गुरुवार, 30 सितंबर 2010

लौटकर आते टीवी शो की फेसलिफ्टिंग

भोजपुरी फिल्मों के प्रमुख अभिनेता रविकिशन ने पिछले दिनों एक चैनल में पुनर्जन्म वाला शो होस्ट किया था। हालाँकि उस धारावाहिक की सीमित कडिय़ाँ ही आ सकीं मगर रविकिशन ने प्राय: हर जगह यह कहा कि यह शो बहुत चर्चित हुआ है और बड़ी हस्तियों ने इस शो को देखकर इसमें शामिल होने में अपनी रुचि दिखायी है। यद्यपि शो पूरा होते-होते ऐसी कोई हस्ती शो में नहीं आ सकी थी, जिसके बड़े होने का कोई प्रमाण मौजूद हो, वह भी किसी न किसी रूप में। जल्दी ही सामान्य पहचान वाले लोगों के बीच सिमट कर रह गये इस शो में रविकिशन खुद भी अपना कोई व्यवस्थित दार्शनिक रूप भी व्यक्त नहीं कर पाए थे। अब फिर से इस शो के एक बार और आने की सुगबुगाहट प्रोमो के माध्यम से दिखायी देने लगी है।

हिन्दी को अतिशय अलंकृत करके बोलने के आदी रविकिशन इस शो के प्रोमो में ऐसे ही एक-दो जुमलों के साथ फिर से दिखायी दे रहे हैं। नई पीढ़ी की बेहद आशान्वित करने वाली सामथ्र्य और ऊर्जा से भरेपूरे वर्तमान में पूर्वजन्म, तंत्र-मंत्र जैसी चीजों का इतना महिमामण्डन किए जाने के पीछे औचित्य क्या है, यह समझ में नहीं आता। रविकिशन जैसे कड़े संघर्ष से अपना मुकाम हासिल करने वाले कलाकार भी क्यों दकियानूसी दर्शन का हिस्सा बन जाते हैं समझ में नहीं आता, हालाँकि सीधे तौर पर तो प्रस्तुतिकरण के लिए मिलने वाला अच्छा धन ही इसका मूल कारण होता है मगर धन, सामाजिक पहचान और दर्शकों में अर्जित विश्वास और अवधारणा से ज्यादा अहम या महत्वपूर्ण नहीं होता, यह पता नहीं क्यों सितारे समझने को तैयार नहीं होते।

तेजी से खिसकते, हाथ से छूटते समय में एक-एक सेकेण्ड की, हर मिल जाने वाली कीमत वसूलकर सुचारू साँस लिया करने की यह मानसिकता अच्छी नहीं है। चैनलों में बहुत से हँसाने, रुलाने, कूदने-कुदाने, बेइज्जत करने और बेइज्जत होने वाले शो के इर्द-गिर्द केवल एक ही मानसिकता काम कर रही है। कौन बनेगा करोड़पति का फिर से आना, एक बार फिर हमारे जीवन के आसपास सपने और सम्मोहन का रचा जाना है। घण्टों एकाग्रता में बैठे रहकर सवाल और जवाबों के अदृश्य सेतु पर ठिठके कदमों की आवाजाही का अपना अन्दाज है। सलमान खान दस का दम में अपनी दमखम दिखाने और दबंग की दबंगई के बाद बिग बॉस के रूप में सामने आ रहे हैं। दिलचस्प यह है कि वे शायद उस शो में अपने से काफी वरिष्ठ, लगभग पिता के साथ के किसी वक्त के सुपरसितारे राजेश खन्ना के भी बिग बॉस कहे जाएँगे। क्या राजेश खन्ना, उनको बिग बॉस कहेंगे.........?

अब हारकर तुमको मनाने की बारी है

कब से नखरे सहेजे बैठी हो
कनखियों से देखना फिर भी जारी है
सामने चुपचाप जैसे रूठा स्वर
एक-एक पल लगता जैसे भारी है

पहले नाराज़ कौन हुआ था भला
मौन निगाहें सवाल करती हैं
पहले नाराज़ किसने किया था किसको
जवाब न पाने का मलाल करती हैं

बोलकर भला कोई बात बताएँ कैसे
ठहरे चुप में भी बहुत कुछ सुन लिया हमने
तुम इशारा करो या न भी करो
सुनना चाहा वो कहने को बुन लिया हमने

तुमने हारकर हमें मनाया कई बार
अब हारकर तुमको मनाने की बारी है

बुधवार, 29 सितंबर 2010

छोटा परदा, धारावाहिक, दृश्य-संवाद और भाषा

छोटे परदे में तमाम चैनलों में धारावाहिकों का एक तरह से बाज़ार सा खुल गया है। आप चैनल बदलते जाओ, दुकानें सी लगी दिखायी देने लगती हैं। क्षण भर को चैनल स्थिर करके ठहरकर जायज़ा लेने लगो तो विचित्र किस्म का अनुभव होता है। कोई न कोई दृश्य, जाहिर है चल रहा होता है, कलाकार अपनी-अपनी क्षमताभर आजमाइश देते हुए तथाकथित मजबूत दृश्यों के प्रमाण दीखते हैं। पाश्र्वसंगीत का अपना कनफोड़ूपन है जो पल भर बर्दाश्त कर पाना मुश्किल हो जाता है क्योंकि सारी ध्वनियाँ कृत्रिम और तीव्र हैं, जिनमें वातावरण से जुडऩे की कोई संवेदना या शऊर समझ में नहीं आता।

पोस्ट प्रोडक्शन का काम धारावाहिकों में लगभग बिना सोचे, समझे, बिना किसी संजीदा आदमी को सौंपे पूरा सा कर लिया जाता है क्योंकि रोजमर्रा की इन कडिय़ों को बनाने से लेकर चैनल में जमा करवाने, बल्कि जमा करवाने के पहले स्वीकृत कराने तक की स्थिति में सबसे तंगहाली वक्त की होती है। दिन-रात जागते-ऊँघते किए गये काम को इत्मीनान से एक बार देख लेने का ही वक्त किसी के पास नहीं होता। निर्देशक, निर्माता एक ही सेट, लोकेशन और कलाकार से एक दाम के बदले निचोड़वृत्ति से काम निकलवाने में ही लगे रहते हैं। पिछला क्या बनाकर दे दिया, उसका क्या प्रभाव-दुष्प्रभाव है, इसके बारे में सोचने का वक्त या संवेदना उनके पास नहीं है।

ऐसे में दर्शकों के सामने जो उड़ेल दिया गया, पता नहीं कैसे उसकी टीआरपी बढऩे लगती है, पता नहीं कब जाकर दर्शक चेतता है और फिर उसकी टीआरपी को घटाकर चिन्ताजनक स्थिति में लाता है, यह सब विचित्र सा खेल है। हम सब, हमारे परिवार इस खेल के प्रत्यक्षदर्शी रोज ही होते हैं। अपसंस्कृति फैलाते इन चैनलों और उनके धारावाहिक वास्तव में एक तरह का आतिशबाजियों का बाजार ही है। आपके लिए चकाचौंध फैलाती रोशनी है, फटाके हैं फुट, फिट से लेकर धड़ाम तक की आवाज देने वाले, जो गन्दा धुँआ आपका दम घोंटने के लिए निकलकर आपके कमरे को घुटन और दुर्गन्ध से भर दे रहा है, उससे बाहर आने का मन किसी का करता ही नहीं। इन धारावाहिकों के दृश्य, संवाद और भाषा की तो बलिहारी है।

खासतौर पर उत्तरपूर्वी बोली-बानी और परिवेश के धारावाहिकों में कलाकार जो संवाद बोलता है उसका बनावटीपन अजीब ही है। स्तरीयता की बात क्या कहें, देहाती बोली में यदि उर्दू शब्द आये तो कलाकार बखूबी नुक्ता भी लगाता है। क्षेत्रीय परिवेश के धारावाहिकों के कुछ नौटंकिया खलपात्र भी विचित्र सी आँखें बना-घुमाकर संवाद बोलते दिखायी देते हैं। हम है, तो बस कॉपी आँख मूँदकर जाँच रहे हैं, या जाँच भी नहीं रहे, पन्ने पलटते जा रहे हैं, नम्बर बढ़ते जा रहे हैं। पता नहीं कब तक अपना दम घोंटते रहेंगे, कब खिडक़ी खोलेंगे, कि धुँआ बाहर निकले।

चरित्र कलाकारों का कल और आज

हिन्दी सिनेमा का आज अपनी तरह की सीमाओं में बँधा है। याद रह जाने वाले किरदार अब दिखायी नहीं देते। जहाँ तक कलाकारों की अस्मिता का सवाल है, मुख्य कलाकार, नायक-नायिका को ही हमेशा अपनी क्षणभंगुरता का खतरा सताता है, चरित्र कलाकारों के लिए भला कोई कहाँ जगह निकालेगा? अब फिल्मों में घरेलू नौकर के रूप में ऐसा कोई बुजुर्ग दिखायी नहीं देता जो अकेले नायक की पिता की तरह चिन्ता करता हो, उसके देर से घर आने, खान-पान और आराम पर ध्यान न दे पाने के कारण उसको टोकता हो, नाराज होता हो। हमारे यहाँ अब परदे पर ऐसे भद्र नायक भी दिखायी नहीं देते जो नौकर को काका, बाबा या चाचा कहकर पुकारें।

आजकल की फिल्मों के नौकर और रसोइए नायक को फ्लर्ट करने के तरीके सिखाते हैं और उनकी इश्क फरमानी में अजीब सी ही भूमिका अदा करते हैं। स्वर्गीय बिमल राय की अविस्मरणीय फिल्म देवदास में नायक का घरेलू नौकर जिसकी भूमिका नजीर हुसैन ने निभायी थी, देवदास को बेटे की तरह चाहता है, प्रेम में उसकी दुर्दशा पर जार-जार आँसू बहाता है। इसी फिल्म का एक प्रभावी दृश्य है जब चन्द्रमुखी के यहाँ देवदास शराब के नशे में पड़ा है और नौकर उससे मिलने वहाँ जाता है उस समय दरवाजे से उसके अन्दर आते हुए दृश्य में नौकर और चन्द्रमुखी का आमना-सामना होता है, उस समय नौकर के चेहरे में चन्द्रमुखी के प्रति नफरत और देवदास की तिल-तिल मरती अवस्था का दुख बड़े सशक्त प्रभाव के साथ दिखायी देता है।

चरित्र कलाकार के रूप में अपने समय में मोतीलाल, रहमान, ओमप्रकाश, राज मेहरा, गजानन जागीरदार, डॉ. श्रीराम लागू, प्राण, ओम शिवपुरी, उत्पल दत्त, अशोक कुमार, अवतार कृष्ण हंगल, दुलारी, लीला मिश्रा, ललिता पवार आदि ऐसे नाम हैं जिनका फिल्म में होना बड़ा मायने रखता था। प्रख्यात फिल्मकार हृषिकेश मुखर्जी की कई फिल्मों में ललिता पवार को सहृदय स्त्री की भूमिकाएँ मिली थीं, तत्काल हमें आनंद और अनाड़ी याद आती है जबकि उनकी आम छबि एक क्रूर और नकारात्मक स्त्री के रूप में थी।

प्रकाश मेहरा निर्देशित शराबी फिल्म में ओमप्रकाश का चरित्र आज भी याद आता है जो अपने मालिक के बेटे को पिता से बढक़र स्नेह देता है। चरित्र अभिनेताओं ने एक जमाने में सचमुच यादगार फिल्मों में चरित्र गढऩे का असाधारण काम किया है। ऐसी बहुत सी फिल्में हैं जो हम उन किरदारों के माध्यम से याद करते हैं।

ऐसे अनेक किरदार भुलाए नहीं जाते जो फिल्म के कथ्य, विषय और दृश्यों में अपनी उपस्थिति से अपने मायने रेखांकित करते थे। आज उस मजबूती के कलाकार भी दिखायी नहीं देते और न ही ऐसे कलाकारों के लिए भूमिकाएँ ही लिखी जाती हैं।

मंगलवार, 28 सितंबर 2010

अमरबेल सी लता और अमृतकंठी स्वर

इक्यासीवें वर्ष में लता जी प्रवेश कर रही हैं, हम एक यशस्वी उम्र में अपने भारत के महान सांस्कृतिक गौरव को इस प्रकार देखकर मन में जिस तरह का सुख अनुभव कर रहे हैं वह अनूठा है। शायद उस अनुभूति की ठीक-ठीक अभिव्यक्ति करते हमको न आये क्योंकि लता जी के व्यक्तित्व और गरिमा के साथ-साथ स्वर-साधिका के कल्पनातीत विलक्षणपन के बारे में अब तक वक्त-वक्त पर बहुत बार लिखा गया है। उनके प्रति केवल फिल्मों पर लिखने वाले लेखक या जानकार ही पर्याप्त नहीं हुए हैं बल्कि उनकी वाणी को अनुभूत करके साहित्य की अनन्य विधाओं में लिखने वालों ने भी अपनी व्याख्या की है, अपने मुहावरे दिए हैं।

लता जी का जीवन, उनका संघर्ष, उनकी साधना, शनै: शनै: का परिमार्जन, एक-एक करके प्राप्त होने वाली उपलब्धियाँ, मान-सम्मान और यश तथा भारतभूमि को गौरवान्वित करने वाली विश्वव्यापी प्रतिष्ठा के प्रति कितनी ही व्याख्याएँ हमारी निगाहों से गुजरी हैं। महान यश किसी भी गरिमापूर्ण और धरा से अटूट सम्बद्धता रखने वाले व्यक्तित्व को कितना सरल, कितना सहज और कितना सुसंस्कृत बनाते हैं, यह लता जी को देखकर हम हमेशा महसूस करते हैं। एक पूरा जीवन नितान्त सर्जना के लिए समर्पित हो, अपनी वाणी से सभी को खुशियाँ और सुख ही बाँटा हो, जिन्दगी जीने की प्रेरणा दी हो, प्रेम करना सिखाया हो, नैतिक होने का मार्ग बतलाया हो, कल्पनाओं में एक खूबसूरत दुनिया की छबि सजीव बनाकर सामने रखी हो, यह सब एक आवाज ने हमारे सौ साल के समय में करके दिखाया है।

यह कितनी महत्वपूर्ण बात है कि देश का शायद ही ऐसा कोई प्रतिष्ठित और गरिमापूर्ण सम्मान होगा जो लता जी को न मिला हो। ऐसा लगता है कि बहुत से सम्मानों ने उनसे जुडक़र ही अपने होने की सार्थकता पायी है। भारतीय सिनेमा की शताब्दी बराबर की परम्परा में लता जी का स्वर कितनी ही नायिकाओं के चेहरे और अधरों से उनकी आवाज बनकर प्रस्फुटित होता रहा है। लता जी ने कभी किसी नायिका का चेहरा देखकर नहीं गाया मगर हर नायिका पर उनका गाया गीत ऐसा फबा जैसे वह उस नायिका की ही आवाज हो। ऐसी बहुत सी छोटी-छोटी चीजें ध्यान आती हैं जिनमें से लता जी के व्यक्तित्व और कला के आयामों को हम जान पाते हैं।

दिलीप कुमार जैसे भारतीय सिनेमा के महानायक जब लगभग चार दशक पहले लन्दन के अल्बर्ट हॉल में लता जी के पहले कन्सर्ट के समय उनका परिचय अपनी बहन कहकर कराते हैं जो जैसे पूरी दुनिया सुनती है। लता जी भारतीय संस्कृति, परम्परा और हमारी अस्मिता की एक अनमोल धरोहर हैं, हमें ईश्वर से उनकी शतायु की प्रार्थना करके उनको अपनी शुभकामनाएँ देना चाहिए।

सोमवार, 27 सितंबर 2010

तुम्हारा चेहरा

अजनबियों की इस चहल-पहल में
ढूँढती हैं आँखें
एक तुम्हारा चेहरा
फिक्रमंद सा
बाट जोहते हुए
न जाने किसकी
मेरी शायद

बड़ी रात हो गई है
इस शहर में
और मैं खड़ा
अपने आसपास के मेलों में
अकेला, एकाकी

बहुत से लोग दीखते हैं
दूर से आते हुए
सिवा तुम्हारे
एक दिन तुम भी आना
बड़ी पीछे से
इस भीड़ को हटाते हुए
मेरी तरफ
मेरी ओर
मेरे पास

तुम बखूबी जानती हो
मेरे मौन निमंत्रण
बड़े दिनों जो धीमी साँस लेते रहे
तुम्हें देखते हुए
पलकें झपकाए बिना
इस भरोसे कि
नयन तुम्हारे कभी न कभी
करेंगे ही आचमन
ढाई बूँदों का

हूँ खड़ा मैं
इस तरफ की भीड़ में भले
उस तरफ की भीड़ को निहारते हुए
चीन्ह लूँगा मैं इधर से चेहरा अपना
भूल न जाना तुम भी उधर से
आ रही हो इस तरफ तो
चेहरा अपना.....

