बुधवार, 31 जुलाई 2013

प्रेमचन्द की कृतियाँ और हिन्दी सिनेमा


हिन्दी साहित्य में प्रेमचन्द के स्थान को लेकर हमेशा ही एक आदरभाव रहा है। प्रेमचन्द की मूल रचनाएँ और उनकी व्याख्या तथा विश्लेषण ने पीढि़यों को विचार करने के लिए बहुत कुछ दिया है। साहित्य और परम्परा में वे निरन्तर अपने प्रभाव और महती योगदान के लिए स्मरण किए जाते हैं। उनके जन्म और निधन की तिथियाँ कहीं न कहीं हमें आत्मावलोकन के लिए विवश करती हैं क्योंकि प्रेमचन्द के नाम जुड़ी हिन्दी भाषा की अस्मिता के अपने बड़े संकट बरसों से खड़े हैं बल्कि बढ़ रहे हैं। नयी पीढ़ी के सामने हिन्दी को लेकर ही तमाम कठिनाइयाँ हैं, फिर हिन्दी साहित्य और साहित्यकारों के प्रति भी उतनी ही नामालूम किस्म की अज्ञानता। ऐसे दृश्य में अकेले प्रेमचन्द ही नहीं बल्कि हिन्दी साहित्य की ही स्थितियों पर निरन्तर विचार करने की गुंजाइशें बनती हैं।

प्रेमचन्द का साहित्य उन्नीसवीं सदी के अवसान काल और बीसवीं सदी के पूर्वार्ध के बीच सृजित है। कथाकार प्रेमचन्द अपने देशकाल और विद्रूपताओं से आक्रान्त रहे हैं। कहानी का माध्यम उनके लिए देखी-जानी घटनाओं के सच को लिखने की तरह ही रहा है। वे गरीबी में भी मानसिक दारिद्र्य की स्थितियों को चित्रित करते हैं। उनके किरदार शोषित भी होते हैं और खुद अपने पैर भी अपनी ही कुल्हाड़ी से काटते हैं। पराधीन भारत में भारतीयों की स्थितियों को लेकर उनका लेखन मुखर है वहीं विदेशी हुकूमत के देश में जमे रहने तथा हमारे देश में ही उसके कारक तत्वों को भी निर्भीक होकर उन्होंने शब्दों के माध्यम से चित्रित किया था। उनका साहित्य सिनेमा जैसे बीसवीं सदी के चमत्कारिक माध्यम के लिए था या नहीं यह दूसरे प्रश्न हैं मगर भारत में सिनेमा का आगमन स्वयं उनके लिए भी आकर्षण की वजह बना था।

प्रेमचन्द का साहित्य प्रमुख रूप से बीसवीं सदी के आरम्भ और लगभग तीन दशक की स्थितियों के आसपास घटनाक्रम, देखी-भाली कथाएँ, सुने हुए दृष्टान्त और मंथन किए मूल्यों का दस्तावेज है। भारत में सिनेमा का आगमन 1913 का है। प्रेमचन्द ने अपनी परिपक्व उम्र और अवस्था में सिनेमा के जन्म और उसकी सम्भावनाओं को देखा था। कहीं न कहीं अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश करते सिनेमा की शक्ति को भी वे महसूस करते थे। दादा साहब फाल्के जब राजा हरिश्चन्द्र बना रहे होंगे तब प्रेमचन्द की उम्र तीस साल से जरा ज्यादा रही होगी। प्रेमचन्द को अपने लमही और बनारस से सिनेमा का सुदूर मुम्बई किस तरह आकृष्ट कर रहा होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है!

