रविवार, 28 दिसंबर 2014

चोट कुछ अलग सी होती है......

चोट दुखती है बहुत अगर अपनी असावधानी से लग जाती है। चोट दुखती है अगर दूसरे की असावधानी से लग जाती है। अक्सर यह समझ पाना कठिन होता है कि चोट सबसे ज्यादा कब दुखती है? अपनी असावधानी से लग जाने के कारण या दूसरे की असावधानी से लग जाने के कारण। बहरहाल दर्द तो होता है, दुखता तो है ही। दुखना, दुख से उपजा शब्द है शायद। दुख देह में नहीं होता, मन में होता है। जब दुख मन में होता है ताे मन देह घर में ही चुपचाप एक कोने में अकेले बैठे रह जाना चाहता है। पता नहीं मन किस जगह से उठ या हटकर अपना एकान्त चुनता है, एक अंधरी कोठरी चुनता है जहाँ वह हमारी ही तरह घुटने मोड़कर उनमें मुँह छिपाकर बैठ जाया करता है। ऐसा सोचते हुए लगता है कि मन अपनी देह अलग गढ़ लिया करता है या हम अपने मन की देह अलग गढ़ दिया कर देते हैं। मन का इस तरह बैठ जाना और गहरी चुप्पी धारण करना देह से नहीं छूट सकने वाले हाथ को छुड़ाने की कोशिश सा जान पड़ता है। इसकी सफलता या विफलता, जीत या हार हमारे बाहर को प्रभावित करती है। 

चोट का पूरा का पूरा मिजाज अलग तरह का होता है, अक्सर लोग उसे पास-पड़ोस के शब्दों जैसे जख्म या घाव से भी जोड़ते हैं पर सचाई यह है कि चोट इन सबके पहले की अवस्था होती है। जख्म या घाव की तरह चोट प्रकट अवस्था में नहीं होती। उसका अप्रकट होना ही दरअसल हमारी संवेदना को उसकी तरफ एकाग्र करता है। शेष दो अवस्थाओं में हम सब कुछ के एक तरह से भिज्ञ ही होते हैं और उसके निदान को लेकर भी अनावश्यक संशय में नहीं रहते लेकिन चोट के साथ ऐसा नहीं है। चोट हमारे कदमों को पीछे, बहुत पीछे लौटा कर ले आने को होती है। वह दबाव शायद इस तरह का होता है कि हम उसका प्रतिरोध भी नहीं कर पाते। दी हुई चोट किसी भी संवेदनशील मनुष्य को ज्यादा तंग करती है। चोट कई बार छुए से मालूम नहीं देती, कई बार चोट छुए भर से मालूम हो जाती है। चोट के साथ स्पर्श का रिश्ता बहुत नम्र और कई मायनों में असरकारी भी होता है।

मन की चोट बरसों बनी रहती है। ऐसी चोट बढ़ती या घटती नहीं है पर बनी सदैव रहती है। देह से लेकर मन तक दरअसल महीन धागों की बुनी हुई ऐसी चादर भीतर ही भीतर कोई ढाँप कर छोड़ देता है, इस तरह की छुपी पीड़ा अपनी तपन को एक जैसा बनाये रखती है। नम्र स्पर्श, भूल को महसूस करने वाली नन्हीं-नन्हीं ग्लानियाँ चोट का धीमे-धीमे निवारण करने का अगर सच सरीखा प्रयत्न करते हैं तो सम्भवत:  वह चोट भी ठीक होती है जो ऋतुओं और त्यौहारों पर थोड़ी-थोड़ी हरियाई सी रहती है। सहलाहट केवल अँगुलियों या हथेलियों भर का हुनर नहीं है, सहलाहट सच कहा जाये तो सच्चे मन से स्वीकारी गयी भूल और उसी मन से किए जाने वाले प्रायश्चित या पछतावे की फिलॉसफी है। चोट को सहलाकर हम अपने मन तक उसके दर्द या पीड़ा के एहसासी होते हैं, यह एहसास हमें आत्मबोध कराता है और मान लीजिए चोट पहुँचाने की वृत्ति के प्रति थोड़ा-बहुत भी सचेत करता है, तो इससे बड़ी बात क्या हो सकती है! कुछ हो सकती है भला!!

रविवार, 21 दिसंबर 2014

पप्पू का दर्शन शास्त्र


हर बार यही होता है कि जुल्फें जरूरत से ज्यादा बढ़ जाती हैं और उन पर कैंची चलवाने का मौका मुश्किल से आता है। इधर दो-तीन दिन से सुबह बड़े अवसर थे मगर अपनी अलाली और शिथिलताओं से गँवाते रहे। इतवार फिलहाल आखिरी मौका था। मैं यथासम्भव मैले और गन्दे कपड़े पहनकर उसकी दुकान पहुँचा तो उसको सामने एकदम फुरसत में पानी पीते हुए खड़ा देखकर एक्टिवा से ही कूद जाने को हुआ। सेठ है अपनी दुकान का। बहुत व्यस्त रहता है और हर कोई उसी से बाल कटवाना चाहता है। मुझे लगा, ऐसा न हो गाड़ी खड़ी करने से लेकर उसके पास जाने के बीच, बीच से कोई आ जाये और अपना नम्बर लगा दे। बहरहाल ऐसा हुआ नहीं और मैं भी गाड़ी में लदे-लदे ही चिल्ला दिया, पप्पू भाई, अपना नम्बर।

मुझे देखकर या मेरी बात से उसे जैसे कोई खुशी नहीं हुई, वह वाकई फ्री था सो अनौपचारिक रूप से मेरे ही अनुसरण में दुकान में अन्दर चला आया और कहने लगा, कल नहीं आये, इन्तजार करता रहा? मैंने कहा, कल कब आने वाले थे, हमने तो नहीं बताया। वह बोला, संजू भैया आये थे, वो कह रहे थे। मैंने कह दिया, मजबूरी में उत्तर दिया होगा, तुमने उनसे पूछा होगा, यह सोचकर कि कहीं और से तो हम बाल नहीं कटवा रहे। इस पर तम्बाखू खाया पप्पू ही ही करने लगा, नहीं भाई साहब, ऐसी बात थोड़े ही है।

उसने कोने की कुरसी पर मुझे बैठने का इशारा किया और इसी बीच उसके दो आशिक आ गये जो जिद करने लगे, चलो यार, चलो यार, पहले मुझे निपटा दो, मेरे बाल काट दो। उनकी छीना-झपटी के बीच पप्पू ने मेरी ओर इशारा किया, भाई साहब बैठे हैं, इनके बाद ही। मुझे पप्पू के इन्साफ पर गर्व हुआ। दूध का दूध, पानी का पानी। वे पीछे बैंच पर बैठ गये और सामने कोने पर रखे छोटे से रंगीन टीवी में नरेन्द्र चंचल के भजन देखने लगे, इधर पप्पू मुझे ओढ़ा-ढँपाकर शुरू हो गया। बीच में उसका एक नौकर आया, उसको उसने आड़े हाथों लिया, क्यों क्या चक्कर चल रहा है तेरा, सुबह पानी गरम होता रहा और तूने स्विच बन्द नहीं किया, क्या बात है, कोई माशूका पाल ली है क्या? मैं पप्पू का चेहरा शीशे में देखते हुए मुस्कुराया तो कहने लगा, हाँ भाई साहब या तो माशूका आ जाये या उधारी हो, तभी आदमी का दिमाग उलझा रहता है। मुझे लगा इसके दर्शन पर गौर करूँ, फिर सोचा, नहीं गर्व करना ठीक होगा।

बीच में पप्पू से मैंने एक परामर्श भी लिया। मैंने उससे कहा, पिछले दिनों बहन तोहफे में एक बड़ा सा डिब्बा झाग वाली शेविंग क्रीम का दे गयी है, जिन्दगी में कभी देखा नहीं, लगाकर दाढ़ी बनाना तो दूर की बात, कैसे उसका उपयोग करूँ? तब उसने सामने ही शो-केस में रखे उसी तरह के डिब्बे को उठाकर, मुझे प्रशिक्षित किया, पहले गालों में पानी लगाऊँ, फिर डिब्बे को शेक करूँ, थोड़ा हथेली में रखूँ और हल्के-हल्के रगड़कर झाग उठाऊँ, थोड़ी देर बाद दाढ़ी मुलायम हो जायेगी तब रेजर से काट लूँ। नासमझ विद्यार्थी की तरह मैंने पूरा सुना फिर समझ आ जाने वाली समझदारी के साथ उसे यह एहसास भी कराया कि जान गया हूँ।

इस बीच पप्पू ने एक बार बाल काटते हुए आधा काम छोड़कर बाहर जाकर चाय भी पी। तम्बाखू भी फटकार कर खायी और मुझे एक काम भी सौंपा, कहा इस बार मुम्बई जाऊँ तो उससे मिलकर जाऊँ क्योंकि वहाँ क्राफर्ड मार्केट में नाक के बाल कुतरने की छोटी सी इलेक्ट्राॅनिक मशीन मिलती है, वह लेकर जरूर आऊँ। मैंने उससे पूछा, जोखिम भरा उपकरण तो नहीं है, नाक के बाल कुतरने के बजाय अराजक हो जाये तो नाक ही उधेड़ दे, इस पर पप्पू ने कहा नहीं भाई साहब, विदेशी है, एकदम शानदार।

इधर पीछे दो ग्राहक कसमसाकर पप्पू को खूब जल्दी से फ्री होने को कह रहे थे लेकिन पप्पू ने आज पूरी तसल्ली से मुझे महीने-पन्द्रह दिन लायक बना दिया। सब वादे और तमाम शुक्रिया के बाद जब मैं उसके सैलून से बाहर निकला, तो सच कहूँ, बड़ा अच्छा लग रहा था। पप्पू है तो सिर शेप में है, वाकई....................

बुधवार, 17 दिसंबर 2014

पत्रिकाओं से जन्मजात सरोकार की बात पर..........

पत्रिकाओं को लेकर बचपन से ही बड़ी ललक रही है। छोटे थे तब पापा-मम्मी ने अखबार वाले हॉकर करीम चाचा से तीन पत्रिकाएँ बँधवा दी थीं, चम्पक, नंदन और पराग। प्राय: ये पत्रिकाएँ साप्ताहिक ही हुआ करती थीं। आगे चलकर हमें जब लोटपोट और चन्दामामा के बारे में जानकारी हुई तो हमने मम्मी-पापा की आफत करके ये दोनों पत्रिकाएँ भी करीम चाचा से लगवा लीं। इन पत्रिकाओं की प्रतीक्षा जागते ही करने लगते। 

करीम चाचा बड़े दिलचस्प आदमी थे। सायकिल में अखबार सजाये जब वे मोहल्ले में दाखिल होते थे तो हर घर के लोगों को जानने और नाम-सरनेम से बुलाने, बच्चों को उनके नाम से बुलाने के कारण, जोर से बोलने की वजह से पता चल जाया करता था कि वे आ रहे हैं। मैं अक्सर व्यग्रता में दूर उनके पास पहुँच जाता था अखबार और अपनी पत्रिकाओं के लालच में पर वे मुझे तंग करते थे, कहकर कि भाग जा, घर पहुँच, वहीं मिलेगा अखबार। मैं ठुनकने लगता तो और चिढ़ाते। मैं घर में उनकी शिकायत करता तो शिकायत को तवज्जो न मिलती। करीम चाचा कई बार अचानक बिन आहट आकर आवाज लगा देते और जो पत्रिका नयी आयी होती उसका नाम लेकर बुलाते। कई बार वे पास बुलाते और न देकर आँगन में अखबार और पत्रिकाएँ उछालकर फेंक देते तब भी मैं उन पर बहुत चिढ़ता। 

जो पत्रिकाएँ बचपन में पढ़ने को मिलतीं उनकी आदत सी बन गयी थी। पढ़ लिए अंक व्यवस्थित जमाकर रखता था। मोहल्ले में किसी को पत्रिका नहीं देता था। पड़ोस में सहाय मौसी मम्मी से अक्कसर कहतीं, सुशीला तुम्हारा लड़का बड़े छोटे जी का है। मैं चम्पक के चीकू, नंदन के तेनालीराम और विशेषकर दो चित्रों में दस गल्तियाँ ढूँढ़ने वाले पन्ने पहले खोलता। मुझे चन्दामामा में बेताल कथाएँ बहुत सिहरा देतीं, हठी विक्रमार्क पेड़ के पास फिर लौट आया, पेड़ से शव को उतार कर कंधे पर लादकर चलने लगा, यहाँ से शुरूआत होती और आखिर में बेताल का प्रश्न जिसका उत्तर यदि विक्रमार्क जानते हुए न देगा तो सिर टुकड़े-टुकड़े हो जायेगा और देगा तो बेताल उड़कर फिर पेड़ पर जा बैठेगा। इसको पढ़ने का रोमांच होता। इसी तरह पराग का भी अपना आकर्षण था। उसमें के पी सक्सेना जी का धारावाहिक खलीफा तरबूजी आज भी याद है, उनकी बेगम, पिंजरे में तोता और रेल की लम्बी यात्रा के किस्से, पढ़ा करते। 

जब लोटपोट पढ़ना शुरू किया तो उसमें चाचा चौधरी, मोटू पतलू खूब सुहाते। मोटू पतलू की कहानी के चित्रमयी पन्नों में उनके साथी घसीटाराम, चेलाराम, डॉक्टर झटका, सिस्टर मधुबाला के कारनामे हँसा-हँसाकर वाकई लोटपोट कर दिया करते। बचपन से बाहर आये तो जैसे इस संसार से भी बाहर आ गये या यों कह लीजिए कि यह संसार भी छूट गया। अब चम्पक, नंदन का रूप ही बदल गया है, चन्दामामा कभी-कभार पत्रिकाओं की दुकान पर दिखायी देता है। लोटपोट दुर्लभ है। पराग तो बन्द ही हो गयी।  आज के बचपन को इन पत्रिकाओं का पता भी न होगा और उनकी जिज्ञासाओं में शामिल भी शायद न होती हो। बचपन भी पढ़ने के धीरज और धैर्य से बाहर हो गया प्रतीत होता है। अब नानियों, दादियों के पास भी शायद कहानियाँ नहीं हैं, माँ के पास तो और भी दुर्लभ। 

पत्रिकाओं का अपना चस्का लेकिन आज भी बरकरार है। दो-तीन दिन में यदि भोपाल में घर से कुछ दूर न्यूमार्केट के गुरु तेग बहादुर कॉम्पलेक्स में वैरायटी बुक हाउस न जाओ तो बड़ी बेचैनी महसूस होती है। अब इण्डिया टुडे, तहलका, अहा जिन्दगी, कथादेश, नया ज्ञानोदय, हंस, समास के अंकों को लेकर जिज्ञासा बनी रहती है। मन के अंक खरीदा करता हूँ। मुझे लगता है कि वाकई महँगाई के इस दौर में अखबार और पत्रिकाएँ आज भी जिस मूल्य पर मिला करते हैं वह बहुत कम है। अपने समय, दृश्य और दुनिया में छोटी मोटी पैठ बनाये रखने के लिए, थोड़ा बहुत जाने रहने के लिए पत्रिकाएँ बड़े काम की हुआ करती हैं। पढ़ना आज के कठिन समय को सहने और समझने की अहम प्रक्रिया है। यह ऐसी पगडण्डी है जो दुर्लभ हो चली है, दुरूह भी। क्षमताभर फिर भी मैं उसमें आवाजाही के जतन कर लिया करता हूँ भले ही पढ़ते-पढ़ते सो जाऊँ।