रविवार, 26 सितंबर 2010

देर मगर दुरुस्त आने की चाह

साल पूरा होने में तीन माह शेष हैं। सिनेमा के मामले में खास तीन फिल्मों के लिए जाना जायेगा यह साल। लाभ और प्रभाव की वरीयता क्रम में दबंग, थ्री ईडियट्स और राजनीति के नाम आते हैं। तीन-चार और सफल फिल्में हैं मगर उनके नाम इन फिल्मों के बाद ही लिए जाएँगे जिनमें अजब प्रेम की गजब कहानी, पीपली लाइव आदि फिल्में शामिल हैं। इस साल शाहरुख खान एक तरह से स्पर्धाओं से बाहर ही रहे। यदि वे फराह खान का उनके पति शिरीष कुन्देर की ओर से किया अनुरोध स्वीकार लेते तो निश्चित ही दिसम्बर में प्रदर्शित होने वाली तीस मार खाँ अक्षय के बजाय उनकी फिल्म होती।

आमिर खान ने इस पूरे साल को अपनी तीन फिल्मों के माध्यम से कवर करके रखा है जिनमें थ्री ईडियट्स जाहिर तौर पर, पीपली लाइव निर्माता और प्रस्तुतकर्ता के रूप में और अब आने वाली धोबी घाट नायक की तरह, और खासकर पत्नी किरण राव की फिल्म। सलमान ने एक दबंग से दबंगई दिखा दी अपनी। शाहरुख खान भरपूर ऊँचाई तक जाकर अपनी रोशनी और तेज धमाके से आकाश गुंजा देने वाली इन आतिशबाजियों को चुपचाप दे रहे हों ऐसा नहीं है। वे अपनी महात्वाकांक्षी फिल्म रा डॉट वन को भरपूर चिन्ता, भरपूर वक्त और भरपूर एकाग्रता दे रहे हैं। अनुभव सिन्हा, शाहरुख और गौरी खान के लिए इस फिल्म को निर्देशित कर रहे हैं। अशोका के बाद करीना एक बार फिर शाहरुख की नायिका हैं। अर्जुन रामपाल, ओम शान्ति ओम के बाद शाहरुख कैम्प की यह फिल्म भी कर रहे हैं।

एक अरब रुपए लगभग बजट की यह फिल्म अमरीकन पटकथाकार डेविड बेनुलो की स्क्रिप्ट पर बन रही है।

शाहरुख खान ने अपने कैरियर के अब तक के सबसे खतरनाक स्टंट इस फिल्म के लिए किए हैं। चीनी-अमरीकी कलाकार टॉम वू इस फिल्म का एक प्रमुख आकर्षण हैं जिनके साथ काम करके शाहरुख बहुत उत्साहित हैं। पिछले दिनों शाहरुख खान ने मीडिया में एक बात यह कही कि वे यह फिल्म अपने पिता को डेडिकेटेड करने जा रहे हैं। लेकिन इस बात के साथ उन्होंने एक बात यह भी जोड़ी कि हमारे यहाँ फिल्में पिता को कम डेडिकेट की जाती हैं, गाने भी उन पर कम ही होते हैं, ज्यादातर फिल्में और गानों में माँ को प्रमुखता दी जाती है। वे स्वयं भी ऐसा करते रहे हैं मगर रा डॉट वन उनकी अपने पिता के प्रति आदरांजलि होगी।

इस फिल्म की शूटिंग साल के अन्त तक पूरी होगी फिर छ: महीने का समय पोस्ट प्रोडक्शन में लगेगा। मुम्बई, गोवा के साथ ही मियामी, लन्दन में फिल्म का बड़ा हिस्सा शूट हुआ है। दर्शकों तक रा डॉट वन अगले साल जून में ही पहुँच पाएगी।

मेरा गाँव मेरा देश

राज खोसला की अब से लगभग चालीस साल पहले आयी फिल्म मेरा गाँव मेरा देश, कहानी, पात्रों का अभिनय, गीत-संगीत और कसे निर्देशन की वजह से खासी सफल रही थी। इस फिल्म का प्रदर्शन काल 1971 का है। यह वह समय था जब भारतीय सिनेमा के सदाबहार सुपर सितारे धर्मेन्द्र की लोकप्रियता चरम पर थी। उनकी पिछली फिल्में रामानंद सागर निर्देशित आँखें और ओ.पी. रल्हन निर्देशित फूल और पत्थर को बड़ी व्यावसायिक सफलताएँ मिली थीं और इण्डियन जेम्सबॉण्ड के रूप में धर्मेन्द्र को सिनेमा के प्रचार माध्यमों में खूब प्रचारित किया जाता था। धर्मेन्द्र की तुलना उनसे पहले के किसी सितारे से नहीं होती थी, बाद में बहुत से सितारों की तुलना उनसे जरूर की जाती थी।

मेरा गाँव मेरा देश फिल्म उस दौर में बनी थी जब चम्बल के बीहड़ों से लेकर देश के दूसरे उत्तरपूर्वी राज्यों में डाकुओं का बड़ा आतंक था। उस दौर की ऐसी फिल्मों में सुनील दत्त, विनोद खन्ना और स्वयं धर्मेन्द्र भी डाकुओं के किरदार में खूब पसन्द किए जाते थे मगर इस फिल्म में धर्मेन्द्र हीरो थे। इस फिल्म का नायक अजीत परिस्थितियों की वजह से छोटी सी उम्र से ही चोरी करने लगता है और आये दिन सजा काटता है। एक बार वह चोरी करके भाग रहा होता है, तभी एक रिटायर्ड फौजी उसे पाँव मारकर गिरा देता है और पुलिस के हवाले करता है। यही फौजी बाद में उसे छुड़ाकर अपने घर भी ले आता है और वह सुधर सके और गाँव में आये दिन बरपने वाले डाकुओं के आतंक से मुक्ति दिला सके, इस इरादे से अपने यहाँ रख लेता है।

अजीत, पहले तो फौजी से बहुत चिढ़ता है मगर धीरे-धीरे उसके मन में उसके प्रति आदर पनपता है और फौजी को वह अपने अविभावक की तरह मानने लगता है। अजीत का, गाँव की लडक़ी अंजू से प्रेम भी हो जाता है। इस गाँव में लूटमाट और हत्या के अनेक अपराध आये दिन डाकू जब्बर सिंह और उसके गिरोह के डाकू करते हैं। अजीत इन डाकुओं के खिलाफ पूरे गाँव वालों को संगठित करता है और उसका बहादुरी से मुकाबला करके उस आतंक को समाप्त करता है।

मेरा गाँव मेरा देश की एक सबसे बड़ी खासियत उसका पूर्णत: मनोरंजक होना था, वहीं भावुकता के स्पर्श भी फिल्म से दर्शकों को जोड़ते हैं। एक विक्षिप्त बुजुर्ग महिला का अजीत को बेटा मानना और बेटा कहकर बुलाना ऐसा ही प्रसंग है। नायक अजीत के नायिका अंजू को लुभाने के प्रसंग भी दिलचस्प हैं। सोना लइजा रे चांदी लइजा रे, कुछ कहता है ये सावन, मार दिया जाए या छोड़ दिया जाए गाने आज भी याद रहते हैं।

धर्मेन्द्र एक बहादुर नायक के रूप में टक्कर की मारधाड़ डाकू जब्बर सिंह बने विनोद खन्ना से करते हैं तो दर्शक सिनेमाहॉल में जमकर तालियाँ बजाया करते थे। हाँ रिटायर फौजी जसवन्त सिंह बने जयन्त का अन्दाज भी गजब प्रभावी फिल्म में नजर आता है।

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

टैगोर के एक सौ पचासवें साल में

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर का एक सौ पचासवाँ जन्मवर्ष मनाया जा रहा है। एक महान कवि, रचनाकार की स्मृति के इस यशस्वी वर्ष में उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व का सार्थक पुनरावलोकन हो, ऐसे प्रयत्न होने चाहिए। रस्मी तौर पर अवसरों को मानने-मनाने का हमारे यहाँ रिवाज हो गया है। बौद्धिक विचारों में इतनी भिन्नता और असहमतियाँ होती हैं कि सार्थक काम न तो शुरू हो पाते हैं और न ही सामने आ पाते हैं। ऐसे में इस तरह के अवसरों को मनाने के लिए तय पूँजी और कार्यकलाप बहुत ज्यादा फलीभूत या स्थायी महत्व की सार्थकता हासिल नहीं कर पाते, लिहाजा वक्त आता और चला जाता है।

भारतीय सिनेमा के शीर्षस्थानीय फिल्मकार स्वर्गीय सत्यजित रे ने गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की जन्मशताब्दी के अवसर पर 1961 में उनकी तीन कहानियोंं पर तीन कन्या शीर्षक तीन लघु फिल्में बनायीं थीं। इसका अंग्रेजी रूपान्तरण थ्री डॉटर्स नाम से भी किया गया था। इसमें पहली फिल्म पोस्टमास्टर थी, दूसरी फिल्म मोनिहार और तीसरी फिल्म समाप्ति थी। रे ने ही घरे-बाइरे और चारुलता भी गुरुदेव के कृतित्व पर बनायी थीं जो बहुत मर्मस्पर्शी और गहरा प्रभाव छोडऩे वाली फिल्में थीं। सत्यजित रे ने रवीन्द्रनाथ टैगोर पर एक लघु फिल्म बनाकर भी एक सर्जक के रूप में उनके प्रति अपना आदर व्यक्त किया था। गुरुदेव पर यह एकमात्र ऐसी लघु फिल्म है जिसकी चर्चा आज भी की जाती है।

बंगला फिल्मकारों को टैगोर के व्यक्तित्व और कृतित्व से श्रेष्ठ सृजन की अनेक प्रेरणाएँ मिली हैं। तपन सिन्हा की फिल्म काबुलीवाला एक चर्चित फिल्म थी वहीं बिमल राय की फिल्म काबुलीवाला बलराज साहनी के यादगार अभिनय के लिए आज भी जानी जाती है। इसका निर्देशन हेमेन गुप्ता ने किया था। काबुलीवाला पर और भी फिल्में बनी हैं मगर तपन बाबू की फिल्म को लोग संवेदना और मन को छू लेने वाले धरातल पर लोग ज्यादा याद करते हैं। यह बड़ा भावनात्मक तथ्य है कि रवीन्द्रनाथ टैगोर को गुरुदेव कहकर गांधी जी सम्बोधित किया था वहीं गांधी जी को महात्मा कहकर टैगोर ने महात्मा गांधी नाम से चिर-परिचित कराया। सत्यजित रे की फिल्मों की एक प्रमुख कलाकार माधवी मुखर्जी उनकी उन फिल्मों की नायिका थीं जो गुरुदेव की कृतियों पर बनी थीं।

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के सृजनशील व्यक्तित्व की प्रेरणाएँ ही ये कही जाएँगी कि हमारे सिनेमा के सलिल चौधुरी, हेमन्त कुमार, सचिन देव बर्मन जैसे अविस्मरणीय संगीतकारों ने रवीन्द्र संगीत के चमत्कारिक प्रयोग से अनेक फिल्मों के गानों को यादगार बना दिया। आज के समय में हम उस सृजन को इस तरह याद कर पाते हैं यही बड़ी अहम बात है अन्यथा यह सब अब तो बड़ा दुर्लभ है, फिर भी यह लगता है कि जिस तरह सत्यजित रे ने टैगोर की जन्मशताब्दी पर उनको एक बड़ी आदरांजलि दी थी, आज हमारे समकालीन फिल्मकार क्या ऐसा करने का साहस जुटा सकते हैं? आज भी टैगोर के गोरा जैसे उपन्यास पर एक अहम फिल्म बन सकती है।

गुरुवार, 23 सितंबर 2010

मानसिक अराजकता और विस्मृत मूल्य

कुछ दिन पहले ही एक समाचार ने हतप्रभ कर दिया। वैसे तो हर दिन अखबार में हतप्रभ करने वाले कई समाचार होते हैं मगर इस समाचार की तासीर कुछ ऐसी थी कि तत्काल ही महान फिल्मकार व्ही. शान्ताराम की फिल्म दो आँखें बारह हाथ याद आ गयी। घटना जोधपुर की थी। एक कैदी ने जो कि जेलर के प्रति घात लगाकर बैठा था, मौका पाते ही हत्या कर दी। हत्या के पीछे कारण क्या थे, उनकी तह में जाना अलग विषय है। जाँच होगी तब पता चलेगा कि ऐसा क्यों हुआ, जाने सच कारण क्या होंगे, सामने लीपापोती के बाद क्या आयेगा। बहरहाल एक दुर्दान्त घटना ने मन को देर तक अशान्त किए रखा।

जेल में अपराधी अपने गुनाहों की सजा काटने आते हैं। कितने प्रायश्चित भाव से आते हैं और कितने ठसक के साथ ये दूसरे विषय हैं मगर जेल की अवधारणा के पीछे सुधार मुख्य उद्देश्य ही रहा है। किसी जमाने में जब सामाजिक प्रतिबद्धता का ही सिनेमा बना करता था तब ही व्ही. शान्ताराम ने दो आँखें बारह हाथ इसी विषय को लेकर बनायी थी। इसमें तो एक बड़ा साहसिक प्रयोग था कि जेलर छ: भयानक अपराध की सजा काट रहे गुनहगारों के जीवन में बदलाव लाने की चुनौती खुद उठाता है। वह बड़े अधिकारियों से अनुमति प्राप्त कर एक निर्जन स्थान में रहकर सबको नैतिकता की शिक्षा देता है। यह फिल्म विलक्षण थी। आज के बाजारू सिनेमा की तरह कहानी नहीं थी कि अपराधी जेलर को धोखा देकर या उसकी हत्या करके भाग जाएँ।

उस फिल्म में एक दृश्य है जिसमें दाढ़ी बनाते हुए एक अपराधी जेलर के गले में एक जगह उस्तरा रोककर उसकी गरदन रेतने का ख्याल मन में लाता है मगर नैतिकता के आत्मबोध की वजह से ही उसके हाथ काँपने लगते हैं और वह अपना इरादा जेलर के सामने जाहिर करके उसके पैर पकड़ लेता है। दुश्मन फिल्म में राजेश खन्ना की सजा में उस परिवार की जिम्मेदारी सम्हालने की बात आती है जिसका मुखिया उसके ट्रक के नीचे दब कर मर जाता है। फिल्म का अन्त, दुश्मन दुश्मन जो दोस्तों से प्यारा है, के भाव को प्रमाणित करता है।

बाद में हमारे यहाँ जो सिनेमा बना, शोले और कर्मा जैसा उसमें तो जेलर ने अपने निजी प्रतिशोध के लिए अपराधियों को धन और प्रलोभन देकर अपने पक्ष में इस्तेमाल किया। हो सकता है शोले बहुत महान फिल्म हो मगर दो आँखें बारह हाथ के सामने कहीं नहीं ठहरती। मानसिक अराजकता और विस्मृत मूल्यों में ऐसे अच्छे-बुरे सिनेमा की आवाजाही जेहन में अचानक ही होने लगती है।

खुश्क हवा तंग नमी फूल कैसे खिलें

सामने मुँह फेरे हुए हैं अपने देखो
गैरों से कहाँ किये जाते हैं गिले

सवाल नज़रों का है दूर-पास की
पहचान न पाए हम जब-जब मिले

दरख़्त साँस भी नहीं लेते अब तो
शाख जन्मों से स्थिर पल भर न हिले

उनके एहसास हो चले बे-परवाही के
खुश्क हवा तंग नमी फूल कैसे खिलें

वक़्त अपनी नजाकत पर परेशान सा
जख्म उनके दिए कहाँ जा कर सिलें

बुधवार, 22 सितंबर 2010

मुकाबले के पहले ही शरणागत

फिल्मों के समाचार देने वाला मनोरंजन चैनल एक दिन इस बात को बता रहा था कि इस बार प्रदर्शित होने वाली रणबीर कपूर और प्रियंका चोपड़ा स्टारर फिल्म अन्जाना अन्जानी के प्रमोशन में रणबीर कपूर कोई रुचि नहीं दिखा रहे हैं। वे प्रचार से गायब हैं। इसका कारण यह बताया गया कि सलमान खान की फिल्म दबंग ने ऐसी हाइप क्रिएट कर ली है कि अब फिलहाल उसको टक्कर देने की बात सोची भी नहीं जा सकती। देश के सिनेमाघरों में जहाँ-जहाँ दबंग फिल्म लगी है वहाँ से भीड़ कम होने का नाम ही नहीं ले रही।

जो एक बार भी न देख पाए वे टिकिट हासिल करने में जी-जान एक किए हुए हैं और जो देख आये हैं उनका एक बार से जी नहीं भरा है। वो भी मैदान में आगे हैं। ऐसी जबरदस्त कामयाबी के बीच अन्जाना अन्जानी के प्रदर्शन की तिथि सुनिश्चित हो जाने और निर्माता द्वारा उसे तय समय में प्रदर्शित करने के शगल पर उनका उत्साह फीका पड़ गया है। रणबीर का यह मानना है कि उनकी फिल्म कोई एक्स्ट्रा-ऑडिनरी नहीं है जो भरपूर व्यावसायिक सफलता प्राप्त करे या दबंग के मुकाबले उतर सके। इसीलिए मुकाबले से पहले ही शरणागत वाला भाव है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं मानना चाहिए कि रणबीर ऐसा करके रणछोड़ वाली इमेज बनाना चाहते हैं।

वे दरअसल अपने परिवार और अपने परिवार से सलमान के परिवार की घनिष्टता और रिश्तों को लेकर यह समझदारी बरत रहे हैं। वे सलमान खान की उदारता के कायल हैं। उनको पता है कि सलमान उन्हें कितना चाहते हैं। रणबीर अभी भरपूर युवा हैं, इस अवस्था में भी यह सूझबूझ रिश्तों को और प्रगाढ़ ही करेगी। अन्जाना अन्जानी को वो एक हल्की-फुल्की रोमांटिक फिल्म मानते हैं जो शायद राजकुमार सन्तोषी की फिल्म अजब प्रेम की गजब कहानी से बढक़र भी नहीं है। इसलिए यदि वे इस फिल्म को लेकर बहुत ज्यादा उत्साह प्रदर्शित नहीं कर रहे तो इसका उनको कोई मलाल भी नहीं है। उनको इस बात का विश्वास है कि धीरे-धीरे मिली कामयाबी से उनका अपना दर्शक वर्ग भी तैयार हुआ है जो उनकी फिल्मों का समर्थन करता है।