सिनेमा का आकर्षण और बाद में या जल्द ही उससे मोहभंग होने के किस्से साहित्यकारों-कवियों के साथ ज्यादा जुड़े हैं। प्रेमचन्द से लेकर भवानी प्रसाद मिश्र, अमृतलाल नागर और नीरज तक इसके उदाहरण हैं। साहित्यकार अपनी रचना को लेकर अतिसंवेदनशील होता है। वह फिल्मकार की स्वतंत्रता या कृति को फिल्मांकन के अनुकूल बनाने के उसके प्रयोगों को आसानी से मान्य नहीं करना चाहता। विरोधाभास शुरू होते हैं और अन्त में मोहभंग लेकिन उसके बावजूद परस्पर आकर्षण आसानी से खत्म नहीं होता। हमारे साहित्यकार, सिनेमा के प्रति आकर्षण के दिनों में कई बार मुम्बई गये और वापस आये हैं। आत्मकथाओं में साहित्यकारों ने मायानगरी मुम्बई की उनके साथ हुए सलूक पर खबर भी ली है लेकिन सिनेमा माध्यम को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। साहित्यकार-कवि कड़वे अनुभवों के साथ अपने प्रारब्ध को लौट आये और सिनेमा अधिक स्वतंत्रता के साथ उनके साथ हो लिया जो उससे समरस हो गये।

प्रेमचन्द के साहित्य पर हीरा मोती, गबन, कफन, सद्गति और शतरंज के खिलाड़ी जैसी कुछ फिल्में बनी हैं मगर हमें बाद की सद्गति और शतरंज के खिलाड़ी याद रह जाती हैं क्योंकि ये ज्यादा संजीदगी के साथ बनायी गयी थीं और इसके बनाने वाले फिल्मकार सत्यजित रे एक जीनियस व्यक्ति थे जिनके नाम के साथ एक ही विशेषण नहीं जुड़ा था क्योंकि अपनी फिल्मों के वे लगभग सब कुछ हुआ करते थे। रे ने अपनी सारी फिल्में बंगला में ही बनायी थीं। उनके बारे में एक बातचीत में डॉ. मोहन आगाशे जो कि हिन्दी और मराठी सिनेमा तथा रंगमंच के शीर्ष कलाकार हैं, ने कहा था कि माणिक दा के लिए श्रेष्ठ काम का पैमाना उनके अपने सहयोगी लेखक, सम्पादक, छायांकनकर्ता, सहायक निर्देशक हुआ करते थे जिन पर उनका विश्वास यह होता था कि जिस तरह की परिकल्पना किसी फिल्म को लेकर उनकी है, उसे साकार करने में ये सभी पक्ष उसी अपेक्षा के साथ सहयोगी होंगे। 


सत्यजित रे ने शतरंज के खिलाड़ी का निर्माण 1977 में किया था। उनके लिए बारह पृष्ठों की एक कहानी को दो घण्टे से भी कुछ अधिक समय की फिल्म के रूप में बनाना कम बड़ी चुनौती नहीं था। वे यह फिल्म हिन्दी में बनाने जा रहे थे। वे उन्नीसवीं सदी के देशकाल की कल्पना कर रहे थे। अपनी इस फिल्म को उसी ऊष्मा के साथ बनाने के लिए लोकेशन का ख्याल करते हुए उनके दिमाग में कोलकाता, लखनऊ और कुछ परिस्थितियों के चलते मुम्बई कौंध रहे थे। वाजिद अली शाह के किरदार के लिए अमजद खान उनकी पसन्द थे। मीर और मिर्जा की भूमिका के लिए सईद जाफरी और संजीव कुमार को उन्होंने अनुबन्धित कर लिया था। विक्टर बैनर्जी, फरीदा जलाल, फारुख शेख, शाबाना आजमी सहयोगी कलाकार थे। वाजिद अली शाह के साथ एक बराबर की जिरह वाली महत्वपूर्ण भूमिका के लिए रे ने रिचर्ड एटिनबरो को राजी कर लिया था जिन्होंने उट्रम के किरदार को जिया था। बंसी चन्द्र गुप्ता उनके कला निर्देशक थे जिनको स्कैच बनाकर रे ने काम करने के लिए दे दिए थे और कहा था कि सीन दर सीन मुझे यही परिवेश चाहिए। आलोचकों ने शतरंज के खिलाड़ी को बहुत सराहा था यद्यपि कुछ लोगों को कथ्य के अनुरूप फिल्म का निर्माण न होने से असन्तोष भी रहा लेकिन आलोच्य दृष्टि रे के पक्ष में रही और उन्हें इस फिल्म के लिए नेशनल अवार्ड भी मिला।

