कुछ दिन पहले ही एक समाचार ने हतप्रभ कर दिया। वैसे तो हर दिन अखबार में हतप्रभ करने वाले कई समाचार होते हैं मगर इस समाचार की तासीर कुछ ऐसी थी कि तत्काल ही महान फिल्मकार व्ही. शान्ताराम की फिल्म दो आँखें बारह हाथ याद आ गयी। घटना जोधपुर की थी। एक कैदी ने जो कि जेलर के प्रति घात लगाकर बैठा था, मौका पाते ही हत्या कर दी। हत्या के पीछे कारण क्या थे, उनकी तह में जाना अलग विषय है। जाँच होगी तब पता चलेगा कि ऐसा क्यों हुआ, जाने सच कारण क्या होंगे, सामने लीपापोती के बाद क्या आयेगा। बहरहाल एक दुर्दान्त घटना ने मन को देर तक अशान्त किए रखा।
जेल में अपराधी अपने गुनाहों की सजा काटने आते हैं। कितने प्रायश्चित भाव से आते हैं और कितने ठसक के साथ ये दूसरे विषय हैं मगर जेल की अवधारणा के पीछे सुधार मुख्य उद्देश्य ही रहा है। किसी जमाने में जब सामाजिक प्रतिबद्धता का ही सिनेमा बना करता था तब ही व्ही. शान्ताराम ने दो आँखें बारह हाथ इसी विषय को लेकर बनायी थी। इसमें तो एक बड़ा साहसिक प्रयोग था कि जेलर छ: भयानक अपराध की सजा काट रहे गुनहगारों के जीवन में बदलाव लाने की चुनौती खुद उठाता है। वह बड़े अधिकारियों से अनुमति प्राप्त कर एक निर्जन स्थान में रहकर सबको नैतिकता की शिक्षा देता है। यह फिल्म विलक्षण थी। आज के बाजारू सिनेमा की तरह कहानी नहीं थी कि अपराधी जेलर को धोखा देकर या उसकी हत्या करके भाग जाएँ।
उस फिल्म में एक दृश्य है जिसमें दाढ़ी बनाते हुए एक अपराधी जेलर के गले में एक जगह उस्तरा रोककर उसकी गरदन रेतने का ख्याल मन में लाता है मगर नैतिकता के आत्मबोध की वजह से ही उसके हाथ काँपने लगते हैं और वह अपना इरादा जेलर के सामने जाहिर करके उसके पैर पकड़ लेता है। दुश्मन फिल्म में राजेश खन्ना की सजा में उस परिवार की जिम्मेदारी सम्हालने की बात आती है जिसका मुखिया उसके ट्रक के नीचे दब कर मर जाता है। फिल्म का अन्त, दुश्मन दुश्मन जो दोस्तों से प्यारा है, के भाव को प्रमाणित करता है।
बाद में हमारे यहाँ जो सिनेमा बना, शोले और कर्मा जैसा उसमें तो जेलर ने अपने निजी प्रतिशोध के लिए अपराधियों को धन और प्रलोभन देकर अपने पक्ष में इस्तेमाल किया। हो सकता है शोले बहुत महान फिल्म हो मगर दो आँखें बारह हाथ के सामने कहीं नहीं ठहरती। मानसिक अराजकता और विस्मृत मूल्यों में ऐसे अच्छे-बुरे सिनेमा की आवाजाही जेहन में अचानक ही होने लगती है।
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