रणबीर इस बात के लिए आश्वस्त हैं कि उनके अपने दर्शक बावजूद प्रियंका के साथ उनके पहली बार काम करने के, उनके काम को देखने के लिए आ ही जाएँगे। दर्शक का जहाँ तक सवाल है, तो बात यह भी है कि अब वो रणबीर की नयी जोड़ी किस के साथ बनेगी, इस बात पर ज्यादा दिलचस्पी लेने लगा है।

ऐसी शाम के रंग में रंग जाने का मन है

ऐसी खूबसूरत शाम पहले कभी न थी
आज इस शाम को रोक लेने का मन है

ऐसा लगता है खूब बन-सँवर कर आई
दूर खड़े रहकर चुप देखते रहने का मन है

पहले कभी ध्यान से देखा नहीं इसका चेहरा
आज चेहरे से इक पल नज़र न हटाने का मन है

इसके ताम्बई रंग पर फिदा हो गए पंछी सारे
पंछी बन उड़कर दूर से निहारने का मन है

क्या कहूँ आज तबीयत भी खूब हुई शायराना
ऐसी शाम के रंग में रंग जाने का मन है

मंगलवार, 21 सितंबर 2010

दादामुनि की जन्मशताब्दी का साल

अच्छा और दुर्लभ सिनेमा खरीदकर पास रखने और देखने के शगल के वशीभूत ही इन्दौर के एक बड़े शॉपिंग मॉल में जाना हुआ। डीवीडी और सी.डी. की अच्छी दुकानें हम जैसों के लिए किसी अड्डे से कम नहीं होतीं जहाँ जाकर सिनेमा के दीवाने अपनी रुचि-अभिरुचि के लिए झपटने, झपट्टा मारने और लुट जाने के लिए भी तैयार रहते हैं, बशर्ते मनचीता सिनेमा मिल जाए। तो ऐसे ही एक मौके पर जाना हुआ, वहाँ एक ऐसा ढेर भी था, जहाँ पन्द्रह-पन्द्रह रुपए में सी.डी. बिकने के लिए ढेर पड़ी थीं। उन्हीं ढेर में दादामुनि अशोक कुमार की दो दुर्लभ फिल्में मिलीं, एक सत्येन बोस की बन्दिश और दूसरी फिल्म थी राखान (सी.डी. में आर.ए.के.एच.ए.एन. एक साथ ही लिखा है) की कल्पना।

बन्दिश फिल्म में मीना कुमारी, बिपिन गुप्ता, नजीर हुसैन, सज्जन, शम्मी और मेहमूद थे। यह फिल्म 1955 की थी। बन्दिश एक ऐसी बच्ची की कहानी है जो अपने पिता की तलाश में है। वह अशोक कुमार को अपना पिता मानने लगती है मगर अशोक कुमार जिन्दगी की एक दूसरी आफत में है। यह एक दिलचस्प मगर संवेदनशील हास्य फिल्म है। कल्पना में पद्मिनी, रागिनी, अचला सचदेव और सुन्दर थे। यह फिल्म 1960 में बनी थी। कल्पना के निर्माता स्वयं अशोक कुमार थे। कल्पना, दुनिया में अपनी सजगता और संजीदगी के साथ हैसियत और रसूख अर्जित करने के ख्वाब वाली फिल्म थी। दोनों ही फिल्में हेमन्त कुमार और ओ.पी. नैयर जैसे बड़े संगीतकारों के संगीत से सजी।

अशोक कुमार की इन दुर्लभ फिल्मों को खरीदकर इसलिए भी देखना अच्छा लगा क्योंकि यह उनकी जन्मशताब्दी का साल होगा। यह विचित्र ईश्वरीय विडम्बना ही कही जाएगी कि 13 अक्टूबर की जो तारीख उनके जन्मदिन की है, उसी दिन उनके छोटे भाई किशोर कुमार का निधन हुआ था। सत्तासी का वह साल था जब छिहत्तर साल के दादामुनि का यह सदमा झेलना पड़ा था। जीवनभर यह दुख उनको सालता रहा।

आने वाली 13 अक्टूबर से उनकी जन्मशताब्दी आरम्भ होगी जो एक साल तक चलेगी। भारतीय सिनेमा में अशोक कुमार की यशस्वी उपस्थिति एक शताब्दी बराबर है। 1911 में उनका जन्म हुआ। बेइन्तहाई आकर्षक, सम्मोहक छबि, मादक मुस्कान और आवाज़ तथा अपनी खिलखिलाहट से मोहित कर देने वाले अशोक कुमार बहुत लम्बे समय तक काम किया। यह महानायक अपने आपमें विलक्षण रहा है। चरित्र अभिनेता के रूप में भी उनकी उपस्थिति बड़ी यशस्वी मानी जाती है।

अशोक कुमार का जिक्र यों बहुत थोड़े में किया जाना मुमकिन नहीं है। जब उनकी शताब्दी आरम्भ होगी तब वक्त-वक्त पर उन पर अनेक आयामों के साथ चर्चा करेंगे। वे स्वयं तो रांची में जन्मे थे मगर उनके माता-पिता मध्यप्रदेश में खण्डवा आकर बस गये थे। छोटे भाई किशोर कुमार का जन्म खण्डवा में ही हुआ।

दुख न पहुँचाना

उन अंधेरों में दोबारा फिर नहीं जाना
स्याह ऊष्मा में एक पल भी न बिताना

ज़िंदगी के मोल एक बार और समझ लेना
अनजाने बियाबाँ से जोड़ना न रिश्ता पुराना

ऐसी ज़िद की न जाए खुद अपने से
जिस ज़िद में अवसाद कोई जागे सयाना

खूबसूरत रंगों की पहचान तुम्हें बखूबी है
चुने रंगों को फिर कभी दुख न पहुँचाना

बिन बताए दूर बहुत न जाओ ऐसे कि
मुश्किल हो जाए आवाज़ देकर वापस बुलाना

फराह खान के सुरक्षित जोन

ऐसा लगता है कि फराह अपने लिए सुरक्षित जोन की तलाश में हैं। अपने शिरीष कुन्देर के लिए तीस मार खाँ बनाने में पत्नी धर्म निभाते हुए उनके सामने कुछ मुसीबतें आयी लगती हैं मगर जैसा कि उनकी शख्सियत से जाहिर है, वे जीवट महिला हैं और अपने काम में उतनी ही दक्ष और बहादुर इसलिए वे अपने आपके लिए मुकम्मल संकट नहीं मानतीं। कुछ कठिनाइयाँ जरूर उनको सम्भवत: पेश आ रही हों लेकिन उसके बावजूद उनके लिए रास्तों की उतनी कमी नहीं है। हाँ ये बात जरूर है कि कहीं कोई यह गा रहा हो, दोस्त दोस्त न रहा।

फराह खान ने फिल्म जगत में अपनी जगह बनाने के लिए बेहद संघर्ष किया है। एक कोरियोग्राफर के रूप में उनकी यात्रा अनुभवों से भरी है। निश्चित रूप से वे प्रतिभाशाली भी हैं और हिन्दी फिल्मों में अपनी विशेष ढंग की कोरियोग्राफी के लिए जानी भी जाती हैं। सरोज खान का सितारा धूमिल पडऩे के बाद फराह खान ही एकमात्र ऐसी कोरियोग्राफर हैं जो दृश्य में हमेशा बनी रही हैं। अपने आपमें उनकी भी कम सितारा छबि नहीं है। शाहरुख खान की फिल्मों की कोरियोग्राफी करते हुए उनमें न केवल अच्छी मित्रता हुई बल्कि एक सच्चे हमदर्द और प्रोत्साहक के रिश्ते भी बने। शाहरुख की इच्छाओं से ही फराह मैं हूँ ना और बाद में ओम शान्ति ओम की निर्देशक बन पायीं। जाहिर है ये फिल्में अच्छी भी थीं और सफल भी।

ओम शान्ति ओम के बाद फराह अगला काम क्या करने वाली हैं, यह निर्णय होने में अभी देर थी कि शिरीष, ने तीस मार खाँ की कहानी फराह को थमाकर निर्देशन की बात की। नायक, शाहरुख खान हों, यह तय किया जाना था। प्रयास हुए मगर जाने क्यों शाहरुख खान तीस मार खाँ न बन पाए। यह लॉटरी अक्षय के नाम इस करार के साथ लगी कि सहनिर्माता अक्षय की पत्नी ट्विंकल होंगी। आर्थिक जोखिम आधे हो जाने के बाद फिल्म बनने लगी और अब प्रदर्शन की तैयारी है। सुना जा रहा है कि फिल्म दिलचस्प बनी है। फराह की पहल पर ही इस फिल्म में सलमान खान भी एक फ्रेण्डली भूमिका करने को तैयार हो गये। शाहरुख और फराह के बीच एक स्पेस बनाने में ये खबरें अपनी तरह से भूमिकाएँ अदा करेंगी।

इस बात की सम्भावना भी इधर प्रबल हो गयी है कि सलमान भी फराह के निर्देशन में बनने वाली अगली फिल्म में काम करें। यह सब हुआ तो शाहरुख शायद फराह के तारतम्य में असहज महसूस करें। जहाँ तक फराह खान का सवाल है, वो अब अपने पाँव चलने बल्कि दौडऩे में भी सक्षम हैं सो हो सकता है, उनकी सेहत पर कोई असर न भी पड़े।

सोमवार, 20 सितंबर 2010

पौधे उम्मीदों के कैसे मुरझाए

अपनी नींदों को अलविदा कह कर
राह में बैठे रहे पलकें बिछाए
आपकी बाट जोहते रहे कब से
वादा करके आप फिर नहीं आए

हम हवाओं को रोके बैठे थे
इंतज़ार था हमें आपके आने का
छीने हुए थे निगाहों के आराम सारे
हमको डर था नहीं ज़माने का

अपनी साँसों को थामे बैठे रहे
आपकी खातिर किसी और से नहीं मुसकाए
खुद ही आकर यहाँ देखिए ज़रा
पौधे उम्मीदों के कैसे मुरझाए

रविवार, 19 सितंबर 2010

यह पुरस्कार दरअसल ऑरो का है

अमिताभ बच्चन को इस बार पा फिल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान किए जाने की घोषणा हुई है। अब तक तीन बार हो गये हैं उनको अभिनय के लिए ऐसी मान्यता पाने के। जाहिर है, महानायक खुश हैं मगर बात वही है, अभिव्यक्ति अपने ब्लॉग के मार्फत ही। फिर उस ब्लॉग से अखबारों ने खबर बनायी और पाठकों तक पहुँचायी जो जाहिर है उनके दर्शक भी हैं। अमिताभ बच्चन की हर बात या तो ट्विटर के जरिए आती है या ब्लॉग के जरिए। सीधी बात की स्थितियाँ अब लगभग नहीं के बराबर रह गयी हैं। माध्यम सीधे अमिताभ से संवाद नहीं कर पाते या अमिताभ माध्यमों से सीधे संवाद नहीं कर पाते, जो भी हो कई वर्षों से नाक घुमाकर ही पकड़े जाने का चलन इन मायनों में होकर रह गया है।

अमिताभ बच्चन ऐसी शख्सियत हैं, हमेशा ही, कि उनका फोटो, उनसे जुड़ी खबर हमेशा हर माध्यम का आकर्षण बनती है। इस आकर्षण की तलाश भी माध्यमों को हमेशा रहती है लेकिन रास्ता सीधा नहीं है, घूमकर जाता है, खबरें और जानकारियाँ इसी वजह से लम्बे रास्ते से होकर हम तक आती हैं। देश अखबार में पढऩे के पहले जान चुका होता है, अमिताभ के ब्लॉग और ट्वीट के जरिए कि वे क्या कह रहे हैं। अगले दिन सुबह सभी अखबारों ने इन जगहों से उधार लिया छापा होता है। इस बात पर जरा गौर किया जाना चाहिए। महानायक यदि अखबारों की अपरिहार्यता है तो जीवन्त संवाद स्थापित करने के रास्ते बन्द नहीं होने देना चाहिए।

अमिताभ बच्चन को जब कभी भी ऐसे किरदार मिले हैं जिनमें गहरे उतरने की चुनौती आसान नहीं होती, उसमें वे अपना सब कुछ लगा देते हैं। जिस तरह का किरदार उन्होंने संजय लीला भंसाली की फिल्म ब्लैक में निभाया था, जिस तरह का किरदार उन्होंने बाल्कि की फिल्म पा में निभाया है, उस किरदार में उतरना बेहद तनाव से भरा होता है। व्यक्तिश: मुझे लगता है कि ब्लैक का उनका चरित्र काफी जटिल था। पूरे मानस को झकझोरकर रख देने वाला। उसे जीकर निश्चय ही श्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार उनको ही मिलना था। उस काल में जाहिर है यह पुरस्कार किसी और को मिल भी नहीं सकता था।

पा का किरदार जटिल होने के बावजूद दिलचस्प है। इस फिल्म का ऑरो, अपने मस्तिष्क का इतना वजन सम्हालकर, जिन्दगी को संक्षिप्त और सीमित आवृत्ति में जीते हुए भी निराश नहीं है। जीवन को इतने संक्षेप में, इतनी जिजीविषा के साथ जीना ही पा के ऑरो की खासियत है। अमिताभ बच्चन सचमुच ऑरो को जीते हुए अपनी लोकप्रिय छबि में जरा भी पहचाने नहीं जाते।

शनिवार, 18 सितंबर 2010

अनुपमा : या दिल की सुनो दुनियावालों....

अनुपमा, हृषिकेश मुखर्जी की एक यादगार फिल्म है जिसका प्रदर्शन काल 66 का है। मुख्यत: तो यह कहानी एक पिता और बेटी की है जिनके बीच असाधारण दूरियाँ हैं। एक घर में रहने के बाद भी पिता की नफरत और बेटी की चुप्पी उन दूरियों को पाट नहीं पाते। यह एक ऐसे इन्सान की कहानी है जो अपनी पत्नी से बहुत प्यार करता है। पत्नी भी अपने पति को दिलो-जान से चाहती है। बड़ी बेसब्री से उसके घर लौटने का इन्तजार करती है। वह पियानों पर एक खूबसूरत गाना भी गाती है, धीरे-धीरे मचल, ऐ दिले बेकरार कोई आता है.....। इसी गाने में बीच की एक लाइन कितना मन को छू जाती है, देखिए, रूठ कर पहले जी-भर सताऊँगी मैं, जब मनाएँगे वो मान जाऊँगी मैं।

खुशी और प्यार से भरी इस दुनिया को एक हादसा उजाड़ देता है। पत्नी माँ बनने वाली है। वह एक बेटी को जन्म देती है किन्तु जन्म देने के बाद ही उसकी मृत्यु हो जाती है। मन को झकझोरने वाले दृश्य हैं इस फिल्म में। पत्नी की मृत्यु हो गयी है और उसी सन्नाटे में बेटी के रोने की आवाज आती है। पिता मन ही मन अपने दुख और इस हादसे का कारण बेटी को मानता है। बेटी का जन्मदिन आता है और पिता को अपनी पत्नी के नहीं रहने का दिन याद आता है। इस उपेक्षा के कारण ही बेटी सदा चुप रहती है। ऐसे में उसके जीवन में एक लेखक आता है जो उसके मन और चुप्पी में झाँकने की कोशिश करता है। यह नायक, इस युवती के खोए-खोए, शान्त चेहरे में अपने उपन्यास की नायिका अनुपमा को तलाश करता है। नायक उसे इस नाम से बुलाता भी है। यह उपन्यास वास्तव में एक नयी दुनिया रचता है। नायक अशोक, नायिका उमा के जीवन में आखिरकार मुस्कराहट लाने में सफल होता है। वह उमा से विवाह करना चाहता है मगर पिता यह नहीं होने देना चाहते।

फिल्म के अन्त में जब नायक अकेला लौट रहा होता है तो नायिका उसके पास आ जाती है, साथ चलने के लिए। फिल्म के अन्त में पिता का मौन प्रायश्चित और आँखों से बहते आँसू बहुत कुछ कह जाते हैं। फिल्म मन को इस तरह छूते हुए चलती है कि संजीदा दर्शकों का हृदय भी नम हुए बगैर नहीं रहता। अनुपमा, वास्तव में हृषिकेश मुखर्जी की कहानी पर बनी फिल्म है जिसके संवाद राजिन्दर सिंह बेदी ने लिखे थे। कैफी आजमी ने दिल को छू जाने वाले गीतों की रचना की थी जिनका संगीत हेमन्त कुमार ने तैयार किया था। अनुपमा तरुण बोस, धर्मेन्द्र और शर्मिला टैगोर के प्रभावशाली अभिनय पर सफल होने वाली, सदा याद आने वाली फिल्म है।

अपनी फुलवारी थी जहाँ

जो दिए ख्वाब आपने
वही हम ले के चले
सच कहें आपसे हम
ख्वाब कुछ और न पले

बिरवे जो रोपे थे मिलकर
उन्हीं को सहेजा हमने
दिनों में फूल जो खिला
आप ही को भेजा हमने

आप ही भूल गए
फूल की प्यारी सी महक
रंग भी याद न रहा
न वो बिरवे की चहक

वो बगीचा है कहाँ
अपनी क्यारी थी जहाँ
काँटे बिखरे हैं पड़े
अपनी फुलवारी थी जहाँ

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

सितारे, हित-जनहित और विज्ञापन

अतुल्य भारत के लिए अभिनेता आमिर खान अच्छे विज्ञापन समय-समय पर करते हैं। हिन्दुस्तान में दूसरे देशों से प्रभावित होकर, सांस्कृतिक, सृजनात्मक और पर्यटन महत्व के आकर्षण में आने वाले लोगों, अतिथियों से सामने हमारे किसी भी बर्ताव का क्या प्रभाव पड़ता है, उसके लिए उनकी यह भागीदारी सराहनीय है। वैसे तो हर जुबाँ पर सवार निराशावाद न किसी आदमी के सुधरने की उम्मीद रखता है और उसी वजह से न देश की मगर इसके बावजूद अपनी सजगता और जिम्मेदारी का परिचय न दिया जाये तो हमारी प्रतिबद्धता भला कैसे प्रमाणित होगी?