प्रेमचन्द ने शतरंज के खिलाड़ी में मीर और मिर्जा को केन्द्रित किया है, इधर सत्यजित रे ने फिल्म में वाजिद अली शाह और जनरल उट्रम के चरित्रों को महत्वपूर्ण बनाया है। फिल्म में वाजिद अली शाह की सज्जनता के साथ-साथ राजनीतिक समझ की कमी को भी निर्देशक ने रेखांकित किया है। अंग्रेज जैसे चतुर और खतरनाक दुश्मन की शातिर कूटनीतिक चालों को समझ सकने में अक्षम भारतीय राजनैतिक मनोवृत्ति भी फिल्म में सशक्त ढंग से उभरती है। हमारे दर्शक सिनेमा में सूक्ष्म ब्यौरों तक नहीं जाते, कई बार सिनेमा की विफलता का यह भी एक कारण होता है। शतरंज के खिलाड़ी के माध्यम से निर्देशक ने प्रेमचन्द की कहानी को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयत्न किया है। यह भले पैंतीस साल पहले की फिल्म हो लेकिन शतरंज के खिलाड़ी पुनरावलोकन की भी फिल्म है, आज भी हम उसे देखेंगे तो प्रभावी नजर आयेगी।

सद्गति एक घण्टे की फिल्म थी। इसे सत्यजित रे ने दूरदर्शन के लिए बनाया था। यह लगभग बावन मिनट की फिल्म थी जिसको देखना अनुभवसाध्य है। निर्देशक ने इस फिल्म को कहानी की तरह ही बनाया है, एक-दो दृश्यों के अलावा पूरी फिल्म प्रेमचन्द की कहानी के अनुरूप ही है। स्वयं निर्देशक का मानना था कि यह कहानी ही ऐसी है जो इसके सीधे प्रस्तुतिकरण की मांग करती है। सत्यजित रे ने इसे उसी ताप के साथ प्रस्तुत करके उसकी तेज धार को बचाये रखा। मैंने इसके तीखेपन को जस का तस प्रस्तुत करने का काम किया। सद्गति की विशेषता यह भी है कि फिल्म में कहानी में प्रयुक्त संवाद भी ज्यों के त्यों रखे गये हैं। फिल्म के लिए रे ने पात्रों का चयन भी अनुकूल ही किया था। ओम पुरी, स्मिता पाटिल, मोहन आगाशे प्रमुख भूमिकाओं थे। यह फिल्म दो सप्ताह के शेड्यूल में पूरी बन गयी थी। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के निकट इसका फिल्मांकन हुआ था।

वास्तव में प्रेमचन्द का साहित्य फिल्मकारों के लिए उतना आकर्षण का केन्द्र नहीं रहा जितने प्रयोग रंगमंच में उनके साहित्य को लेकर हुए हैं। प्रेमचन्द के उपन्यास और कहानियों पर नाटक ज्यादा हुए हैं, फिल्में कम बनी हैं। यह फिर भी आश्चर्य होता है कि बंगला के एक और महत्वपूर्ण फिल्मकार मृणाल सेन ने कोई पैंतीस साल पहले तेलुगु में कफन कहानी पर केन्द्रित ओका ओरि कथा फिल्म का निर्माण किया था। टेलीविजन पर निर्मला और कर्मभूमि पर धारावाहिक बने। विख्यात फिल्मकार गुलजार ने भी प्रेमचन्द की कहानियों पर तहरीर मुंशी प्रेमचन्द की धारावाहिक का निर्माण किया था जिसकी कई कहानियों में पंकज कपूर ने केन्द्रीय भूमिकाएँ निभायी थीं।

