पतंग की बात हो रही थी, दिन में। बचपन और आनंद के दुर्लभ हो चले खेलों की बात करते हुए कौन भला ऐसा होगा जो थोड़ी देर छोटा न हो जाना चाहेगा। मैं भी हो गया। मुझे अचानक रामदास चाचा याद आ गये। पापा के दोस्त थे। स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई साथ-साथ की थी ग्वालियर में। नौकरियाँ दोनों को मिलीं पर अलग-अलग विभागों में। रामदास चाचा को जल्दी तरक्कियाँ मिलीं। वे जेलर भी बन गये थे, शायद सुपरिडेण्ट जेलर। महीनों में जब कभी उनका भोपाल आना होता तो शाम को घर जरूर आते। प्राय: उनका मुख्य काम पापा के आने के पहले मुझे बाजार ले जाना होता। छोटी उम्र थी, शायद आज जैसी या इससे ज्यादा ही नासमझी भी रही होगी। मैं उनसे अपने मन-पसन्द की वे सब चीजें दिलवाने की जिद करता जो पापा-मम्मी की नजरों में फिजूल या बेकार की रहती।
रामदास चाचा सब खरिदवाते। कम्पॉस बॉक्स नया, भले बस्ते में रखा हो, पेन-पेंसिल, रबर, कटर सब कहता, खरीद दो। वे दिलवाते। बड़े अच्छे चाचा जी। फिर उनसे कहता, पतंग दिला दो। वे पतंग की दुकान ले जाते। वहाँ एक छोड़ तीन पतंगें पसन्द कर लेता। उस समय छोटी पतंग दो पैसे और बड़ी पतंगें पाँच, दस और पन्द्रह पैसे में आतीं। अपने को बमुश्किल पाँच पैसे मिला करते। पतंग की कब लायी, कब फट गयी पता नहीं। चकरी, सद्दी, माँजे का भी दारिद्रय। ऐसे में चाचा मसीहा बनकर आते। उनसे एक चकरी, माँजा, सद्दी खरीद देने को कहता। पन्द्रह-बीस रुपए चाचा खर्चते मेरे ऊपर और अपन राजा। गर्व से उनका हाथ थामे घर लौटते। पापा नाराज होते, चाचा पर भी, कहते, ये नालायक है, तुम और इसे बिगाड़ने में लगे हो। इस पर रामदास चाचा उनसे हँसकर कहते, अन्नू को कुछ मत कहो, हमारा एक ही तो भतीजा है, वाकई उस वक्त अपन एक ही थे, भाई-बहन बाद में आये।
रामदास चाचा से बस इतना ही स्वार्थ रहता। चाचा फिर पापा के साथ बातचीत करते, ग्वालियर के हालचाल, भोपाल आने का कारण, नौकरी की बातें, प्रमोशन वगैरह। खाना-वाना साथ खाते, रसरंजन भी होता और बड़े भावुक होकर, गले मिलकर लौट जाते। उनकी पापा की आत्मीयता कमाल थी। अक्सर वो चिट्ठी भी लिखा करते, मुझे याद है उसमें पापा के लिए उनका सम्बोधन - डियर दादा, मधुर मिलन..........फिर सारा हाल। उनका आना वाकई अपने लिए बड़ा खास होता। एक बार पापा ने ऑफिस से लौटकर उनके बारे में मम्मी से बताया था, तब मैंने भी सुना था कि वे नहीं रहे। तब नहीं रहने का अर्थ ज्यादा समझ में नहीं आता था। बाद में जब समझ आया तब उनकी बहुत याद आती रही। आज भी आयी, उनका पूरा व्यक्तित्व जेलर की वर्दी में उनका आना, बड़ा रोबीला होता।
उनकी दिलायी पतंगें कई दिन चलतीं। पतंग उड़ाने के लिए जरूरी है कोई आपका सहायक उसे दूर तक ले जाकर ऊँचा उछाले, युक्तिपूर्वक, जिसे हम छुट्टी देना कहते थे, इस काम के लिए कोई मिलता नहीं था। मोहल्ले के जूनियर साथी इस लालच में कि उड़ने लगने के बाद उन्हें भी उड़ाने दूँ, छुट्टी दिया करते थे। घर के सामने स्कूल के मैदान से लेकर, घर की छत और कहाँ नहीं पतंग उड़ायी। पतंग के चक्कर में कई बार गिरे, पड़े और मम्मी से खासे पिटे भी। लेकिन तब डाँट, फटकार और पिटायी का प्रतिवर्ती प्रभाव दुस्साहस में तब्दील होकर और समृद्ध हुआ करता था। पतंगें खूब ऊँची उड़ायीं, अपनी कटी तो दुख मनाया, दूसरे की काटी तो खुश हुए। एक समय पतंग के साथ-साथ अपनी कामनाओं के उड़ने का भी हुआ करता था। आज याद आता है तो आकाश में पतंगे उस उदारता से दिखायी नहीं पड़तीं जो अपनी गोद में कामनाओं को बैठाकर दूर कहीं ऊँचे ले जायें.............
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