सितारे, जनमानस में सम्मोहक छबि होते हैं। यदि वे किसी बात को दर्शकों से मुखातिब होकर कहते हैं तो निश्चित ही उसका अर्थ होता है। इस मायने में आमिर खान की प्रशंसा की जानी चाहिए कि वे अपनी जिम्मेदारी पूरी करते हैं। महानायक अमिताभ बच्चन तेल से लेकर सीमेण्ट तक के विज्ञापन करते हंै मगर बच्चों को दिलायी जाने वाली पोलियो की खुराक को लेकर उनकी अपीलें हमेशा आकर्षित करती हैं। वे अपनी बातों से अविभावकों को जागरुक करने और झकझोरने का काम करते हैं। उनकी अदा दिलचस्प होती है। कॉमिक एप्रोच होता है और अपनेपन से भरा हुआ। दरअसल कौन बनेगा करोड़पति के बाद से उनका दर्शकों से घर के भीतर टेलीविजन के जरिए जिस तरह का संवाद शुरू हुआ है, उसका अपना आकर्षण है। इस प्रभाव को भारत सरकार ने एक बड़े मिशन और सामाजिक कार्यक्रम में सदुपयोग की तरह लिया है।
विज्ञापन के प्रति बहुत से सितारों का आकर्षण होता है।

एक फिल्म में काम करने के बाद मिलने वाली राशि से ज्यादा विज्ञापन में कम काम करके अपेक्षाकृत अधिक आकर्षक धन, कलाकारों को इस तरफ लाता है। जूही चावला एक नमकीन का विज्ञापन दिलचस्प अन्दाज में करती हैं। बहुत सी नायिकाएँ साबुन, शैम्पू और क्रीम के विज्ञापनों की दुनिया से बाहर ही नहीं आतीं। नायकों को हम हमेशा मोबाइल या सिम बेचते हुए या फिर शीतल पेय का समर्थन करते हुए देखते हैं। सभी बड़े सितारों का समर्थन अलग-अलग कोल्ड ड्रिंक्स के लिए स्थायी रूप से बना हुआ है। अपने हाथ में अब सितारे किसी भी सामान्य मोबाइल कम्पनी के मोबाइल को पकडक़र उसको सर्वश्रेष्ठ ठहरा देते हैं। सिम के नेटवर्क भी जैसे उनकी खिदमत में सबसे ज्यादा दाँत निकालते हैं।

यह जिज्ञासा बड़ी पुरानी होकर समाप्त हो गयी है कि जिन चीजों का विज्ञापन सितारे करते हैं क्या उन्हें वे सचमुच इस्तेमाल करते हैं? जवाब चुप्पी या बनावटी उत्तर से भरा हो सकता है। लेकिन विज्ञापन ऐसा आकर्षण है कि सितारे फिल्म से ज्यादा उसमें रमे हुए हैं।

गुरुवार, 16 सितंबर 2010

उत्तरार्ध की सम्भावनाएँ और माहौल

साल का पूर्वार्ध सिनेमा के लिहाज से बहुत ज्यादा उल्लेखनीय नहीं रहा था। थ्री ईडियट्स और राजनीति को छोडक़र कोई ऐसी फिल्म नजर नहीं आयी थी जिसने अच्छा बाजार हासिल किया हो, निर्माता-निर्देशक और कलाकारों को खुशी देने का काम किया हो, दर्शकों को अच्छा मनोरंजन देने का कोई फर्ज निभाया हो। गर्मी के मौसम में सिनेमाघरों की हालत सबसे ज्यादा बुरी थी। मल्टीप्लेक्स के शो खाली जा रहे थे या निरस्त हो रहे थे। खेलों के माहौल ने और दर्शकों को कैद करके घर में बैठा लिया था। ऐसे में सपरिवार हजारों में खर्च करके बुरी फिल्म कौन देखने जाए भला?

इन स्थितियों में फिल्म व्यवसाय के इस साल ज्यादा खराब होने का आकलन किया गया। सलमान खान की फिल्म दबंग अपनी तरह से आयी। बहुत पहले से इसके नाहक बाजे नहीं बनाए गये और न ही अतिरिक्त प्रचार किया गया। दबंग का प्रचार हाल के एक माह की उपलब्धि है और जो कुछ प्रतिसाद उसको मिला, वो उसकी मुकम्मल मेकिंग को ही मिला है जिसमें रोचक तारतम्यता, दिलचस्प मनोरंजन, बेहद प्रभावित करने वाला नायक और बाकी एक अच्छी मसाला फिल्म के लिए अपरिहार्य लटके-झटके शामिल हैं।

यह बात ठीक है कि दबंग की सफलता का माहौल अभी कम से कम दो हफ्ते अच्छा रहने वाला है लेकिन उसके ठीक पीछे अक्टूबर माह की पहली तारीख को प्रदर्शित होने वाली प्रियदर्शन की गम्भीर फिल्म आक्रोश को भी टेलीविजन पर अच्छा रुझान अर्जित करते देखा जा रहा है। इरशाद कामिल ने इस फिल्म के गीत लिखे हैं जिसमें एक गीत, मन के मत पे मत चलियो रे....अपनी धुन और शब्द-भाव से प्रभावित कर रहा है। त्यौहारों और उल्लास के मन-मौसम में अच्छी फिल्में यदि आ रही हैं तो यह संकेत अच्छे हैं। हम मानकर चलते हैं कि दिसम्बर तक जो फिल्में आ रही हैं, जिनकी संख्या कम से कम तीस-चालीस तो होगी, उसमें चार-पाँच ऐसी होंगी जो दर्शकों को सिनेमाहॉल तक ले आयेंगी।

चर्चित फिल्मों में, जो इस साल सिनेमा के परदे पर नजर आयेंगी, उनमें अन्जाना-अन्जानी, रोबोट, नॉक आउट, पान सिंह तोमर, गोलमाल तीन, गुजारिश, खेलें हम जी जान से, तीस मार खाँ, यमला पगला दीवाना प्रमुख रूप से शामिल हैं। दीपावली का अवसर खासतौर से फिल्मों के जश्र का अवसर होता है। हाँलाकि ऐसा लग रहा है कि इस अवसर पर गोलमाल का तीसरा भाग अकेला अपना इम्तिहान देगा। अपने जमाने के मशहूर विलेन शेट्टी के बेटे रोहित शेट्टी ने इसमें भरपूर मनोरंजन इक_ा किया है। हाँ दिसम्बर में जरूर तीन-चार अच्छी फिल्में अपनी आजमाइश में रहेंगी।

सह पाएँ

मन की बात मन में रखें
कह जाएँ
बात तो तब है कि
कह पायें

एक बड़ा भ्रम सा
रहा करता है
मन में
जो सोचते रहे अब तक
जानते हो तुम भी
मन में

बड़ी मुश्किल है कैसे बताएँ
सह जाएँ
बात तो तब है
सह पाएँ

एक घरौंदा बना रखा है
चहेते रंगों से
अंतस में
उस घरौंदे तक आता है
एक रस्ता फिर
अंतस में

कभी लगता है अकेले ही न
रह जाएँ
कह नहीं सकते
रह पाएँ

बुधवार, 15 सितंबर 2010

एक बड़ी-घनी मूँछ वाले को देखकर

मैं बड़े ध्यान से देखता रहा तुम्हारा चेहरा
जाने क्यों तुम मुझे अक्खड़ दिखाई दिए

मैंने सोचा शायद चेहरे का ये दोष नहीं
दरअसल तुम मुझे बड़े मुच्छड़ दिखाई दिए

मैं फ़िदा हूँ उस जतन पर खूब सहेजी मूँछें
शेष पहनावे से तो बड़े फक्कड़ दिखाई दिए

तुम्हारी नज़र बचाकर जब नज़दीक आया
मूँछों में मुझे खिजाबी झक्कड़ दिखाई दिए

किस कदर मशगूल तुम ऊंची-नीची फेंकने में
आदमी कम मुझे लाल-बुझक्कड़ दिखाई दिये

मन का सिनेमा

आखिर दर्शक अपने मन का सिनेमा ही चुनता है। इसके लिए वह किसी की दृष्टि, ज्ञान या दर्शन की नहीं मानता। यह बात और है कि दर्शक के मन का सिनेमा बड़ी देर में आया करता है। इसके लिए उसे बहुत इन्तजार करना होता है। धोखे या भ्रम में वह नुकसान भी उठाता है जब उसकी जेब का पैसा जाता है और मन का मनोरंजन नहीं मिल पाता। ऐसे में छला गया दर्शक पच्चीस दूसरों को सावधान करने का काम पहले करता है। पिछले काफी समय से सिनेमा का बाजार जिस तरह की दुर्दशा को प्राप्त हुआ है उसके पीछे यही वजहें हैं।

गजनी, थ्री ईडियट्स, राजनीति या अबके आयी दबंग की बात अलग है, ऐसी फिल्में उसको बमुश्किल मिल पाती हैं। आधुनिक जिन्दगी जीने वालों को उनकी ही तरह की जिन्दगी को आधार बनाकर बनायी गयी फिल्में खुद उनकी ही चाहत का हिस्सा नहीं होतीं। फिल्म निर्माण के बड़े घराने काफी समय से निरर्थक फिल्में बना रहे हैं। चटख रंग-रोगन और सितारों की लच्छेदार बातें अब बेहद आम हो गयी हैं, दर्शक इसमें अपना मनोरंजन नहीं खोज पाता। वह तत्काल खारिज करता है। यह उसके मन की होती है। बिगड़ा दर्शक बहुत नुकसान भी कराता है, यह बात, अपनी खराब फिल्मों का बुरा हश्र देखकर जानने वाले भी दर्शक की इच्छाओं या अपेक्षाओं को समझ नहीं पाते।

दबंग की सफलता ने ऊँघाए फिल्मी माहौल को चौंक कर उठाने का काम कर दिया है। प्रदर्शन से तीन दिनों में सैंतालीस करोड़ का धन संग्रह करने वाली और लगभग चालीस करोड़ की लागत में बनने वाली इस फिल्म ने दर्शकों अपना नाता सीधे स्थापित करके सलमान के स्पर्धियों को भी अपना दम दिखाया है और आलोचकों को भी। यह फिल्म यह भी प्रमाणित करती है कि सलमान अपनी तरह के अकेले नायक हैं, जो एक परिपक्व उम्र में मुकम्मल संजीदगी के साथ-साथ अभिनय को अपनी क्षमताओं के साथ नियंत्रित करना जान गये हैं। जिस तरह दर्शक परदे पर सलमान को देखकर आनंदित होता है उसी तरह सलमान का अभिनय भी दर्शक से सीधे ऊर्जा और आत्मविश्वास ग्रहण करता है।

पिछले कुछ वर्षों में सलमान की बेचैनी बिल्कुल खत्म हो गयी है। वे बहुत धीरज से पेश आते हैं, बात करते हैं। उनकी करुणा और संवेदना जरा भी बनावटी नहीं है। एक भावुक इन्सान के रूप में सलमान दिल खोल के लुटने और लुटाने में विश्वास करते हैं। दबंग की सफलता उनके कैरियर को जिस शिखर पर स्थापित करती है, वहाँ वे सर्वप्रिय छबि के सितारे के रूप में दिखायी देते हैं। हमें दरअसल अभिनव सिंह कश्यप नाम के आदमी की भी पीठ ठोंकनी चाहिए, जो इस करिश्मे के पीछे कहीं विनम्रतापूर्वक चुपचाप खड़ा है, नजर ही नहीं आता। वह भी खासा दबंग है।

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

डॉ. डी. रामानायुडु और फाल्के अवार्ड

भारत सरकार पिछले साल का दादा साहब फाल्के अवार्ड दक्षिण के विख्यात फिल्मकार डॉक्टर डी. रामानायुडु को देने जा रही है, यह एक महत्वपूर्ण खबर है। सृजन सक्रियता के मुकम्मल समय में सार्थकता के साथ प्रशंसनीय और बहुआयामी रचनात्मक काम करने में किसी भी मनुष्य को बहुत सारा समय लगता है। लगातार श्रेष्ठता के प्रतिमान अर्जित करना आसान काम नहीं होता। ऐसे परिदृश्य में हम एक ऐसे फिल्मकार को सम्मानित होते हुए देखेंगे जिसने एक सीमित समय में लगभग एक सौ तीस फिल्में बनाकर अपना नाम गिनीज बुक ऑफ वल्र्ड रेकॉर्ड में शामिल कराया। हमारा लिए खासतौर पर डी. रामानायुडु के बारे में अन्दाज लगा पाना मुश्किल है कि कैसे एक व्यक्ति इतनी व्यापकता के साथ सोचता और साकार करता है।

हैदराबाद में हम जिस रामोजी राव फिल्मसिटी को दो दशक से जानते हैं, उसकी परिकल्पना और निर्माण उन्हीं का है। वे ही देश में पहले ईटीवी उर्दू चैनल स्थापित करते हैं फिर हर राज्य के लिए उस राज्य के नाम की पहचान से जोडक़र अलग-अलग चैनलों का समुच्चय खड़ा कर देते हैं। ये डी. रामानायुडु हैं। उन्हें मूवी मुगल कहा जाता है। उन्होंने न सिर्फ तेलुगु में बल्कि दक्षिण की समस्त भाषाओं सहित बंगला, उडिय़ा, असमी, गुजराती, मराठी, भोजपुरी और हिन्दी में भी फिल्में बनायी हैं। आंध्रप्रदेश में 1936 में जन्मे रामानायुडु साठ के दशक में सिनेमा में आये। उन्होंने पहली फिल्म अनुरागम बनायी। आंध्र के पूर्व मुख्यमंत्री, तेलुगुदेशम पार्टी के स्थापक और प्रतिष्ठित अभिनेता नंदमूरि तारक रामाराव के साथ बनायी उनकी फिल्म रामुदु-भीमुदु सुपरहिट थी जिसने उनको फिल्म जगत में एक सफल निर्माता के रूप में स्थापित किया। इस फिल्म की सफलता ने दोनों को परस्पर मित्रता के ऐसे रिश्ते में जोड़ा कि आगे चलकर वे इस पार्टी के सदस्य भी बने और दो बार सांसद भी।

डॉ. डी. रामानायुडु में फिल्म बनाने की ऐसी विलक्षण ऊर्जा रही है जिसके चलते वे एक के बाद एक सफल फिल्में बनाते चले गये। उनकी एक फिल्म सुरिगदु भारतीय पैनोरमा में नब्बे के दशक में चयनित की गयी थी। इसके साथ ही दस वर्ष पहले उनके द्वारा निर्मित एक बंगला फिल्म असुख को राष्ट्रीय पुरस्कार भी प्राप्त हुआ था। वे शिवाजी गणेशन, कमल हसन, जयाप्रदा, चिरंजीवी, अक्किनेनी नागेश्वराव, रजनीकान्त, राजेश खन्ना, हेमा मालिनी, रेखा, जीतेन्द्र, श्रीदेवी को अपनी फिल्मों में श्रेष्ठ स्थान देने वाले एक प्रमुख फिल्मकार हैं। उनकी सफल और चर्चित हिन्दी फिल्मों में प्रेम नगर, दिलदार, बन्दिश, प्रेम कैदी, अनाड़ी आदि उल्लेखनीय हैं। पाठकों को जानकारी होगी ही दक्षिण के मशहूर अभिनेता और अनाड़ी फिल्म के नायक रहे व्यंकटेश, डी. रामानायुडु के बेटे हैं।

सोमवार, 13 सितंबर 2010

अंग्रेजीदाँओं का हिन्दी सिनेमा

हिन्दी दिवस पर हिन्दी के प्रति नकली श्रद्धासुमन अर्पित करने की औपचारिकता खूब चलती है। हिन्दी का पिछड़ापन, उसका लुटापिटा होना और उसकी दुर्दशा के लिए तमामों को जिम्मेदार भी ठहराया जाता है। लेकिन सभी के व्यवहार और चेतना से हिन्दी का संस्कार, सम्मान और फिक्र समाप्त हो चली है। हिन्दी अखबारों में अंग्रेजी का डिओड्रंट रोज ही महकता है, हिन्दी टेलीविजन चैनलों पर भी समाचार से एंकर तक, धारावाहिक से मिमिक्री या सर्कस तक सभी जगह अंग्रेजी का परचम लहरा रहा है। हिन्दी सिनेमा का तो कहना ही क्या, हिन्दी ही नहीं है।

पिछले दस साल से कलाकारों की पीढिय़ाँ अंग्रेजी में ही बात करते हुए सहज महसूस करती हैं। अंग्रेजी पत्रिका, पत्रकार और सम्पादक को अपेक्षाकृत उनमें ज्यादा तवज्जो है। तमाम निर्देशक, अभिनेता और अभिनेत्री दो-चार शब्द हिन्दी में बोलकर अपने आपको इतना ऊबड़-खाबड़ महसूस करते हैं कि तुरन्त अंग्रेजी में बोलना शुरू कर अपने आपको जैसे पटरी पर सहजतापूर्वक चलने वाली रेल की तरह राहत की साँस लेते हैं। फिल्मों के सेट पर सारा बर्ताव अंग्रेजी में होता है। निर्देशक को जो चाहिए वो सितारे को अंग्रेजी में बताता है, अभिनेता अपने भ्रम का समाधान अंग्रेजी मे पूछ कर करता है। निर्देशक को जो चाहिए यदि वो दृश्य में निकलकर नहीं आ रहा तो झल्लाहट और अपशब्दों का आदान-प्रदान भी अंग्रेजी में ही किया जाता है। अंग्रेजी में गुस्सा किया जाता है, अंग्रेजी में प्यार किया जाता है और अब जब फिल्मों के नाम हिन्दी में सूझना बन्द हो गये तो वो भी दो-चार सालों से अंग्रेजी में ही रखे जाते हैं।

अपने उद्गार, अपनी अभिव्यक्तियाँ और दर्शकों तक जोडऩे वाला सीधा माध्यम पूरा का पूरा बदल गया है। कलाकारों के संवाद, गाने, भावुक और जज्बाती दृश्य, रूमानी प्रसंगों आदि में अंग्रेजी सिर चढक़र नाच रही है। भारत सरकार के राजभाषा विभाग, हिन्दी में काम करने वाले संस्थान, बैंक आदि सब दिन, सप्ताह, पखवाड़ा और मास मनाकर हिन्दी का श्राद्ध सरीखा करके अगले साल तक के लिए मुक्त हो जाते हैं और ढर्रा वही कायम रहता है। हिन्दी के लिए जिस तरह धीरे-धीरे आदर और स्थान कम होता जा रहा है, उसको खतरे का संकेत कहने के बजाय दुखद स्थिति और संकेत कहा जाना चाहिए।

पत्रकारिता में हमारे मार्गदर्शक ने वर्षों पहले अपने अखबार के दफ्तर में ऐसी ही किसी चर्चा में एक बार, एक गाना याद दिलाया था और कहा था कि इस गाने में पूर्णत: हिन्दी और शुद्धता है, यह गाना दिलचस्प भी है और लोकप्रिय भी हुआ था। आपको याद कराऊँ, प्रिये प्राणेश्वरी हृदयेश्वरी, यदि आप हमें आदेश करें तो प्रेम का हम श्रीगणेश करें। किशोर कुमार का गाया यह गाना फिल्म हम तुम और वह में विनोद खन्ना पर फिल्माया गया था।

फलसफे

इक वज़ह ही तो है बस
कि मिटाया करते हैं
बार-बार
अपना ही लिखा

तुम तो हमेशा ही
उस तरफ का रुख किये रहे
हम ही न रोक पाए
खुद को और
तय करते रहे दूरी

बड़े चुपचाप
हम बाँध आये थे
धागा उम्मीदों का
तुमको न दिखा

वो छोर बंधा रह गया तुमसे
इस छोर को
हम छुए सोचते रहे
कभी मिल जायेगी
उम्मीदों को मंजूरी

देर शाम नींद चली गयी
आँखों को जगाकर
ज़िंदगी और दर्द के
कुछ फलसफे सिखा.......