आज के समय में प्रेमचन्द की कहानियों के फिल्मांकन का जोखिम शायद ही कोई उठाना चाहे क्योंकि हमारे दर्शकों के बीच मनोरंजन का एक नया शास्त्र विकसित हुआ है। उसे टेलीविजन चैनलों में रंगे-पुते और जमाने के चलन के हिसाब के निहायत अविश्वसनीय और अकल्पनीय धारावाहिकों को देखने का अजीब सा चाव पैदा हो गया है। फिल्म बनाना तो सम्भवतः आज के फिल्मकारों को सबसे बड़ा जोखिम लगे, निर्वाह की दृष्टि से, परवाह की दृष्टि से और व्यवसाय की दृष्टि से भी जो अब सबसे बड़ी सन्देह भरी चुनौती है।

रविवार, 28 जुलाई 2013

मुगल ए आजम : फिल्म इतिहास में एक इतिहास


मुगल ए आजम फिल्म का चर्चा एक बार फिर दुनिया में हुआ है। इसे ब्रिटेन के अखबार ईस्टर्न आइ ने अपने सर्वेक्षण में हिन्दी सिनेमा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म माना है। यह सर्वेक्षण भारतीय सिनेमा के सौ साल पूरे होने पर अखबार द्वारा किया गया है। सिने इतिहास की एक उत्कृष्ट फिल्म एक बार सुर्खियों में आयी है। यों निर्विवाद रूप से भी हमारे यहाँ इस फिल्म को सौ साल के सिनेमा की मुख्य प्रतिनिधि फिल्म माना जाता है।

मुगल ए आजम की बात करना केवल फिल्म इतिहास से ही किसी एक खास विषय को छूना ही नहीं बल्कि उस वैभव का स्मरण करना है जिसे बरसों की मेहनत से गढ़ा गया, भारतीय सिनेमा के इतिहास में अमिट हस्ताक्षर कही जाने वाली हस्तियों ने उसमें काम किया, गीत से लेकर संगीत तक, कला से लेकर कलाबोध तक एक-एक चीज में महान कल्पनाशीलता और दृष्टि का परिचय दिया गया। इस फिल्म को बनने में उतना वक्त लगा था जितना वक्त आज यदि किसी फिल्म में लगे तो निर्माता-निर्देशक जाने कहाँ जायें? लेकिन मुगल ए आजम को बनाने में किसी की हिम्मत टूटी और न ही किसी की हिम्मत ने जवाब दिया।

मुगल ए आजम भारतीय सिने-अस्मिता की भी मुख्य फिल्म है। इस फिल्म पर बात करते हुए काफी विस्तार में जाने से हम बहुत सी चीजें जान पाते हैं मसलन फिल्म के निर्माण में लगा लगभग आठ साल का वक्त, उन आठ वर्षों में कलाकारों की पर्सनैलिटी का एक जैसा बने रहना, प्रस्तुतिकरण की भव्यता के लिए कोई भी समझौता निर्देशक द्वारा न किया जाना, निर्माता शापोर जी पालन जी मिस्त्री से निर्देशक के. आसिफ की लम्बी जद्दोजहद, सहमतियों-असहमतियों के बावजूद निर्माता का निर्देशक केे प्रति विश्वास बने रहना क्योंकि आसिफ साहब की निष्ठा असंदिग्ध थी और मुगल ए आजम फिल्म से उनका लगाव बेहद था।

पृथ्वीराज कपूर, दिलीप कुमार, मधुबाला, दुर्गा खोटे, अजीत, निगार सुल्ताना जैसे कलाकारों, अमान, वजाहत मिर्जा, कमाल अमरोही और एकसान रिजवी जैसे पटकथा-संवाद लेखक, आर. डी. माथुर जैसे सिनेमेटोग्राफर, शकील बदायूँनी जैसे गीतकार, नौशाद जैसे संगीतकार और फिल्म के संगीत को लेकर उनके जतन सभी का अपना इतिहास है। फिल्म की कोरियोग्राफी लच्छू महाराज की थी और उनके सहायक थे शम्भू महाराज और गोपीकृष्ण। एक-एक बात के साथ घटनाएँ जुड़ी हैं जैसे नौशाद साहब का उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ साहब को उनकी आवाज के लिए मनाना वह भी उनकी गरिमा और उनके मानदेय पर, ऐसा बहुत कुछ जुड़ता है इस फिल्म के साथ। फिल्म में लता मंगेशकर, शमशाद बेगम और एक खास ऐलानी गाने (ऐ मोहब्बत जिन्दाबाद) के लिए मोहम्मद रफी की आवाज भी यादगार है।

