बीसवीं सदी की एक बड़ी दुर्घटना जिससे बड़ी मानवीय क्षति हुई, शेष जीवन मानसिक अवसाद, प्रताड़ना, अन्देशों और डर भय से भरे हो गये, उसे आज तीस बरस हो गये हैं पर जी इतना कड़ा नहीं हो पाता कि सब भुलाया जा सके। मन को बहलाने और समझाने के लिए कहा जाता है कि वक्त से बड़ा कोई मरहम नहीं है, सब जख्म धीरे-धीरे भर जाते हैं लेकिन सच्चाई यह है कि जख्मों के धुंधले निशान भी छुओ तो हरे हो जाते हैं। उस समय का स्मरण एक साथ कई बातों का स्मरण कराता है, सहसा उस उम्र का स्मरण हो आता है और तब के मानस का भी।
तब की याद आती है, पढ़ाई-लिखाई मन न लगने के कारण अपनी पूरक चाल से आगे बढ़ रही थी लेकिन लेखन में रुचि हो गयी थी। अखबार श्वेत-श्याम निकला करते थे। उन दिनों रवीन्द्र भवन के खुले मंच पर राष्ट्रीय रामलीला मेला, मध्यप्रदेश आदिवासी लोककला अकादमी ने आयोजित किया था। उस मेले में प्रतिदिन होने वाली रामलीला की समीक्षा बड़े भाई तुल्य अनिल माथुर कर रहे थे जो तब जनसम्पर्क विभाग में अधिकारी थे पर अपनी पूर्ववर्ती संस्था नवभारत समाचार पत्र का युवा जगत पेज देख्ाा करते थे। उनको पारिवारिक काम से आगरा जाना हुआ तो मुझे कह गये कि अन्तिम दो दिनों की रामलीला तुम कवर कर के नवभारत को दे आना, तुम्हारे नाम से आयेगी। इस तरह दो दिन 1 और 2 दिसम्बर को रामलीला देखने और लिखने का काम किया था। 2 दिसम्बर को इधर रामलीला देख रहा था, उधर यूनियन कार्बाइड में दुर्घटना हो गयी थी। अगले दिन सुबह के सारे अखबार पहले पेज पर उस बड़ी दुर्घटना का समाचार दे रहे थे।
3 दिसम्बर सुबह से ही खबरें फैल रही थीं। नये भोपाल में किसी को पता न चला कि शहर में बीती रात क्या हो गया है? अगला दिन सच्ची झूठी खबरों का था। घटना इतनी भयानक थी हर बात पर विश्वास करते हुए भोपालवासी भीतर ही भीतर बहुत कमजोर होते जा रहे थे। ऐसा लगता था कि सबका अपना विवेक हार गया है। हर बात पर भरोसा करने को जी चाहता था और हर बात डराने वाली थी। याद है, उम्र तब इक्कीस वर्ष थी, 3 दिसम्बर को साढ़े ग्यारह बजे सुबह अफवाह उड़ी कि यूनियन कार्बाइड से फिर गैस रिस पड़ी है, तब पूरे शहर में बदहवास भगदड़ मच गयी। नये भोपाल के स्थान भी अछूते न रहे। हमारे मोहल्ले के लोग घर से जहाँ रस्ता मिले, भागने लगे, ताला डालने का की होश किसी को न था। एक तरफ मानवीय पहलू यह कि पीड़ितों को सब हर तरह की मदद करने आगे आये वहीं यह भी कि अगले दिन गैस रिसते हुए अपनी जान की परवाह करते भाग रहे लोग पड़ोसी की फिक्र भी नहीं कर रहे थे। एक परिवार तो अपने घर के अति बुजुर्ग की शिथिलता और लाचारी पर भी उनसे झुँझला रहे थे, सब तरह के तजुर्बे।
घण्टे भर बाद यह ऐलान हुआ कि दोबारा गैस नहीं रिसी है, सब घर में रहें, भागें न, कहीं न जायें। लोग बमुश्किल माने पर अगले पन्द्रह दिनों तक हर आदमी रह-रहकर जागता था, कितना सोता था पता नहीं। अगले पन्द्रह दिनों में से ही एक दिन यूनियन कार्बाइड में बचे रसायन से सेविन गोलियों का निर्माण कर रसायन खत्म कर दिया जाना था, वह रसायन जिससे यह भयानक हादसा हुआ। उसके बाद भी बरसों बल्कि कल तक यह खबरें आती रहती हैं कि अभी भी वहाँ जहरीला अपशिष्ट बचा है, पड़ा है, वगैरह वगैरह। सच तो यही था कि दुर्घटना वाली रात जहरीली गैस ने जमकर विनाशलीला की। चपेट में आये बुजुर्ग, बीमार, महिलाएँ, बच्चे, युवा हजारों की संख्या में असमय काल कवलित हो गये।
हम लोग अपने मुहल्ले से पाँच सात साथी सायकिलों पर हमीदिया अस्पताल जाया करते थे, दूध, डबलरोटी और खाने की दूसरी सामग्रियों के साथ लेकिन वहाँ इस आपदा के शिकार निर्दोषों को भूख की नहीं जीवन और साँसों की जरूरत थी, हम लोग असहाय से उनको तड़पते, विलाप करते, रोते देखते थे और भीतर तक सिहरन तथा दुख से भर जाते थे। हम सबके पास इसकी दवा नहीं थी। हर रोज अस्पताल के दृश्य रुलाया करते थे, हौसले को कमजोर किया करते थे। सालों साल हमने अपनी मानसिकता को कमजोर होते देखा है। मुझे अपनी भी याद है, बहुत डरा करता था। उस समय आकाशवाणी में विनोद तिवारी, गजलकार समाचार पढ़ा करते थे। मैं प्राय: उनके पास बिना जान पहचान के कभी रेडियो स्टेशन तो कभी उनके घर पहुँच जाया करता था, पूछने कि अब तो कुछ नहीं होगा, अब तो कोई खतरा नहीं है। कई बार इस बात पर वे झुँझला जाया करते थे। बाद में एक-दो बार उन्होंने मुझे भगा भी दिया था। कहने का अर्थ यह कि कैसे एक भयावह घटना मनोबल को कमजोर करती है, विश्वास को डिगा देती है, जवाबदारियों के लायक नहीं रहने देती। कैसे हम केवल अपने बारे में सोचने लगते हैं, कैसे मानसिक भरम हर पर डगमगाये रखते हैं। अनुभवों का जखीरा लम्बा है, राजीव गांधी आये थे पीड़ितों को देखने, याद है बहुत कुछ।
यूनियन कार्बाइड की दुर्घटना का समय देर रात से सतत सुबह तक का है, आगे भी कई दिनों तक जब तक आसमान में गैस मण्डराती रही लेकिन किस तरह इस काल-आक्रमण से सर्वथा बेखबर लोग इस दुनिया से चले गये। भोपाल इस घटना के बाद अनेक वर्षों तक अनेक मुश्किलों से जूझता रहा है। घटना हो जाने के बाद घातक रसायन के उन लोगों और पीढ़ियों में प्रभाव बने हुए हैं जिनके प्राण किसी तरह बच गये। सोच कर मन काँप उठता है कि हम कारखाने से पन्द्रह किलोमीटर दूर होकर महीनों-सालों भयमुक्त नहीं हो पाये, उनका क्या होता रहा होगा, जो जद और हद में रहे होंगे!!
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