शमिताभ का बड़ा प्रचार-प्रसार था। अमिताभ बच्चन की फिल्म है। निर्माता के रूप में भी वे, अभिषेक बच्चन सहित कोई सात-आठ नाम शामिल हैं। लगभग पचास करोड़ बजट की इस फिल्म से जिस तरह के लोग जुड़े हैं, उनकी अपनी प्रतिभा, क्षमता और उनके प्रदर्शन में अनेक विरोधाभास हैं। यही कारण है कि यह फिल्म कलाकारों के बीच में तो क्षमताओं का बोझ और प्रभाव तले दबना प्रमाणित करती ही है, एक सवाल यह भी खड़ा करती है कि फिल्मांकन के बाद जिस तरह से किसी फिल्म को अच्छे सम्पादन की जरूरत होती है, उसी तरह क्या फिल्म बनने से पहले पटकथा को भी अच्छे सम्पादन की जरूरत होनी चाहिए? जवाब पाठकों और दर्शकों के पास होगा।
शमिताभ, फिल्म का नाम इसलिए है क्योंकि वह फिल्म के मुख्य किरदार का नाम है। फिल्म का मुख्य किरदार एक स्थापित अभिनेता है, उसकी अपनी आवाज नहीं है लेकिन उसका जुनून इतना तीव्र है कि वो उस व्यक्ति तक पहुँच जाता है जो उससे तीन गुना बड़ा है जिसकी आवाज का अपने पक्ष में इस्तेमाल करके वो सितारा बन जाता है। जिस चरित्र की आवाज महत्वपूर्ण है वह संघर्ष से हारकर शराब के नशे में अपनी कुण्ठाओं के साथ एक कब्रिस्तान में रह रहा होता है जहाँ का मजदूर उसे जहाँपनाह बुलाता है। यहीं पर इस आदमी, अमिताभ सिन्हा ने अपने लिए एक कब्र भी आरक्षित करा रखी है। खैर अनुबन्ध के बाद बोल नहीं सकने वाला साधारण शक्ल सूरत का युवा हिन्दी सिनेमा की दुनिया में अपना वजूद स्थापित करता है लेकिन व्यक्तित्व और आवाज के अन्तर्कलह इस यश वैभव को ज्यादा दिन चलने नहीं देते।
शमिताभ में यह टकराव सफलता की शुरूआत के साथ ही प्रकट हो जाता है। लगता है कि पटकथा लिखते हुए निर्देशक बाल्कि को अमिताभ बच्चन को उच्चतर स्थान पर रख कर कहानी को आगे ले जाने की जल्दी कहें या व्यग्रता ज्यादा थी। ऐसे में धनुष की क्षमताओं का वैसा उपयोग नहीं हो पाता जितनी उनकी प्रतिभा है। धनुष, राँझणा में अपने चरित्र के साथ इतना खुलकर आते हैं कि पूरी फिल्म बड़ी सहज प्रवहमयता में निकल जाती है, यहाँ लेकिन उनके सामने बड़ा व्यवधान बनकर अमिताभ बच्चन खड़े हो जाते हैं। एक उम्रदराज किरदार, अपने जीवनस्तर में बदलाव के बावजूद अपनी कुण्ठा को जीत नहीं पाता, अपना अहँकार और द्वेष दोनों ही उस किरदार को सार्थक ढंग से व्यक्त नहीं कर पाते। वैसे तो यह प्रारम्भिक ख्याल ही बड़ा विचित्र सा लगता है जिसमें प्रस्तुत कलाकार अत्यन्त युवा है और उसकी आवाज उम्रदराज व्यक्ति की।
अक्षरा हसन अपनी पहली हिन्दी फिल्म में अपनी बहन से एक कदम आगे दीखती हैं, खास यह कि उनकी आवाज में उनके पिता का मैनरिज्म साफ झलकता है भले उनकी आँखें माँ की तरह हैं। दृश्यों में वे आत्मविश्वास के साथ हैं, अपने भविष्य की चिन्ता गम्भीरता से करने वाली एक युवा लड़की के जीवन में रोमांस और रिश्तों की अहमयित कब होनी चाहिए, यह आप अक्षरा के किरदार से देख सकते हैं।
शमिताभ, में कुछ और अकल्पनीयता का प्रदर्शन गले नहीं उतरता, जैसे एक अंचल में खुले में लगने वाली पाठशाला का बड़ी छोटी सी उम्र का बच्चा सिनेमा का ऐसा जुनून पाले दिखायी देता है जो उस तीव्रता में कई बार युवाओं में नहीं दिखायी देता। जिस स्थान पर शाला भवन न हो, वहाँ सिनेमाघर न जाने कितनी दूरी पर होगा, कैसे वह छ: साल का बच्चा, दानिश घनी स्प्रिंग की तरह इस जुनून से कसा नजर आया, आश्चर्य होता है। आर बाल्कि इस चरित्र को भी ठीक से प्रस्तुत नहीं कर पाते। वास्तव में होता यही है कि यथार्थ की पटकथाएँ मनुष्यरचित नहीं होतीं, फिल्म में तो घटनाक्रम लेखक, निर्देशक साथ लेकर चलते हैं और कई बार सितारे उसमें मनमाफिक मोड़ भी अकस्मात पैदा करते हैं।
धनुष, रजनीकान्त के दामाद हैं, रजनीकान्त का कैरियर बस कण्डक्टर से शुरू हुआ था, वही कथ्य यहाँ इस जुनूनी नायक के साथ जोड़ दिया गया है, अमिताभ बच्चन को आवाज के कारण रिजेक्ट कर दिया गया था, वह घटना इस कहानी के साथ जुड़ गयी है। बाकी मानवीय गुणों-दुर्गुणों के साथ एक साधारण कहानी को भव्यता प्रदान करते हुए शमिताभ के रूप में जो फिल्म हमारे सामने कुल मिला प्रभाव छोड़ती है, वह दो सितारा तक ही सीमित होकर रह जाती है, यदि हम तमाम सम्मोहन और भव्यता से परे आकलन करें तो। इस फिल्म में इलैयाराजा जैसे महान संगीतकार ने स्वानंद किरकिरे के साधारण गीतों को साधना चाहा है पर उसकी ऐसी चर्चा नहीं होगी जैसी सदमा जैसी फिल्म के संगीतकार के रूप में आज भी होती है।
शमिताभ देखा जाये तो बस आ कर निकल जाने वाली फिल्म है, बहुत याद रहने वाली नहीं।
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