शनिवार, 18 सितंबर 2010

अनुपमा : या दिल की सुनो दुनियावालों....

अनुपमा, हृषिकेश मुखर्जी की एक यादगार फिल्म है जिसका प्रदर्शन काल 66 का है। मुख्यत: तो यह कहानी एक पिता और बेटी की है जिनके बीच असाधारण दूरियाँ हैं। एक घर में रहने के बाद भी पिता की नफरत और बेटी की चुप्पी उन दूरियों को पाट नहीं पाते। यह एक ऐसे इन्सान की कहानी है जो अपनी पत्नी से बहुत प्यार करता है। पत्नी भी अपने पति को दिलो-जान से चाहती है। बड़ी बेसब्री से उसके घर लौटने का इन्तजार करती है। वह पियानों पर एक खूबसूरत गाना भी गाती है, धीरे-धीरे मचल, ऐ दिले बेकरार कोई आता है.....। इसी गाने में बीच की एक लाइन कितना मन को छू जाती है, देखिए, रूठ कर पहले जी-भर सताऊँगी मैं, जब मनाएँगे वो मान जाऊँगी मैं।

खुशी और प्यार से भरी इस दुनिया को एक हादसा उजाड़ देता है। पत्नी माँ बनने वाली है। वह एक बेटी को जन्म देती है किन्तु जन्म देने के बाद ही उसकी मृत्यु हो जाती है। मन को झकझोरने वाले दृश्य हैं इस फिल्म में। पत्नी की मृत्यु हो गयी है और उसी सन्नाटे में बेटी के रोने की आवाज आती है। पिता मन ही मन अपने दुख और इस हादसे का कारण बेटी को मानता है। बेटी का जन्मदिन आता है और पिता को अपनी पत्नी के नहीं रहने का दिन याद आता है। इस उपेक्षा के कारण ही बेटी सदा चुप रहती है। ऐसे में उसके जीवन में एक लेखक आता है जो उसके मन और चुप्पी में झाँकने की कोशिश करता है। यह नायक, इस युवती के खोए-खोए, शान्त चेहरे में अपने उपन्यास की नायिका अनुपमा को तलाश करता है। नायक उसे इस नाम से बुलाता भी है। यह उपन्यास वास्तव में एक नयी दुनिया रचता है। नायक अशोक, नायिका उमा के जीवन में आखिरकार मुस्कराहट लाने में सफल होता है। वह उमा से विवाह करना चाहता है मगर पिता यह नहीं होने देना चाहते।

फिल्म के अन्त में जब नायक अकेला लौट रहा होता है तो नायिका उसके पास आ जाती है, साथ चलने के लिए। फिल्म के अन्त में पिता का मौन प्रायश्चित और आँखों से बहते आँसू बहुत कुछ कह जाते हैं। फिल्म मन को इस तरह छूते हुए चलती है कि संजीदा दर्शकों का हृदय भी नम हुए बगैर नहीं रहता। अनुपमा, वास्तव में हृषिकेश मुखर्जी की कहानी पर बनी फिल्म है जिसके संवाद राजिन्दर सिंह बेदी ने लिखे थे। कैफी आजमी ने दिल को छू जाने वाले गीतों की रचना की थी जिनका संगीत हेमन्त कुमार ने तैयार किया था। अनुपमा तरुण बोस, धर्मेन्द्र और शर्मिला टैगोर के प्रभावशाली अभिनय पर सफल होने वाली, सदा याद आने वाली फिल्म है।

4 टिप्‍पणियां:

ओशो रजनीश ने कहा…

बढ़िया लेख लिखा है ........

इसे भी पढ़कर कुछ कहे :-
(आपने भी कभी तो जीवन में बनाये होंगे नियम ??)
http://oshotheone.blogspot.com/2010/09/blog-post_19.html

राणा प्रताप सिंह (Rana Pratap Singh) ने कहा…

बहुत सुन्दर फिल्म है
फिर से यादें ताज़ा कराने के लिए शुक्रिया|
ब्रह्माण्ड

सुनील मिश्र ने कहा…

आभार ओशो जी.

सुनील मिश्र ने कहा…

मैं आपकी प्रशंसा के लिए आभारी हूँ राणा प्रताप सिंह जी.