। दर्शकों ने ही उन्हें मर्द, इण्डियन जेम्सबाॅण्ड, सदाबहार, ही-मैन आदि विशेषणों से स्थापित किए रखा है। दर्शकों ने उन्हें हर दौर में पसन्द किया है। ऐसा अनेक बार हुआ होगा जब एक वक्त में किसी नायक-महानायक विशेष का वर्चस्व रहा होगा लेकिन अचानक से उसी बीच धर्मेन्द्र की कोई फिल्म ऐसी आ गयी कि सबका ध्यान उस फिल्म की ओर मुड़ गया और फिल्म सुपरहिट हो गयी। ऐसे दौरों को धर्मेन्द्र ने खूब आजमाया और उस वक्त की लोकप्रियता का सुख उठाया है। धर्मेन्द्र अपनी फिल्मों में किस्म-किस्म के किरदार करते रहे हैं। उन्हें खलनायक डाकुओं से लड़ने वाले बहादुर युवा के रूप में भी पसन्द किया गया है और जब वे खुद डाकू बनकर आये तब भी सराहा गया। वे पुलिस इन्स्पेक्टर भी खूब जमे और पाॅकेटमार के रूप में भी। दर्शकों धर्मेन्द्र को चोर के रूप में देखकर खुशी से फूला नहीं समाते थे, ऐसा चोर जो पुलिस की आँखों में धूल झोंककर बड़ी से बड़ी चोरी कर लेता है, कीमती से कीमती हीरा चुरा लेता है। वे छुपे रुस्तम की तरह पुलिस अधिकारी, सी बी आई और सी आई डी अधिकारी बनकर भी बहुत प्रभावित करते रहे हैं।

धर्मेन्द्र जैसा नायक देश के दुश्मनों से लड़ता है तो उनके प्रति मुग्ध हुआ दर्शक धीरज छोड़ देता है। किसी जमाने में खलनायक शेट्टी से धर्मेन्द्र का फाइट सीन प्रायः हर फिल्म में रहा है। ऐसी अनेक फिल्में आयीं हैं जिनमें धर्मेन्द्र की सीधे शेर से लड़ाई के रोमांचक दृश्य फिल्माये गये हैं। खूँखार, कद्दावर विलेन से धर्मेन्द्र सीधे जा भिड़े हैं, क्षमताओं में पत्थर सा वज्र लिए यह हीरो रोमांटिक दृश्यों में कितना शर्मीला हो जाता है। कई बार वो नायिका से अपने दिल की बात नहीं कह पाता। कई बार दिल की बात इस तरह कहता है कि मैं जट यमला पगला दीवाना गाते हुए बेसुध जमीन पर लोट लगा देता है। भावुक और संवेदनशील दृश्यों में धर्मेन्द्र की आँखों में बिना ग्लिसरीन के आँसू आ जाते हैं। ऐसे दृश्यों में जब वे बिछुड़ कर मिली माँ, पिता, बहन या भाई से मिल रहे होते हैं, परदे पर गंगा-जमुना बह चलती है। धर्मेन्द्र हमारे समय के ऐसे नायक हैं जिनके व्यक्तित्व से उन्हीं की फिल्म का एक नाम फूल और पत्थर बड़ा मिलता सा लगता है। उनकी उदारता के अनेक किस्से हैं, वे ऐसे इन्सान हैं जो अपने घर चोरी की नीयत से कूदे चोर को भी खाना खिलाकर और कुछ नकद देकर यह नसीहत देकर विदा करते हैं कि आइन्दा चोरी मत करना.................।