रविवार, 14 दिसंबर 2014

जिन्दगी के कर्टन रेजर

श्रीराम ताम्रकर का नहीं रहना, बहुत सारी स्मृतियों और बातों के पुनर्स्मरण का सबब बन गया है। वे सिनेमा के थे, उनसे सिनेमा को जानने का सौभाग्य मिला था, सब कुछ सिनेमा की रील की तरह ही चल रहा है। ऐसा लगता है इस हृदयविदारक घटना ने अपने आप एक बड़ा सा कर्टन रेजर तैयार कर दिया है, छोटे-छोटे दृश्य उपजते हैं, प्रसंग सामने फिर से घटित होने लगते हैं, संवाद होने लगता है, कहकहे लगते हैं, बात होने लगती है, अपनापन दिखायी देता है, टेलीफोन सुनायी देने लगता है। 

उनका मोबाइल नम्बर बार-बार देखता हूँ। आँखें भीग जाती हैं। अब वे उधर से दो अक्षरों के हैलो का जरा विस्तीर्ण कर थोड़े ही बोलेंगे, हैल्ल्लो....! भोपाल में स्कूटर की यात्राएँ याद आती हैं, शुरू शुरू की जब बैठते ही कहते थे, पेट्रोल पंप ले चलो, जिद माननी होती थी, इकट्ठा पाँच लीटर भरवा दिया करते थे। जितने दिन भोपाल में रहें, साथ खाना खाया, काम किया। त्रिवेन्द्रम गये, मुम्बई गये, दिल्ली गये, पुणे गये और भी कहाँ कहाँ। 

धरम जी से पहली बार मिले तो साथ मिले। उन्होंने ही धरम जी से कहा था कि आप शोले फिल्म का वो सिक्का जो जिसके दोनो ओर हेड है, तिस पर धरम जी ने खड़े होकर उन्हें गले लगा लिया था, कहते हुए, वाह यार क्या बात कही है। वे नईदुनिया के फिल्म सम्पादक रहे तो उन्होंने लिखने की समझ दी, सिखाया, प्रोत्साहित किया। नाना पाटेकर, सुधांशु मिश्र, हृतिक रोशन, राकेश रोशन आदि के बड़े इण्टरव्यू छापे।

भोपाल में वे जब भी आते थे तो यही लगता था कि पास ही रुकें। हमेशा किसी निमंत्रण पर भी वे आये तो यही चाहा कि ऐसी जगह रुकें जहाँ मैं तत्काल पहुँच सकूँ। वे भोपाल में होते थे तो उनको अकेला बिल्कुल नहीं छोड़ता था। भोपाल में वे हमारे प्राय: सभी आत्मीय मित्रों से जुड़ गये थे। सबके साथ समरस। सिनेमा पर उनका बोलना सम्मोहित करता था हमेशा। निरन्तर बिना किसी दोहराव के तथ्यपरक बातें वे करते थे। कई बार वे फिल्म पत्रकारिता सीख रहे छात्रों को शुरू में ही कह देते थे कि मैं आपके लिए ही बताने वाली बात की पूरी तैयारी से आया हूँ, यदि आप गम्भीर न हुए, आपका मन न लगा तो मेरा आना बेकार, आपका सुनना बेकार, आपकी संस्था का यह सारा का सारा उपक्रम बेकार। इसलिए  पहले बता दीजिए, आपकी रुचि है या नहीं तिस पर सभी छात्र नतमस्तक, सर आप बताइये, हम सुनेंगे, बैठेंगे।

आज सुबह जूनी इन्दौर के मुक्तिधाम में उनकी निष्प्राण देह को देखकर सब्र छूट गया। वही सब कर्टन रेजर की तरह, इस तरह तो उनको कभी नहीं देखा था। वे अपनी आँखें, सिनेमा प्रेम में दान कर गये, उनके जाने के बाद भी उनकी आँखें सिनेमा देखती रहें इसलिए। प्रभु जोशी, सरोज कुमार, राकेश मित्तल, मानसिंह परमार वहाँ पर बोल रहे थे, ताम्रकर जी के बारे में, सच-सच। प्रभु जी ने कहा मेरे अविभावक थे, सरोज जी ने कहा कि श्रेय से दूर रहते थे, बहुत सी बातें। 

अक्सर, इन्दौर में उनसे मिलकर भोपाल रवाना होते हुए उनका एक आदेश सुनता था, भोपाल पहुँचते ही खबर करूँ। अब नहीं कहेगा कोई और खबर भी किसे करूँ......?

देवी अहिल्या विश्वविद्यालय इन्दौर में बीस वर्षों से निरन्तर फिल्म पत्रकारिता पढ़ाते रहने वाले ताम्रकर जी के नाम पर वहाँ इस विषय की एक पीठ स्थापित कर दी जाये तो शायद किसी तरह की कठिनाई न होगी। परमार जी, मित्तल जी, कुलपति इस अहम काम को सहजतापूर्वक ही कर सकते हैं।

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2014

हिन्दी में सिनेमा का एनसायक्लोपीडिया


सिनेमा का संसार हिन्द महासागर की तरह है जिसकी अन्तहीनता की सिर्फ कल्पना की जा सकती है। दर्शक को उसका छोर भी बहुत मुश्किल से ढूँढ़े मिलेगा, वह भी अगर उसमें बहुत जतन करने की जिज्ञासा या कौतुहल हो अन्यथा सभी के लिए सिनेमा परदे का मनोरंजन है, चन्द घण्टे बैठकर सपनों की दुनिया की सैर कर आओ, लौटो तो खाली हाथ, कुछ आधे-अधूरे ख्वाबों के संग।

बहरहाल भारत में हिन्दी में एनसायक्लोपीडिया का तैयार होना एक बड़ी घटना है जिसे खासतौर पर ऐसे अवसर पर लोगों के बीच घोषित होना चाहिए जो वास्तव में सिनेमा से गहरे सरोकार रखते हैं। सिने रसिकों के लिए यह अथाह परिश्रम, क्षमताओं और जूझने वाली लगन से भरा काम वरिष्ठ फिल्म आलोचक, सम्पादक, लेखक श्रीराम ताम्रकर ने किया है जो इन्दौर में निवास करते हैं। उनको सिनेमा के संसार का अध्ययन और अनुभव का पाँच दशक से भी अधिक समय का ऐसा तजुर्बा है जिसमें निरन्तर सक्रियता उनका अपने ही से प्रमुख आग्रह रहा है। ऐसे व्यक्तित्व से ही इस तरह के बड़े काम की अपेक्षा की जा सकती है।

हिन्दी सिनेमा: एनसायक्लोपीडिया, श्रीराम ताम्रकर के अनुभवों, पढ़े-लिखे-देखे का जीता-जागता साक्ष्य है। अपने मार्गदर्शन में अनुभवी और दक्ष सम्पादन मण्डल के साथ जिनमें वरिष्ठ पत्रकार विनोद तिवारी, मनमोहन चड्ढा, सुरेश उनियाल, डाॅ. राजीव श्रीवास्तव, गोविन्द आचार्य आदि शामिल थे, यह दुर्लभ काम उन्होंने दो वर्ष के दिन-रात परिश्रम से पूरा किया है। इसमें 1500 प्रविष्टियाँ, 5000 से अधिक सन्दर्भ एवं सूचनाप्रधान प्रामाणिक जानकारी शामिल की गयी है।

इस एनसायक्लोपीडिया में स्टिल कैमरे के 1839 में आविष्कार के साथ ही सिनेमा के जन्म की दिलचस्प दास्तान, ल्यूमिएर ब्रदर्स, सावे दादा, दादा साहब फाल्के, सिनेमा से पहले का सिनेमा और सौ साल की यात्रा पर बहुत ही परिमार्जक ढंग से सावधानी के साथ आलेख, सूचनाएँ और जानकारियाँ संयोजित की गयी हैं। इस एनसायक्लोपीडिया में निर्माण, निर्देशन, अभिनय, कोरियोग्राफी, छायांकन, गीत, संगीतकार, एक्शन, संगीत संयोजन आदि पर बड़े उत्तरदायी ढंग से बात की गयी है। एनसायक्लोपीडिया तैयार करते हुए भारतीय सिनेमा की उन सब श्रेष्ठ और अमर विभूतियों का व्यक्तित्वपरक स्मरण किया गया है जिनकी अहम और आसाधारण भूमिका से ही सिनेमा ने अपने विराटपन को स्थापित किया है। 

इसी एनसायक्लोपीडिया में पहली बार फिल्मों की पारिभाषिक शब्दावली के बारे में समझा और जाना जा सकेगा जैसे क्लोज अप, लांग शाॅट, आॅन स्क्रीन साउण्ड, फ्लैश बैक, मोंताज, मीडियम शाॅट, आॅफ स्क्रीन साउण्ड, मिक्सिंग, डिजाल्व, अन-मेरिड प्रिंट आदि। समग्रता में सिने-व्यक्तित्वों के परिचय एवं योगदान के साथ ही फिल्म संस्थानों के साथ उनकी कार्यप्रणाली, उपयोगिता पर जानकारियाँ इसका हिस्सा हैं। एनसायक्लोपीडिया में सिनेमा से जुड़े सभी प्रमुख पुरस्कारों पर भी विस्तार से जानकारी है।

श्रीराम ताम्रकर इस प्रकल्प के मुख्य रचनात्मक सूत्रधार हैं जो लगभग पिछले दो वर्ष से लक्ष्य लेकर इस काम को पूरा करने में पिछले माह सफल हुए जब सम्पूर्णता में हिन्दी सिनेमा का भारत का यह पहला एनसायक्लोपीडिया उन्होंने पूर्ण किया। इस बीच स्वास्थ्य सम्बन्धी गहन समस्याएँ जिनमें हृदय की शल्य चिकित्सा भी शामिल है, से जूझते-लड़ते, चिकित्सकों द्वारा आराम और विश्राम के अनुशासन को भंग करते हुए उन्होंने इस कार्य को इति तक पहुँचाया। 

श्रीराम ताम्रकर का कहना है कि मेरे लिए यह सपना बहुत बड़ा नहीं था। नईदुनिया अखबार के लिए परदे की परियाँ, सरगम का सफर, नायक-महानायक, दूरदर्शन सिनेमा, फिल्म और फिल्म, विश्व सिनेमा और भारत में सिनेमा जैसे वार्षिक विशेषांकों का सम्पादन करते हुए, भारत के अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों का प्रेक्षक बने रहते हुए और नईदुनिया अखबार के लिए ही प्रतिमाह फिल्म संस्कृति जैसी लोकप्रिय लघु पत्रिका निकालते हुए मेरे लिए अब यही एक काम शेष था कि मैं हिन्दी के पाठकों के लिए उनकी भाषा और सुरुचि में सिनेमा का महाकोष तैयार करूँ। यह काम मेरे चालीस साल के तजुर्बे और सिनेमा माध्यम के प्रति अथाह अनुराग और निष्ठा का सुपरिणाम है। मैं ठहरकर, अपनी रचनात्मक तृप्ति की गहरी साँस लेता हूँ और अपने आपको खुशकिस्मत महसूस करता हूँ कि मायानगरी से बड़ी दूर इन्दौर शहर में रहते हुए मायानगरी के लिए ही यह बड़ा और अहम काम कर सका। 

बुधवार, 3 दिसंबर 2014

भोपाल दो-तीन दिसम्बर उन्नीस सौ चौरासी

बीसवीं सदी की एक बड़ी दुर्घटना जिससे बड़ी मानवीय क्षति हुई, शेष जीवन मानसिक अवसाद, प्रताड़ना, अन्देशों और डर भय से भरे हो गये, उसे आज तीस बरस हो गये हैं पर जी इतना कड़ा नहीं हो पाता कि सब भुलाया जा सके। मन को बहलाने और समझाने के लिए कहा जाता है कि वक्त से बड़ा कोई मरहम नहीं है, सब जख्म धीरे-धीरे भर जाते हैं लेकिन सच्चाई यह है कि जख्मों के धुंधले निशान भी छुओ तो हरे हो जाते हैं। उस समय का स्मरण एक साथ कई बातों का स्मरण कराता है, सहसा उस उम्र का स्मरण हो आता है और तब के मानस का भी।

तब की याद आती है, पढ़ाई-लिखाई मन न लगने के कारण अपनी पूरक चाल से आगे बढ़ रही थी लेकिन लेखन में रुचि हो गयी थी। अखबार श्वेत-श्याम निकला करते थे। उन दिनों रवीन्द्र भवन के खुले मंच पर राष्ट्रीय रामलीला मेला, मध्यप्रदेश आदिवासी लोककला अकादमी ने आयोजित किया था। उस मेले में प्रतिदिन होने वाली रामलीला की समीक्षा बड़े भाई तुल्य अनिल माथुर कर रहे थे जो तब जनसम्पर्क विभाग में अधिकारी थे पर अपनी पूर्ववर्ती संस्था नवभारत समाचार पत्र का युवा जगत पेज देख्‍ाा करते थे। उनको पारिवारिक काम से आगरा जाना हुआ तो मुझे कह गये कि अन्तिम दो दिनों की रामलीला तुम कवर कर के नवभारत को दे आना, तुम्हारे नाम से आयेगी। इस तरह दो दिन 1 और 2 दिसम्बर को रामलीला देखने और लिखने का काम किया था। 2 दिसम्बर को इधर रामलीला देख रहा था, उधर यूनियन कार्बाइड में दुर्घटना हो गयी थी। अगले दिन सुबह के सारे अखबार पहले पेज पर उस बड़ी दुर्घटना का समाचार दे रहे थे।

3 दिसम्बर सुबह से ही खबरें फैल रही थीं। नये भोपाल में किसी को पता न चला कि शहर में बीती रात क्या हो गया है? अगला दिन सच्ची झूठी खबरों का था। घटना इतनी भयानक थी हर बात पर विश्वास करते हुए भोपालवासी भीतर ही भीतर बहुत कमजोर होते जा रहे थे। ऐसा लगता था कि सबका अपना विवेक हार गया है। हर बात पर भरोसा करने को जी चाहता था और हर बात डराने वाली थी। याद है, उम्र तब इक्कीस वर्ष थी, 3 दिसम्बर को साढ़े ग्यारह बजे सुबह अफवाह उड़ी कि यूनियन कार्बाइड से फिर गैस रिस पड़ी है, तब पूरे शहर में बदहवास भगदड़ मच गयी। नये भोपाल के स्थान भी अछूते न रहे। हमारे मोहल्ले के लोग घर से जहाँ रस्ता मिले, भागने लगे, ताला डालने का की होश किसी को न था। एक तरफ मानवीय पहलू यह कि पीड़ितों को सब हर तरह की मदद करने आगे आये वहीं यह भी कि अगले दिन गैस रिसते हुए अपनी जान की परवाह करते भाग रहे लोग पड़ोसी की फिक्र भी नहीं कर रहे थे। एक परिवार तो अपने घर के अति बुजुर्ग की शिथिलता और लाचारी पर भी उनसे झुँझला रहे थे, सब तरह के तजुर्बे।

घण्टे भर बाद यह ऐलान हुआ कि दोबारा गैस नहीं रिसी है, सब घर में रहें, भागें न, कहीं न जायें। लोग बमुश्किल माने पर अगले पन्द्रह दिनों तक हर आदमी रह-रहकर जागता था, कितना सोता था पता नहीं। अगले पन्द्रह दिनों में से ही एक दिन यूनियन कार्बाइड में बचे रसायन से सेविन गोलियों का निर्माण कर रसायन खत्म कर दिया जाना था, वह रसायन जिससे यह भयानक हादसा हुआ। उसके बाद भी बरसों बल्कि कल तक यह खबरें आती रहती हैं कि अभी भी वहाँ जहरीला अपशिष्ट बचा है, पड़ा है, वगैरह वगैरह। सच तो यही था कि दुर्घटना वाली रात जहरीली गैस ने जमकर विनाशलीला की। चपेट में आये बुजुर्ग, बीमार, महिलाएँ, बच्चे, युवा हजारों की संख्या में असमय काल कवलित हो गये। 

