श्रीराम ताम्रकर का नहीं रहना, बहुत सारी स्मृतियों और बातों के पुनर्स्मरण का सबब बन गया है। वे सिनेमा के थे, उनसे सिनेमा को जानने का सौभाग्य मिला था, सब कुछ सिनेमा की रील की तरह ही चल रहा है। ऐसा लगता है इस हृदयविदारक घटना ने अपने आप एक बड़ा सा कर्टन रेजर तैयार कर दिया है, छोटे-छोटे दृश्य उपजते हैं, प्रसंग सामने फिर से घटित होने लगते हैं, संवाद होने लगता है, कहकहे लगते हैं, बात होने लगती है, अपनापन दिखायी देता है, टेलीफोन सुनायी देने लगता है।
उनका मोबाइल नम्बर बार-बार देखता हूँ। आँखें भीग जाती हैं। अब वे उधर से दो अक्षरों के हैलो का जरा विस्तीर्ण कर थोड़े ही बोलेंगे, हैल्ल्लो....! भोपाल में स्कूटर की यात्राएँ याद आती हैं, शुरू शुरू की जब बैठते ही कहते थे, पेट्रोल पंप ले चलो, जिद माननी होती थी, इकट्ठा पाँच लीटर भरवा दिया करते थे। जितने दिन भोपाल में रहें, साथ खाना खाया, काम किया। त्रिवेन्द्रम गये, मुम्बई गये, दिल्ली गये, पुणे गये और भी कहाँ कहाँ।
धरम जी से पहली बार मिले तो साथ मिले। उन्होंने ही धरम जी से कहा था कि आप शोले फिल्म का वो सिक्का जो जिसके दोनो ओर हेड है, तिस पर धरम जी ने खड़े होकर उन्हें गले लगा लिया था, कहते हुए, वाह यार क्या बात कही है। वे नईदुनिया के फिल्म सम्पादक रहे तो उन्होंने लिखने की समझ दी, सिखाया, प्रोत्साहित किया। नाना पाटेकर, सुधांशु मिश्र, हृतिक रोशन, राकेश रोशन आदि के बड़े इण्टरव्यू छापे।
भोपाल में वे जब भी आते थे तो यही लगता था कि पास ही रुकें। हमेशा किसी निमंत्रण पर भी वे आये तो यही चाहा कि ऐसी जगह रुकें जहाँ मैं तत्काल पहुँच सकूँ। वे भोपाल में होते थे तो उनको अकेला बिल्कुल नहीं छोड़ता था। भोपाल में वे हमारे प्राय: सभी आत्मीय मित्रों से जुड़ गये थे। सबके साथ समरस। सिनेमा पर उनका बोलना सम्मोहित करता था हमेशा। निरन्तर बिना किसी दोहराव के तथ्यपरक बातें वे करते थे। कई बार वे फिल्म पत्रकारिता सीख रहे छात्रों को शुरू में ही कह देते थे कि मैं आपके लिए ही बताने वाली बात की पूरी तैयारी से आया हूँ, यदि आप गम्भीर न हुए, आपका मन न लगा तो मेरा आना बेकार, आपका सुनना बेकार, आपकी संस्था का यह सारा का सारा उपक्रम बेकार। इसलिए पहले बता दीजिए, आपकी रुचि है या नहीं तिस पर सभी छात्र नतमस्तक, सर आप बताइये, हम सुनेंगे, बैठेंगे।
आज सुबह जूनी इन्दौर के मुक्तिधाम में उनकी निष्प्राण देह को देखकर सब्र छूट गया। वही सब कर्टन रेजर की तरह, इस तरह तो उनको कभी नहीं देखा था। वे अपनी आँखें, सिनेमा प्रेम में दान कर गये, उनके जाने के बाद भी उनकी आँखें सिनेमा देखती रहें इसलिए। प्रभु जोशी, सरोज कुमार, राकेश मित्तल, मानसिंह परमार वहाँ पर बोल रहे थे, ताम्रकर जी के बारे में, सच-सच। प्रभु जी ने कहा मेरे अविभावक थे, सरोज जी ने कहा कि श्रेय से दूर रहते थे, बहुत सी बातें।
अक्सर, इन्दौर में उनसे मिलकर भोपाल रवाना होते हुए उनका एक आदेश सुनता था, भोपाल पहुँचते ही खबर करूँ। अब नहीं कहेगा कोई और खबर भी किसे करूँ......?
देवी अहिल्या विश्वविद्यालय इन्दौर में बीस वर्षों से निरन्तर फिल्म पत्रकारिता पढ़ाते रहने वाले ताम्रकर जी के नाम पर वहाँ इस विषय की एक पीठ स्थापित कर दी जाये तो शायद किसी तरह की कठिनाई न होगी। परमार जी, मित्तल जी, कुलपति इस अहम काम को सहजतापूर्वक ही कर सकते हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें