गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर का एक सौ पचासवाँ जन्मवर्ष मनाया जा रहा है। एक महान कवि, रचनाकार की स्मृति के इस यशस्वी वर्ष में उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व का सार्थक पुनरावलोकन हो, ऐसे प्रयत्न होने चाहिए। रस्मी तौर पर अवसरों को मानने-मनाने का हमारे यहाँ रिवाज हो गया है। बौद्धिक विचारों में इतनी भिन्नता और असहमतियाँ होती हैं कि सार्थक काम न तो शुरू हो पाते हैं और न ही सामने आ पाते हैं। ऐसे में इस तरह के अवसरों को मनाने के लिए तय पूँजी और कार्यकलाप बहुत ज्यादा फलीभूत या स्थायी महत्व की सार्थकता हासिल नहीं कर पाते, लिहाजा वक्त आता और चला जाता है।
भारतीय सिनेमा के शीर्षस्थानीय फिल्मकार स्वर्गीय सत्यजित रे ने गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की जन्मशताब्दी के अवसर पर 1961 में उनकी तीन कहानियोंं पर तीन कन्या शीर्षक तीन लघु फिल्में बनायीं थीं। इसका अंग्रेजी रूपान्तरण थ्री डॉटर्स नाम से भी किया गया था। इसमें पहली फिल्म पोस्टमास्टर थी, दूसरी फिल्म मोनिहार और तीसरी फिल्म समाप्ति थी। रे ने ही घरे-बाइरे और चारुलता भी गुरुदेव के कृतित्व पर बनायी थीं जो बहुत मर्मस्पर्शी और गहरा प्रभाव छोडऩे वाली फिल्में थीं। सत्यजित रे ने रवीन्द्रनाथ टैगोर पर एक लघु फिल्म बनाकर भी एक सर्जक के रूप में उनके प्रति अपना आदर व्यक्त किया था। गुरुदेव पर यह एकमात्र ऐसी लघु फिल्म है जिसकी चर्चा आज भी की जाती है।
बंगला फिल्मकारों को टैगोर के व्यक्तित्व और कृतित्व से श्रेष्ठ सृजन की अनेक प्रेरणाएँ मिली हैं। तपन सिन्हा की फिल्म काबुलीवाला एक चर्चित फिल्म थी वहीं बिमल राय की फिल्म काबुलीवाला बलराज साहनी के यादगार अभिनय के लिए आज भी जानी जाती है। इसका निर्देशन हेमेन गुप्ता ने किया था। काबुलीवाला पर और भी फिल्में बनी हैं मगर तपन बाबू की फिल्म को लोग संवेदना और मन को छू लेने वाले धरातल पर लोग ज्यादा याद करते हैं। यह बड़ा भावनात्मक तथ्य है कि रवीन्द्रनाथ टैगोर को गुरुदेव कहकर गांधी जी सम्बोधित किया था वहीं गांधी जी को महात्मा कहकर टैगोर ने महात्मा गांधी नाम से चिर-परिचित कराया। सत्यजित रे की फिल्मों की एक प्रमुख कलाकार माधवी मुखर्जी उनकी उन फिल्मों की नायिका थीं जो गुरुदेव की कृतियों पर बनी थीं।
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के सृजनशील व्यक्तित्व की प्रेरणाएँ ही ये कही जाएँगी कि हमारे सिनेमा के सलिल चौधुरी, हेमन्त कुमार, सचिन देव बर्मन जैसे अविस्मरणीय संगीतकारों ने रवीन्द्र संगीत के चमत्कारिक प्रयोग से अनेक फिल्मों के गानों को यादगार बना दिया। आज के समय में हम उस सृजन को इस तरह याद कर पाते हैं यही बड़ी अहम बात है अन्यथा यह सब अब तो बड़ा दुर्लभ है, फिर भी यह लगता है कि जिस तरह सत्यजित रे ने टैगोर की जन्मशताब्दी पर उनको एक बड़ी आदरांजलि दी थी, आज हमारे समकालीन फिल्मकार क्या ऐसा करने का साहस जुटा सकते हैं? आज भी टैगोर के गोरा जैसे उपन्यास पर एक अहम फिल्म बन सकती है।
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