हम लोग अपने मुहल्ले से पाँच सात साथी सायकिलों पर हमीदिया अस्पताल जाया करते थे, दूध, डबलरोटी और खाने की दूसरी सामग्रियों के साथ लेकिन वहाँ इस आपदा के शिकार निर्दोषों को भूख की नहीं जीवन और साँसों की जरूरत थी, हम लोग असहाय से उनको तड़पते, विलाप करते, रोते देखते थे और भीतर तक सिहरन तथा दुख से भर जाते थे। हम सबके पास इसकी दवा नहीं थी। हर रोज अस्पताल के दृश्य रुलाया करते थे, हौसले को कमजोर किया करते थे। सालों साल हमने अपनी मानसिकता को कमजोर होते देखा है। मुझे अपनी भी याद है, बहुत डरा करता था। उस समय आकाशवाणी में विनोद तिवारी, गजलकार समाचार पढ़ा करते थे। मैं प्राय: उनके पास बिना जान पहचान के कभी रेडियो स्टेशन तो कभी उनके घर पहुँच जाया करता था, पूछने कि अब तो कुछ नहीं होगा, अब तो कोई खतरा नहीं है। कई बार इस बात पर वे झुँझला जाया करते थे। बाद में एक-दो बार उन्होंने मुझे भगा भी दिया था। कहने का अर्थ यह कि कैसे एक भयावह घटना मनोबल को कमजोर करती है, विश्वास को डिगा देती है, जवाबदारियों के लायक नहीं रहने देती। कैसे हम केवल अपने बारे में सोचने लगते हैं, कैसे मानसिक भरम हर पर डगमगाये रखते हैं। अनुभवों का जखीरा लम्बा है, राजीव गांधी आये थे पीड़ितों को देखने, याद है बहुत कुछ। 

यूनियन कार्बाइड की दुर्घटना का समय देर रात से सतत सुबह तक का है, आगे भी कई दिनों तक जब तक आसमान में गैस मण्डराती रही लेकिन किस तरह इस काल-आक्रमण से सर्वथा बेखबर लोग इस दुनिया से चले गये। भोपाल इस घटना के बाद अनेक वर्षों तक अनेक मुश्किलों से जूझता रहा है। घटना हो जाने के बाद घातक रसायन के उन लोगों और पीढ़ियों में प्रभाव बने हुए हैं जिनके प्राण किसी तरह बच गये। सोच कर मन काँप उठता है कि हम कारखाने से पन्द्रह किलोमीटर दूर होकर महीनों-सालों भयमुक्त नहीं हो पाये, उनका क्या होता रहा होगा, जो जद और हद में रहे होंगे!!

गुरुवार, 27 नवंबर 2014

माँ निगरानी में खाना खिलाती है

मम्मी के साथ खाना खाने की बात तय कर आओ तो वे व्यग्रता से प्रतीक्षा करती हैं। उन्होंने साफ-साफ कह दिया है कि समय पर आ जाया करो, देर होगी तो फिर हम सो जायेंगे। अपनी मसरूफियत उनका समय न बिगाड़े इसकी फिक्र रहती है। दस-पन्द्रह दिनों में जब कभी उनके साथ खाने का वक्त आता है तो लगता है बरसों की भूख से अब निजात मिल रही है। 

मम्मी हमेशा की तरह बहन-बेटी से थाली परोसे जाने के पहले मेरे लिए सलाद काट देने की याद दिलाना नहीं भूलतीं। मुझे बचपन से ही प्याज, टमाटर, हरी धनिया, हरी मिर्च और उस पर नमक डालकर खूब मिलाकर बनने वाला सलाद बहुत पसन्द है। वह फैंसी, आकल्पन वाला, सजा-सजाया सलाद मुझे कभी स्वादिष्ट नहीं लगा। जब तक अपनी मरजी का काटकर अच्छे से मिलाया नहीं तब तक नमक टमाटर-प्याज में नहीं मिला और उसने रस नहीं छोड़ा, वैसा।

मैं मम्मी को देखकर मुस्कुरा उठता हूँ। कहता हूँ कि मम्मी सबको पता है कि यह मेरी पसन्द है, आप भी आदेशित करेंगी ही फिर तो मिलेगा ही पर मम्मी का काम ध्यान दिलाना है, बिटिया, भैया के लिए सलाद जरूर काट देना।

इस तरह का सलाद बचपन की पसन्द है। पाँच-सात साल की उम्र में ही एक बार शायद शाम चार बजे स्कूल से आकर खाने की जिद करने लगा। घर में रोटी रखी थी, सब्जी और दाल सुबह खत्म हो गयी थी। मम्मी कहने लगीं, जरा रुक जाओ, अभी सब्जी बनाये देते हैं पर उस समय ठुनकने लगा, अभी खाना चाहिए। तब मम्मी ने प्याज, टमाटर, धनिया, मिर्च का यह सलाद काटकर बनाया और दो रोटी के साथ खाने को दिया। सच कहूँ खुशी-खुशी खा गया। मजेदार लगा। फिर हर दो-चार दिन में अपनी यही फरमाइश, सलाद बना दो।

तभी से यह सलाद जुबाँ पर चढ़ गया। आज तक जब कभी घर की मेहरबानी से थाली में मिल जाये तो मन मजे का हो जाता है लेकिन मम्मी-पापा के घर में खाना खाया तो सलाद खाने के साथ पक्का ही समझो। यह सलाद आज भी अपने हाथ से बनाकर बड़ा मजा आता है। आखिर में जब दाल-चावल-सब्जी में इसका टमाटर और नमक छूटा रस मिला लो तो स्वाद और भी बढ़ जाता है। इधर मम्मी हमेशा की तरह सरदी में कुछ ताजे टेम्परेरी अचार भी डलवाती हैं बहनों से गाजर का, नींबू का, आँवले का, सेम-मटर का, मूली का और सबका मिलाजुला भी। इसके साथ ज्वार, बाजरे और मक्का तथा बिर्रा (गेहूँ, जौ, चना) की रोटी का बड़ा मजा है। इसके साथ आखिर में एक टुकड़ा गुड़ भी।

शुक्रवार, 14 नवंबर 2014

॥ स्वीटी के बच्चे ॥


उसका नाम स्वीटी था नहीं लेकिन उसके नियमित आते रहने से किसी न किसी नाम से पुकारना ही था सो सब यह कहने लगे। दरअसल किसी तीसरे मुहल्ले की वह पालतू है पर जाने वो अपना घर खाली करते समय उसे नहीं ले गये या कुछ और वह एक दिन घर आ गयी। उसे कुछ खाने को दिया जिससे यह हुआ कि प्राय: आने लगी लेकिन सफेद रंग की यह साफ सुथरी स्वीटी देखते हुए इतना आल्हाद व्यक्त करती थी कि मन खुश हो जाता था। मेरे पास का वह सब खा लिया करती थी, बिस्कुट, मूँगफली, चने कुछ भी।

कुछ दिन में उसकी आदत ऐसी बन गयी कि वो घर में ज्यादातर समय बैठी रहती, आँगन में। आते-जाते सब पर मुफ्त का रुआब, भौंकने पर सब डरते, अन्दर आने से। घर से बाहर जाओ तो वह ऐसे देखती है जैसे उसकी जवाबदारी है सब। लौट कर आने तक आँगन में ही रहती। जब आओ तो मुँह ऊपर करके एक लम्बा सुर भी निकालती, जैसे वेलकम कर रही हो।बहरहाल इसी स्वीटी ने कुछ समय पहले तीन सन्तानों को हमारे ही आँगन के एक कोने में जन्म दिया। तीनो ही जेण्ट्स। अच्छे अच्छे रंगों वाले, सफेद में कुछ खाकी चित्ते-चकत्ते के साथ। इस समय पन्द्रह-बीस दिन के हो गये हैं, पहले पाँच सात दिन पड़े रहे, आँखें नहीं खुली थीं, जब आँखें खुल गयीं तब से सयाने हो गये हैं, अपनी उम्र के मुताबिक।

इन दिनों खूब कूदते-फाँदते और मस्ताते हैं, छोटा मुँह बड़ी बात टाइप पुक-पुक करके भूँकते भी हैं आपस में कुश्ती लड़ते हुए। इनमें सबसे छोटा गब्दू टाइप है और शेष दो जरा स्मार्ट फिटनेस का ख्याल रखने वाले। सुबह और शाम, कई बार रात में भी इनकी मस्तियाँ देखने को मिलती हैं। कई बार लिखते-पढ़ते पैरों के पास आ जाते हैं और जीभ से उंगलियाँ-छुँगलिया चाटने लगते हैं, ओह याद करके गुदगुदी महसूस होती है। मैं उन्हें ज्यादा लड़ियाता नहीं पर वे उसके लिए निमंत्रण की परवाह भी नहीं करते।

जीवन की आपाधापी में कई बार आपको अनुभूत करने वाली खुशी और सुख किस तरह मिलता है, इस पर मैं सोचने लगता हूँ। अनेक जगहों से खिजे-पिटे और बुझे लौटकर आने के बाद ये प्राणी, निश्छल और आत्मीय कैसे आपको एक अलग ही संसार में ले जाने आ जाते हैं। ये अबोले केवल प्रेम की भाषा जानते हैं, जो बोलते हैं वो कई भाषाओं के धनी होते हैं, उस दुनिया से इस दुनिया में कितना अन्तर है, थोड़ी देर इस दुनिया में रहकर लगता है बहुत सारी तकलीफें कम हुई हैं............................

गुरुवार, 6 नवंबर 2014

केतन मेहता और रंगरसिया


कला और मनोरंजन का संसार अनूठा है। इस संसार में उत्कृष्टता और श्रेष्ठता की चुनौतियाँ सर्जक और सृजन दोनों ही स्तरों पर निरन्तर बनी रहती हैं। किसी समय यह मापदण्ड दोनों ही स्तरों पर लीक से अलग हटकर और आकृष्ट किए जाने की स्थिति तक प्रायः उदाहरण बना करता था। एक लम्बा समय लगा इस यथार्थ को स्थापित हुए और एक चरम या शीर्ष पर पहुँचकर वैकल्पिक धरातलों पर या सरलतम सृजनमार्ग पर फिर एक लोकप्रिय जगत को सिरजना उस मूल भाव के विपरीत व्यापक हुआ जिसकी साधना या सरोकार अक्षुण्ण रहे थे। हमारे सामने दूसरी परम्परा का आना और उसमें एक बड़े जिज्ञासु समाज का समरस होना एक दूसरी घटना थी जिसने अच्छे मिथकों को भी चुनौतियाँ दीं। सर्जना के मूलभूत तत्व ही दूसरी परम्परा का माध्यम बने, वे औजार जिन्हें मनुष्यता ने खुद गढ़ा था, आगे चलकर मनुष्य के ही गढ़े दूसरे औजारों से पिछड़ गये। सर्जना श्रेष्ठता के अपने मानक धरातल पर ही विभाजित होने लगी। देखते ही देखते एक समानान्तर स्थान विकसित हो गया, प्रतिष्ठापनाएँ यहाँ की ज्यादा चकाचैंधभरी नजर आने लगीं। हमारे सामने श्रेष्ठजनों को आदरणीयों का स्थान प्राप्त हो गया और उनका चरण स्पर्श भर करके हमने उनको उतने ही तक सीमित कर दिया।

यह एक लम्बी बहस का विषय हो सकता है कि जो ऊष्मा समूचे परिवेश को ताम्बई आभा दिया करती थी, जो ताप हमने बड़ी दूर रहकर भी अपने व्यक्तित्व में अनुभूत किया उसी के बरक्स हमने आधुनिक धारा का एक और दौर अस्तित्व में आते देखा जिसकी सीमाओं ने यद्यपि स्वर्णिम दौर को स्वर्णिम बने रहने दिया लेकिन उसको सीमित भी कर दिया। 

केतन मेहता की रंगरसिया प्रदर्शन के परिणाम तक पहुँच सकती थी इसका अनुमान नहीं रह गया था क्योंकि वे इसे पाँच साल से बनाये बैठे थे। केतन मेहता पिछली सदी में आठवें दशक के एक महत्वपूर्ण फिल्मकार हैं जिनकी दृष्टि पर भरोसा किया ही जा सकता है क्योंकि बाद के भटकाव को छोड़कर प्रारम्भ में उनके सभी काम अच्छे थे, अच्छे थे अर्थात स्पर्धी दौर में श्याम बेनेगल, गोविन्द निहलानी, सईद मिर्जा, प्रकाश झा और सुधीर मिश्रा के कामों के बीच चर्चा में आते थे। पहले पैराग्राफ में जो बात आयी, केतन मेहता उसी तरह के समय के मारे कहे जायेंगे। जी चैनल पर उनका एक धारावाहिक प्रधानमंत्री ध्यान में आता है जो शायद चाचा चौधरी धारावाहिक के बाद उनका आखिरी अच्छा प्रयोग था। मंगल पाण्डे को लेकर कुछ ठीक से कहते नहीं बन रहा है लेकिन जब राजा रवि वर्मा जैसे व्यक्तित्व के साथ उन्होंने अपनी नयी फिल्म की कल्पना प्रस्तुत की तब लगा कि वे हताशा के बड़े समय में भी अपनी रचनाधर्मिता में थोड़ा ताप बचाये हुए हैं।

रंगरसिया को बना चुकने के बाद केतन को इतने बड़े समय में कई बार यह लगा होगा कि शायद इसका प्रदर्शन न हो पाये। बहरहाल उस निर्माण संस्था को जरूर धन्यवाद देना चाहिए जिसकी वजह से यह फिल्म सिनेमाघरों तक आ रही है। सैकड़ों करोड़ों के क्लब में दौड़-फांदकर जा पहुँचने के इस अजीबो गरीब समय में रंगरसिया को कुछ हजार संजीदा दर्शक देखते हैं तो यह बड़ी बात होगी। भारतीय कला परम्परा में राजा रवि वर्मा का व्यक्तित्व और कृतित्व अपनी जगह महान हैं। महान व्यक्तियों पर अथवा उनसे जुड़ी प्रतिभासम्पन्नता पर काम करना उत्साह और चुनौती के साथ संवेदनशील भी होता है। 

यह जरूर अचरज से भरा है कि इस फिल्म का प्रचार-प्रसार जन-आकर्षण की दूसरी जिज्ञासाओं के साथ हो रहा है। रचनात्मक रूप से एक बड़े कलाकार पर फिल्म बनाते हुए पूरे विषय को किस तरह बरता गया है, कैसे राजा रवि वर्मा के सृजनात्मक जीवन और जगत में सजगता और दक्षता के साथ प्रवेश किया गया है, यह केतन मेहता की ओर से इस बीच प्रदर्शन के इन पाँच-सात दिनों में सामने आना था। बहरहाल शुक्रवार को फिल्म प्रदर्शित हो रही है, देखना महत्वपूर्ण होगा कि भवनी भवई और मिर्च मसाला वाले केतन मेहता सिने-सर्जक के मूलभूत कलाकौशल पर अभी भी कितना स्थिर हैं, कितना डिग चले हैं..........?

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सोमवार, 20 अक्तूबर 2014

माँ युद्ध से डरती है... नहीं माँ युद्ध करती है............



इस बार मैं सातवीं मंजिल से बाहर देख रहा था। बाहर देखते हुए मेरी जिज्ञासा उसी मन्दिर को देखने की हुई जिसे शायद पाँच-छः वर्ष पहले कुछ दिन रोज सुबह उठ कर देखा करता था और मन ही मन उस पूरे दिन के लिए प्रार्थना किया करता था। उस समय माँ श्वास की गम्भीर बीमारी के कारण इसी भवन के अस्पताल में दाखिल हुईं थीं। तब अस्पताल का नाम कुछ और था। दस-बारह दिन साँस थामे ही बीते थे जिसमें हर दिन अनिश्चय से भरा था। याद आता है, उस समय वह कागज साइन किया था जिसमें माँ को वेण्टिलेटर पर लेने से पहले का वचन पत्र था, यही कि अपने जोखिम पर उनकी चिकित्सा या प्राण रक्षा के लिए हम उन्हें इसके लिए सौंप रहे हैं। अपनी सबसे छोटी बहन की तरफ देखते हुए उस पर अपने साइन कर दिए थे। माँ की तबीयत का रोज ही तब कुछ अन्दाजा नहीं हो पाता था। तीसरे दिन की बात होगी जब अचानक उनकी तबीयत में गिरावट आयी और उनको देखने वाले डाॅक्टर यह कहते हुए लिफ्ट के अन्दर चले गये थे, कोई भी केजुअलिटी हो सकती है..............

मित्रों, शुभचिन्तकों का आना होता था अस्पताल में। वेण्टिलेटर पर हैं यह सुनकर सभी के चेहरे क्षण भर को स्थिर हो जाते। याद है, एक मित्र ने जरूर कहा था कि वेण्टिलेटर का मतलब बुरा ही नहीं है, इससे भी लोग ठीक होकर आते हैं। उन्होंने अपने किसी का उदाहरण भी दिया था। उन्हीं मित्र का अकेला विश्वास मुझे जरा-जरा सम्बल दिया करता। वास्तव में चमत्कार ही था जब छठवें-सातवें दिन उनकी तबीयत में सुधार हुआ और दस दिन बाद उन्हें अस्पताल से घर जाने दिया गया।

इस अवधि में मेरी रात गहन चिकित्सा इकाई के बाहर बारामदे में कुर्सी पर जागते-सोते बीतती। छोटी डाॅक्टर बहन मम्मी के पलंग के पास कुर्सी पर आँखें खोले रात भर बैठी रहा करती। उस वक्त सुबह का उजास और खिड़की के बाहर उस मन्दिर को दूर पहाड़ी पर देखना, भरी आँखों से अपना आवेदन करना सब कुछ ज्यों का त्यों याद रहा.................अस्पताल से मम्मी को छुट्टी मिलने के बाद फिर उस मन्दिर का रास्ता तलाशते हुए ऊपर पहाड़ी पर गया भी था।

इन कुछ वर्षों के बाद अभी फिर उसी दिशा के प्रायवेट रूम में मम्मी को लेकर आते हुए खिड़की के बाहर आँखों ने उसी मन्दिर को ढूँढ़ना शुरू किया। इस बार मम्मी की एक सर्जरी होना थी। यह तकलीफ मम्मी को साल भर से थी लेकिन किसी को उन्होंने बताया नहीं। बाद में जब दर्द असहनीय हुआ तो घर में बहनों को मालूम हुआ मगर इस हिदायत के साथ कि मुझे न मालूम पड़े। लेकिन ज्यादा दिनों तक उनकी तरफ से यह छुपा नहीं रहा। जब बताया गया तो मैं हतप्रभ था। गम्भीर बीमारी थी और सर्जरी तत्काल निदान के लिए की जानी थी। अनेक परीक्षणों के बाद सर्जरी की जाना सुनिश्चित हुआ। यही भवन अस्पताल का लेकिन इस बार अस्पताल का नाम बदला हुआ था और अस्पताल भी अत्यन्त आधुनिक और आज की जरूरतों के मुताबिक।

मम्मी, मुझ जैसे पचास वर्षीय व्यक्ति की, समझ लो उम्र, अपने समय की सख्त टीचर। छात्रों से लेकर हम बच्चों को भी एक ही तरह के थप्पड़ से मारने वालीं। सर्जरी के लिए बमुश्किल राजी हुईं, अनेक बहानों और असहयोग की दृष्टि से डराने वाली बातों के बाद। माँ तो माँ है, हम सबकी माँ की तरह। उनका अपना जीवन, परिवेश, स्वभाव और भी तमाम चीजें, किसी से क्या डर! मम्मी भी, सबसे खूब बातचीत। नर्स से लेकर डाॅक्टर तक सभी से न जाने कितनी बातें। डाॅक्टर भी भले और सहिष्णु जो अम्मा जी की सब बातों पर हाँ करते। बाद में पता चला कि लोकल एनेस्थीसिया के प्रभाव में भी खूब बतकहाव करते हुए अपनी सर्जरी करवायी। हम लोग बाहर सहमे खड़े रहे। एक के बजाय चार घण्टा लगा लेकिन अन्दर से मुस्कुराती हुई आयीं। उनकी मुस्कुराहट हम तक आते-आते हमारी आँखों के आँसू बन गयी।

उन्हें छुट्टी अगले दिन मिल जाती लेकिन श्वास की आदर्श गणितीय संख्या अपेक्षा से ज्यादा कम थी इसलिए दो दिन ज्यादा लगे। बहरहाल पाँचवें दिन उन्हंे घर ला सके। अस्पताल के दरवाजे से प्रायवेट रूम तक जाना, अस्पताल के भीतर अनेक कमरों में जाँच के लिए ले जाना और फिर बाहर आने का काम व्हील चेयर पर ही होता था। माँ इस प्रक्रिया में अस्पाताल के सहायकों को मना कर देतीं, बेटा तुम रहने दो, ये काम हमारा लड़का ही कर पायेगा। उनकी बीमारी को लेकर घोर चिन्ता के बावजूद उनका यह विश्वास मुझे थोड़ा हँसा देता। मेरे बैठाने, पैर को फुट रेस्ट पर व्यवस्थित जमाने और व्हील चेयर लेकर चलने पर उनकी आश्वस्ति मुझे भी आश्वस्त करती....................माँ घर में हैं, फिर से अपनी क्षमताओं को जुटाती हुईं, धीरे-धीरे और ठीक होती हुईं।

अपने मित्रों की हर पल मेरे साथ बनी रहने वाली फिक्र का क्या कहूँ क्योंकि औपचारिक शब्द ऐसी आत्मीयता के आगे एक तोला बराबर भी नहीं हैं लेकिन इस पूरे समय में अपने सारे मित्रों को हर पल मैंने अपने पास, अपने साथ महसूस किया। अपने दायित्व बोध में उनकी चिन्ता भी हिम्मत बनकर मेरे साथ थी। माँ की कुशलक्षेम उनको बतलाते हुए उनके इतने जुड़ाव और अपनेपन से जो क्षमताएँ मैंने पायीं, उनको कहकर व्यक्त कर पाना मेरे वश का नहीं है..............

शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

मेरा स्कूल, मेरे गुरु



मैं सम्राट अशोक माध्यमिक शाला भवन के सामने जाकर खड़ा होता हूँ। अन्दर कुछ हलचल हो रही है। सभी कक्षाएँ लगी होंगी। विद्यार्थी आये होंगे, शिक्षक पढ़ा रहे होंगे। आज स्कूल की छुट्टी नहीं है। बाहर से दोनों ओर देखता हूँ एक तरफ शीशम का पेड़ लगा है बड़ा सा जिस पर हम मित्र अक्सर चढ़ जाया करते थे और ऊपर से कूदने का खेल किया करते थे। वहीं एक बार फिसलकर नीचे आते हुए तने पर लगे काँटेदार तार से पेट लम्बा खरुँच गया था, खून भी निकला था, कई दिन चोट-दर्द बनी रही। अगले दिन नहलाने के लिए मम्मी ने बनियान उतारी तो उस बदमाशी के एवज में चार थप्पड़ भी लगाये थे। उसी पेड़ ने नीचे एक बूढ़ी अम्माँ बैठा करती थी जो हरी इमली, गुड़ की गजक, बेर और बेर का चूरन, चने और मूँगफली बेचा करती थी। वहीं से थोड़ा नीचे मदन का ठेला लगता था, वह खीरे-ककडि़याँ पानी में भिगोकर बीच से दो काटकर उनमें नमक-लाल मिर्च लगाकर बेचता था। 

पेड़ के नीचे अब दूसरे बिचवैया बैठते हैं। बूढ़ी अम्माँ के तो कई जनम हो गये होंगे, मदन का भी क्या पता कहाँ होगा? बाहर थोड़ी देर खड़े रहकर जैसे मैं अपने आपको ही भीतर भेजता हूँ खुद अपने को पाँचवीं कक्षा में बैठा देखने के लिए। टाटपट्टी पर अल्यूमीनियम का बक्सानुमा, पेटी कहा करते थे, वही लेकर जाया करता था। उसे खरीदवाने के लिए नाक में दम कर दिया था, मम्मी-पापा की। वे कहते भी थे कि ये बड़ी क्लास के बच्चों के लिए है पर अपने को चाहिए थी बस। पढ़ाई-लिखाई में जितना लद्धड़, बाकी नौटंकी में उतना ही आगे। समय पर सब चाहिए बस्ता, पेन-पेंसिल, कम्पाॅस, फुटा, कटर, रबर सब। 

हसन सर को यहीं पर जाना। नये आये थे, जैन सर कक्षा में उनको लेकर आये थे, कहते हुए कि ये हसन खान सर हैं, नये आये हैं। अब ये आपको गणित पढ़ायेंगे। जैन सर स्वयं हिन्दी और विज्ञान पढ़ाते थे। जैन सर और हसन सर दोनों के पास सायकिलें थीं। जैन सर पास में रहते थे और हसन सर दूर पुराने शहर में। हसन सर को पढ़ाने मेें बहुत रुचि थी। वे बड़े समदर्शी थे। सभी विद्यार्थियों पर बराबर निगाह रखते। प्रतिभाशालियों को प्रोत्साहित करते और हम जैसे गँवारों को ठोंक-बजाकर अपने हिसाब का बना लिया करते। उनका अजीब काम था, नहीं आये छात्रों को घर से बुलवा लिया करते, दूसरे छात्रों को भेजकर और डाँट-फटकार कर कक्षा में बैठा लिया करते। मारते तो थे खैर लेकिन उस मार में कोई दुर्भावना नहीं केवल एक ही भावना बच्चा पढ़ने में मन लगाये। उनका पढ़ाना घण्टे के हिसाब से नहीं बल्कि समझायी जाने वाली बात पूरी हो जाने तक रहता, भले ही वे जैन सर के पीरियड भी इसमें शामिल कर लिया करते।

हमारे कुछ दोस्त, मैं भी प्रायः उनसे मार खाया ही करते। मैं कुछ अधिक इसलिए क्योंकि हमारी माँ भी उसी स्कूल में पढ़ाती थीं। कई बार उन्होंने माँ के सामने भी तमाचे लगाकर अपना प्रभाव दिखाया। हाँ, तो हमारे कुछ दोस्त बाद में इसका बदला भी लिया करते। कई बार यह हुआ कि हसन सर और जैन सर की सायकिलों की हवा निकाल दिया करते। फिर दूर कहीं से उनको पैदल सायकिल घसीटकर जाते देख मजा लेते। एक दोस्त जो अभी साथ नौकरी पर भी है, याद करके हँसता है कि उसने न केवल हसन सर की सायकिल की हवा निकाली बल्कि उसका वालट्यूब, ढिबरी कहीं दूर फेंक दी। उस दिन सर समझ गये थे कि लड़के ये भी करने लगे हैं पर उनकी शिक्षा जिसमें निष्ठा प्रबल थी, उसमें कमी नहीं आयी।

याद आता है, हसन सर की पढ़ाई का ही कमाल था कि उस साल हमारी पाँचवीं क्लास में तीन छात्र प्रावीण्य सूची में आये थे और कक्षा के शत-प्रतिशत छात्र प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए थे। सम्राट अशोक माध्यमिक शाला के इतिहास में ऐसा परिणाम न पहले आया था और न ही अब तक आया होगा। याद है दृश्य जब परीक्षा परिणाम कार्ड बाँटते हुए हसन सर खूब खुश थे और नाम बुला-बुलाकर, कुछ छात्रों को जिनको वे बोझा ढोने वाले प्राणियों के नाम से सम्बोधित करते थे, प्यार से घूँसा और धौल जमाकर कार्ड पकड़ा रहे थे।

मैं हसन खान सर को हमेशा याद रखता हूँ क्याेंकि उस निष्ठा का मुझे कभी पर्याय नजर नहीं आया अपनी आगे की पढ़ाई पढ़ते हुए भी। मैं अक्सर सोचता था कि हसन सर को इतने सालों में कभी भी शिक्षक दिवस के दिन श्रेष्ठ शिक्षक का पुरस्कार क्यों नहीं मिला? हसन सर कभी इसके लिए लालायित नहीं रहते थे, वे अपना कर्म निष्काम और निस्वार्थ भाव से ही करते थे। हसन सर बाद में भी मिला करते थे, हम सब बड़े हो गये थे, किसी न किसी काम से जुड़ गये थे, सर कहा करते थे, तुमने हमारी बड़ी नाक कटायी। हमारे पढ़ाये बच्चे बड़ी-बड़ी जगहों पर हैं कोई डाॅक्टर है, कोई इंजीनियर है, कोई प्रोफेसर है, कोई पुलिस अधिकारी है। एक तुम हो जो फिसड्डी ही रहे। सर की बात सुनकर हँसी ही आ जाती रही लेकिन कभी ऐसा नहीं लगा कि उनमें कोई पक्षपात की भावना है। हसन सर के बारे में सुना है कि वे सेवानिवृत्त होने के बाद शायद अपने बेटों के पास मुम्बई में रहने लगे हैं। मैं अपने जहन में लेकिन उनको अपने बड़े पास ही मानता हूँ। जब कभी तन्हा होता हूँ, उस उम्र में जाता हूँ, सम्राट अशोक स्कूल दिखायी देता है तो हसन सर याद आते हैं, वाकई हमारे हीरो।

बुधवार, 20 अगस्त 2014

गोविन्द निर्मलकर : छत्तीसगढ़ी नाचा के शीर्ष स्तम्भ का अवसान


कुछ समय पहले जब गोविन्द निर्मलकर के देहान्त की खबर मिली तो मन में यही आया कि छत्तीसगढ़ी नाचा के शीर्ष कलाकारों की श्रेणी के ये लगभग आखिरी प्रतिनिधि भी चले गये। मदनलाल, भुलवाराम यादव, रामचरण निर्मलकर, माला बाई, फिदा बाई, देवीलाल नाग सभी एक-एक करके। 

हबीब तनवीर के रंगकर्म का ये सब कलाकार अनिवार्य, अपरिहार्य सा हिस्सा थे, मैं उनके सारे ही प्रमुख नाटक और उनमें से कई एकाधिक बार देखे थे। आकर्षण कुछ ऐसा था कि मैं इन सारे ही कलाकारों की चमत्कारिक अभिव्यक्ति क्षमता से चकित हो जाया करता था, लिहाजा प्रतीक्षा रहती कि भोपाल फिर कब इनके नाटक का आना हो और मैं देखूँ। इसका आकर्षण सूत्र दरअसल श्याम बाबू की फिल्म चरणदास चोर रही जो बीसियों बार देखी और अब भी देखा करता हूँ। वह इन कलाकारों को लेकर ही बनी थी। एक बार आप अपने आपको इस फिल्म के हवाले कर दो देखते हुए तो फिर लगता है, दो घण्टे जमकर जीने का मजा आया, खैर।

चरणदास चोर, कामदेव का अपना वसन्त ऋतु का सपना, लाला शोहरत राय, आगरा बाजार, देख रहे हैं नैन, मिट्टी की गाड़ी आदि नाटकों की बड़ी पक्की स्मृतियाँ दिमाग में हैं। अपने आपसे जिद विफल होती है, काश उतना पीछे जाया जा सकता, इन सब प्रस्तुतियों के संसार में, जो अब सम्भव नहीं है। हाँ, गोविन्द निर्मलकर बाद में चरणदास चोर नाटक में चोर का किरदार करने लगे थे जो लम्बे समय तक करते रहे। छूटा तब जब उनको लकवा हो गया। चरणदास चोर नाटक का एक दृश्य है जिसमें चरणदास चोर पुलिस को चकमा देने के लिए लकवाग्रस्त होने का स्वांग करता है, पुलिस के सामने से निकल जाता है और सिपाही जान नहीं पाते। अजीब बात कही जा सकती है कि इस भूमिका को करने वाले दीपक तिवारी को भी यही बीमारी हुई और गोविन्द बाबा को भी।

