हिन्दी साहित्य में प्रेमचन्द के स्थान को लेकर हमेशा ही एक आदरभाव रहा है। प्रेमचन्द की मूल रचनाएँ और उनकी व्याख्या तथा विश्लेषण ने पीढि़यों को विचार करने के लिए बहुत कुछ दिया है। साहित्य और परम्परा में वे निरन्तर अपने प्रभाव और महती योगदान के लिए स्मरण किए जाते हैं। उनके जन्म और निधन की तिथियाँ कहीं न कहीं हमें आत्मावलोकन के लिए विवश करती हैं क्योंकि प्रेमचन्द के नाम जुड़ी हिन्दी भाषा की अस्मिता के अपने बड़े संकट बरसों से खड़े हैं बल्कि बढ़ रहे हैं। नयी पीढ़ी के सामने हिन्दी को लेकर ही तमाम कठिनाइयाँ हैं, फिर हिन्दी साहित्य और साहित्यकारों के प्रति भी उतनी ही नामालूम किस्म की अज्ञानता। ऐसे दृश्य में अकेले प्रेमचन्द ही नहीं बल्कि हिन्दी साहित्य की ही स्थितियों पर निरन्तर विचार करने की गुंजाइशें बनती हैं।
प्रेमचन्द का साहित्य उन्नीसवीं सदी के अवसान काल और बीसवीं सदी के पूर्वार्ध के बीच सृजित है। कथाकार प्रेमचन्द अपने देशकाल और विद्रूपताओं से आक्रान्त रहे हैं। कहानी का माध्यम उनके लिए देखी-जानी घटनाओं के सच को लिखने की तरह ही रहा है। वे गरीबी में भी मानसिक दारिद्र्य की स्थितियों को चित्रित करते हैं। उनके किरदार शोषित भी होते हैं और खुद अपने पैर भी अपनी ही कुल्हाड़ी से काटते हैं। पराधीन भारत में भारतीयों की स्थितियों को लेकर उनका लेखन मुखर है वहीं विदेशी हुकूमत के देश में जमे रहने तथा हमारे देश में ही उसके कारक तत्वों को भी निर्भीक होकर उन्होंने शब्दों के माध्यम से चित्रित किया था। उनका साहित्य सिनेमा जैसे बीसवीं सदी के चमत्कारिक माध्यम के लिए था या नहीं यह दूसरे प्रश्न हैं मगर भारत में सिनेमा का आगमन स्वयं उनके लिए भी आकर्षण की वजह बना था।
प्रेमचन्द का साहित्य प्रमुख रूप से बीसवीं सदी के आरम्भ और लगभग तीन दशक की स्थितियों के आसपास घटनाक्रम, देखी-भाली कथाएँ, सुने हुए दृष्टान्त और मंथन किए मूल्यों का दस्तावेज है। भारत में सिनेमा का आगमन 1913 का है। प्रेमचन्द ने अपनी परिपक्व उम्र और अवस्था में सिनेमा के जन्म और उसकी सम्भावनाओं को देखा था। कहीं न कहीं अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश करते सिनेमा की शक्ति को भी वे महसूस करते थे। दादा साहब फाल्के जब राजा हरिश्चन्द्र बना रहे होंगे तब प्रेमचन्द की उम्र तीस साल से जरा ज्यादा रही होगी। प्रेमचन्द को अपने लमही और बनारस से सिनेमा का सुदूर मुम्बई किस तरह आकृष्ट कर रहा होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है!
सिनेमा का आकर्षण और बाद में या जल्द ही उससे मोहभंग होने के किस्से साहित्यकारों-कवियों के साथ ज्यादा जुड़े हैं। प्रेमचन्द से लेकर भवानी प्रसाद मिश्र, अमृतलाल नागर और नीरज तक इसके उदाहरण हैं। साहित्यकार अपनी रचना को लेकर अतिसंवेदनशील होता है। वह फिल्मकार की स्वतंत्रता या कृति को फिल्मांकन के अनुकूल बनाने के उसके प्रयोगों को आसानी से मान्य नहीं करना चाहता। विरोधाभास शुरू होते हैं और अन्त में मोहभंग लेकिन उसके बावजूद परस्पर आकर्षण आसानी से खत्म नहीं होता। हमारे साहित्यकार, सिनेमा के प्रति आकर्षण के दिनों में कई बार मुम्बई गये और वापस आये हैं। आत्मकथाओं में साहित्यकारों ने मायानगरी मुम्बई की उनके साथ हुए सलूक पर खबर भी ली है लेकिन सिनेमा माध्यम को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। साहित्यकार-कवि कड़वे अनुभवों के साथ अपने प्रारब्ध को लौट आये और सिनेमा अधिक स्वतंत्रता के साथ उनके साथ हो लिया जो उससे समरस हो गये।
