नारायण सुर्वे के निधन का संज्ञान देश में केवल जनसत्ता अखबार ने ही उस गरिमा के साथ लिया, जिस गरिमा के वे सृजनधर्मी थे वरना देश के पढ़े और देखे जाने वाले मीडिया में समूची बीसवीं सदी में अपने विलक्षण और असाधारण रचनाकर्म के माध्यम से एक महत्वपूर्ण जगह बनाने वाले कवि पर कोई बात ही नहीं हुई। व्यक्तिश: मुझे उन पर लिखना और चर्चा करना इसलिए अपरिहार्य लगा क्योंकि लगभग दस साल पहले उनके साथ दो अलग-अलग समय में रहने और बात करने के सुअवसर मिले थे। वर्ष 1999 में उनको मध्यप्रदेश सरकार का भारतीय कविता का श्रेष्ठ पुरस्कार कबीर सम्मान प्राप्त हुआ था जिसे ग्रहण करने वे भोपाल पधारे थे। उस समय उनके आतिथ्य के दायित्वों से जुडऩा एक बड़ी खुशकिस्मती थी। अलंकरण ग्रहण करने के बाद उनका विनम्र और संक्षेप सम्बोधन मन को छू गया था जिसमें उन्होंने अपने दिवंगत माता-पिता को याद किया था। माता-पिता, मिल में काम करने वाले मजदूर जिन्हें माह-दो माह के नन्हें, नारायण एक शाम झुटपुटे में मजदूरी करके घर लौटते समय रास्ते में मिले थे। उन्हीं माता-पिता ने उनको पाला और अपना नाम दिया था।
नारायण सुर्वे का बचपन या जीवन, हमारे लिए कोई उस तरह की फिल्म नहीं हो सकती, जैसी भूमिकाएँ अमिताभ बच्चन ने अपनी बहुत सी फिल्मों में की हैं। जीवन या परिस्थितियों से कोई विद्रोह नारायण सुर्वे में नहीं था लेकिन अपने मजदूर माता-पिता की हृदयस्पर्शी और स्नेहिल परवरिश में उनके आसपास की श्रमिक दुनिया, संघर्ष और यथार्थ को लेकर एक ऐसा रचनात्मक बीज पड़ा जिसने हमारे बीच एक ऐसे कवि को प्रतिष्ठापित किया जिसने आगे चलकर बड़ा नाम किया और अपने अविभावक के प्रेम और संघर्ष को सार्थक किया। नारायण सुर्वे 15 अक्टूबर 1926 में जन्मे थे। अपने सुदीर्घ जीवन में उन्होंने अधिकांश समय मजदूरों और श्रमिकों के बीच बिताया। अपनी सक्रियता, शिक्षा और सामाजिक योगदान के बीच उन्होंने अपने स्वयं के असहाय और निराश जीवन में संकल्प, तत्परता, संघर्ष क्षमता एवं परिवर्तनकामी दृष्टि का बीजारोपण किया। उन्होंने शोषित-पीडि़तों के मन में छिपी विषादमय अनुभूतियों को अपने अनुभव का बुनियादी स्रोत बनाया।
नारायण सुर्वे महाराष्ट्र के ऐतिहासिक दलित आन्दोलन के पुरोधा रहे हैं। माक्र्सवादी दर्शन के प्रति गहरी प्रतिबद्धता के साथ ही उन्होंने अपना जीवन और सृजन संयोजित किया। उनकी कविताएँ विश्वविद्यालयों की पुस्तकों में हैं। व्यक्तित्व और कृतित्व की विरल एकता ने दुर्लभ सामाजिक प्रतिष्ठा भी उनकी स्थापित की जो विरले ही मिलती है। अपनी शख्सियत में नितान्त सीधे-सच्चे नारायण सुर्वे की अभिव्यक्ति का प्रमुख माध्यम कविता ही रही है। इसी के साथ-साथ उनका लिखा गद्य भी गुणात्मक रूप से क्रान्तिकारी रहा है। लोक वांग्मय के प्रधान सम्पादक रहते हुए उन्होंने लगातार इसके प्रमाण भी दिए। सुर्वे की कविताओं की सारवस्तु विश्व नागरिकता में निहित रही है। उनकी कविताओं की विविधवर्णीयता में