छत्तीसगढ़ में उनको मिले सम्मान और बाद में भारत सरकार से पद्मश्री ने उम्र के संध्याकाल में रुग्णता के बावजूद थोड़ा खुशी देने वाली हल्की सी स्फूर्ति उनको दी थी। जब वे नईदिल्ली इस सम्मान को ग्रहण करने गये तो मित्र बालेन्द्र और उनके साथ अनूप रंजन पाण्डे के समन्वय से हमने यह योजना बनायी कि वापसी में गोविन्‍द बाबा को भोपाल उतार लें और यहाँ उनके साथ छोटा सा अनौपचारिक कार्यक्रम करके उनका सम्मान करें। हमारे औघड़ दोस्त प्रेम गुप्ता इसके लिए तत्काल न केवल तैयार हुए बल्कि अपनी संस्था में इस कार्यक्रम को बहुत अच्छे से संजोया। यह एक भावनात्मक तथा अविस्मरणीय उपक्रम था जिसमें गोविन्द बाबा अपनी धर्मपत्नी के साथ मंच पर बैठे, अपने अनुभव साझा किए, वे रोये, विनोद किया, अपने नाटकों और किरदारों के बारे में बताया। वह याद आज भी ताजा है। बीच-बीच में उनकी बीमारी की सूचनाएँ मिला करती थीं, शायद अस्सी पार उनका निधन हुआ।

मुझे याद आता है, एक बार हबीब साहब ने अपने सभी कलाकारों को भोपाल बुलाकर कुछ नाटक पुनर्संयोजित किए थे, पृथ्वी थिएटर, मुम्बई के उत्सव के लिए। तब मैं इन कलाकारों के ठहरने के ठिकाने पर भुलवाराम यादव से एक लम्बी बातचीत के इरादे से टेप लेकर गया था, दोपहर का वक्त था। भुलवा दादा दोपहर का खाना खाकर और देसी रसरंजन करके आराम कर रहे थे। उस वक्त गोविन्द बाबा, यद्यपि रसरंजन किए थे मगर विकल्प में बातचीत करने को सहर्ष तैयार हो गये थे, तब उनसे लम्बी बातचीत की थी जो चौमासा पत्रिका में शायद दस-बारह पेज में प्रकाशित हुई थी। भुलवाराम जी से बातचीत फिर अगले दिन हुई और कई दिन कई-कई बार हुई।

गोविन्द निर्मलकर से वह साक्षात्कार और भोपाल सम्मान का कार्यक्रम रह-रहकर याद आता है। वास्तव में उन जैसे, ग्रामीण किसान मजदूर और सारी जिन्दगी असाधारण योग करते हुए भी बस दो रोटी भर के रह जाने वाले कलाकारों के बारे में जितना समृद्ध देखा है, अपना हर कहा उस वजन का नहीं लगेगा, ये लोग सचमुच अपनी देह में जाने कौन सा विलक्षण जादू लेकर आये थे कि मंच पर किरदार को ऐसे जिन्दा करते थे बात ही क्या थी.......

शनिवार, 16 अगस्त 2014

जीभ लुपुर-लुपुर होना

शंकरदत्त मामा की स्मृतियाँ लगभग तीस साल पुरानी हैं। बड़ी दूर रेल्वे स्टेशन के समीप उनका घर था, एक बार उनकाे लेकर मित्रों के बीच कुछ यादें साझा की हैं। हफ्ते दस दिन में वे कभी अपनी साइकिल से घर आया करते थे। फिर शाम रात तक खाना खाकर ही मम्मी उन्हें जाने देतीं। वे पूछ लेती थीं, कि भैया क्या खाओगे, सब्जी कौन सी आदि। मामा बता दिया करते। पूड़ियाँ पसन्द करते थे फिर सब्जी भी बताते, बैंगन, भिण्डी भरवाँ या मसाले का कटहल या गोभी-आलू या परवल-आलू उन्हें सुहाते थे। मम्मी का बनाया उनको पसन्द भी बहुत आता था।

मामा चूँकि दोपहर या दोपहर बाद आ जाते थे तो टाइम पास करने के लिए मुझे और मुझसे छोटी को पढ़ाया करते थे। पढ़ाना यानी मुसीबत। वे हमारे पाठ या पाठ्यक्रम से अलग संसार का पढ़ाते थे लेकिन हमारी ही किताबें सामने रखकर जिनसे हमारा कोई साबका नहीं। हमारे पास उत्तर नहीं होता था तो मम्मी से शिकायत करते थे। उनमें पर्याप्त मसखरी के तत्व भी मौजूद होते थे। कहते थे, अब तुम्हारी मम्मी को बताता हूँ कि तुम लोगों को कुछ नहीं आता, सप्लीमेंट्री भी नहीं आयेगी, अभी पुजवाता (पिटवाता) हूँ। लेकिन मम्मी जानती थीं कि भैया ये शैली है, मामा कहते भी थे, मैं इनकी जड़ें मजबूत कर रहा हूँ।

बैठक में मम्मी, पापा, मामा और हम सब बैठा करते थे तो मामा सबकी नजर बचाकर हम लोगों को जीभ चिढ़ाया करते थे, हम इस बात से चिढ़ते थे, चिल्लाने पर उल्टे हमें ही डाँट खानी पड़ती क्योंकि मम्मी पापा कौन मानेंगे कि मामा जीभ चिढ़ा रहे हैं।

कई बार मामा आने के बाद हलवा बनाने की फरमाइश करते, मम्मी बनाती जब तो जरा देर में खुश्बू आने लगती। हम भाई बहन खुश होते कि हमको भी मिलेगा तो मामा कहते धीमे से, क्यों बड़ी जीभ लुपुर-लुपुर कर रही है......! हम उस बात पर फिर चिढ़ते तो मामा तुरन्त ऐसे संयत होकर बैठ जाते जैसे उन्होंने कुछ किया ही न हो। उनकी इस मजे लेने की आदत में हमें और बहन को अक्सर मुँह की खानी पड़ती।

हाँ, हमारे छोटे भाई को जो उनके हाथ नहीं आता था, उसको वो पास बैठाना चाहते, बात करना चाहते पर वो उनको लकड़ी-फुटा वगैरह मारकर भाग जाया करता था, उसको वे, बेताज बादशाह कहा करते थे। कल से मामा के कुछ ऐसे ही बोल याद आ रहे हैं, जीभ लुपुर-लुपर होना जबकि उस समय पापा, मामा के लिए कहते थे कि भैया बड़े स्वादिल हैं, उनकी जीभ लुपुर-लुपर किया करती है। बताइये मामा खुद जैसे, वैसा हमें कहते थे जबकि उनकी खातिर में एक छोटी सी कटोरी चम्मच के साथ हमारा भी भला हो जाया करता था।

मामा ऐसे छुट्टी के दिनों में दिन भर आकर रहा करते थे। शाम तक हम लोगों की खैर नहीं होती थी, रात जब जाते थे तब हम लोग याने भाई-बहन चैन की साँस लेते थे..........................

मंगलवार, 5 अगस्त 2014

हिफाजत


दोपहर तेज बारिश में एक स्कूल की सड़क से गुजरना हुआ। शायद 1:30 का समय रहा होगा। बच्चों का एक स्कूल दिखायी दिया, जिसमें कुछ ही मिनट पहले ही छुट्टी हुई थी। सभी बच्चे अपने घर को जा रहे थे। कुछ जरा बड़े से बच्चे होंगे आठ-दस का समूह जो न छाता लिए था और न बरसाती, पीछे बैग टाँगे इत्मीनान से जा रहे थे। वे जल्दी में भी न दीखे। अपना समय याद आ गया, ऐसे भीगना आनंद की बात होती थी। कपड़े धोना-सुखाना तो माँ का काम होता था, अगले दिन सूखे कपड़े पहनाना उनकी जवाबदारी। 

कुछ बहुत छोटे बच्चे बरसातियाँ पहने, अन्दर ही पीठ पर अपना बैग लटकाये घर लौट रहे थे, दो-दो, तीन-तीन के समूह में। कुछ को लिवाने उनकी मम्मियाँ आयीं हुई थीं, वे ही साथ लिए आ रही थीं। वैसे एक बच्चे की मम्मी के साथ पास-पड़ोस के बच्चे भी सहजता से आ-जा लेते हैं। बच्चों की माँए परस्पर सखियाँ-सहेलियाँ होती हैं, आपस में बच्चों को लाते-ले जाते समय पूछ-बता लिया जाता है।

थोड़ा आगे चला तो सड़क जरा सी खाली हुई। बढ़ते हुए एक पिता को सायकिल के पीछे अपने बेटे को बैठाकर पैदल ही सायकिल ले जाते देखा। छोटा सा बच्चा था, सायकिल के कैरियर पर बैठा था जो सीट के पीछे होता है। वह बच्चा प्लास्टिक की बरसाती से पूरा ढँका हुआ, सीट को दोनों से हाथों से पकड़े झुका सा बैठा हुआ था और उसके पिता सिर से पाँव तक तर पानी में भीगते हुए पैदल सायकिल लिए चले जा रहे थे। स्वाभाविक है, घर पास ही होगा, जरा देर में पहुँच भी गये होंगे। 

मुझे उस संरक्षित बच्चे की पूरी चेष्टा और एक तरह का अभय प्रभावित कर गया। पीछे से आते हुए मैंने हॉर्न इसी इरादे से बजाया कि बच्चे का चेहरा देखूँ, वाकई बच्चा उस आवाज से पीछे घूमा, निगाह मिली तो मैं सुख से मुस्कुराये बगैर न रह सका। बच्चे और उसके पिता को थोड़ी देर देखते हुए यह जरूर सोचने लगा कि पिता किस तरह अपने बच्चे की अपनी ही सीमाओं और क्षमताओं में फिक्र के साथ हिफाजत करते हुए घर ले जा रहा है। 

बच्चों के साथ भीगने का डर हमेशा माता-पिता को सताता है क्योंकि उससे बच्चे जल्दी बीमार हो जाते हैं। यह चिन्ता मुझे सामने दिखायी दे रही थी। मैं सोच रहा था कि यह बच्चा अभी मासूम है, अपने पापा की सरपरस्ती में आनंद की सवारी कर रहा है। बड़ा होकर यही बच्चा अपने पिता का भी इसी तरह ख्याल रखेगा तो पिता का सारा संघर्ष सार्थक हो जायेगा, यह पूरा का पूरा समय निरर्थक न होगा जो वह बेटे की फिक्र के साथ व्यतीत कर रहा है........... 

रविवार, 3 अगस्त 2014

वो सितारों का पता रखते थे

राजेन्द्र ओझा को यूँ शायद सब लोग नहीं जानते होंगे लेकिन उनका सबसे बड़ा काम था मुम्बई में सितारों का पता बताने वाली डायरेक्ट्री का प्रकाशन करना। स्क्रीन वल्र्ड इस डायरेक्ट्री का नाम था जिसका प्रकाशन वे पिछले 33वर्षों से कर रहे थे। इस बात की कल्पना की जा सकती है कि मध्यप्रदेश के मन्दसौर से एक युवा चालीस साल पहले मुम्बई जाता है, फिल्मी दुनिया उसको आकृष्ट करती है, पत्रकारिता और लेखन करते हुए अपना कैरियर वो उसमें बनाना चाहता है। कुछ ही दिनों में उसे एक अलग ढंग का काम सूझता है, वह एक प्रकाशन करने के बारे में सोचता है जिसमें उसका उद्देश्य होता है फिल्म जगत के लोगों के पते और फोन नम्बरों की जानकारी देना। 

राजेन्द्र ओझा, मध्यप्रदेश से ही मुम्बई गये एक वरिष्ठ फिल्म पत्रकार बद्रीप्रसाद जोशी के साथ मिलकर फिल्म से जुड़े प्रकाशनों और रिपोर्टिंग के कामों से जुड़ गये थे। कुछ समय बाद जब फिल्म डायरेक्ट्री के प्रकाशन का विचार आया तब यह काम उन्होंने स्वतंत्र रूप से किया। कुछ समय वे राजश्री प्रोडक्शन्स से भी जुड़े रहे जब इस निर्माण संस्था के नियंता ताराचन्द बड़जात्या थे और उस दौर में निरन्तर साफ-सुथरी, मनोरंजक और सभ्य किस्म की फिल्मों का निर्माण यह बैनर कर रहा था। यह बात जरूर है कि शुरू में राजेन्द्र ओझा को स्क्रीन वल्र्ड का प्रकाशन करना बहुत कठिन रहा लेकिन उन्होंने उस दौर में भी जब मोबाइल या सूचना संचार के आधुनिक साधन नहीं थे, सभी से सम्पर्क स्थापित कर अपने इस काम को आगे बढ़ाया। कहा जाता है कि इसका जब पहला प्रकाशन हुआ था तब शायद इसका मूल्य दो सौ पचास रुपए था और आज यही डायरेक्ट्री तमाम आधुनिक सूचनाओं से लैस लगभग दो हजार रुपए मूल्य की हो गयी है।

स्क्रीन वल्र्ड को राजेन्द्र ओझा ने बहुत विस्तार दिया। हिन्दी, मुम्बइया सिनेमा से आगे वे गुजराती सिनेमा, मराठी सिनेमा, चेन्नई फिल्म इण्डस्ट्री, बंगला फिल्मोद्योग के साथ-साथ साल भर आने वाले सितारों के जन्मदिन महीनेवार प्रस्तुत करने का काम इस डायरेक्ट्री ने किया है। राजेन्द्र ओझा का यह प्रकाशन हर साल किसी न किसी बड़े सितारे ने ही लोकार्पित किया है। मुम्बई फिल्म जगत में प्रत्येक सितारे के पास यह डायरेक्ट्री हर साल अपने नये संस्करण में अद्यतन हुआ करती है। इस तरह का काम किसी अन्य व्यक्ति ने मुम्बई में नहीं किया जो मध्यप्रदेश के राजेन्द्र ओझा ने करके दिखाया।

राजेन्द्र ओझा ने ही दादा साहब फाल्के पुरस्कार प्राप्त कलाकारों के परिचय के साथ एक वृहद किताब का भी प्रकाशन किया और राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्राप्त करने वाले कलाकारों की जानकारी देने वाली किताब का प्रकाशन भी किया। उन्होंने सिनेमा के सौ साल पूरे होने पर उसके बड़े वाल्यूम भी प्रकाशित किए, पहले 1913 से 1988 तक और बाद में अद्यतन। उनके बारे में, उनके योगदान को लेकर यह सब लिखे बगैर इसलिए नहीं रहा जा रहा है क्योंकि 26 जुलाई को उनका मुम्बई में अकस्मात निधन हो गया। दुखद यह है कि सारे कलाकारों का पता रखने वाले राजेन्द्र जी के अचानक इस तरह चले जाने का पता किसी को नहीं चला।