प्रेमचन्द के साहित्य पर हीरा मोती, गबन, कफन, सद्गति और शतरंज के खिलाड़ी जैसी कुछ फिल्में बनी हैं मगर हमें बाद की सद्गति और शतरंज के खिलाड़ी याद रह जाती हैं क्योंकि ये ज्यादा संजीदगी के साथ बनायी गयी थीं और इसके बनाने वाले फिल्मकार सत्यजित रे एक जीनियस व्यक्ति थे जिनके नाम के साथ एक ही विशेषण नहीं जुड़ा था क्योंकि अपनी फिल्मों के वे लगभग सब कुछ हुआ करते थे। रे ने अपनी सारी फिल्में बंगला में ही बनायी थीं। उनके बारे में एक बातचीत में डॉ. मोहन आगाशे जो कि हिन्दी और मराठी सिनेमा तथा रंगमंच के शीर्ष कलाकार हैं, ने कहा था कि माणिक दा के लिए श्रेष्ठ काम का पैमाना उनके अपने सहयोगी लेखक, सम्पादक, छायांकनकर्ता, सहायक निर्देशक हुआ करते थे जिन पर उनका विश्वास यह होता था कि जिस तरह की परिकल्पना किसी फिल्म को लेकर उनकी है, उसे साकार करने में ये सभी पक्ष उसी अपेक्षा के साथ सहयोगी होंगे।
सत्यजित रे ने शतरंज के खिलाड़ी का निर्माण 1977 में किया था। उनके लिए बारह पृष्ठों की एक कहानी को दो घण्टे से भी कुछ अधिक समय की फिल्म के रूप में बनाना कम बड़ी चुनौती नहीं था। वे यह फिल्म हिन्दी में बनाने जा रहे थे। वे उन्नीसवीं सदी के देशकाल की कल्पना कर रहे थे। अपनी इस फिल्म को उसी ऊष्मा के साथ बनाने के लिए लोकेशन का ख्याल करते हुए उनके दिमाग में कोलकाता, लखनऊ और कुछ परिस्थितियों के चलते मुम्बई कौंध रहे थे। वाजिद अली शाह के किरदार के लिए अमजद खान उनकी पसन्द थे। मीर और मिर्जा की भूमिका के लिए सईद जाफरी और संजीव कुमार को उन्होंने अनुबन्धित कर लिया था। विक्टर बैनर्जी, फरीदा जलाल, फारुख शेख, शाबाना आजमी सहयोगी कलाकार थे। वाजिद अली शाह के साथ एक बराबर की जिरह वाली महत्वपूर्ण भूमिका के लिए रे ने रिचर्ड एटिनबरो को राजी कर लिया था जिन्होंने उट्रम के किरदार को जिया था। बंसी चन्द्र गुप्ता उनके कला निर्देशक थे जिनको स्कैच बनाकर रे ने काम करने के लिए दे दिए थे और कहा था कि सीन दर सीन मुझे यही परिवेश चाहिए। आलोचकों ने शतरंज के खिलाड़ी को बहुत सराहा था यद्यपि कुछ लोगों को कथ्य के अनुरूप फिल्म का निर्माण न होने से असन्तोष भी रहा लेकिन आलोच्य दृष्टि रे के पक्ष में रही और उन्हें इस फिल्म के लिए नेशनल अवार्ड भी मिला।
प्रेमचन्द ने शतरंज के खिलाड़ी में मीर और मिर्जा को केन्द्रित किया है, इधर सत्यजित रे ने फिल्म में वाजिद अली शाह और जनरल उट्रम के चरित्रों को महत्वपूर्ण बनाया है। फिल्म में वाजिद अली शाह की सज्जनता के साथ-साथ राजनीतिक समझ की कमी को भी निर्देशक ने रेखांकित किया है। अंग्रेज जैसे चतुर और खतरनाक दुश्मन की शातिर कूटनीतिक चालों को समझ सकने में अक्षम भारतीय राजनैतिक मनोवृत्ति भी फिल्म में सशक्त ढंग से उभरती है। हमारे दर्शक सिनेमा में सूक्ष्म ब्यौरों तक नहीं जाते, कई बार सिनेमा की विफलता का यह भी एक कारण होता है। शतरंज के खिलाड़ी के माध्यम से निर्देशक ने प्रेमचन्द की कहानी को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयत्न किया है। यह भले पैंतीस साल पहले की फिल्म हो लेकिन शतरंज के खिलाड़ी पुनरावलोकन की भी फिल्म है, आज भी हम उसे देखेंगे तो प्रभावी नजर आयेगी।
सद्गति एक घण्टे की फिल्म थी। इसे सत्यजित रे ने दूरदर्शन के लिए बनाया था। यह लगभग बावन मिनट की फिल्म थी जिसको देखना अनुभवसाध्य है। निर्देशक ने इस फिल्म को कहानी की तरह ही बनाया है, एक-दो दृश्यों के अलावा पूरी फिल्म प्रेमचन्द की कहानी के अनुरूप ही है। स्वयं निर्देशक का मानना था कि यह कहानी ही ऐसी है जो इसके सीधे प्रस्तुतिकरण की मांग करती है। सत्यजित रे ने इसे उसी ताप के साथ प्रस्तुत करके उसकी तेज धार को बचाये रखा। मैंने इसके तीखेपन को जस का तस प्रस्तुत करने का काम किया। सद्गति की विशेषता यह भी है कि फिल्म में कहानी में प्रयुक्त संवाद भी ज्यों के त्यों रखे गये हैं। फिल्म के लिए रे ने पात्रों का चयन भी अनुकूल ही किया था। ओम पुरी, स्मिता पाटिल, मोहन आगाशे प्रमुख भूमिकाओं थे। यह फिल्म दो सप्ताह के शेड्यूल में पूरी बन गयी थी। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के निकट इसका फिल्मांकन हुआ था।