श्रमिकों और बुद्धिजीवियों में आन्दोलित करने की विलक्षण क्षमता देखी जाती है। नारायण सुर्वे का एक बड़ा योगदान यह भी रहा है कि उन्होंने मराठी कविता को दलितों के पक्ष में खड़ा कर उसे नया प्रतिवादी आयाम प्रदान किया। किम्वदन्तियों, मिथकों ओर विपुल लोकस्रोतों से सम्पृक्त नारायण सुर्वे का काव्य लोकस्वर के रूप में व्यापक हुआ। प्रेम, संघर्ष, अवसाद, उल्लास, सुख-दुख से उत्प्रेरित उनका रचनाकर्म लोगों में बड़े भरोसे और सम्बल का काम करता रहा है।
नारायण सुर्वे की कविताएँ वस्तु और रूप दोनों आयामों में सृजनलोक को एक अलहदे वातावरण में रखकर देखी जाती हैं। सौन्दर्य का नया जनतंत्रात्मक बोध और प्रतिमान उनकी कविता का सहज गुण रहा। जन कविता के अनन्य सृजन-पुरुष के रूप में नारायण सुर्वे की उपस्थिति, खासकर रचनापाठ के अत्यन्त कोमल और सम्प्रेषणीय लहजे के कारण सुनने वालों में गहरी पैठी रही। एक समाजप्रतिबद्ध और सार्थक सृजनधर्मी के रूप में उनकी अहम उपस्थिति कभी भी नजरअन्दाज नहीं की जा सकती। उनका कृतित्व मात्रात्मकता से ज्यादा गुणात्मक रूप में विराट रहा है। ऐसा गा मी ब्रह्म, माझे विद्यापीठ, जाहिरनामा, मानुष कलावन्त, आणि समाज, सर्व सुर्वे और सनद उनके प्रमुख काव्य संग्रह रहे हैं। गद्यकृतियों में, मनुष्य कलावन्त और समाज तथा नये मनुष्य का आगमन विशेष प्रतिष्ठित पुस्तकें हैं। नारायण सुर्वे की कविताओं के अनुवाद सभी भारतीय भाषाओं के साथ-साथ अंग्रेजी और रूसी भाषाओं में भी हुए। हिन्दी और उर्दू में सुर्वे की कविताओं के विपुल पाठक और प्रशंसक हैं। नारायण सुर्वे ने देश-दुनिया में रचनापाठ किया और कृतित्व तथा व्यक्तित्व से सबका मन मोहा। उन्हें पद्मश्री और सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार भी मिले और जैसा कि शुरू में जिक्र आया, राष्ट्रीय कबीर सम्मान भी।
विख्यात फिल्मकार अरुण खोपकर ने नारायण सुर्वे पर एक लघु फिल्म भी बनायी थी जिसकी पटकथा और संवाद शान्ता गोखले ने लिखे थे। इस फिल्म में मराठी अभिनेता किशोर कदम ने सुर्वे की युवा अवस्था की भूमिका निभायी थी। यह फिल्म सुर्वे के जीवन और सृजन को बड़े नजदीक से देखती है। इस फिल्म को राष्ट्रपति का स्वर्ण कमल पुरस्कार लघु फिल्म श्रेणी में प्राप्त हुआ था। ऐसा पुरस्कार पाने वाली मराठी की यह पहली फिल्म थी। इस फिल्म में नारायण सुर्वे की कविता, माझी आई, का पाठ अत्यन्त संवेदनशील प्रसंग है। चौरासी वर्ष की आयु में नारायण सुर्वे का जाना, हो सकता है, एक परिपक्व उम्र में महाप्रयाण के नजरिए से व्यग्र न भी करता हो, मगर एक ऐसे कवि की अनुपस्थिति का विचलन है जो जीवनभर उस संघर्ष का नैतिक और निष्ठावान हिस्सा बना रहा, जिस परिवेश में उसकी परवरिश हुई और जिसके सुख-दुख को तहेदिल से उसने अपना और अपनी रचनाशीलता का हिस्सा माना। नारायण सुर्वे और उनका कृतित्व इस रूप में हमेशा चिरस्थायी रहेगा।
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