सत्येन बोस की फिल्मिस्तान के लिए 1954 में निर्देशित फिल्म जागृति का जिक्र शिक्षक दिवस के दिन ज्यादा उल्लेखनीय और सार्थक लगता है। यह फिल्म उस दौर में आयी थी जब देश आजाद हुए सात साल हो रहे थे। अपनी अस्मिता के हिन्दुस्तान में एक आदर्श सभ्यता और आने वाली पीढ़ी को श्रेष्ठ संस्कार देने की भावना के उद्देश्य को रेखांकित करने वाली यह फिल्म अपनी अनेक विशिष्टताओं के कारण अविस्मरणीय है। जागृति की सबसे बड़ी विशेषता उसका मन को छू लेना है। यद्यपि यह बच्चों को केन्द्रित करके बनायी गयी फिल्म थी मगर इसमें बड़ों के लिए भी परम सन्देश था।
एक शिक्षण संस्थान के शरारती बच्चों और उनसे परेशान अध्यापकों की स्थितियों पर बनी इस फिल्म में हम देखते हैं कि किस तरह देश का भविष्य कहे जाने वाले बच्चों के साथ शिक्षण संस्था में अविभावक उम्र और अवस्था के, व्यवस्था से जुड़े लोग भेदभाव और उपेक्षा का बरताव करते हैं। अध्यापक का अर्थात इसी में सार्थक है कि वह बच्चों के हाथ और पीठ पर बेंत जमाने में कितनी महारथ हासिल किए है। बच्चों को मिलने वाला भोजन कितना खराब है मगर सुपरिडेण्ट के लिए अलग अच्छा खाना बन रहा है। अराजक बच्चे आखिर ऐसे सुपरिडेण्ट को खूब तंग करके भगा देते हैं। उनकी जगह एक अध्यापक शेखर बाबू आते हैं जिनके विचार उच्च हैं, बच्चों से भविष्य की उम्मीदें रखते हैं, उनके मनोविज्ञान को समझते हैं, उनमें निडर और निर्भीक हिन्दुस्तान की तस्वीर देखते हैं। शिक्षा की जो व्यवहारिक परिपाटी वे अपनी पहल पर स्कूल में लागू करते हैं, वह बच्चों को एक नया आसमान देती है।
वह प्रसंग अनूठा और अद्भुत है जब शेखर बाबू बच्चों को साथ लेकर एक रेल मे बैठकर पूरा देश घुमाने निकल पड़ते हैं, यह गीत गाते हुए, आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ झाँकी हिन्दुस्तान की। जागृति का कथ्य बड़ा प्रभावी है। यह फिल्म केवल 1954 में ही नहीं आज भी प्रेरणा देने का काम करती है। कवि प्रदीप के गीत, हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के, दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल, आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ, आज भी हमारे कानों में गूँजते हैं। इन गीतों की एक-एक पंक्तियों में गजब की ऊष्मा महसूस होती है। हेमन्त कुमार का संगीत इन गीतों को अर्थवान बना देता है।
अभिभट्टाचार्य का युवा और प्रभावी व्यक्तित्व उस कालखण्ड की इस फिल्म में आशा और आदर्श की कांति से चमकता दिखायी देता है। एक सच्चे, नैतिक और प्रतिबद्ध मनुष्य में क्या कुछ करने की क्षमता नहीं होती, यह जागृति के गुरु शेखर बाबू के किरदार से प्रमाणित होता है। शेखर बाबू के पदोन्नत होकर बड़े पद पर जाने की खबर से सारे बच्चे उनसे लिपट कर जिस तरह से रोने लगते हैं और नहीं जाने को कहते हैं, वह दृश्य भावुक कर देता है। वास्तव में जागृति, अपने आत्मावलोकन और शिक्षक दिवस को सार्थक करने के लिए आज देखने का सबसे अच्छा जरिया है।
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