मुगल ए आजम और भव्यता शब्द दोनों एक-दूसरे का पर्याय लगते हैं जब हम यह फिल्म देख रहे होते हैं। कल्पना की जा सकती है किसी फिल्म की जिसकी टिकिट खरीदने के लिए चार दिन पहले से लोग लाइन लगाकर तैयार रहें! सजे-सँवरे हाथी पर जिस फिल्म का प्रिंट रखकर लाया जाये!! फिल्म की चर्चा करते हुए छोटे-छोटे इतने विवरण मिलते हैं कि हम उन सभी के संज्ञान में इस फिल्म की परिकल्पना करते हुए चकित हो जाते हैं। मुगल ए आजम दरअसल हर कालखण्ड में प्रासंगिक है।

सोमवार, 15 जुलाई 2013

नैतिकता के प्रश्न, सेंसर बोर्ड और चेन्नई एक्सप्रेस


भारत सरकार में सेंसर बोर्ड एक ऐसी व्यवस्था है जिसके जिम्मेदार या उत्तरदायी होने के विषय में पिछले काफी समय से विश्वास घटता जा रहा है। विशेष रूप से उल्लेखनीय यह है कि सेंसर बोर्ड में अध्यक्ष के पद को प्रायः सिनेमा के क्षेत्र में शीर्ष कलाकारों ने विभूषित किया है समय-समय पर। हम महिलाओं में आशा पारेख और शर्मिला टैगोर के नाम ले सकते हैं। अभी लीला सेमसन हैं जो हमारे देश की एक प्रतिष्ठित कलाकार और कला के क्षेत्र में अत्यन्त सम्मानित हैं। 

विभिन्न राज्यों से भी सेंसर बोर्ड के सदस्य के रूप में लोगों का मनोनयन हुआ करता है पर यह पता नहीं चलता कि वास्तव में सब अपनी भूमिका का किस तरह निर्वाह करते हैं? सेंसर शब्द ही अपने आपमें अनुशासन से जुड़ा है। इस शब्द की व्याख्या में जाया जाये तो अपने आपमें यह इतना प्रबल और महत्व का शब्द है कि इसका उदाहरण या प्रयोग सिनेमा से इतर अन्य विषयों में भी हुआ करता है। कहीं न कहीं यह रोक, निगरानी और बड़े अर्थों में मर्यादा का रक्षक है। हमारे देश में मर्यादा के सिद्धान्त क्या हैं, इस पर अलग से जाने की स्थितियाँ यहाँ नहीं हैं क्योंकि बहुत से शाब्दिक अनुशासनों की स्थिति दयनीय है।

खैर सीधे-सीधे विषय पर आयें तो आपत्तिजनक यह है कि शाहरुख खान की फिल्म चेन्नई एक्सप्रेस का एक गाना लगातार नागवार लग रहा है जिसके पाश्र्व में बड़ी संख्या में कथकली के कलाकार फिल्मी स्टाइल में नाच रहे हैं। चेन्नई एक्सप्रेस शाहरुख खान की निर्माण संस्था ने बनायी है और रोहित शेट्टी ने फिल्म को निर्देशित किया है। दरअसल हिन्दी सिनेमा में तारणहारों की स्थितियाँ बड़ी अच्छी हैं जिन्हें लम्बे समय तक दरकिनार रखने वाला व्यक्ति भी उस समय पलक पाँवड़े बिछाकर अपना उद्धार करने का दायित्व सौंपता है जब वह गहरे संक्रमण काल में होता है। शाहरुख खान का सितारा कुछ वर्षों से गर्दिश में रहा है। ऐसे में सौ करोड़ की सीमा से सोचना शुरू करके सौ करोड़ की सीमा पर ही सोचना बन्द करने वाले फिल्म उद्योग में अपनी साख बना चुके रोहित शेट्टी को उन्होंने चेन्नई एक्सप्रेस निर्देशित करने का दायित्व सौंपा।