प्रेमचन्द ने शतरंज के खिलाड़ी में मीर और मिर्जा को केन्द्रित किया है, इधर सत्यजित रे ने फिल्म में वाजिद अली शाह और जनरल उट्रम के चरित्रों को महत्वपूर्ण बनाया है। फिल्म में वाजिद अली शाह की सज्जनता के साथ-साथ राजनीतिक समझ की कमी को भी निर्देशक ने रेखांकित किया है। अंग्रेज जैसे चतुर और खतरनाक दुश्मन की शातिर कूटनीतिक चालों को समझ सकने में अक्षम भारतीय राजनैतिक मनोवृत्ति भी फिल्म में सशक्त ढंग से उभरती है। हमारे दर्शक सिनेमा में सूक्ष्म ब्यौरों तक नहीं जाते, कई बार सिनेमा की विफलता का यह भी एक कारण होता है। शतरंज के खिलाड़ी के माध्यम से निर्देशक ने प्रेमचन्द की कहानी को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयत्न किया है। यह भले पैंतीस साल पहले की फिल्म हो लेकिन शतरंज के खिलाड़ी पुनरावलोकन की भी फिल्म है, आज भी हम उसे देखेंगे तो प्रभावी नजर आयेगी।
सद्गति एक घण्टे की फिल्म थी। इसे सत्यजित रे ने दूरदर्शन के लिए बनाया था। यह लगभग बावन मिनट की फिल्म थी जिसको देखना अनुभवसाध्य है। निर्देशक ने इस फिल्म को कहानी की तरह ही बनाया है, एक-दो दृश्यों के अलावा पूरी फिल्म प्रेमचन्द की कहानी के अनुरूप ही है। स्वयं निर्देशक का मानना था कि यह कहानी ही ऐसी है जो इसके सीधे प्रस्तुतिकरण की मांग करती है। सत्यजित रे ने इसे उसी ताप के साथ प्रस्तुत करके उसकी तेज धार को बचाये रखा। मैंने इसके तीखेपन को जस का तस प्रस्तुत करने का काम किया। सद्गति की विशेषता यह भी है कि फिल्म में कहानी में प्रयुक्त संवाद भी ज्यों के त्यों रखे गये हैं। फिल्म के लिए रे ने पात्रों का चयन भी अनुकूल ही किया था। ओम पुरी, स्मिता पाटिल, मोहन आगाशे प्रमुख भूमिकाओं थे। यह फिल्म दो सप्ताह के शेड्यूल में पूरी बन गयी थी। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के निकट इसका फिल्मांकन हुआ था।
वास्तव में प्रेमचन्द का साहित्य फिल्मकारों के लिए उतना आकर्षण का केन्द्र नहीं रहा जितने प्रयोग रंगमंच में उनके साहित्य को लेकर हुए हैं। प्रेमचन्द के उपन्यास और कहानियों पर नाटक ज्यादा हुए हैं, फिल्में कम बनी हैं। यह फिर भी आश्चर्य होता है कि बंगला के एक और महत्वपूर्ण फिल्मकार मृणाल सेन ने कोई पैंतीस साल पहले तेलुगु में कफन कहानी पर केन्द्रित ओका ओरि कथा फिल्म का निर्माण किया था। टेलीविजन पर निर्मला और कर्मभूमि पर धारावाहिक बने। विख्यात फिल्मकार गुलजार ने भी प्रेमचन्द की कहानियों पर तहरीर मुंशी प्रेमचन्द की धारावाहिक का निर्माण किया था जिसकी कई कहानियों में पंकज कपूर ने केन्द्रीय भूमिकाएँ निभायी थीं।
आज के समय में प्रेमचन्द की कहानियों के फिल्मांकन का जोखिम शायद ही कोई उठाना चाहे क्योंकि हमारे दर्शकों के बीच मनोरंजन का एक नया शास्त्र विकसित हुआ है। उसे टेलीविजन चैनलों में रंगे-पुते और जमाने के चलन के हिसाब के निहायत अविश्वसनीय और अकल्पनीय धारावाहिकों को देखने का अजीब सा चाव पैदा हो गया है। फिल्म बनाना तो सम्भवतः आज के फिल्मकारों को सबसे बड़ा जोखिम लगे, निर्वाह की दृष्टि से, परवाह की दृष्टि से और व्यवसाय की दृष्टि से भी जो अब सबसे बड़ी सन्देह भरी चुनौती है।
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