रविवार, 12 सितंबर 2010

मुन्नी बदनाम और बाम की बिक्री

आयटम सांग से फिल्में हिट होती हैं इसका ताजा उदाहरण दबंग फिल्म है। मुन्नी बदनाम हुई, मलायका अरोड़ा के प्रोमो से दबंग का जिस तरह क्रेज बढ़ा उसका नतीजा है कि सिनेमाहॉल में शुक्रवार को भारी भीड़ इक_ा हुई जो सलमान क्रेज के साथ-साथ ऐसे आकर्षणों को भी एन्जॉय करने पहुँची थी। हाँलाकि दबंग को केवल इस आयटम सांग ने हिट नहीं कराया, और भी बहुत से कारण फिल्म की सफलता के लिए शामिल किए गये थे। एक मुकम्मल मसाला फिल्म के रूप में इस फिल्म में वो सब कुछ था, जो पिछले कुछ समय की तमाम एक के बाद एक नीरस फिल्में देखते और बेहाल-बोर होते हुए दर्शकों के लिए आकर्षण बना। सलमान यदि एक साल में एक ऐसी फिल्म देते हैं तो भी उनका वजन चार दूसरी बड़ी फिल्म देने वाले उनके समकालीन सितारों से ज्यादा ही रहता है, यह स्पष्ट है।

बहरहाल आयटम सांग के जरिए ही एक और प्रोमो लोकप्रियता की सीढिय़ों पर ऊपर जा रहा है। यह फिल्म है आक्रोश। प्रियदर्शन की बड़े लम्बे समय बाद, लगभग गर्दिश के बाद यह तनाव से भरी एक फिल्म आ रही है, जिसमें एक डाँसर, तेरे इसक से मीठा कुछ भी नहीं गा रही है। आयटम सांग, अब एक नये ढंग का आकर्षण बनकर स्थापित हुआ है। एक जमाना था, जब एक पूरी फिल्म में कुक्कू, बिन्दू, पद्मा खन्ना या हेलन के कैबरे डाँस का अन्दाज दर्शकों को रस देता था। इन अभिनेत्रियों की उपस्थिति फिल्मों में वैम्प के तौर पर ही होती थी मगर हीरोइनों से एकदम विपरीत इनका एंटी अन्दाज दर्शकों को लुभाता था। धीरे-धीरे इनकी जगह खत्म होती चली गयी और नायिकाएँ ही इतना खुल गयीं कि लोगों को बाद में किसी बिन्दु या हेलन की याद नहीं आयी। पाँच-सात वर्षों में आयटम सांग के रूप में एक ऐसा चलन बढ़ा जिसको सभी हीरोइनों ने आजमाया और अपनी साख बढ़ायी।

बंटी और बबली में ऐश्वर्य ने कजरारे कजरारे गाने पर जमकर डाँस किया। प्रकाश झा ने अपनी गम्भीर फिल्मों में भी आयटम सांग की गुंजाइश बनायी। प्रीटि जिण्टा, लारा दत्ता, करीना, सुष्मिता, प्रियंका चोपड़ा सभी ने आयटम सांग करने के मौके हाथ से जाने नहीं दिए। राखी सावन्त और मल्लिका शेरावत तो खैर इस फील्ड में सर्वाधिक अग्रणी और साहसी मानी जाती हैं। दिलचस्प यह है कि ऐसे आयटम सांग सभी आंचलिक संगीत से प्रेरित होकर लिखे जाते हैं और बड़े गीतकार बुन्देेलखण्ड, बिहार, उत्तरप्रदेश के लोकसंगीत और तर्ज पर मिलते-जुलते शब्द बैठाकर अपना सिक्का बुलन्द किया करते हैं। मुन्नी बदनाम हुई, के बारे में भी यही कहा जा रहा है। एक दर्द निवारक बाम को मुफ्त में खासा प्रचार मिल गया। सम्भव है, दवा दुकानों में इसकी डिमाण्ड बढ़ जाए।

रहेगा मलाल

हम भला क्या करेंगे शिकायत तुमसे
किया तुमने वो सोचकर ही किया

अपनी चुप्पी को हम तहाए बैठे रहे
बोलने का तुमने न मौका ही दिया

तुम्हारी निगाहों में नहीं इबारत कोई
सपनों को न तुमने संजीदा ही लिया

तुमने एक मोड़ पर शब्दों को सज़ा दे दी
ढाई अक्षर टूटे, बिखरे न एक ही जिया

ढूँढा करेंगे पैबंद भी गर मिल जाएँ हमें
रहेगा मलाल तुमने एक न ही सिया

अन्दाज़ : मैं राग हूँ, तू वीणा है....

1949 में प्रदर्शित फिल्म अन्दाज, भारतीय सिनेमा के एक बड़े, संजीदा और प्रतिबद्ध निर्देशक मेहबूब खान की आखिरी श्वेत श्याम फिल्म है। इस फिल्म के बाद आन, अमर, मदर इण्डिया और सन ऑफ इण्डिया उन्होंने रंगीन बनायीं थीं। आखिरी श्वेत-श्याम फिल्म को रेखांकित किए जाने के पीछे वजह यह है कि कुछ विलक्षण फिल्मकार ऐसे हुए हैं जिन्होंने ब्लैक एण्ड व्हाइट फिल्मों में गजब के प्रभाव और जज्बात रचे हैं। जाहिर है कि निर्देशक का सिनेमेटोग्राफर अलग होता है मगर जितना दृष्टिसम्पन्न सिनेमेटोग्राफर होता है, उससे कहीं ज्यादा कल्पनाशील और दृष्टिसम्पन्न भारतीय सिनेमा के स्वर्णयुग के निर्देशक हुआ करते थे। मेहबूब खान निश्चित ही उनमें से एक थे। हमारे सोचने के लिए यह कम दिलचस्प नहीं है कि देश को आजाद हुए अभी दो साल हुए हैं, हिन्दुस्तान नवनिर्माण के सपने, कल्पना और प्रक्रिया से गुजरना शुरू हुआ है, और एक फिल्मकार ठीक ऐसे समय एक रोमांटिक फिल्म अन्दाज बना रहा है और वह भी प्रेम त्रिकोण को लेकर।

यह ऐसी युवती नीता की कहानी है जो सम्पन्न परिवार की है और आधुनिक जीवनशैली, पश्चिमी हावभाव और बर्ताव से प्रेरित है। उसकी बातचीत, मुखरता और मिलने-जुलने का अतिरेकपूर्ण बर्ताव उसे सभी के आकर्षण का केन्द्र बनाता है। वह अपनी जिन्दगी में उन्नति के सपनों को अपने मित्र दिलीप के सहयोग और समझ से पूरा करने की चाह रखती है। दिलीप कहीं न कहीं उसकी मुखरभाव में अपने लिए प्रेम और उसकी उम्मीदों को देखता है लेकिन नीता को उससे प्रेम नहीं है। एक दिन नीता के जीवन में राजन आता है, जिसकी जीवनशैली भी आधुनिक है और आजाद ख्याल युवक होने के साथ ही वह रोमांटिक भी है। नीता उससे शादी कर लेती है जिसका अत्यन्त बुरा मानसिक प्रभाव दिलीप पर पड़ता है। फिल्म एक त्रासद अन्त पर जाकर खत्म होती है।

इस फिल्म का नाम अन्दाज़ निर्देशक ने इसलिए रखा कि यह खासतौर पर मनुष्य के बर्ताव करने के तरीकों और उसके प्रभावों को, विशेषकर स्त्रियों को केन्द्र में रखकर सोची गयी। नीता की भूमिका में नरगिस निश्चित रूप से आधुनिक और आजाद जिन्दगी का ऐसा पर्याय बनकर सामने आयीं जो अपने मित्र के एकतरफा प्रेम से बिल्कुल बेखबर है। राजकपूर ने अपनी भूमिका, जैसा किरदार उनका था, बखूबी निभायी मगर दिलीप कुमार ने हताश मानसिक त्रासदी को बड़े प्रभावी ढंग से व्यक्त किया। मजरूह के गीत, तू कहे अगर जीवनभर, झूम झूम के नाचो आज, हम आज कहीं दिल खो बैठे, भीतर तब असर करते हैं। नौशाद के मधुर संगीत की वजह से हमें ये गाने आज भी गुनगुनाने का मन होता है। इकसठ साल पहले की यह फिल्म तब सुपरहिट हुई थी।

शनिवार, 11 सितंबर 2010

धरती-आकाश छीनता धुँआ

मृणालिनी, एक आश्वस्त और आत्मविश्वासी निर्देशक हैं। हम अच्छी फिल्मों के सिनेमाघर न पहुँच पाने के तंत्र को लेकर चर्चा करते हैं। कई बार हम यह बात भी करते हैं कि ऐसी ही तमाम वजहों से किस तरह स्तरीय और प्रेरक सिनेमा जनता से दूर है। जनता की अपनी उपेक्षा और बेपरवाही की प्रवृत्ति भी भले ही इसका कारण हो मगर इसकी वजह से ही लीक से हटकर अपनी लकीर खींचने वालों का उत्साह बेहद प्रभावित होता है। मृणालिनी ने धुँआ नाम से एक महत्वपूर्ण फिल्म का निर्देशन किया था। जब उन्होंने यह फिल्म पूरी की थी तभी लगभग उसी वक्त उनको गोवा में आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में इसे दिखाने का मौका मिला था। स्वयं उन्हीं ने उसके बाद मुम्बई में एक मुलाकात में बताया था कि उनकी फिल्म को अपार सराहना और शुभकामनाएँ मिलीं।

उनकी बातचीत से बलवती जिज्ञासा आज तक ज्यों की त्यों इसलिए है क्योंकि उनकी फिल्म को प्रदर्शन के अनुकूल अवसर अभी तक नहीं मिले हैं जबकि उन्होंने पर्यावरण और मानव जीवन के जोखिम से जुड़ा एक सशक्त विषय इस फिल्म में उठाया है। यह फिल्म महात्वाकांक्षी और अपने भविष्य तथा उन्नति की चिन्ता करने वाले एक ऐसे युवा की कहानी है जो एक बड़ी फैक्ट्री में काम करता है। यह फैक्ट्री उत्पादन के साथ ही विषाक्त और जानलेवा धुँए का उत्सर्जन करती है। उसकी पत्नी उसको आसपास की बस्ती और पेट में पल रहे अपने बच्चे का वास्ता देकर समझाती है मगर वह स्थितियों की गम्भीरता को नहीं समझ पाता।

परिणाम यह होता है कि यह स्त्री, आसपास की बस्ती की सजग और बहादुर स्त्रियों के साथ एक बड़ा आन्दोलन खड़ा करती है जिसके परिणामस्वरूप फैक्ट्री को बन्द करना पड़ता है। यह फिल्म बड़ा गहरा सन्देश छोड़ती है। समूह की शक्ति और स्त्री के आत्मबल का क्रान्तिकारी उदाहरण बनी यह फिल्म संजीदा दर्शकों के लिए परदे पर एक अहम अनुभव साबित होगी। हो सकता है मृणालिनी आर. पाटिल अपनी संचित ऊर्जा से एक बार फिर इसे दर्शकों तक लाने के लिए जद्दोजहद शुरू करें।

हिन्दी सिनेमा में ऐसे उदाहरण बहुत कम देखने को मिलते हैं। दो दशक पहले भोपाल में बासु भट्टाचार्य ने एक लघु फिल्म एक साँस जिन्दगी बनायी थी। उस पर उन्होंने और दिनेश ठाकुर ने स्क्रिप्ट के स्तर पर महती काम किया था। भोपाल की गैस त्रासदी बीसवीं सदी के अन्तिम तीन दशकों की सबसे ज्यादा और बड़ी त्रासद घटना है। मिलों के जहरीले रसायन और जानलेवा धुँए की त्रासदियाँ महानगरों और अंचलों में मानव जिन्दगियाँ और निरीह प्राणी भुगतते हैं।

विचार और समझ के बीच ऐसी मन:स्थितियों में मृणालिनी आर. पाटिल की फिल्म धुँआ का व्यावसायिक प्रदूषण का शिकार बन जाना एक तकलीफदेह घटना है।

शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

परायी जुल्फों का मोह

एक वरिष्ठ फिल्म समीक्षक से बात हो रही थी। उन्होंने श्रीदेवी के घर आयोजित हुई एक पारिवारिक दावत का जिक्र किया, जिसमें उनके पति बोनी कपूर, अनिल कपूर, कुछ खास सिनेमा और सिनेमा से इतर मित्रों की उपस्थिति के बीच खाने-पीने का आत्मीय माहौल था। उस दावत में शामिल होने खास चेन्नई से रजनीकान्त आये थे। दावत में आते ही उन्होंने अच्छे मित्र और लगभग मेजबान की तरह श्रीदेवी के काम में हाथ बँटाया और सभी के साथ खूब बातचीत-हँसी-मजाक में हिस्सा लिया। इस प्रसंग में उल्लेखनीय बात यह थी कि रजनीकान्त एकदम अपने सहज स्वरूप में आये थे अर्थात बिना विग के।

अब हममे से बहुत से लोग भली प्रकार जानने लगे हैं कि रजनीकान्त के सिर पर बरसों से बाल नहीं हैं मगर इसको लेकर यह महान सितारा जरा भी कांशस नहीं है। रजनीकान्त आज भी सार्वजनिक जगहों, समारोह, फिल्मी आयोजनों में बिना विग के ही जाते हैं। वे अपने आपको इस तरह बड़ा सहज महसूस करते हैं। न सिर्फ दक्षिण बल्कि हिन्दुस्तान और देश के बाहर भी उनकी लोकप्रियता असाधारण है। उनका मानदेय कल्पनातीत है, फिल्मों की सफलता का आर्थिक आँकड़ा आप अन्दाज नहीं लगा सकते लेकिन इसके बाद भी वे अपने दर्शकों के सितारे हैं। सबके लिए सहज और आत्मीय। उनकी समाज सेवा और प्रतिबद्धता ही उनको दक्षिण में पुजवाती है मगर वे हमेशा सहज बने रहते हैं। उनकी पिछली हिट फिल्म सिवाजी द बॉस ने भारी धन अर्जित किया था। सिवाजी के ही निर्देशक शंकर ने उनको लेकर रोबोट या एदिरन बनायी है जो अगले सप्ताह रिलीज हो रही है।

हिन्दी सिनेमा में सितारे सिर से गिरते, घटते और साफ होते बालों की बड़ी चिन्ता करते हैं। पुराने समय में राजकुमार के बारे में तो कहा ही जाता था कि वे विग इस्तेमाल करते हैं। राकेश रोशन भी मध्यम सफलता के नायक थे और हमेशा विग में ही नजर आते थे। बाद में जब वे निर्देशक बने तक जरूर उन्होंने बिना विग के दिखायी देना शुरू किया। अमरीश पुरी की सफलता उनके गेटअप में निहित रहा करती थी। जाहिर है वे प्रतिभासम्पन्न भी थे मगर उन्होंंने अपने बाल पूरी तरह घुटवा रखे थे। डैनी ने भी लम्बे समय बाल घुटवाकर रखे। पिछले दस सालों में बहुत सारे सितारों ने विग लगाना शुरू की है जिनमें महानायक अमिताभ बच्चन, जैकी श्रॉफ, जावेद जाफरी आदि शामिल हैं। ये सभी सितारे अपनी सितारा छवि में ही बाहर भी दिखायी देते हैं। सामाजिक जीवन की सहजता और मिलनसारिता में खुले दिल से शामिल होने से खुद को मनुष्य हल्का महसूस करता है। हिन्दी सिनेमा के सितारों में यह बोध अपेक्षाकृत कम नजर आता है।

मेरे प्रभु गणपति

चरणों में नेह छुआ
वंदन करूँ जगतपति
आए फिर अबकी बार
मेरे प्रभु गणपति

सकल संसार में प्राणप्रिय
सबके तुम भाग्य विधाता
गुणी तुम अद्भुत विलक्षण
जगत पालक परम ज्ञाता

अस्मिता के तुम ही श्री हो
प्राण बसे तुम्हीं जन-जन के
तुम्हीं से जगत का सर्वमंगल
तुम्हीं स्थपति हो हर मन के

श्रद्धा के मोदक चढ़ा
संवारूँ लूँ अपनी नियति
सब पाप करना क्षमा
मेरे प्रभु गणपति

गुरुवार, 9 सितंबर 2010

अश्लीलता और आधुनिकता की मिलीभगत

अश्लीलता अब कोई मुद्दा नहीं रह गया है हमारे जीवन में, ऐसा विश्वास वक्त-वक्त पर फिल्मों, धारावाहिकों और फैशन शो को देखते हुए पुख्ता होता रहा है। चार प्रतिवाद करने वालों, मुट्ठीभर प्रदर्शन करने वालों, समय-समय पर लेख लिखने और सम्पादकीय लिखने वालों के बीच यह विषय खदबदाकर शान्त होता रहा है। इसका उस व्यवहार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा जिसकी ओर इशारा किया जाता रहा है बल्कि हाथी चले अपनी चाल और मस्त रहो मस्ती में टाइप के जुमले और कहावतें अश्लीलता की अराजकता पर बड़ी मुफीद नजर आयी हैं।

टेलीविजन के एक चैनल पर पहले खतरों के खिलाड़ी नाम पर एक धारावाहिक आता था जिसमें अक्षय कुमार के नेतृत्व में तमाम खतरों के खिलाड़ी अपनी किस्मत और हौसलों का इम्तिहान देते नजर आते हैं। हालाँकि इस धारावाहिक को ज्यादा लोकप्रियता नहीं मिली और अक्षय कुमार की भी बाद में इसमें रुचि कम हो गयी तो यह धारावाहिक एक समय बाद बन्द हो गया लेकिन अब फिर शुरू हो गया है क्योंकि अब प्रोग्राम बनाने वालों को प्रियंका चोपड़ा मिल गयी हैं जो इस धारावाहिक का बीड़ा उठाने को तैयार थीं, सो अब यह एयर पर है।

इसकी एक कड़ी को कुछ देर देखने की खुशकिस्मती हासिल हुई तो एक विशेष किस्म के विरोधाभास पर ध्यान गया। हालाँकि उसको रेखांकित करते हुए बराबर इस बात की झेंप है कि पाठक के मन में आ सकता है कि टिप्पणीकार का ध्यान वहीं क्यों गया, मगर आलोचना की दृष्टि से वह जायज भी था, लिहाजा बताना उचित लगता है।

ध्यान इस बात पर गया कि इस शो में कुछ लड़कियों के साथ उनसे अधिक संख्या में लडक़े नजर आये। विशेष बात यह थी कि प्रियंका चोपड़ा अधिकतम सवा बालिश्त का शॉर्ट्स पहने थीं और उनका ही अनुसरण कुछ और लड़कियों ने किया था, वहीं लडक़े, सभी के सभी इस तरह का बरमूडा पहने थे जिसकी लम्बाई कम से कम घुटने तक तो थी ही। अचरज इस बात पर हुआ कि जोखिम से लडऩे का प्रदर्शन करने के लिए इतना ज्यादा कम्फर्टेबल होने की वाकई इतनी जरूरत है भी कि नहीं? क्यों लडक़े ज्यादा तमीज में दिखे और क्यों प्रियंका दूसरी लड़कियों के साथ इतनी बोल्ड उपस्थिति में।

ऐसा लगता है कि कोई चेक पोस्ट नहीं है, कोई निगरानी करने वाला नहीं है, कोई आँख दिखाने वाला नहीं है। सेंसर निर्वजूद है। सबके घरों में ऐसे खिलाड़ी और खिलाडिऩों के माध्यम से जो खतरा घुसता चला जा रहा है, पता नहीं उसके क्या परिणाम होंगे?

कभी

हम अकेले ही
कुछ अच्छे रस्तों की
पहचान कर आयें हैं
वक्त हो और अगर मन हो तो
साथ चलना कभी

वो सड़क ऐसी है कि
दो लोग ही
दूर तक
चल सकते हैं वहाँ
मोहलत हो और इजाज़त तो
साथ रस्ता तय करना कभी

हम चलेंगे और
चुपचाप निगाह
देखा करेगी
ज़मीं-आसमान और
नज़ारों को
रहा न जाए अगर
हमारे साथ अपने मन की
बात कहना कभी

बुधवार, 8 सितंबर 2010

फिल्मों के यादगार रेल-गीत

दुलाल गुहा ने अब से तकरीबन तीन दशक पहले दोस्त फिल्म निर्देशित की थी जिसकी शुरूआत, नामावली से होती है और कैमरा नायक धर्मेन्द्र पर फोकस होता है जिसमें वो फादर फ्रांसिस का पत्र पढ़ रहे हैं। फादर फ्रांसिस की परवरिश से बड़ा हुआ नायक पत्र में उनका चेहरा देखता है। पत्र पढऩा शुरू होता है और नायक बचपन की यादों में चला जाता है। वो छोटी उम्र का बच्चा है, फादर फ्रांसिस उसे जाती हुई रेल के पास खिला रहे हैं और गाना गा रहे हैं, गाड़ी बुला रही है, सीटी बजा रही है, चलना ही जिन्दगी है, चलती ही जा रही है। किशोर कुमार ने यह गीत गाया भी बड़े वेग से है जो यकायक एकाग्र करता है, सुनने वाले हो। रेल, दोस्त फिल्म की फिलॉसफी में मुख्य भूमिका निभाती है। रेल के माध्यम से जीवन का दर्शन है। बहुत सारी घटनाएँ, दृश्य में रेल पाश्र्व में दिखायी देती है, कभी उसकी ध्वनि और सीटी भी।

हिन्दी फिल्मों में याद करने पर ऐसे कई अनूठे गीत याद आते हैं, जिनका अस्तित्व रेल के साथ ही घटित होता है। रेल में बैठकर, रेल के आसपास उसे देखते हुए, उसका आना-जाना, सीटी बजाना सब हमें प्रभावित करता है। उसकी छुक-छुक करती आवाज हम सबकी चेतना में बड़ी छोटी उम्र से ऐसी बसी है जो आज बिजली के इन्जनों के बावजूद भुलायी नहीं जा सकती है। हृषिकेश मुखर्जी की फिल्म आशीर्वाद में दादा मुनि अशोक कुमार की आवाज में गाया गीत, रेलगाड़ी, रेलगाड़ी, छुकछुक-छुकछुक, बीच वाले स्टेशन बोलें रुक-रुक-रुक-रुक, भुलाया नहीं जा सकता। बचपन में हम अपने मित्रों के साथ एक-दूसरे के पीछे खड़े होकर, शर्ट और फ्रॉक पकडक़र रेलगाड़ी का खेल खेला करते थे। आशीर्वाद के गीत में वही स्मृतियाँ ताजा होती हैं।

सुभाष घई निर्देशित फिल्म विधाता में, सुरेश वाडकर और अनवर का गाया गीत, हाथों की चन्द लकीरों का, सब खेल है बस तकदीरों का, भी भुलाया नहीं जा सकता। यह गाना भारतीय सिनेमा के दो बड़े कलाकारों दिलीप कुमार और शम्मी कपूर के ऊपर फिल्माया गया था। रवि चोपड़ा निर्देशित द बर्निंग ट्रेन में, तेरी है जमीं, तेरा आसमा गीत, सिमी ग्रेवाल और बच्चों पर फिल्माया गया था। वह गीत भी ईश्वर की अच्छी प्रार्थना है। राजेश खन्ना और जीनत अमान पर फिल्माया अजनबी फिल्म का गाना भी खूबसूरत संगीतबद्ध किया हुआ है, हम दोनों दो प्रेमी दुनिया छोड़ चले, जीवन की हम सारी रस्में तोड़ चले। आज की पीढ़ी को हो सकता है, इन गानों की उतनी याद हो, न हो मगर मणि रत्नम की फिल्म दिल से का शाहरुख खान और मलायका पर फिल्माया गाना, चल छैंया-छैंया, छैंया-छैंया, जरूर याद होगा जो गुलजार ने लिखा था।

मुट्ठी भर सपने

जाने कैसे बाँध लिए
कुछ सुहाने मौसम
अपनी जुल्फों में तुमने
उन्हें ढूँढ़ते हुए
हम बड़ी दूर गए
खो गए.....

उस बियाबान में भी
रोके रही तुम्हारे होने की
उम्मीद हमको
हम तुम्हारी महक
पहचानकर
ठहर गए
सो गए.....

उस ज़मीं की नरम
अनुभूतियों को भला
भूलें कैसे
पल भर बैठ गए
मन भर छुआ और
भीतर के
मुट्ठी भर सपने
बो गए.....

मुकाबले के मुगालते गढऩे वाली समझ

चौबीस घण्टे सिनेमा की खबरों के माध्यम से मनोरंजन का बीड़ा उठाने वाले एक चैनल की कुछ खबरें देखने का वक्त मिल पाया तो जाना कि अलग-अलग तरह के कार्यक्रमों से जुड़े, अलग-अलग तरह के शो को होस्ट करके भी मुकाबला किया जाता है। आप अपनी-अपनी दक्षता अपने काम में नहीं दिखाते वरन मुकाबला करते हैं। आश्चर्य हुआ, इस बात को जानकर कि अब ऐसा मुकाबला अमिताभ बच्चन और सलमान खान के बीच होने जा रहा है। मुकाबला या टक्कर, कैसे हुई यह समझ में नहीं आया।

अपनी जानकारी, और दोनों को ही जानने वालों की जानकारी भी यही है कि दोनों ही पहलवान नही हैं। दोनों की परस्पर शत्रुता भी नहीं है। दोनों ने साथ, एक-दो बार जब भी काम किया है, अच्छा काम किया है। रवि चोपड़ा की बागवान इस बात का प्रमाण भी है। दोनों में श्रेष्ठता और वरीयता का भी फर्क है। आज के समय को दोनों ही अपने-अपने प्रभाव और छबि के हिसाब से एन्जॉय भी कर रहे हैं। उम्र के मुताबिक किरदार की सीमाओं में अपने को क्षमताभर सिद्ध करने वाले बच्चन को किसी से मुकाबला करने की जरूरत नहीं है।

सलमान खान भी ऐसी खराब स्थिति में नहीं हैं कि असुरक्षित हों और मुकाबला करने या टक्कर देने को आतुर हों। ओपनिंग में आज भी सलमान खान सबसे ज्यादा भीड़, हंगामा और कोलाहल खड़ा करने वाले कलाकार हैं। दर्शक उनकी फिल्मों का इन्तजार करते हैं। जिस तरह का आत्मविश्वास उनके अभिनय में नजर आता है, वे किरदार को जीते हुए भी उससे ज्यादा प्रभावी नजर आते हैं। दबंग, फिल्म इस बात का उदाहरण है, जिसके प्रोमो ही दिलचस्प और आकर्षक बन गये हैं। इसी के साथ-साथ जिस तरह की संवेदनशीलता सलमान में उम्र और परिपक्वता के साथ आयी है, वह भीतर से बड़ी सच्ची और नैतिक है। इन सब बातों के बीच कैसे यह टक्कर या मुकाबला हो गया, समझ से परे है।

एक शो को अमिताभ बच्चन होस्ट कर रहे हैं और एक शो को सलमान खान। सुरुचि और आकर्षण के लिए दोनों ही शो को बनाने वालों, उसकी स्क्रिप्ट लिखने वालों ने मुकम्मल योजना भी बनायी होगी। पता नहीं क्यों विशेषज्ञों, जानकारों और पूर्वाभासियों ने इसे मुकाबले का जामा पहनाना चाहा है। मुकाबले के मुगालते गढऩे वाली ऐसी समझ पर ताज्जुब है। पता नहीं, हमारे माध्यम कब संजीदा और गम्भीर होना शुरू करेंगे? चैनल घरों में घुसे हुए हैं मगर कई बार उनकी प्रस्तुतियाँ और बरताव बेहद अव्यवहारिक हो जाते हैं।

मंगलवार, 7 सितंबर 2010

ज़िंदगी हुई हल करते हुए इस गणित को

जोड़ दो तुम
मेरी खुशी में
अपनी खुशी

घटा लेने दो मुझे
अपने गम में
तुम्हारा गम

क्या कहूँ कैसे
गुणा होगा
हमारे प्यार से
तुम्हारे प्यार का और
जाने कैसे
भाग दिया जायेगा
इस तरफ के अवसाद से
उस तरफ के अवसाद का

ज़िंदगी हुई
हल करते हुए
इस गणित को
स्लेट पर लिखने की
उम्र से
कागज़ पर लिखने की
उम्र तक

मेहनतकशों का हिस्सा

बी. आर. चोपड़ा की फिल्म मजदूर का एक गाना है, हम मेहनतकश इस दुनिया से जब अपना हिस्सा मांगेंगे, एक बाग नहीं, एक खेत नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे। दिलीप कुमार अभिनीत यह एक महत्वपूर्ण फिल्म थी जो उतनी चल नहीं पायी थी जितनी अपेक्षा की गयी थी। किस तरह एक आदमी मजदूरों को उनके हितों के लिए संगठित करने का सपना देखता है, ताजिन्दगी दो रोटी के संघर्ष और तमाम कठिनाइयों के बीच अपने देश में अपनी जिन्दगी और अपने परिवार की बेहतरी की कामना के लिए मु_ी ऊपर करके आवाज उठायी जाती है, इस फिल्म का अपना संदेश था लेकिन वह लोगों तक पहुँचा नहीं। मजदूर जीवन और परिवार पर हिन्दी सिनेमा पर अनेक सार्थक और निरर्थक फिल्में बनी हैं।

मजदूर की जिन्दगी में उसकी बेहतरी के आगे कितनी तरह के अड़ंगे आते हैं, किस तरह से अपने हक और इन्साफ की बात कहने पर, मालिक एकजुटता को तोडऩे के षडयंत्र करता है, ऐसा हमने न जाने कितनी फिल्मों में देखा है। दीवार का नायक अपने सामने एक मजदूर को मरते देखता है जब वो अपनी मजदूरी के पैसे से हफ्ता न देने का प्रण करता है। आगे चलकर वह नायक खल-प्रवृत्तियों से इस तरह टकराता है कि उसका खुद का जीवन भी सर्वशक्तिमान होने के बावजूद अशान्त और नर्क बन जाता है। मृत्यु उसकी भी नियति होती है और वह भी अपने भाई के हाथ। गोविन्द निहलानी की आघात में मिल मजदूर और मालिक के बीच का संघर्ष है। नेतागीरी की आड़ में अपराधियों का वर्चस्व और हर उठाये गये सिर को बेरहमी से कुचल देने में गुरूर में डूबी शक्तियाँ। ओम पुरी ने इस फिल्म में असाधारण अभिनय किया है।

श्याम बेनेगल की फिल्म सुसमन के बुनकरों की जिन्दगी सिमटकर रह गयी है वहीं प्रियदर्शन की फिल्म कांचीवरम का बुनकर मजदूर अपनी बेटी के विवाह के समय कांचीवरम साड़ी पहनाने का सपना संजोए व्यवस्था से लड़ रहा है। धागा मुँह में चुराकर एक दिन वह ला रहा होता है और गुण्डों द्वारा पकड़ा जाता है। उसे बेरहमी से मारा जाता है जिससे वह एक बड़े हादसे का शिकार होता है। मिल का भोंपू कितनी ही फिल्मों में हमारी व्यवस्था के बीच की बन्दरबाँट और गरीब को और गरीब तथा लाचार को और लाचार बनाने वाले वातावरण का ध्वन्यात्मक चित्रण करता है। सई परांजपे की दिशा फिल्म का ग्रामीण शहर में मजदूरी करने जाता है मगर गाँव में अपनी पत्नी को खो देता है।

झोपड़ी और चाल से शुरू होने वाली जिन्दगी पैदल और साइकिल पर मिल जाने और आने में ही खत्म होती है। मजदूर जीवन की संवेदना और यथार्थ के प्रभावी चित्रणों के परिप्रेक्ष्य में अंकुर, मिर्च मसाला, दामुल, आक्रोश, प्रतिघात जैसी फिल्मों को कभी भुलाया नहीं जा सकता।

सोमवार, 6 सितंबर 2010

ओंकारदास, दरअसल नत्था नहीं है.....