रोहित शेट्टी ऐसे निर्देशक के रूप में अपनी कोई पहचान बना नहीं पाये हैं जिनका हमारे देश या परम्परा के सांस्कृतिक मूल्यों से कुछ लेना-देना हो। उन्हें कथकली जैसी दक्षिण की महान परम्परा, जहाँ से वे खुद भी आते हैं, अपनी फिल्म के एक गाने में एक्स्ट्रा कलाकारों की तरह उपयोग में लाये जाने योग्य लगी। मनोरंजन और सफलता के मंत्र को समझने वाले सिनेमा के बड़े दार्शनिक रोहित शेट्टी ने नैतिकता के इस प्रश्न पर विचार नहीं किया होगा। सांस्कृतिक मूल्यों को लेकर आमिर खान जैसी समृद़ध या संजीदा दृष्टि शाहरुख खान के पास नहीं है जो वे भारतीय कला मूल्यों और उसकी व्यवहारिकी पर रचनात्मक दृष्टिकोण रखें या सजगता का परिचय दें। उनको येन केन प्रकारेण एक हिट की इस समय सख्त जरूरत है। 

अचरज इस बात पर होता है कि किस तरह भरतनाट्यम की एक शीर्षस्थानीय नृत्यांगना जो सेंसर बोर्ड की चेयर परसन हैं, इस बात के लिए सहमत हुई होंगी कि इससे हमारी कलाओं का कोई अपमान नहीं हो रहा है। यह गाना धड़ल्ले से चैनलों पर चल रहा है, जाहिर है फिल्म में भी दिखायी देगा।

 

शनिवार, 13 जुलाई 2013

प्रशासन, सृजनात्मक अभिरुचियाँ और जंग साहब


अपनी छोटी उम्र में जब एशियाड के बाद दूरदर्शन आया, एक बड़े जहीन से शख्स रात को शायद दस बजे दिल्ली दूरदर्शन से कभी-कभी समाचार पढ़ा करते थे। तब हमको बताया गया था कि ये नजीब हमीद जंग हैं, मध्यप्रदेश कैडर के आय.ए.एस. अधिकारी जो दिल्ली में बड़े पद पर हैं मगर शौकिया न्यूज पढ़ते हैं। व्यस्तता और काम के बीच वे अक्सर इस बात के लिए वक्त निकालते हैं। मामाजी के ध्यान आकर्षण के बाद गर्व के साथ जंग साहब का नाम याद रह गया और फिर अक्सर उस समय टेलीविजन के सामने आ जाया करता था जिस दिन उनके न्यूज पढ़ने की आवाज सुनायी देती। वे बड़े आत्मविश्वास, प्रवाह और स्पष्ट उच्चारण के साथ अपनी प्रभावी आवाज में समाचार पढ़ते थे। गर्व की वजह वही, अपना मध्यप्रदेश।

दो दिन पहले फिर गर्व हुआ जब जाना कि नजीब हमीद जंग साहब ने दिल्ली के उप-राज्यपाल पद की शपथ ली है। इसके पहले वे जामिया मिलिया इस्लामिया के कुलपति थे। जंग साहब का इस बड़े पद पर सुशोभित होना उनकी असाधारण दक्षता, योग्यता और लगातार विभिन्न क्षेत्रों में चार दशक से भी ज्यादा योगदान का सुपरिणाम है। मध्यप्रदेश इस बात पर जरूर गर्व करे कि वे मध्यप्रदेश कैडर के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रहे हैं। छिन्दवाड़ा जिले के आदिवासी अंचल पातालकोट से लगे तामिया में प्रशासक सहित दतिया में कलेक्टर और तिलहन संघ के प्रबन्ध संचालक के रूप में कार्य करते हुए वे तत्कालीन रेल राज्यमंत्री माधवराव सिंधिया के विशेष सहायक होकर नई दिल्ली चले गये थे। तब से सम्भवतः वे लगातार वहीं रहे।