गुरुवार, 31 जुलाई 2014

बहन, सरोकारों की संवाहक

राखी का त्यौहार आने को है। बहन आने को है। घर में बहन का आना कितनी सारी अनुभूतियों को जाग्रत करता है, बयाँ कर पाना मुश्किल होता है, एकदम नेत्र सजल हो जाते हैं। बहन के साथ हमारा बचपन बीतता है। हम यदि उससे छोटे होते हैं तो उसका हुक्म खुशी-खुशी बजाते हैं। बहन यदि हमसे छोटी होती है तो वह हमारा हर कहा करके देती है। बहन का ग्लास भर दिया पानी ही बड़ा मायने रखता है, फिर चाय या और कुछ आपका-उसका मनचाहा तो कमाल का होता है।
बहन जब अपने घर जाती है, हम उसे पराया घर कहते हैं पर दरअसल वह उसका अपना घर होता है, जहाँ हम खुशी-खुशी और रोते-रोते भी उसे भेजकर अपना कर्तव्य निर्वहन कर लिया करते हैं, उस घर जाने के बाद हमारी स्मृतियों में उसका वही सान्निध्य रह जाता है जो हमने बचपन में जिया होता है। लड़ते-झगड़ते, रूठते-मनाते, बाँटते-छीनते, छेड़ते-चिढ़ाते बहुत कुछ हमारा बहन ले जाती है और बहुत कुछ अपना हमें दे जाती है। समय-समय पर उसे याद करके हम अपनी आँखें भिगोया करते हैं, मुस्कुरा उठते हैं, आँसू पोंछकर।
बहन, माँ का उदार रूप हुआ करती है। व‍‍ह माँ और पिता दोनों के साथ हमारे सरोकारों की संवाहक होती है। बचपन में पिता और माँ को वही बताया करती है कि हमें क्या चाहिए जो उनसे हम कह नहीं पा रहे हैं। बहन ऐसे सवाल और ऐसी कठिनाइयाँ जादू से हल कर दिया करती है। बहन का मन बहुत विराट होता है। अपने ही घर में वह खुशी-खुशी यह अनुभव जिया करती है कि उससे ज्यादा जगह उसके भइया की है लेकिन उसे इस बात पर जरा भी ईर्ष्या नहीं होती बल्‍िक इसका संज्ञान लेने की भी उसमें चतुराई नहीं होती। वह अपने जन्मदिन से, अपने कपड़ों से लेकर अपनी सारी हिस्सेदारी को लेकर गजब की सहिष्णु हुआ करती है।
राखी के त्यौहार की बहन को साल भर प्रतीक्षा होती है। उस दिन वह पानी तभी पीती है जब भाई को राखी बांध ले। उसका दिया नारियल, रूमाल और माथे पर किया तिलक आपको पल भर में अपनी भटकी और बहकी आत्मा के सामने खड़ा कर दिया करता है। बहन हमेशा अपने भाई और उससे जुड़कर बढ़े समाज की सदिच्छा की कामना करती है। वास्तव में तो बहन हमारी अपनी अस्मिता और हमारे अपने समूचे आसपास में हमारे जिए रहने की कामना करने वाली वह विलक्षणा है जिसका आधा हृदय उसके पास होता है और आधा भाई के पास।
मुझे याद है, भोपाल के जयप्रकाश अस्पताल में जब मैं अपने पापा के साथ सायकिल पर आगे लगी छोटी सीट पर बैठकर अपनी बहन को देखने गया था, तब वहाँ की एक नर्स सिस्टर ने मेरा गाल पकड़कर कहा था, देखो तुम्हारी बहन आ गयी, अब यह तुम्हारे घर का सारा सामन ले जायेगी। उस समय मैं रोने लगा था, छोटी सी बहन गुड्डन माँ के बगल में लेटी हुई थी। मैं मम्मी से कहने लगा, घर चलो, इसे यहीं रहने दो......
आज हँसी आती है। सच कहूँ वह घर का कुछ भी सामान लेकर नहीं गयी बल्कि जीवन में वो यश हासिल किया जिसने माँ-पिता को असीम सुख और गर्व से भर दिया। वह डॉक्टर बनी और हम सबको गौरव प्रदान किया। आज जब वह हम सबकी तकलीफों को अपनी दवाओं और कई बार सुइयों से भी दूर कर दिया करती है तब यह एहसास होता है कि रिश्तों के इस संसार में यह भागीदारी कितनी सुखद है, अविस्मरणीय अनुभूति की तरह, सदैव मन में बनी रहने वाली और अक्सर ऐसे वक्तों में मन से छलक कर बाहर आ जाने वाली.........

रविवार, 13 जुलाई 2014

सांस्कृतिक अस्मिता और जोहरा सहगल

जोहरा सहगल का नहीं रहना, अकल्पनीय और अविश्वसनीय इसलिए लगता है कि वे हमारी पिछली स्मृतियों तक बड़ी सचेत थीं। उनका सचेत होना किसी चमत्कार से कम न था। उनमें एक पूरी की पूरी सदी स्पन्दित होती थी। एक शख्सियत किस तरह आपको सुखद तरीके से हतप्रभ कर देती है, वैसा उनको देखना होता था। उनके बारे में सोचते हुए अस्सी-नब्बे साल पीछे दौड़कर ठहरना होता है, तब के देशकाल की कल्पना करनी होती है, सामाजिक वातावरण और स्थितियों के बारे में कल्पना करनी होती है, परतंत्र भारत में भारतीयता का एक खाका बुनना होता है और फिर उस पूरे सन्दर्भ में जोहरा जी के व्यक्तित्व की कल्पना होती है। दरअसल पूरा का पूरा परिवेश हमारे सामने अनेक तरह के पिछड़ेपन, परिमार्जनहीनता और मूल्यों के धरातल पर डाँवाडोल होते विश्वास का प्रकट होता है।

ऐसे वातावरण में एक शख्सियत पन्द्रह-सत्रह साल की उम्र में किस तरह तमाम विरोधाभासों के बीच एक सांस्कृतिक धरातल की कल्पना करती होगी, एक युवती किस तरह यह निश्चय अपने आपमें करती होगी कि आने वाले समय में इस देश में मनुष्यता और भारतीय अस्मिता में सांस्कृतिक मूल्यों की स्थापना और उससे ऊर्जा, शक्ति तथा सामर्थ्य अर्जित कर के एक बड़ी भूमिका का सूत्रपात किया जाना बेहद जरूरी है।अंग्रेजों की पराधीनता के सालों में अनेक विरोधाभासों, दमन और प्रतिकूलताओं के बावजूद साहित्य, कला और संस्कृति, नाटकों ने जो भूमिका अदा की है, उसका समय-समय पर प्रबुद्धजनों ने श्रेष्ठ आकलन किया है। वास्तव में सुप्त मन:स्थिति और सोयी चेतना को अभिव्यक्तियों ने ही जाग्रत करने का काम किया। जोहरा जी की सक्रियता और उपस्थिति की जरा उस धरातल पर कल्पना कीजिए।

जोहरा जी तो भारतीय स्वतंत्रता के साल में परिपक्व उम्र और सजग चेतना में थीं। उनकी भूमिका को देश के सांस्कृतिक पुनरुत्थान के परिप्रेक्ष्य में सोचकर जरा देखा जाये जब वे अल्मोड़ा में उदयशंकर की अकादमी में भारतीय बैले की अवधारणा के बीज मंत्रों के साथ अनूठे और असाधारण प्रयोग कर रही थीं। सोचा जा सकता है उनका पृथ्वीराज कपूर जैसे यायावर रंगकर्मी और उनके समूह का हिस्सा बनकर देश के कोने-कोने में जाना, तमाम मुसीबतें और परेशानियों में साथ बने रहना और रंगमंच की बुनिया की स्थापना में अपना योगदान करना। जानकारों को उनकी सक्रियता और उनके योगदान के बारे में बहुत कुछ पता होगा। जोहरा जी के कृतित्व और व्यक्तित्व को केवल बीस साल के हाल के सिने-कैरियर से बहुत पीछे जाकर जरा देखें और अपने सारे संवेदनात्मक आग्रहों के साथ विचार करें तो बहुत दूर तक साफ-धुंधला-मिलाजुला नजर आयेगा, जिसे दृष्टि को और साफ करके देखने से इस महान कलाकार, एक विलक्षण प्रतिभा के होने का अर्थ समझ में आयेगा।

....................उनका जाना एक बड़ी सांस्कृतिक विरासत में अब तक उनके रूप में बने रहने वाले सम्बल का हमारे बीच से खत्म होना भी है।

बुधवार, 9 जुलाई 2014

मिष्ठान्न चेतना


पता नहीं क्या रहा, मिठाई का मोह तमाम चेतावनियों और समझाइशों के बावजूद नहीं गया। आज मिठाई का भाव प्राण सुखा देता है मगर आत्मा को तर रखने का लोभ संवरण छूटता नहीं। कल की याद है कि बारह रुपए किलो बरफी मिला करती थी, न्यूमार्केट के देहली स्वीट हाउस में जो कभी का बन्द हो गया, ज्वेलरी की दुकान खुल गयी और फिर किसी और की भी।

घर का सामान सौदा लेने बाजार जाते थे तो , साठ पैसे बचाकर पचास ग्राम लेकर वहीं खा-मुँह पोंछकर ही घर वापस आते थे। अब याद आती है तो हँसी आती है, तीज-त्यौहार में मम्मी पाव-आध किलो मावा मंगवाया करती थीं, उसे भी खरीदने के पहले चखकर देखने का ड्रामा जरूरी होता था, स्वाद चेतना जाग्रत करने के लिए। खरीद कर चले तो रास्ते में दो बार सायकिल रोक कर बंधा मावा खोलकर थोड़ा सा खा लिया करते थे। 

न्यूमार्केट की अन्नपूर्णा मिष्ठान भण्डार की लाल चॉकलेट परत वाली मिठाई बेहद पसन्द थी, वह आज तक दिमाग में फिट है, वो भी बाजार जाने पर पचास पैसे-एक रुपये काट लेने पर ले लिया करता। वह मिठाई डॉक्टरनी (बहन) को भी मजेदार लगती। मम्मी की नजरों से छुपा कर खाते क्योंकि वे उस मिठाई को रिजेक्ट करती थीं, कहती थीं, अच्छी नहीं होती पर आज भी दो-चार महीने में सौ ग्राम खा कर अपने छुटपन में कुछ देर को जाता हूँ। अक्सर मम्मी-पापा के साथ उनके परिचितों के घर जाते तो उन्हीं के कथनानुसार नाक कटाने का काम जरूर करते, मिठाई देखते ही दोनों हाथों में उठा लेते। जल्दी-जल्दी खाने लगते। मम्मी चुपके से चिकोटी काटतीं तो रोने लगते, सामने वाले को बता भी देते कि डाँट रही हैं तिस पर उनको परिचित कहते, बच्चा है, खाने दो...........अपन खुश। रोना छोड़कर खाने लगते।

मिठाई के प्रति अनुरक्ति आज भी कम नहीं है। संकल्पते कई बार हैं कि कम खायेंगे या दूर रहेंगे पर ऐसा हो नहीं पाता। कुछ दिन दूर रहे भी ताे जब पास आये तब सारा हिसाब बराबर कर लिया। शहर और कस्बों की मिठाइयों को भी खाने का बड़ा शगल है। बेहट से लगाकर हरदा, टिमरनी, दमोह, छतरपुर, सागर, टीकमगढ़ आदि सभी जगह का देशज स्वाद दोहराया-तिहराया ही नहीं बल्कि कितने ही बार मन को कृतार्थ किया है। अपने सब मित्र, आदरणीय जो प्रेम देते हैं, वह अविस्मरणीय है, साथ खाना, नाश्ता करो तो बहुत अपनेपन के साथ अपनी बरफी, कलाकन्द प्लेट में सरका देते हैं, इससे बड़ा उपकार, प्रेम और भाईचारा क्या होगा............!!

सोमवार, 7 जुलाई 2014

एक जुलाई की याद


दिन भर 1 जुलाई को लेकर पुरानी स्मृतियाँ कौंधती रहीं। कुछ अपने पर हँसी भी आती रही। बचपन में अपने लिए यह दिन स्कूल खुलने का होता रहा है। नयी क्लास में पहला दिन। घर के बड़े होने के कारण छुटपन में नक्शेबाजी खूब रही, भले पढ़ाई में लद्धढ़ ही थे। हर सुबह स्कूल हमेशा रो-रोकर ही गये जैसे पता नहीं कौन सा जुल्म किया जा रहा हो। माता-पिता ने, जाहिर है, ख्वाहिश क्यों न रही होगी, शुरूआत रीजनल स्कूल से करायी लेकिन पढ़कर ही नहीं दिया। आखिरकार निगाह के सामने रहें, सो हिन्दी स्कूल में आ गये लेकिन वहाँ भी हर सुबह आँख खुलते ही स्कूल न जाने के बहाने सोचने लगते।

जैसा कि ऊपर नक्शेबाजी खूब रही लिखा, हाँ साहब व्यवस्था पूरी चाहिए, स्कूल खुलने के पहले नया बस्ता हो, वाटर बैग (पानी की बोतल), कम्पॉस, पेन-पेंसिल, रबर, कटर, स्केल, जूते, मोजे, बरसाती, छाता सब कुछ। किताबें, कॉपियाँ भी ले लेने के लिए बड़ा उतावलापन, मम्मी-पापा की आफत करके, दुकान में भले भीड़ हो, अपने को चाहिए। भले साल भरे ढंग से पढ़ें नहीं, जी चुरायें, स्कूल रोते हुए जायें या न भी जायें।

परीक्षाएँ जैसे-तैसे पास करके ही खुश। याद करने पर हँसी आती है, परीक्षा देने के बाद हर दो-चार दिन में मन्दिर जरूर जाया करते थे, ध्यानपूर्वक, प्रार्थना वही, पास हो जायें। हो जाते थे, सप्लीमेण्ट्री आयी तो दो-एक दिन रो-धोकर, जैसे हमने कॉपी में सब कुछ लिखा हो पर नम्बर ही नहीं आये, फिर उसे पास करने की थोड़ी-मोड़ी निष्ठा, खैर उसमें भी फिर पास।

एक बार की याद है, शायद सातवीं क्लास, मॉडल स्कूल में। छमाही की परीक्षा में छ: में से पाँच विषयों में लाल अण्डरलाइन। एक राजाराम शास्त्री सर थे, घर भी आते-जाते थे, उन्होंने बावजूद इसके कि हमारी क्लास का एक भी विषय नहीं पढ़ाते थे, विशेष रूप से क्लास में आये और बाहर निकालकर जमकर तमाचेबाजी की, खूब रुलाया। शाम को फिर घर आ गये, चाय पी, हलुआ खाया और पापा को बताया कि आज हमने सुनील को खूब मारा, पाँच विषय में रह गया। ऐसे ही करेगा तो सालाना में क्या होगा?

यह सब तो खैर स्मृतियों के पुनरावलोकन हैं, यह बात जरूर कहूँगा कि माता-पिता ने अच्छी पढ़ाई के लिए हर जरूरत पूरी की, उनका अपना निश्चित रूप से एक सपना रहा, मेरे स्वभाव, अलाली की वृत्ति और कामचोरी के बावजूद कोई कमी बाकी नहीं रखी। अपना तो खैर क्या कहूँ क्या हो गया लेकिन भाई-बहनों ने अच्छे प्रतिसाद दिए और वे सब आकाँक्षाएँ पूरी कीं जो अविभावकों की रहीं, मेरे हिस्से की भी पूरी कीं.......

टा टा का सुख

बच्चों के लिए घर से जाते हुए माता-पिता को खुशी-खुशी टा टा करना एक बड़ा ही सुखदायी काम होता है जो दोनों ओर बड़ा आनंद प्रदान करता है। प्राय: तो यह होता है कि छोटे बच्चों को घर छोड़कर माता-पिता के लिए घर से बाहर जाना ही आसान नहीं होता, उनका पीछे लगना, दौड़ना, जिद करना और रोना बड़े प्रासंगिक मसले हैं और हर बच्चे, माता-पिता के पास ऐसे दिलचस्प किस्से-कहानी होंगे।

अपन भी किया करते रहे हैं। हमारा स्कूल 12 बजे का होता था। पापा दफ्तर दस-सवा दस बजे के बीच निकला करते थे। दरवाजे के बाहर सीढ़ी उतरते ही और आगे फाटक से आगे जाते ही अपन टा टा किया करते थे। उसका उत्तर भी पापा देते। फिर वो आगे बढ़ जाते तो अपन फाटक के बाहर खड़े हो जाते, पीछे से आवाज लगाते, पापा टा टा, पापा मुड़कर हाथ हिलाकर उत्तर देते। बड़े आगे सड़क तक मुड़ते हुए वे दो-तीन बार मुड़कर देखते, मुझे खड़ा पाते, टा टा का आदान-प्रदान होता, सड़क से सीधे हाथ मुड़ जाने के बाद अपन अन्दर भाग आते........