पीपली लाइव में नत्था की भूमिका निभाने वाले छत्तीसगढ़ी कलाकार ओंकारदास माणिकपुरी को फिल्म के साथ अपनी लोकप्रियता की कीमत शायद चुकाना पड़ रही है। फिल्म मेें एक शोषित और मुसीबत में पड़े आदमी को जीते हुए व्यवहार में अब उसके साथ मीडिया नत्था जैसा ही सलूक करने को लालायित दीख रहा है। पिछले दिनों दो अलग-अलग तरह की खबरों और उसी तरह की और भी पाँच-सात खबरों में नत्था की जिन्दगी और आर्थिक हालातों पर लिखा गया है। ओंकारदास माणिकपुरी ने पीपली लाइव में काम करने का अपना मानदेय दो लाख रुपए भी सभी को बता ही दिया गया है। यह भी लगे हाथ बता दिया है कि उसका मकान कच्चा है। उसकी मरम्मत कराना है। यह काम इतने रुपयों में नहीं हो सकता।

बात यह है कि फिल्म में जो किरदार नत्था ने निभाया है, वह बहुत अलग तरह का है। एक ऐसा भाई है जो बहुत भोला है और पत्नी-बाल-बच्चेदार होने के बावजूद बड़ी हद तक अपने भाई का ही अधीनस्थ है। पूरी फिल्म में उसके संवाद बमुश्किल पाँच-छ: बार होंगे। नत्था अपने बड़े भाई के साथ ही रहता है, अपने डर, चिन्ताएँ, अनिश्चतताएँ अपने भाई से ही व्यक्त करता है। अनुषा रिजवी ने इस किरदार के लिए उसका चयन बहुत ही परफेक्शन के साथ किया। ओंकारदास को ज्यादा बात करना नहीं आता। लोकमंच का रंग अपनी आंचलिकता में बड़ा मुकम्मल और प्रभावशाली होता है मगर उसका प्रभाव गाँव की दस-पाँच हजार की रात से सुबह तक जमने वाली भीड़ में दिखायी देता है।

अनुषा रिजवी ने एक सधे हुए निर्देशक की तरह ओंकारदास से किरदार को उसी तरह से जीने के लिए कहा जैसा वह खुद है। रोल की डिमाण्ड के आधार को उसने भी समझा और वैसा ही अदा किया। ओंकारदास के जीवन और संघर्ष की अपनी स्थितियाँ है, जिससे वह जूझता रहेगा मगर उसे अपनी विडम्बनाओं को इस तरह प्रस्तुत नहीं करना चाहिए जिससे उसकी वह प्रतिष्ठा प्रभावित हो, जो पीपली लाइव से उसे हासिल हुई है। उसे पीपली लाइव के मानदेय से अपनी परिस्थितियों को नहीं तौलना चाहिए। व्यवहारिकी में ऐसे भोले कलाकारों के कहे का ऐसा स्वर प्रतीत होता है, जो नाहक सनसनी खड़ी करता है।

पहली फिल्म से बनी प्रतिष्ठा को और आगे ले जाना है ओंकारदास को। यह उसका कोई एक और अन्तिम काम नहीं है। उसे सजग रहना चाहिए, सवालों से और तौल कर देना चाहिए जवाबों को। हो सकता है ऐसी खबरों से उसे अनुषा या आमिर खान से चार पैसे और मिल जाएँ मगर ओंकारदास इन्हीं वजहों से कहीं अपना वजन कम न कर ले।

एक मुलाक़ात

सिर उठाकर
उनसे अक्सर कहता हूँ
एक मुलाक़ात
तुमसे हो
कहीं अपनेपन में

धूप निहारती हो तुम्हें
जब मुंदी आँखें
घिरी हों बिखरी जुल्फों से
सोयी नहीं हो मगर
नींद के बहाने लिए
चुप मन में

एक लिखी पास हो और
एक हो जाग कर
याद की हुई
चिट्ठी पढ़ देंगे या
कह देंगे
एक बार जीवन में

हम सुनेंगे धड़कनों में
चहकते पंछियों का स्वर
आ गयी आवाज़ जो
दौड़े चले जायेंगे
पीछे-पीछे वन में....

रविवार, 5 सितंबर 2010

सपने और सुवास

तुम खुली आँखों की सचाई
बंद आँखों का एहसास
दोनों ही ओर
बड़ी पास....

खुली आँखों से
तुम्हें देखना मगर
कुछ न कह पाना
बंद आँखों में
तुम्हारा नज़दीक आ जाना
बोलना-बताना
मिलकर गाने का जी करे
ऐसा कोई मीठा
गीत याद दिलाना

पास होने की अपनी नरमाई
सपने और सुवास
दोनों ही
बड़े खास....

शनिवार, 4 सितंबर 2010

स्मृति-शेष। नारायण सुर्वे

नारायण सुर्वे के निधन का संज्ञान देश में केवल जनसत्ता अखबार ने ही उस गरिमा के साथ लिया, जिस गरिमा के वे सृजनधर्मी थे वरना देश के पढ़े और देखे जाने वाले मीडिया में समूची बीसवीं सदी में अपने विलक्षण और असाधारण रचनाकर्म के माध्यम से एक महत्वपूर्ण जगह बनाने वाले कवि पर कोई बात ही नहीं हुई। व्यक्तिश: मुझे उन पर लिखना और चर्चा करना इसलिए अपरिहार्य लगा क्योंकि लगभग दस साल पहले उनके साथ दो अलग-अलग समय में रहने और बात करने के सुअवसर मिले थे। वर्ष 1999 में उनको मध्यप्रदेश सरकार का भारतीय कविता का श्रेष्ठ पुरस्कार कबीर सम्मान प्राप्त हुआ था जिसे ग्रहण करने वे भोपाल पधारे थे। उस समय उनके आतिथ्य के दायित्वों से जुडऩा एक बड़ी खुशकिस्मती थी। अलंकरण ग्रहण करने के बाद उनका विनम्र और संक्षेप सम्बोधन मन को छू गया था जिसमें उन्होंने अपने दिवंगत माता-पिता को याद किया था। माता-पिता, मिल में काम करने वाले मजदूर जिन्हें माह-दो माह के नन्हें, नारायण एक शाम झुटपुटे में मजदूरी करके घर लौटते समय रास्ते में मिले थे। उन्हीं माता-पिता ने उनको पाला और अपना नाम दिया था।

नारायण सुर्वे का बचपन या जीवन, हमारे लिए कोई उस तरह की फिल्म नहीं हो सकती, जैसी भूमिकाएँ अमिताभ बच्चन ने अपनी बहुत सी फिल्मों में की हैं। जीवन या परिस्थितियों से कोई विद्रोह नारायण सुर्वे में नहीं था लेकिन अपने मजदूर माता-पिता की हृदयस्पर्शी और स्नेहिल परवरिश में उनके आसपास की श्रमिक दुनिया, संघर्ष और यथार्थ को लेकर एक ऐसा रचनात्मक बीज पड़ा जिसने हमारे बीच एक ऐसे कवि को प्रतिष्ठापित किया जिसने आगे चलकर बड़ा नाम किया और अपने अविभावक के प्रेम और संघर्ष को सार्थक किया। नारायण सुर्वे 15 अक्टूबर 1926 में जन्मे थे। अपने सुदीर्घ जीवन में उन्होंने अधिकांश समय मजदूरों और श्रमिकों के बीच बिताया। अपनी सक्रियता, शिक्षा और सामाजिक योगदान के बीच उन्होंने अपने स्वयं के असहाय और निराश जीवन में संकल्प, तत्परता, संघर्ष क्षमता एवं परिवर्तनकामी दृष्टि का बीजारोपण किया। उन्होंने शोषित-पीडि़तों के मन में छिपी विषादमय अनुभूतियों को अपने अनुभव का बुनियादी स्रोत बनाया।

नारायण सुर्वे महाराष्ट्र के ऐतिहासिक दलित आन्दोलन के पुरोधा रहे हैं। माक्र्सवादी दर्शन के प्रति गहरी प्रतिबद्धता के साथ ही उन्होंने अपना जीवन और सृजन संयोजित किया। उनकी कविताएँ विश्वविद्यालयों की पुस्तकों में हैं। व्यक्तित्व और कृतित्व की विरल एकता ने दुर्लभ सामाजिक प्रतिष्ठा भी उनकी स्थापित की जो विरले ही मिलती है। अपनी शख्सियत में नितान्त सीधे-सच्चे नारायण सुर्वे की अभिव्यक्ति का प्रमुख माध्यम कविता ही रही है। इसी के साथ-साथ उनका लिखा गद्य भी गुणात्मक रूप से क्रान्तिकारी रहा है। लोक वांग्मय के प्रधान सम्पादक रहते हुए उन्होंने लगातार इसके प्रमाण भी दिए। सुर्वे की कविताओं की सारवस्तु विश्व नागरिकता में निहित रही है। उनकी कविताओं की विविधवर्णीयता में श्रमिकों और बुद्धिजीवियों में आन्दोलित करने की विलक्षण क्षमता देखी जाती है। नारायण सुर्वे का एक बड़ा योगदान यह भी रहा है कि उन्होंने मराठी कविता को दलितों के पक्ष में खड़ा कर उसे नया प्रतिवादी आयाम प्रदान किया। किम्वदन्तियों, मिथकों ओर विपुल लोकस्रोतों से सम्पृक्त नारायण सुर्वे का काव्य लोकस्वर के रूप में व्यापक हुआ। प्रेम, संघर्ष, अवसाद, उल्लास, सुख-दुख से उत्प्रेरित उनका रचनाकर्म लोगों में बड़े भरोसे और सम्बल का काम करता रहा है।

नारायण सुर्वे की कविताएँ वस्तु और रूप दोनों आयामों में सृजनलोक को एक अलहदे वातावरण में रखकर देखी जाती हैं। सौन्दर्य का नया जनतंत्रात्मक बोध और प्रतिमान उनकी कविता का सहज गुण रहा। जन कविता के अनन्य सृजन-पुरुष के रूप में नारायण सुर्वे की उपस्थिति, खासकर रचनापाठ के अत्यन्त कोमल और सम्प्रेषणीय लहजे के कारण सुनने वालों में गहरी पैठी रही। एक समाजप्रतिबद्ध और सार्थक सृजनधर्मी के रूप में उनकी अहम उपस्थिति कभी भी नजरअन्दाज नहीं की जा सकती। उनका कृतित्व मात्रात्मकता से ज्यादा गुणात्मक रूप में विराट रहा है। ऐसा गा मी ब्रह्म, माझे विद्यापीठ, जाहिरनामा, मानुष कलावन्त, आणि समाज, सर्व सुर्वे और सनद उनके प्रमुख काव्य संग्रह रहे हैं। गद्यकृतियों में, मनुष्य कलावन्त और समाज तथा नये मनुष्य का आगमन विशेष प्रतिष्ठित पुस्तकें हैं। नारायण सुर्वे की कविताओं के अनुवाद सभी भारतीय भाषाओं के साथ-साथ अंग्रेजी और रूसी भाषाओं में भी हुए। हिन्दी और उर्दू में सुर्वे की कविताओं के विपुल पाठक और प्रशंसक हैं। नारायण सुर्वे ने देश-दुनिया में रचनापाठ किया और कृतित्व तथा व्यक्तित्व से सबका मन मोहा। उन्हें पद्मश्री और सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार भी मिले और जैसा कि शुरू में जिक्र आया, राष्ट्रीय कबीर सम्मान भी।

विख्यात फिल्मकार अरुण खोपकर ने नारायण सुर्वे पर एक लघु फिल्म भी बनायी थी जिसकी पटकथा और संवाद शान्ता गोखले ने लिखे थे। इस फिल्म में मराठी अभिनेता किशोर कदम ने सुर्वे की युवा अवस्था की भूमिका निभायी थी। यह फिल्म सुर्वे के जीवन और सृजन को बड़े नजदीक से देखती है। इस फिल्म को राष्ट्रपति का स्वर्ण कमल पुरस्कार लघु फिल्म श्रेणी में प्राप्त हुआ था। ऐसा पुरस्कार पाने वाली मराठी की यह पहली फिल्म थी। इस फिल्म में नारायण सुर्वे की कविता, माझी आई, का पाठ अत्यन्त संवेदनशील प्रसंग है। चौरासी वर्ष की आयु में नारायण सुर्वे का जाना, हो सकता है, एक परिपक्व उम्र में महाप्रयाण के नजरिए से व्यग्र न भी करता हो, मगर एक ऐसे कवि की अनुपस्थिति का विचलन है जो जीवनभर उस संघर्ष का नैतिक और निष्ठावान हिस्सा बना रहा, जिस परिवेश में उसकी परवरिश हुई और जिसके सुख-दुख को तहेदिल से उसने अपना और अपनी रचनाशीलता का हिस्सा माना। नारायण सुर्वे और उनका कृतित्व इस रूप में हमेशा चिरस्थायी रहेगा।

आज भी प्रासंगिक है सत्येन बोस की जागृति

सत्येन बोस की फिल्मिस्तान के लिए 1954 में निर्देशित फिल्म जागृति का जिक्र शिक्षक दिवस के दिन ज्यादा उल्लेखनीय और सार्थक लगता है। यह फिल्म उस दौर में आयी थी जब देश आजाद हुए सात साल हो रहे थे। अपनी अस्मिता के हिन्दुस्तान में एक आदर्श सभ्यता और आने वाली पीढ़ी को श्रेष्ठ संस्कार देने की भावना के उद्देश्य को रेखांकित करने वाली यह फिल्म अपनी अनेक विशिष्टताओं के कारण अविस्मरणीय है। जागृति की सबसे बड़ी विशेषता उसका मन को छू लेना है। यद्यपि यह बच्चों को केन्द्रित करके बनायी गयी फिल्म थी मगर इसमें बड़ों के लिए भी परम सन्देश था।

एक शिक्षण संस्थान के शरारती बच्चों और उनसे परेशान अध्यापकों की स्थितियों पर बनी इस फिल्म में हम देखते हैं कि किस तरह देश का भविष्य कहे जाने वाले बच्चों के साथ शिक्षण संस्था में अविभावक उम्र और अवस्था के, व्यवस्था से जुड़े लोग भेदभाव और उपेक्षा का बरताव करते हैं। अध्यापक का अर्थात इसी में सार्थक है कि वह बच्चों के हाथ और पीठ पर बेंत जमाने में कितनी महारथ हासिल किए है। बच्चों को मिलने वाला भोजन कितना खराब है मगर सुपरिडेण्ट के लिए अलग अच्छा खाना बन रहा है। अराजक बच्चे आखिर ऐसे सुपरिडेण्ट को खूब तंग करके भगा देते हैं। उनकी जगह एक अध्यापक शेखर बाबू आते हैं जिनके विचार उच्च हैं, बच्चों से भविष्य की उम्मीदें रखते हैं, उनके मनोविज्ञान को समझते हैं, उनमें निडर और निर्भीक हिन्दुस्तान की तस्वीर देखते हैं। शिक्षा की जो व्यवहारिक परिपाटी वे अपनी पहल पर स्कूल में लागू करते हैं, वह बच्चों को एक नया आसमान देती है।

वह प्रसंग अनूठा और अद्भुत है जब शेखर बाबू बच्चों को साथ लेकर एक रेल मे बैठकर पूरा देश घुमाने निकल पड़ते हैं, यह गीत गाते हुए, आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ झाँकी हिन्दुस्तान की। जागृति का कथ्य बड़ा प्रभावी है। यह फिल्म केवल 1954 में ही नहीं आज भी प्रेरणा देने का काम करती है। कवि प्रदीप के गीत, हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के, दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल, आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ, आज भी हमारे कानों में गूँजते हैं। इन गीतों की एक-एक पंक्तियों में गजब की ऊष्मा महसूस होती है। हेमन्त कुमार का संगीत इन गीतों को अर्थवान बना देता है।

अभिभट्टाचार्य का युवा और प्रभावी व्यक्तित्व उस कालखण्ड की इस फिल्म में आशा और आदर्श की कांति से चमकता दिखायी देता है। एक सच्चे, नैतिक और प्रतिबद्ध मनुष्य में क्या कुछ करने की क्षमता नहीं होती, यह जागृति के गुरु शेखर बाबू के किरदार से प्रमाणित होता है। शेखर बाबू के पदोन्नत होकर बड़े पद पर जाने की खबर से सारे बच्चे उनसे लिपट कर जिस तरह से रोने लगते हैं और नहीं जाने को कहते हैं, वह दृश्य भावुक कर देता है। वास्तव में जागृति, अपने आत्मावलोकन और शिक्षक दिवस को सार्थक करने के लिए आज देखने का सबसे अच्छा जरिया है।

तुमसे

मन ही मन सोचते रहे कब से
कह देना है मन की बात तुमसे

जाने क्या-क्या तय करके रखा है
सब बताएँगे होगी जब मुलाक़ात तुमसे

इतना करना कि धीरज से सुन लेना
जब व्यक्त करेंगे अपने जज़्बात तुमसे

मुस्कुराना न सही क्रोध मगर न करना
सह लेना हमारे कहे हालात तुमसे

जाने क्या होगा उन ढाई अक्षरों का
टूटकर बिखर जायेंगे जो नगमात तुमसे

शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

सीधी संवादहीनता की समस्याएँ

अमिताभ बच्चन ने अपने ब्लॉग में लिखा है कि मेट्रो सम्बन्धी पहल को लेकर उनके विचारों को मीडिया ने अपने ढंग से प्रकाशित कर उनका पक्ष प्रभावित किया है। यह शायद पहली बार नहीं हुआ है कि मीडिया को लेकर महानायक ने अपनी शिकायत दर्ज करायी हो। दरअसल पचास की उम्र में सन्यास लेने और उसके पाँच साल बाद वापस आने के दरम्यान ही उनके और मीडिया के बीच रिश्तों की खट्टा-मीठी शुरू हो गयी थी। उससे पहले जब वे बड़ी दुर्घटना का शिकार हुए थे, उससे पहले उन्होंने मीडिया से खासा परहेज कर रखा था मगर बीमारी के समय जिस तरह मीडिया ने अपनी जिम्मेदार भूमिका का निर्वाह किया और उनके प्रशंसकों तक पल-पल की खबर दी, उससे महानायक का हृदय पिघला और एक बार फिर संवाद शुरू हुआ।

सन्यास अन्तराल के बीच के पाँच बरसों में बेशक कुछ खास नहीं घटा लेकिन मृत्युदाता से जिस तरह उनका पुनर्आगमन हुआ, उस स्थूल वापसी पर फिर मीडिया ने अपना निष्पक्ष रुख रखा, फिर दिक्कतें हुईं। हालाँकि फिर कुछ समय बाद जब वे नायक के सम्मोहन से मुक्त हुए और मोहब्बतें से अपना एक नया सिलसिला शुरू किया तो उनके काम की प्रशंसा भी हुई और रवि चोपड़ा की बागवान पर जैसी समीक्षाएँ और अमिताभ के काम का मूल्याँकन मीडिया में हुआ, उससे वे फिर एक बार अपनी खिन्नता से बाहर आए और सदाशयी हुए।

अभी फिर तकरीकन कुछ वर्षों से उनका संवाद मीडिया के साथ कम हो रहा है। उनके पास पर्याप्त समय अब रहता है मगर, जाहिर है, इसके लिए वे स्वतंत्र भी हैं, कि वे अपने समय का कैसे सदुपयोग करें, वे ब्लॉग लिख रहे हैं और ट्विटर पर अपने विचार व्यक्त किया करते हैं। यहाँ फिर उनके और मीडिया के बीच सीधी और स्वस्थ बातचीत की मुकम्मल दूरी बनी हुई है।

दिलचस्प यह है कि मीडिया को उनमें खूब रुचि है। अखबारों के पन्ने, हर दिन अमिताभ बच्चन के ब्लॉग और ट्विटर के मुखारविन्द से अपनी सार्थकता सिद्ध करते हैं और सीधी बातचीत की स्थितियाँ नहीं सी है। ऐसे में कुछ टूटता या मुड़ता है तो उसको तोड़ा-मरोड़ा कहकर शिकायत होना स्वाभाविक भी है। भारतीय सिनेमा में बच्चन से भी अधिक प्रतिष्ठा रखने वाले रजनीकान्त या मोहनलाल को शायद इस तरह की समस्या इसलिए नहीं है क्योंकि उनके और मीडिया के बीच दूरी नहीं है।

आमिर खान ने चार कदम आगे आकर अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता को प्रमाणित करके अपनी छबि को समृद्ध किया है। पता नहीं, महानायक क्यों उदारता और संवाद की सहजता से अपने आपको दूर रखते हैं?