जंग साहब ने दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास की पढ़ाई की और सोशल पॉलिसी तथा प्लानिंग की उच्च शिक्षा के लिए वे लन्दन स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स पढ़ने चले गये। भारतीय प्रशासनिक सेवा में उनका प्रवेश 1973 में हुआ। लगभग बाइस साल उन्होंने मध्यप्रदेश, भारत सरकार में विभिन्न पदों पर सक्रियतापूर्वक कार्य किया। वे भारत सरकार में संयुक्त सचिव भी रहे। उनकी विशेष भूमिका ऊर्जा क्षेत्र में निरन्तर भारत सरकार के लिए प्रतिष्ठित पद पर कार्य एवं अपनी अहम भूमिका रेखांकित करने के लिए जानी-मानी जाती है। वे सीनियर विजीटिंग फैलो के रूप में सात वर्ष ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में भी रहे। वही उनके गैस इश्यूज ऑफ एशिया विषय पर दो बड़े वाल्यूम प्रकाशित हुए। अभी तीन किताबें उनकी प्रकाशनाधीन हैं जिनमें अंग्रेजी, उर्दू के निबन्धों के संकलन के साथ ही एनर्जी इश्यू पर भी एक किताब शामिल है। जंग साहब ऊर्जा के अन्तर्राष्ट्रीय जानकारों में से हैं।

भारत सरकार ने 2009 में जंग साहब को जामिया मिलिया इस्लामिया में कुलपति नियुक्त किया था। लगातार व्यस्तताओं के बावजूद अंग्रेजी अखबारों के लिए स्तम्भ लेखन के साथ ही पृथक से नियमित लेखन भी वे करते रहे। उनके लगभग छिहत्तर आलेख इण्डिया टुडे, टाइम्स ऑफ इण्डिया, हिन्दुस्तान टाइम्स, इन्कलाब, मेल टुडे, बिजनेस स्टैण्डर्ड, उर्दू का राष्ट्रीय सहारा, इण्डियन एक्सप्रेस, सण्डे गार्जियन आदि में प्रकाशित हुए हैं। बाद में समाचार वाचन का समय उनको नहीं मिला और भारत सहित विदेश में रहते हुए यह सिलसिला छूट गया लेकिन हम सभी की स्मृतियों में आरम्भ का दिल्ली दूरदर्शन और उसके अंग्रेजी समाचार नजीब हमीद जंग साहब के समाचार वाचन के साथ ही आज भी ज्यों के त्यों हैं। 

उल्लेखनीय है कि जंग साहब ने दो वर्ष पहले जामिया मिलिया इस्लामिया में अकबर-सलीम-अनारकली नाटक में अकबर की भूमिका भी निभायी थी।

सोमवार, 8 जुलाई 2013



हाल ही में पहले बनारस की पृष्ठभूमि पर आयी एक फिल्म राँझणा को सफलता मिली है वहीं कोलकाता की पृष्ठभूमि पर रची फिल्म लुटेरा को काफी सराहा जा रहा है। उल्लेखनीय यह है कि दोनों ही फिल्मों में ऐसे सितारे हैं जो हमारे सुपर सितारों की श्रेणी में कहीं भी नहीं आते। कैरियर या तो शुरू हो रहा है या शुरू हो चुका है तो मुकाम हासिल होना बाकी है।