शाम को उनके लौटने की बेसब्र प्रतीक्षा होती। फाटक के बाहर पुलिया पर बैठा रहता और दूर मोड़ से उनका आना निहारता रहता। वे आते दीख जाते तो आँखों में चमक आ जाती। जब वे बिजली घर के बराबर तक आ जाते तब मैं घर के अन्दर काम करती हुई मम्मी की नजर बचाकर पापा की तरफ दौड़कर जाता। पास पहुँचकर हाथ पकड़ लेता और साथ-साथ वापस आते।

कई बार वे न्यूमार्केट से सब्जी लेते हुए आते थे। उनकी जेब में हमेशा रूमाल हुआ करता था। उसी रूमाल में वे सब्जी ले आते। रूमाल के चारों कोनों को वे तिर्यक तरीके से बांधकर उसमें कई सब्जियाँ ले आते, आलू, भिण्डी, टमाटर, मिर्च, नीबू आदि। घर में रूमाल की गाँठों को खोलकर सब्जी डलिया में निकाली जाती। मुझे सजा-जमाकर रखने में मजा आता..............उसके बाद रूमाल को धुलवाना और अगले दिन सुबह सुखाकर उनको सौंपना एक जिम्मेदारी का काम हुआ करता था, शायद मैं नहीं किया करता था, वो काम मम्मी का रहा, हमेशा............

गुरुवार, 29 मई 2014

एक बारीक सा धागा, जीवन के इस पार-उस पार................

जीवन और उसके यथार्थ के बीच हर मनुष्य की अपनी अवधारणाएँ हुआ करती हैं। कई तरह की। उम्र, अनुभव, हृदयता (सहृदयता या हृदयहीनता), आवेग और प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष देखे-सुने से उपजी। पता नहीं सीखने की उम्र कब तक चलती है, शायद जीते-जी सीखना होता ही रहता है। व्यापकता में देखें तो दुनिया, थोड़ा कम करें तो देश, और कम करें तो प्रदेश, फिर शहर, मुहल्ला और घर और उसके बाद हम। कितने वलय उतने बाहर जाने के फिर लौटकर आने के, अपनी जगह पर।

जीवन में जो घटित होता है, देखा हुआ, कहानियाँ नहीं होता, बड़े बाद कहानी की तरह याद आता है। परिवार के अपने स्वरूप में रिश्तों की स्थितियाँ ही अनगिनत कहानियाँ हैं। परिवार की आदर्शमयता पर बात करते हुए हावभाव में हथेली एक आकार बनाती है, गुलदस्ते की तरह जिसकी पाँचों उंगलियाँ ऊपर की तरफ उठी होती हैं। एक उदार घेरा बनता है जिसके भीतर सब खुला हुआ है। यह स्वरूप उदाहरण देने के लिए पर्याप्त है लेकिन हम देखते हैं कि वह खुला हुआ, खोखला सा हो गया है। बड़ा बदलाव है।

वो मेरा छोटा भाई है जिसकी विनम्रता को शायद मैंने बीस से अधिक सालों से देखा है, छोटा भाई इस तरह है कि उसके पिता का इतने ही बरसों से बड़ा सान्निध्य मैंने पाया है, वो मुझे पुत्र की तरह स्नेह देते हैं। अपनी जो कुछ भी रचनात्मक पहचान देखता हूँ वह शत-प्रतिशत उनकी वजह से ही है। वो भाई मुझे सदैव ही मर्यादापुत्र दीखा जो भीतर ही भीतर मुझे सदैव चकित करता रहा है लेकिन उतना ही सन्तोष भी मुझे हमेशा महसूस हुआ है। स्वाभाविक रूप से मैं इस भाई के पिता का पुत्र नहीं हूँ, पुत्रतुल्य हूँ और भौतिक दूरियों के साथ तमाम सीमा-दायित्वों में जिनमें बहुतेरे व्यर्थ से हैं, बँधा हुआ।

कुछ समय पहले एक महानगर में पितृतुल्य मेरे इन अविभावक के हृदय की शल्य-क्रिया हुई। शहर में जाने से लेकर सकुशल अपने घर वापस आने तक बीस-पच्चीस दिन, हमारा वो भाई चैबीस घण्टे अपने पिता के साथ रहा, अकेला। परिवार की अवधारणा ऐसी है कि दो पुरुष हैं शेष माँ, बहू और बच्चियाँ जो घर में हर वक्त व्याकुल-व्यग्र ईश्वर से प्रार्थनाएँ करती हुईं। भाई अपने पिता के साथ उनके जीवन की कामना और रक्षा के लिए निपट खुद। जिस दयालु से सब कामनाओं के लिए हम आसमान की तरह बड़े भरोसे के साथ निहारते हैं, कृपा उनकी ही रही।

परिवार के किसी सदस्य का जब बायपास हो रहा होता है तब सच मानिए एक साथ पूरे परिवार का बायपास हो रहा होता है, उस एक भर का नहीं। भेद भी बड़ा है, जो शल्यक्रिया की टेबिल पर है वह मूर्छित है लेकिन परिवार के लोग जाग्रत अवस्था में अपने बायपास से गुजर रहे होते हैं। दो जोखिम एक साथ चलते हैं। एक बायपास सफल होता है तब ही शेष बायपास भी सफल होते हैं। बहुत बड़ी बात है।

मैं अपने उस भाई को देखता रह जाता हूँ। कुछ कहा नहीं जाता। महानगर में किस तरह इस पूरी प्रक्रिया वह अकेला, बिना किसी दुसरिए के सब करता रहा होगा! हर दिन चैबीस घण्टे खास कठिन समय में सालों की तरह बीतते हैं। कितना साहस, कितना भय, कितने अन्देशे, महानगर से दूर अपने शहर, अपने घर और घर में सब के बीच एक बारीक सा धागा, कितनी बातें कही जाती होंगी, एक-दूसरे को हौसला देने से लेकर कामनाओं तक, कितना कुछ व्यक्त और अव्यक्त......खैर एक अच्छा परिणाम लेकर, अपने पिता को साथ लेकर उसका आना, बहुत बड़ा काम कर आना है। छोटा है फिर भी उसे सलाम करता हूँ.....................

बुधवार, 7 मई 2014

वट - छाँव (एक लघु नाटक)

पहला दृश्य

एक पार्क का दृश्य है जिसमें दो बुजुर्ग बैठे हैं। एक हैं माधव और दूसरे देवीदीन। सामने से दो-तीन आदमी पैदल तेज चाल टहलते हुए इधर से उधर आ-जा रहे हैं। माधव और देवीदीन उनको देख रहे हैं।
टहलते हुए आदमियों में से एक चलते-चलते गिर जाता है, साथ के दो लोग उस पर ध्यान दिए बगैर आगे बढ़ जाते हैं, तभी माधव और देवीदीन उसकी तरफ दौड़कर आते हैं, उसके पास बैठकर पूछते हैं-
अरे बेटे, क्या हुआ? कैसे गिर गये
बाबूजी तेज चाल चल रहा था, पैर सम्हाल नहीं पाया, इसीलिए गिर गया.........(कराहता है और पाँव की तरफ अपनी चोट सहलाता है)
माधव और देवीदीन उसे सहारा देकर उठाते हैं और कहते हैं कि हमारे साथ चलो, दवा लगा देते हैं।

दूसरा दृश्य

वह व्यक्ति, नाम राजेश है, बैठा मरहम लगवा रहा है, एक बुजुर्ग माताजी जी उसके पैर में स्नेह से मरहम लगा रही हैं साथ में कुछ लोग खड़े हैं। माधव और देवीदीन भी देख रहे हैं। तभी माधव कहते हैं -
गायत्री चाची के हाथ में चमत्कार है। इनकी बनायी दवा से दर्द और चोट दोनों जल्दी ठीक हो जाते हैं।

राजेश आसपास का वातावरण देखता है, वह समझ जाता है कि माधव और देवीदीन उसे सहारा देकर पास के वृद्धाश्रम ले आये हैं, वहीं ये सब रहते हैं, उसकी आँखों में आँसू आ जाते हैं। गायत्री चाची दवा लगा चुकती हैं तब राजेश उनके पैर छूता है। तब गायत्री चाची कहती हैं-
बेटा डिब्बी में थोड़ी दवा और दे देती हूँ। दो दिन रात में सोते हुए लगा लेना, सब ठीक हो जायेगा।
गायत्री चाची एक डिब्बी ले आती हैं, राजेश को दे देती हैं। राजेश सभी को नमस्ते करके वहाँ से जाने को होता है। जाते-जाते माधव के पास आता है, कहता है -
माधव काका, यहाँ आकर मेरी चोट अपने आप ठीक हो गयी है लेकिन एक बड़ी सी चोट मन में बन गयी है जो यहाँ हमेशा आते रहने पर ही ठीक होगी.........
माधव जान नहीं पाते, बात का मतलब क्या है। राजेश उन सभी से एक बार फिर नमस्ते करके निकल जाता है।

तीसरा दृश्य

वृद्धाश्रम का दृश्य है। अर्धचन्द्राकार घेर में पाँच-सात लोग बैठे हैं। महिलाएँ सुई-धागे से कोई कपड़े में तुरपायी का काम कर रही हैं, कोई आटे से चैकी-बेलन की सहायता से खुरमे-मठरी की डिजाइन बेलकर काट रही है। इनमें पुरुष बुजुर्ग किताबों पर कवर चढ़ाने का काम कर रहे हैं, एक बुजुर्ग के पास एक बच्चा यूनीफाॅर्म पहने बैठा है, वे उसे टाई बांधना सिखा रहे हैं, एक छोटा सा गीत होगा-

नहीं चाहिए नहीं चाहिए
हम सबको उपकार किसी का
हमें किसी से क्या लेना है
बना रहे संसार सभी का

हमें न बीता कल समझो तुम
चुका हुआ न फल समझो तुम
रीत हमारी सीख पुरानी
पा कर देखो प्यार सभी का

हमें छोड़कर छूट गये हो
देखो अन्दर टूट गये हो
खुद अपने से पूछ कर देखो
क्यों बिखरा परिवार सभी का

फिक्र भले हम करते सबकी
पर न करना फिक्र हमारी
फूल फूल माला हैं हम तो
बना रहे त्यौहार सभी का

चौथा दृश्य

वृद्धाश्रम में राजेश अपनी पत्नी के साथ आया है, दोनों भद्र हैं। अपने साथ कुछ सामान लाये हैं, खाने-पीने का। बाहर से दस्तक देने पर माधव बाहर आते हैं। राजेश उनको नमस्कार करता है, पत्नी का परिचय कराता है। वो उसको अपने साथ ले जाकर बैठाते हैं। पूछते हैं, अरे ये साथ में क्या लाये हो?
माधव काका, खाना लाये हैं, आज छुट्टी का दिन था। सुधा ने कहा कि खूब सारा खाना बनाने का मन है तो मैंने कहा जरूर बनाओ पर हम एक खूबसूरत स्थान पर चलकर खाना खायेंगे, राजेश ने कहा।
सुधा ने पूछा, कहाँ ले लाओगे तो मैंने बताया नहीं, मैंने यहाँ ले आना ठीक समझा। माधव काका, मेरे यहाँ आने से आपको असुविधा तो नहीं हुई?
माधव कहते हैं, नहीं-नहीं बिल्कुल असुविधा नहीं हुई। आज तो छुट्टी का दिन है। आज सब आराम से उठे हैं। मैं सभी को बुला लेता हूँ। सबके नाम ले कर आवाज लगाते हैं। आवाज लगाते ही सब आना शुरू हो जाते हैं और अर्धचन्द्रकार बैठ जाते हैं।
सुधा सभी को कुछ न कुछ खाने को देती है, माधव और देवीदीन को भी, राजेश और खुद भी। सब मिल कर खा रहे हैं।

पाँचवा दृश्य

सब खा कर चले गये हैं। माधव और देवीदीन बैठे हैं और राजेश और सुधा। राजेश और सुधा अब जाने की इजाजत लेते हैं, तभी माधव राजेश से पूछते हैं, क्यों राजेश एक बात बताओगे?
राजेश -    पूछिए माधव काका?
माधव -    उस दिन एक छोटी सी घटना हुई, तुम गिर गये, चोट लग गयी। हम दोनों बैठे थे, तुमको यहाँ ले आये। दवा लगायी, खैर लेकिन ऐसी क्या बात हुई जो तुम हमसे इस तरह जुड़ गये?
राजेश -    काका, उस दिन मेरे गिरने पर भी मेरे दोनों साथी मेरे लिए नहीं रुके और आगे बढ़ गये लेकिन आप दोनों तुरन्त ही उठे और पास आये, बिल्कुल पिता की तरह चिन्ता की। माधव काका मेरे माता-पिता नहीं हैं, मैं नहीं जानता वो कब खो गये। न जाने किनके आशीर्वाद से मैं किसी लायक बना लेकिन आप जैसे लोगों को देखता हूँ तो लगता है मेरे पिता भी ऐसे होंगे....................................
माधव -    राजेश बेटा, तुम्हारा सोच बड़ा है, हमारे लिए तो हर बच्चा हमारा बच्चा है, उस दिन तुमको चोट लगी तब भी यही बात थी।
राजेश -    काका, जिस समय गायत्री चाची मुझे दवा लगा रही थीं, उस दिन सचमुच इस धरती पर अपनी माँ के होने का भी एहसास हुआ (रोने लगता है) और पता है आपको उनकी दवा से तीन दिन में मेरी चोट ठीक हो गयी थी।
सुधा -        माधव काका, इन्होंने डिबिया की पूरी दवा जब तक खत्म नहीं हुई, लगाते रहे, कहते थे, गायत्री चाची की मेहनत से बनायी दवा है, बचनी या बेहार नहीं जानी चाहिए।
बात सुनकर माधव और देवीदीन की आँखें भी नम हो जाती हैं। दोनों पास आकर राजेश के कंधे पर हाथ रखकर उसको हिम्मत देते हैं।
सुधा माधव से कहती है कि अगर उसे आने की अनुमति है तो वह रोज वृद्धाश्रम आया करेगी, वो सब चीजें सीखेगी जो सबके बीच से जा रही हैं। पकवान बनाने का हुनर, परम्पराओं के सुन्दर गीत और भजन, घरेलू कामों को दक्षता से किया जाना और इसके साथ-साथ सबकी सेवा से अपने लिए खुशी हासिल करना।
माधव -    क्यों नहीं सुधा बेटी, यह वृद्धाश्रम नहीं वटवृक्ष का बगीचा है, अनुभवों और तजुर्बों का संसार, सबकी अपनी-अपनी देखी हुई दुनिया के अनुभव। तुम जरूर आना और हम सब तुम्हारे साथ मिलकर अपना समय बाँटेंगे, भूली-बिसरी कहानियाँ सुनायेंगे, जीवन की रीत बतायेंगे.....................
सारे बुजुर्ग स्टेज पर आ जायेंगे, सबके चेहरे पर खुशी है.......................
 