एक दबंग नायक का प्रभाव

सलमान खान की नयी फिल्म दबंग के प्रोमो टेलीविजन के विभिन्न चैनलों पर अपना प्रभाव जमा रहे हैं। वे एक एक्शन हीरो के रूप में अच्छी तरह प्रतिष्ठित हैं और अपनी तरह की सेल्फ क्रिएट कॉमेडी में भी उनका सितारा खूब चमका है। यही कारण है कि उनका दर्शक वर्ग लगातार बना हुआ है। यह हमेशा देखा जाता है कि हर वक्त में सलमान खान की फिल्म की ओपनिंग बड़ी जिज्ञासा से देखी जाती है। उनके समकालीन सितारों में कई नाम बड़े और बराबर की हैसियत रखने वाले हैं मगर किसी को भी उस तरह की शुरूआती सफलता नहीं मिलती, जैसी सलमान के खाते में आती है। वाण्टेड ने पिछले साल अपना चमत्कार दिखाया था और निर्माता बोनी कपूर के सिर से कई कर्ज उतारने का काम किया था। अब सलमान घर की, अपने भाई अरबाज की फिल्म दबंग में आ रहे हैं।

दबंग की रिलीज को देखते हुए सितम्बर माह में दूसरी कोई बड़ी फिल्म रिलीज नहीं हो रही है। सितम्बर में बमुश्किल तीन-चार फिल्में प्रदर्शित हो रही हैं जिनमें से एक विदेशी, एक दूसरी भाषा की डब और एक करण जौहर की व्ही आर फैमिली है, जिसका कोई भविष्य दिखायी नहीं देता। हालाँकि व्ही आर फैमिली 3 अगस्त को प्रदर्शित हो रही है और दबंग 10 सितम्बर को लिहाजा, दबंग के प्रदर्शन का वक्त आते-आते, फैमिली का फैसला हो ही जायेगा। इस तरह देखा जाये तो सलमान खान के सामने खुला मैदान है। इसे हम एक दबंग नायक का प्रभाव ही मान सकते हैं कि दूसरे निर्माता अपनी बड़ी फिल्मों के लिए कोई जोखिम लेना नहीं चाहते। सलमान खान दबंग में एक पुलिस अधिकारी की भूमिका में हैं और नायिका की भूमिका शत्रुघ्र सिन्हा की बेटी सोनाक्षी को मिली है। सोनाक्षी की यह पहली फिल्म है और सलमान के सिन्हा से गहरे पारिवारिक रिश्ते हैं, लिहाजा सोनाक्षी को एक अच्छी भूमिका और फिल्म के बनते हुए अच्छा वातावरण मिला है।

सलमान ने पिछले वर्षों में अपने सामाजिक सरोकारों और एक कलाकार से इतर संवेदनशील इन्सान के रूप में अपनी महत्वपूर्ण जगह बनायी है। दबंग को लेकर वे आश्वस्त हैं। प्यार किया तो डरना क्या, उनके एक भाई सोहेल की फिल्म थी, जो हिट रही थी, अरबाज की यह फिल्म दबंग एक मुकम्मल नायक के रूप में सलमान को पेश करती है। फिल्म के निर्देशक अभिनव सिंह कश्यप ने दिलीप शुक्ला के साथ मिलकर यह फिल्म लिखी भी है। दबंग में एक साहसी पुलिस अधिकारी अपने हौसले और जोखिम का प्रदर्शन मस्तिष्क का बखूबी इस्तेमाल करके करता है। समाज में अपराध की पृष्ठभूमि, राजनैतिक हस्तक्षेप और अपराधियों के दुस्साहस के बीच दबंग एक उत्तरदायी और कर्तव्यनिष्ठ पुलिस अधिकारी की भूमिका को एक नये तेवर के साथ प्रस्तुत करती है।

खेमा, आवाजाही और अदला-बदली

फिल्मों में अपनी-अपनी पसन्दगी के अनुसार टीमें बनने की घटनाएँ नई नहीं हैं। लम्बे समय से यह होता आ रहा है। एक निर्देशक हुआ, उसने अपनी पसन्द के अभिनेता और अन्य कलाकारों का चुनाव किया। उसकी बनायी फिल्म सफल हो गयी तो फिर अगली बार साथ काम करने की स्थितियाँ आयीं। कई बार बात इस तरह भी बनती रही कि आने वाली कई फिल्मों तक साथ काम होता रहा। निर्देशक ने यदि कभी कोई बदलाव चाहा भी तो बिना किसी पूर्वाग्रह के किसी और का चयन कर लिया, उसके साथ काम किया। सफलता या असफलता जो भी हासिल हुई, उसका मलाल नहीं किया।

स्वर्गीय बिमल राय ने दिलीप कुमार के साथ देवदास, मधुमति और यहूदी तीन फिल्मों में काम किया वहीं अशोक कुमार के साथ परिणीता और बन्दिनी कीं। उनके सम्पादक रहे हृषिकेश मुखर्जी धर्मेन्द्र और अमिताभ बच्चन के साथ लगभग समान संख्या में फिल्में करने वाले निर्देशक रहे हैं और हृषिदा ने ही समानान्तर रूप से अमोल पालेकर को लेकर भी फिल्में बनायीं लेकिन इन विलक्षण फिल्मकारों पर अपना कोई खेमा या ग्रुप बनाने का ठप्पा नहीं लगा। इन सभी के लिए अपनी अपेक्षित रचनाशीलता के कलाकारों और लेखकों का चयन उत्कृष्ट काम की आकांक्षा मानी जा सकती थी। किसी कलाकार में भी तब इतना साहस नहीं होता था कि वो न लिए जाने का बुरा माने या गाँठ बांधे।

अब स्थितियाँ दूसरी हैं। फराह खान को शाहरुख खान खेमे का निर्देशक माना जाता है। एक कोरियोग्राफर से निर्देशक तक के सफर में शाहरुख खान का समर्थक फराह के लिए बड़ा मायने रखता है लेकिन साल के शुरू में जब से फराह ने अक्षय कुमार के साथ अपने पति शिरीष के लिए तीस मार खाँ निर्देशित करने की शुरूआत की, तभी से उन पर टिप्पणियाँ हो रही हैं। शाहरुख खान पर क्या बीत रही है, यह मनगढंत पढऩे-सुनने में आता है और फराह की धारा आगे क्या होगी, इसका आकलन किया जाता है। हाल ही में यह भी सुनने में आया कि फराह ही एक अपने घर की एक और फिल्म अक्षय कुमार को लेकर बनाएँगी जिसका नाम है जोकर। स्वर्गीय राजकपूर ने एक चुनौती जोकर बनकर उठायी थी, वह ऐतिहासिक है, दूसरी चुनौती अक्षय उठाएँगे।

अक्षय कुमार, फराह खान के भाई साजिद के लकी हीरो हैं। वे पहली बार फराह के साथ आ रहे हैं। इसके अलावा यह भी संकेत दिखायी देते हैं कि शायद फराह, आगे कोई फिल्म सलमान को लेकर भी निर्देशित करें। कुल मिलाकर यह कि अब हिन्दी फिल्मों में दायरों को बढ़ाने और विस्तारित करने के बजाय, संकीर्णता में ही सोचे जाने की स्थितियाँ बहुत ज्यादा हैं।

गुरुवार, 2 सितंबर 2010

अन्तरालों के आक्रोश और अर्थात

अजय देवगन और अक्षय खन्ना की फिल्म आक्रोश के प्रोमो इन दिनों टेलीविजन के विभिन्न चैनलों में दिखाए जा रहे हैं। दोनों ही कलाकार पुलिस अधिकारी की भूमिका में हैं और फिल्म का विषय मूल रूप से ऑनर किलिंग है। इस तरह की घटनाएँ पिछले दिनों लगातार आम हुई हैं। ऐसा मसला है जिसका ग्राफ लगातार बढ़ रहा है। एक घटना के आगे दूसरी घटना इस बात को साबित कर रही है कि उत्तरदायी व्यवस्थाएँ या तो असमर्थ हैं या निरीह हैं। अपराधों के बढ़ते ग्राफ के बीच अब यह जुमला तो बेहद आम हो ही गया है कि अपराधियों को अब पुलिस या पुलिस व्यवस्था का भय नहीं रहा। हिन्दी फिल्मों में हमेशा पुलिस को क्लायमेक्स में सारे काम हो जाने के बाद पहुँचते हुए दिखाया जाता रहा है जो बाद में मजाक का विषय भी बना।

यद्यपि कुछ सबल और प्रभावशाली फिल्मकारों ने पुलिस को केन्द्र में रखकर, नायकों को आत्मबल और ताकत प्रदान कर अच्छी फिल्में भी बनायीं। खासतौर पर हम इस विषय में गोविन्द निहलानी जैसे सशक्त फिल्मकार की चर्चा करना चाहेंगे जिन्होंने अर्धसत्य, द्रोहकाल, देव आदि फिल्मों के माध्यम से सामाजिक अराजकता में कर्तव्यनिष्ठ और नैतिक प्रतिमान वाले पुलिस अधिकारियों के प्रभावी पक्ष के साथ-साथ उन पक्षों को भी छुआ जहाँ व्यवस्था और राजनैतिक हस्तक्षेप में चाहे-अनचाहे समझौतों के बीच इनको खड़ा होना पड़ता है। फिर भी जॉन मैथ्यू की फिल्म सरफरोश, विशाल भारद्वाज की फिल्म मकबूल, रामगोपाल वर्मा की फिल्म शूल, जे.पी. दत्ता की फिल्म गुलामी में पुलिस अधिकारी और यह अनुशासन अपने विविध आयामी रंगों में नजर आता है।

गोविन्द निहलानी की फिल्म आक्रोश का, प्रियदर्शन की फिल्म आक्रोश के प्रदर्शन के माहौल में याद आना स्वाभाविक है। दस साल में हम अनुमति के साथ पुराने नाम की फिल्म दोबारा बना सकते हैं। गोविन्द निहलानी की आक्रोश अत्यन्त सशक्त फिल्म थी। उस प्रभाव तक प्रियदर्शन का पहुँच पाना मुश्किल है। प्रियदर्शन बड़ी तेजी से अपनी फिल्मों की संख्या बढ़ाया करते हैं। यह बात अलग है कि बीसियों हास्य फिल्म बना चुकने के बाद उन्होंने पिछले दिनों कांचीवरम जैसी संवेदनशील फिल्म बनाकर राष्ट्रीय पुरस्कार हासिल किया और अब आक्रोश बनायी है। गोविन्द निहलानी की आक्रोश ने उनको आरम्भ में ही स्थापित कर दिया था। यह फिल्म एक सीधे-सादे आदमी की कहानी है जो बेहद गरीब है और जंगल सरीखे गाँव में रहता है। रसूखवालों के जुल्म का शिकार आक्रोश का नायक लहाण्या आज भी अपनी चुप्पी की वजह से याद आता है। एक त्रासद सच का सामना करते हुए जब वह फिल्म के अन्त में अपनी बहन को मार देता है तब माहौल में बड़ा सन्नाटा व्याप्त हो जाता है। सजायाफ्ता लहाण्या के आगे अपनी बहन को आतताइयों से बचाने का यही एक रास्ता था।

प्रियदर्शन की आक्रोश पता नहीं निहलानी की आक्रोश को कहाँ तक छू पाएगी?

बुधवार, 1 सितंबर 2010

श्याम तेरी बंसी पुकारे राधा नाम

जन्माष्टमी का अवसर है, हिन्दी सिनेमा में फिल्मों और गीतों के माध्यम से कितनी ही बार भगवान कृष्ण की वन्दना की गयी है, उनका जीवन चरित दिखाया गया है, उनके सरोकारों का वर्णन किया गया है, उनकी आराधना में खूबसूरत गीत लिखे, संगीतबद्ध किए और गाये गये हैं। लम्बे समय तक हमारे सिनेमा की यह विशेषता रही है कि विभिन्न पर्वों और अनुष्ठानों पर फिल्में, प्रसंग और घटनाएँ केन्द्रित की गयी हैं। उनको परदे पर देखना सुखद रहा है और हमें आनंद भी प्रदान करता रहा है। यशोदा और यशोदा कृष्ण नाम की फिल्में हमारे यहाँ बनी हैं। सचिन ने कृष्ण की भूमिका निभायी है। भारत की विभिन्न भाषाओं में कृष्ण जीवन पर बनी फिल्मों की संख्या बहुत ज्यादा है। पचास के दशक में कन्नड़ में के वी राजू ने श्रीकृष्णा बनायी। बाबूभाई मिस्त्री ने कृष्ण-अर्जुन युद्ध के नाम से 71 में एक फिल्म का निर्माण किया।

सिनेमा के पितामह दादा साहब फाल्के ने दो बार कृष्ण भक्ति पर फिल्में बनायीं, श्रीकृष्ण जन्म और श्रीकृष्ण शिष्टई। इसके अलावा कालिया मर्दन के रूप में उनकी आरम्भिक फिल्म को भुलाया नहीं जा सकता। बाबूराव पेंटर ने 1923 में श्रीकृष्णावतार फिल्म बनायी थी। 1929 में व्ही. शान्ताराम ने प्रभात पिक्चर्स के बैनर पर गोपालकृष्ण फिल्म का निर्माण किया। दाूमले-फत्तेलाल ने भी गोपालकृष्ण फिल्म बनायी। श्रीकृष्ण भक्ति, श्रीकृष्ण भक्त पीपा जी, श्रीकृष्ण दर्शन, हरि दर्शन, श्रीकृष्णा गरुडि़, श्रीकृष्ण जन्म, श्रीकृष्ण लीलालु, श्रीकृष्ण माया, श्रीकृष्ण नारदि, श्रीकृष्णांजनेय युद्धम, श्रीकृष्णार्जुन युद्ध, श्रीकृष्ण रुक्मिणी, श्रीकृष्ण रुक्मिणी सत्यभामा, श्रीकृष्ण सत्य, श्रीकृष्ण सत्यभामा, श्रीकृष्ण शरणम मम:, श्रीकृष्ण सुदामा, श्रीकृष्णावतारम, श्रीकृष्ण विजयम, श्रीकृष्ण विवाह आदि अनेक फिल्में हिन्दी सहित तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम और संस्कृत में अब तक समय समय पर बनी हैं। श्रीकृष्णलीला और श्रीकृष्ण तुलाभरम नाम से तो अलग-अलग समय में दक्षिण की अलग-अलग भाषाओं में चार बार फिल्में बनीं।

भारतीय पौराणिक फिल्मों में एन.टी. रामाराव, शाहू मोडक, महिपाल, अभिभट्टाचार्य ऐसे कलाकार थे जिन्होंने समय-समय पर राम, विष्णु और कृष्ण की भूमिकाएँ विभिन्न फिल्मों में निभायीं। सचिन भी राजश्री की एक फिल्म गोपालकृष्ण में कृष्ण बनकर आये। महाभारत धारावाहिक में नितीश भारद्वाज कृष्ण बने। श्रीकृष्ण को केन्द्र में रखकर हिन्दी फिल्मों में वक्त-वक्त पर अनेक गीत भी रचे गये जो आज भी याद आते हैं। आन मिलो आन मिलो श्याम साँवरे आन मिलो, बड़ी देर भई नंदलाला तेरी राह तके बृजबाला, श्याम तेरी बंसी पुकारे राधा नाम, ऐ रे कन्हैया किसको कहेगा तू मैया, नींद चुराए चैन चुराए डाका डाले तेरी बंसी, गोकुल की गलियों का ग्वाला नटखट बड़ा नंदलाला, गोपाला गोपाला माखन चुराने आया गोपाला जैसे गीतों की एक बड़ी फेहरिस्त है।