बुधवार, 17 दिसंबर 2014

पत्रिकाओं से जन्मजात सरोकार की बात पर..........

पत्रिकाओं को लेकर बचपन से ही बड़ी ललक रही है। छोटे थे तब पापा-मम्मी ने अखबार वाले हॉकर करीम चाचा से तीन पत्रिकाएँ बँधवा दी थीं, चम्पक, नंदन और पराग। प्राय: ये पत्रिकाएँ साप्ताहिक ही हुआ करती थीं। आगे चलकर हमें जब लोटपोट और चन्दामामा के बारे में जानकारी हुई तो हमने मम्मी-पापा की आफत करके ये दोनों पत्रिकाएँ भी करीम चाचा से लगवा लीं। इन पत्रिकाओं की प्रतीक्षा जागते ही करने लगते। 

करीम चाचा बड़े दिलचस्प आदमी थे। सायकिल में अखबार सजाये जब वे मोहल्ले में दाखिल होते थे तो हर घर के लोगों को जानने और नाम-सरनेम से बुलाने, बच्चों को उनके नाम से बुलाने के कारण, जोर से बोलने की वजह से पता चल जाया करता था कि वे आ रहे हैं। मैं अक्सर व्यग्रता में दूर उनके पास पहुँच जाता था अखबार और अपनी पत्रिकाओं के लालच में पर वे मुझे तंग करते थे, कहकर कि भाग जा, घर पहुँच, वहीं मिलेगा अखबार। मैं ठुनकने लगता तो और चिढ़ाते। मैं घर में उनकी शिकायत करता तो शिकायत को तवज्जो न मिलती। करीम चाचा कई बार अचानक बिन आहट आकर आवाज लगा देते और जो पत्रिका नयी आयी होती उसका नाम लेकर बुलाते। कई बार वे पास बुलाते और न देकर आँगन में अखबार और पत्रिकाएँ उछालकर फेंक देते तब भी मैं उन पर बहुत चिढ़ता। 

जो पत्रिकाएँ बचपन में पढ़ने को मिलतीं उनकी आदत सी बन गयी थी। पढ़ लिए अंक व्यवस्थित जमाकर रखता था। मोहल्ले में किसी को पत्रिका नहीं देता था। पड़ोस में सहाय मौसी मम्मी से अक्कसर कहतीं, सुशीला तुम्हारा लड़का बड़े छोटे जी का है। मैं चम्पक के चीकू, नंदन के तेनालीराम और विशेषकर दो चित्रों में दस गल्तियाँ ढूँढ़ने वाले पन्ने पहले खोलता। मुझे चन्दामामा में बेताल कथाएँ बहुत सिहरा देतीं, हठी विक्रमार्क पेड़ के पास फिर लौट आया, पेड़ से शव को उतार कर कंधे पर लादकर चलने लगा, यहाँ से शुरूआत होती और आखिर में बेताल का प्रश्न जिसका उत्तर यदि विक्रमार्क जानते हुए न देगा तो सिर टुकड़े-टुकड़े हो जायेगा और देगा तो बेताल उड़कर फिर पेड़ पर जा बैठेगा। इसको पढ़ने का रोमांच होता। इसी तरह पराग का भी अपना आकर्षण था। उसमें के पी सक्सेना जी का धारावाहिक खलीफा तरबूजी आज भी याद है, उनकी बेगम, पिंजरे में तोता और रेल की लम्बी यात्रा के किस्से, पढ़ा करते। 

जब लोटपोट पढ़ना शुरू किया तो उसमें चाचा चौधरी, मोटू पतलू खूब सुहाते। मोटू पतलू की कहानी के चित्रमयी पन्नों में उनके साथी घसीटाराम, चेलाराम, डॉक्टर झटका, सिस्टर मधुबाला के कारनामे हँसा-हँसाकर वाकई लोटपोट कर दिया करते। बचपन से बाहर आये तो जैसे इस संसार से भी बाहर आ गये या यों कह लीजिए कि यह संसार भी छूट गया। अब चम्पक, नंदन का रूप ही बदल गया है, चन्दामामा कभी-कभार पत्रिकाओं की दुकान पर दिखायी देता है। लोटपोट दुर्लभ है। पराग तो बन्द ही हो गयी।  आज के बचपन को इन पत्रिकाओं का पता भी न होगा और उनकी जिज्ञासाओं में शामिल भी शायद न होती हो। बचपन भी पढ़ने के धीरज और धैर्य से बाहर हो गया प्रतीत होता है। अब नानियों, दादियों के पास भी शायद कहानियाँ नहीं हैं, माँ के पास तो और भी दुर्लभ। 

पत्रिकाओं का अपना चस्का लेकिन आज भी बरकरार है। दो-तीन दिन में यदि भोपाल में घर से कुछ दूर न्यूमार्केट के गुरु तेग बहादुर कॉम्पलेक्स में वैरायटी बुक हाउस न जाओ तो बड़ी बेचैनी महसूस होती है। अब इण्डिया टुडे, तहलका, अहा जिन्दगी, कथादेश, नया ज्ञानोदय, हंस, समास के अंकों को लेकर जिज्ञासा बनी रहती है। मन के अंक खरीदा करता हूँ। मुझे लगता है कि वाकई महँगाई के इस दौर में अखबार और पत्रिकाएँ आज भी जिस मूल्य पर मिला करते हैं वह बहुत कम है। अपने समय, दृश्य और दुनिया में छोटी मोटी पैठ बनाये रखने के लिए, थोड़ा बहुत जाने रहने के लिए पत्रिकाएँ बड़े काम की हुआ करती हैं। पढ़ना आज के कठिन समय को सहने और समझने की अहम प्रक्रिया है। यह ऐसी पगडण्डी है जो दुर्लभ हो चली है, दुरूह भी। क्षमताभर फिर भी मैं उसमें आवाजाही के जतन कर लिया करता हूँ भले ही पढ़ते-पढ़ते सो जाऊँ।

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