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(यह नाटक भाई-मित्र आनंद मिश्रा के द्वारा वृद्धाश्रम के पितृपुरुषों और माताओं के साथ किए जाने के आग्रह पर लिखा, एक संवेदनात्मक पक्ष, जो उनके द्वारा ही प्रस्तुत होगा। ज्यादा अकल नहीं लगायी है पर लिखते हुए संवेदना को यथासम्भव साथ रखा है।)





शनिवार, 3 मई 2014

श्रेय के पीछे एक विनम्र चेहरा : चन्दन रॉय सान्याल


यह काँची को मध्यान्तर के बाद अपनी क्षमताओं से सम्हालने वाला नायक है। नाम है चन्दन राॅय सान्याल। कुछेक फिल्मों में महत्व की भूमिकाएँ निभाते हुए काँची में एक बड़े किरदार के साथ उनकी भागीदारी है जो रेखांकित होती है। सुभाष घई ने इस फिल्म को बनाया तो बड़ी उम्मीदों से था लेकिन कहीं न कहीं पटकथा के स्तर पर किरदारों के महत्व को, उनकी उम्र को रचते हुए उनसे इस बार चूक हुई है। काँची मध्यान्तर के बाद दो-तीन ऐसे कलाकारों के कंधों को वजन और जवाबदारी से भर देती है जो उसे अपनी क्षमताओं के साथ अन्त तक ले जाते हैं। वास्तव में चन्दन राॅय सान्याल की भूमिका कमजोर उत्तरार्ध में भी अपनी बड़ी जवाबदारी सम्हालती है।

चन्दन राॅय सान्याल, दिल्ली मूल के हैं, रंगमंच से जुड़े हुए, अच्छे-खासे संघर्ष और तजुर्बे के साथ वे मुम्बई आये। विशाल भारद्वाज की फिल्म कमीने की वो बात करते हैं जिससे उनको बाॅलीवुड में ठीक से प्रवेश मिला। उसके बाद फालतू एक फिल्म अरशद वारसी के साथ की और ऋषि कपूर के साथ डी-डे। एक फिल्म प्राग की वे चर्चा करते हैं और एक आने वाली मैंगो की। काँची को लेकर उनका भाव मिश्रित है, फिल्म सफल न हो पायी उसका अफसोस है और किरदार सराहा जा रहा है उसकी खुशी। वे कहते हैं कि एक अभिनेता के लिए तो हौसलाआफजाई है, हिट हो जाती तो और मजा आता। वो मेरे हाथ में नहीं है लेकिन उनका तहेदिल से शुक्रिया है जो मेरे किरदार को सराह रहे हैं।

चन्दन राॅय सान्याल ने इस भूमिका के लिए अपना स्क्रीन टेस्ट दिया था। वे नहीं जानते थे कि इस किरदार को इतने ढंग से प्रोजेक्ट किया जायेगा, तीन गाने फिल्माये जायेंगे, डाँस-वाँस होगा। बताते हैं कि सुभाष जी ने कई कलाकारों का स्क्रीन टेस्ट लिया, मेरा जब मौका आया था जितना वक्त मुझे फायनल करने में लगा उससे मैं समझ गया कि शायद मैं चुना जाऊँगा। यह किरदार फिल्म का सूत्रधार भी है। वे अपने दोस्त अंशुमन झा का भी शुक्रिया अदा करते हैं जो मुक्ता आर्ट से जुड़े हैं और जिन्होंने स्क्रीन टेस्ट के लिए प्रेरित किया। चन्दन सुभाष घई की तारीफ करने में पीछे नहीं हैं, कहते हैं कि शो तो मेरा भी उन्हीं का जमाया हुआ है।

काँची की शुरूआत पहला दृश्य ही चन्दन से शुरू होता है, मध्यान्तर बाद चन्दन फार्म में, मीका वाला गाना मुस्टण्डा उन्हीं पर। वे ही मुम्बई में बदला लेने आने वाली काँची के मददगार होते हैं क्योंकि बचपन के दोस्त हैं, पहाड़ के लेकिन फिल्म में नायक का विकल्प नहीं हैं वे। क्लायमेक्स में पुलिस कस्टडी में यह भ्रष्ट-सिद्ध पुलिस अधिकारी अपनी मानवीयता और बड़े साहस के कारण अपने वरिष्ठ अधिकारी द्वारा बख्श दिया जाता है। बावजूद तमाम तारीफों के उदास चन्दन कहते हैं कि ग्लास भर नहीं सका, पर वे सन्तुष्ट नहीं होते, चन्दन एनएफडीसी की फिल्म आयलैण्ड सिटी और बैंगिस्तान की बात करते हैं जो उनकी आने वाली फिल्में हैं।


बुधवार, 30 अप्रैल 2014

मोहन गोखले की याद

29 अप्रैल को एक ऐसे कलाकार की पुण्यतिथि थी जिन्हें इस दुनिया से गये पन्द्रह वर्ष हो गये लेकिन अपने काम से उन्होंने दर्शकों के बीच जो पहचान स्थापित की थी उसी का प्रभाव है कि लोग मिस्टर योगी को भूल नहीं पाते हैं। जिक्र मोहन गोखले का है, एक अत्यन्त प्रतिभाशाली कलाकार जिनका निधन पैंतालीस वर्ष की आयु में 1999 में हो गया था, उस वक्त जब वे कमल हसन की फिल्म हे राम की शूटिंग के लिए चेन्नई गये थे। उनका अकस्मात इस तरह जाना हतप्रभ करने जैसा था। मोहन गोखले हिन्दी और मराठी सिनेमा में अपनी उत्कृष्ट अभिव्यक्ति और मिलनसार स्वभाव के कारण जाने जाते थे।

मोहन गोखले की उल्लेखनीय फिल्मों में स्पर्श, भवनी भवई, मोहन जोशी हाजिर हो, होली, माफीचा साक्षीदार, आज झाले मुक्त मी, मिर्च मसाला, हीरो हीरालाल, कर्मयोद्धा, हूँ हुँशी हुँशीलाल, युगंधर, अरण्यका, कैरी, डाॅ. बाबा साहेब अम्बेडकर, ध्यासपर्व, मोक्ष आदि शामिल हैं। कैरी, अमोल पालेकर निर्देशित उनकी अन्तिम फिल्म थी। अभिनेत्री शुभांगी गोखले उनकी पत्नी हैं जो स्वयं भी हिन्दी और मराठी सिनेमा की अत्यन्त अनुभवी और दीक्षित अभिनेत्री हैं। अभी हम उनकी नियमित उपस्थिति मिसरी मौसी के किरदार में लापतागंज सीरियल में देख रहे हैं। जिस समय मोहन गोखले का निधन हुआ था तब शुभांगी पाँच साल की बेटी साखी की माँ थीं।

पति मोहन गोखले का उनके जीवन में होना परस्पर रचनात्मक आयामों में एक-दूसरे साथ, सलाह-मशविरा और सुझाव से भरा एक ऐसा जीवन था, जो एक खूबसूरत सामंजस्य का भी पर्याय था। शुभांगी याद करते हुए कहती हैं कि मेरे लिए मोहन का मतलब था एक चकित कर देने वाला कलाकार और एक दिलचस्प इन्सान। अभिरुचिसम्पन्न और सुसंस्कृत व्यक्तित्व था उनका। उनकी यादों के बगैर एक दिन भी आज तक मैंने गुजारा हो, ऐसा हुआ नहीं। उन्होंने कभी अपनी कला से समझौता नहीं किया। वे उस समय भी तटस्थ रहे जब उनके सिखाये लोग अपना पाण्डित्यप्रदर्शन किया करते थे। मोहन के लिए उनका स्वाभाविमान ही सर्वोपरि रहा। सहजता और गहराई उनकी विशेषता रही। शुभांगी कहती हैं कि मेरा काम उनकी दक्षता से प्रेरित है पर उनकी श्रेष्ठता को पाना आसान नहीं है।

अपने जीवन में एक उत्साही और ऊर्जा से भरे कलाकार पति से जो अन्तःसमर्थन शुभांगी ने महसूस किया था, उनके नहीं रहने के बाद वे उस क्षण के सदमे, उनकी यादों और उनके बिना आगे जीवनपथ पर एक छोटी सी बच्ची के साथ सुरक्षित और आत्मनिर्भर बने रहना उनके लिए बड़ी चुनौती थी। शुभांगी ने अपने जीवट को बरकरार रखा और अपनी जिम्मेदारी से मुँह नहीं मोड़ा। स्वयं शुभांगी हजार चैरासी की माँ, हे राम, मोक्ष, सूर राहू दे, डिटेक्टिव नानी, क्षणभर विश्रान्ति आदि फिल्मों में काम कर चुकी हैं। एक मराठी धारावाहिक एका लग्नाची तीसरी गोष्ठ में भी उन्होंने काम किया। 
 
लापतागंज की मिसरी मौसी, शुभांगी तो अभिव्यक्ति में बहुत ही विलक्षण दिखायी देती हैं। शुभांगी, बेटी साखी के अनुसरण से खुश हैं, वो भी हिन्दी-मराठी रंगमंच और फिल्मों में सक्रिय है और अपनी माँ को इस वक्त भावनात्मक रूप से सबल बनाने का काम कर रही है। शुभांगी, मोहन की स्मृति में भावुक होती हैं और बेटी में उनका अक्स देखती हैं........जीवन जूझने और जीतने का पर्याय है, यह उनके व्यक्तित्व और पुरुषार्थ से प्रमाणित होता है।
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शुक्रवार, 25 अप्रैल 2014

काँची : शो मैन का नया शो......

सुभाष घई की नयी फिल्म पर मिश्रित प्रतिक्रियाएँ हैं। व्यक्तिश: मुझे उनसे कुछ अधिक ही आशा बनी रहती है जो लगभग ताल तक पूरी होती रही, पता नहीं बाद में यादें, किसना, युवराज से क्या हो रहा है? काँची की कहानी, पटकथा, संवाद और निर्देशन सभी कुछ उनके हैं। मध्यान्तर के पहले जब तक यह कहानी नैनीताल के नैसर्गिक सौन्दर्य में एक नोकझोंकभरी प्रेमकथा की तरह परवान चढ़ती है, सुहाती है लेकिन जैसे ही मध्यान्तर से दस मिनट पहले नायक को मारने के बाद फिल्म मुम्बई में आगे बढ़ती है, पटकथा शिथिल होती प्रतीत होती है। दो तरह के स्थानापन्न-विभाजन, नैनीताल और मुम्बई और शायद रस्मपूर्ति के लिहाज से अन्तिम दृश्य में वापस मूल स्थान पर फिल्म को इति प्रदान करना, फिल्म को लेकर कोई धारणा स्थापित कर पाने में असहज ही रहा। नायक की मृत्यु का दृश्य जितने प्रभाव से फिल्माया गया है, उतने ही वजन के साथ यह दर्शकों को आगे के लिए व्यावधानित कर देता है। फिर वे बेमन से नायिका के साथ कहानी को बदले के साधारण रोमांच के साथ देखते हैं।

फिल्म में मिथुन का चरित्र उनके द्वारा संवाद में प्राय: बोले शब्द "पद्धति" के साथ ही उनको प्रभावी नहीं होने देता, उनके दोनों तरफ गाल किस लिए फुला दिये गये, समझ में नहीं आया, संवाद बोलने का लहजा भी जबकि ऋषि कपूर अपने नकारात्मक किरदार में प्रभावित करते हैं। नायक कार्तिक की सराहना के साथ हमदर्दी भी व्यक्त करनी पड़ेगी क्योंकि निर्देशक को अपनी कहानी में शायद उसकी जरूरत उतनी ही थी। नायिका मिष्टी को क्षमता से अधिक वजन या दायित्व मिला है, परिपक्व उम्र के अभाव में चेहरे पर भाव नहीं आ पाते, उग्रता के स्वभाव को ही प्राय: अभिव्यक्ति का आधार बनाया गया है। नताशा रस्तोगी, चंदन राय सान्याल, मीता वशिष्ठ जैसे परिपक्व कलाकार अपने काम बेहतर कर जाते हैं लेकिन मुख्य धारा में भटकाव उत्तरार्ध में फिल्म को कमजोर करता है।

इरशाद कामिल के गाने, दो संगीतकारों इस्माइल दरबार और सलीम-सुलेमान का संगीत कुछ गानों में सुरुचिपूर्ण लगता है, टाइटिल ट्रेक भी अच्छा है। "कम्बल के नीचे" गाना एक बुरा प्रयोग है जिसको सुनकर पंक्तियों में सुभाष घई की पिछली फिल्मों के नाम-गाने याद आते हैं पर उसका प्रस्तुतिकरण नहीं सुहाता। सुधीर के चौधरी, सिनेमेटोग्राफर की दृष्टि भी मध्यान्तर तक सुहावनी है, बाद में घटनाक्रम के लिहाज से बहुत चमत्कार की गुंजाइश भी नहीं रहती, फिर भी मुम्बई में ट्रेन के आसपास नायिका और खलनायक के बॉडीगार्ड से संघर्ष अच्छा फिल्माया गया है, रोमांचक खासकर।

अलका सिंह अर्थात रिवाल्वर रानी अर्थात कंगना

रिवाल्वर रानी को देखना एक दिलचस्प अनुभव है। यह कंगना के लिए क्वीन के बाद वाकई एक और महत्वपूर्ण फिल्म है जो उनकी पहचान को इस वक्त में और समृद्ध करने काम करेगी। इस फिल्म का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि यह सचमुच हिन्दी सिनेमा के विभिन्न श्रेष्ठ मानकों से अलग एक अपना मध्यमार्ग लेकर चलती है और दर्शकों के मन को छू जाने वाले और कई बार तनाव में भी बनाये रखने वाली खासियतों के साथ अंजाम तक पहुँचती है।

साई कबीर फिल्म के निर्देशक हैं जिन्होंने इसे भोपाल से लेकर ग्वालियर और वहीं आसपास के अंचलों में फिल्माया है। फिल्म की भाषा-बोली बुन्देलखण्ड से प्रेरित है, हालाँकि बहुत से कलाकार, जिनमें नायिका भी शामिल है, पूरी तरह उस भाषा को निबाह नहीं पाते फिर भी उनके प्रयत्न अच्छे हैं और वे दस्यु जीवन, राजनैतिक यथार्थ और अपराध के गठजोड़ के बीच शह और मात के खेल को सशक्त पटकथा और संरचना के साथ साकार करने में काफी हद तक कामयाब होते हैं।

रिवाल्वर रानी की केन्द्रीयता में भटकाव नहीं है। शत्रुता प्रत्यक्ष है और निभाने का ढंग भी जबरदस्त लेकिन उसी संघर्ष में हीरो बनने के एक महात्वकांक्षी युवक और रिवाल्वर रानी के बीच प्रेम की फिलॉसफी दीवानगी के साथ रची गयी है। रिवाल्वर रानी यानी अलका सिंह के अपने वजूद और भय के बावजूद उसके भीतर का अकेलापन, उसकी ख्वाहिशें और उसका प्रेम उस चरित्र को संवेदना प्रदान करता है। कंगना ने सचमुच अन्देशे से भरी, जोखिमपूर्ण जिन्दगी से जूझती मगर भीतर से एक कोमल सी औरत को बखूबी जिया है।

इस फिल्म को पीयूष मिश्रा, कुमुद मिश्रा, जाकिर हुसैन, वीर दास आदि कलाकार अपने-अपने किरदारों से यादगार बनाते हैं। किस तरह आस्थाएँ बदलती हैं, धारणाएँ बदलती हैं, कैसे छल अपने इर्द-गिर्द साथ-साथ चलता है, कैसे क्रोध का अतिरेक, संवेदनशीलता में तब्दील हो जाता है, ऐसी बहुत सारी स्थितियाँ फिल्म के साथ हैं। फिल्म का अन्त बहुत मार्मिक है जब जली-झुलसी अलका सिंह बिस्तर पर पड़े-पड़े ट्रांजिस्टर में अपनी मौत का समाचार सुन रही होती है, उसकी आँख से बहकर निकला आँसू उसके व्यतीत को करुणा के साथ व्यक्त करता है...........

फिल्म के गाने माहौल के अनुकूल हैं, मगर दृश्यों के साथ केन्द्रित करते हैं, ऊषा उत्थुप, आशा भोसले, पीयूष मिश्रा के स्वरों में वे गाथा की तरह घटित होती हैं, प्रसंगों के अनुकूल...........