लुटेरा को देखते हुए बड़े रूमानी अनुभव होते हैं। जानकारों और टिप्पणीकारों ने इस फिल्म को अपना अच्छा समर्थन दिया है। सार्थक समीक्षाएँ आज भी बिना राग-द्वेष के की जाती हैं यह इस बात का प्रमाण है अन्यथा लुटेरा को तीन या कहीं-कहीं उससे अधिक सितारे नहीं मिलते। लुटेरा की कहानी इसके निर्देशक विक्रमादित्य मोटवानी की है, पटकथा उन्होंने भवानी अय्यर के साथ मिलकर लिखी है। आमतौर पर इस तरह की कहानियाँ कम लिखी जाती हैं। नायक ग्रे-शेड में है। अपराधी है मगर बड़े शिष्ट और कुलीन पहचान के साथ नायिका के घर जाता है। प्रेम होता है पर प्रेम प्राथमिकता नहीं है। उद्देश्य छल-कपट और भ्रम से जायदाद और सम्पत्ति हासिल करना है। नायिका अस्थमा की मरीज है, हादसे में पिता की मृत्यु हो जाती है। नायक जा चुका है। 

फिल्म का दूसरा भाग डलहौजी में फिल्माया गया है जहाँ नायिका अपनी जिन्दगी के अन्तिम दिनों को एक तरह से मनाने पहुँची है। यादें पीछा नहीं छोड़तीं, आखिर नायक यहाँ भी आ जाता है, हुलिया बदलकर दूसरे अपराध के लिए। अधपका मगर धोखे और अनिष्ट की भेंट चढ़ गया प्रेम यहाँ नितान्त नकारात्मक परिस्थितियों में फिर एक भरोसे का रूप लेने को होता है लेकिन मुठभेड़ में घायल नायक, प्रेमिका की जिन्दगी बचाने के लिए सूखे दरख्त पर अपने हाथ से बनायी नकली पत्ती बांधता हुआ गिरकर मर जाता है।

लुटेरा की खूबी उसका बहुत वास्तविक होना है। पिछली सदी के छठवें दशक में जाते हुए रसूख की चिन्ता में जमींदार और उसकी जमींदारी के बीच लुटेरे नायक की परम सौम्यता भरी उपस्थिति कमाल की है। जिस खूबसूरती से प्रेम परवान चढ़ता है, उसका बखान करने से बेहतर अनुभव फिल्म देखकर होगा। वह पहला दृश्य बड़ा अनुपम है जिसमें मोटरसाइकिल पर सामने से आते नायक को नायिका अपनी कार से टक्कर मार देती है और वह सीधे पेड़ पर टकराकर गिर जाता है और सम्हलकर पेड़ से टिककर बैठा रह जाता है, एकटक नायिका को देखता हुआ। एक बड़े हिस्से में जब नायक नायिका का प्रेम परवान चढ़ता है, स्वर संयम का क्या खूब खूबसूरत प्रयोग किया गया है, एकदम धीमी आवाज और कुछ दृश्यों में लगभग साँसों के सम्प्रेषण से व्यक्त होते शब्द, वाकई कमाल हैं।


लुटेरा की विशेषता एकदम वास्तविक सेट, अनुकूल कास्ट्यूम खासकर नायक रणवीर सिंह के कपड़े, रंग और खूबसूरत सोनाक्षी। सोनाक्षी से ज्यादा यह फिल्म रणवीर सिंह की है। रणवीर-सोनाक्षी के प्रणय दृश्य मन को छूते हैं। सिनेमेटोग्राफी (महेन्द्र जे. शेट्टी) भी बड़ी कलात्मक और खूबसूरत फ्रेम में है। लुटेरा निर्देशक की भी फिल्म है। विक्रमादित्य मोटवानी ने फिल्म को मनोयोग से बनाया है, डूबकर। सिनेमा में कुछेक निर्देशक ऐसे हैं जो पृष्ठभूमि में मुम्बई की जमीन से दूर कहीं और जाकर देशज परिवेश में कुछ अलग और कुछ मौलिक गढ़ने का प्रयास करते हैं।  फिल्म के गाने मनछुए हैं,  अमिताभ भट्टाचार्य ने लिखे हैं, संगीत अमित त्रिवेदी का है, गाने भी जैसे एहसासों में बहते हैं। 

लुटेरा में एक ही अतिरंजना है और वह है अस्थमा के अटैक में नायक का नायिका को दो बार इन्जेक्शन लगाना वह भी नर्व में जबकि वह डॉक्टर नहीं है।