हमारी चेतना में सत्याग्रह शब्द के सरोकार सीधे महात्मा गांधी से जुड़ते हैं।
उन्नीसवीं सदी में गांधी जी के संघर्ष के साथ यह शब्द प्रचलन में आया था और गांधी
जी ने विस्तार से इसकी व्याख्या भी की थी। प्रकाश झा की नयी फिल्म सत्याग्रह की
मूल व्यवहारिक प्रेरणा वही है और इसे प्रमाणित करने की कोशिश करती है फिल्म में
प्रयोग में लायी जाने वाली रामधुन, काल्पनिक शहर के
चैराहे पर स्थापित गांधी जी की प्रतिमा और सत्य के लिए जूझने वाले एक सेवानिवृत्त
प्राचार्य।
हम सभी की स्मृतियों में अम्बिकापुर अविभाजित मध्यप्रदेश और वर्तमान छत्तीसगढ़
राज्य का एक जिला है लेकिन फिल्म का अम्बिकापुर एक काल्पनिक राज्य मध्यभारत का
जिला है। मध्यभारत हम ऐसे समझें क्योंकि फिल्म में दो-तीन बार दिखायी देती कैबिनेट
बैठकों में मुख्यमंत्री के पीछे यही राज्य प्रमाणित होता है, बहरहाल फिल्म की शुरूआत एक महात्वाकाँक्षी और
एक आदर्शवादी पिता की सन्तान दोस्त के मिलने से होती है जो देर रात अपने घर के
खुले में एक ही पात्र से शराब पी रहे होते हैं और आदर्शवादी पिता द्वारा देख लिए
जाते हैं। पिता की लानतें बेटे के मित्र को रात में ही आटो पकड़कर लौटने पर मजबूर
कर देती हैं। इंजीनियर बेटा अपना छोटा सा सपना लेकर जी रहा है लेकिन अगले ही दृश्य में पुल गिरने का हादसा और नियोजित दुर्घटना में उसकी मौत पिता और नवब्याहता के
लिए वज्रपात है। उसके मुआवजे के लिए चक्कर लगाते हुए भ्रष्ट व्यवस्था से पिता दादू
लड़ जाते हैं और कलेक्टर को थप्पड़ मार देते हैं। कहानी यहीं से अपने यथा नाम तथा
गुण की तरफ आगे बढ़ती है।
दादू को अकेले देखकर लानत खाया दोस्त इमोशनली लौट आता है, इधर एक निष्काशित और दिशाहीन छात्र, एक बड़े चैनल की पत्रकार और फिर सत्याग्रह के
लिए बढ़ता कारवाँ, उसका सरकार से
टकराव, समस्या के निराकरण के लिए
अपने सिद्धान्तों के अनुकूल काम करने के दबाव और खलनायक बने मंत्री और मंत्रीमण्डल
के बीच अन्त तक संघर्ष चलता है। दमन बल से हारा सत्याग्रह दादू के प्राणोत्सर्ग से
खत्म होता है। सत्याग्रह के शेष औजार फिर अपनी धार पैनी करने का भावुक संकल्प करते
हैं।
अमिताभ बच्चन, अजय देवगन,
अर्जुन रामपाल, मनोज वाजपेयी और करीना कपूर पाँच सितारों की उपस्थिति में
इस फिल्म को समग्रता में दो सितारा से अधिक मानना कठिन होता है, खासकर ऐसे वक्त में जब अभी-अभी ही हमने
अपेक्षाकृत नये सितारों की राँझणा, काई पो चे और लुटेरा
जैसी अच्छी फिल्में देखी हों। सत्याग्रह एक मुकम्मल पटकथा के साथ बनायी गयी फिल्म
नहीं लगती। बीच-बीच में बहुत सी चीजें अधूरी छोड़ दी गयी हैं, जिनमें दादू के बेटे की मृत्यु का रहस्य भी
शामिल है।
फिल्म अमिताभ बच्चन की केन्द्रीय भूमिका के साथ शुरू होती है, वे पूरी फिल्म परदे पर अत्यन्त व्यथित छबि से
साथ दीखते रहते हैं। उनका प्रभाव अब ऐसा हो चला है कि किरदार भी गौण हो जाता है। आरम्भ
में जिस तरह से वे पैसों के पीछे भागने वाले युवाओं और पैसा ही जीवन का उद्देश्य
मानने को लेकर नाश्ते की टेबल पर बेटे के दोस्त से तकरीर करते हैं वह स्वयं उनको देखते
हुए बेहद विरोधाभासी और अग्राह्य लगती है। गौरतलब
है कि वे मैगी से कुकीज तक के विज्ञापन कर रहे हैं। फिल्म में अजय देवगन की वापसी
के वादे-वचन निभाये गये हैं, अच्छी उपस्थिति
है लेकिन इस बार अर्जुन रामपाल कमजोर हो गये। यहाँ अपना वजूद बनाये रखने में मनोज
बाजपेयी अपनी क्षमताओं से कामयाब हुए हैं। करीना, अमृता राव के बारे में क्या कहें!!
भरपूर एक्स्ट्राज के साथ दृश्य विहँगम रचने में माहिर प्रकाश झा राजनीति और
आरक्षण की तरह यहाँ भी सफल रहे हैं। सत्याग्रह सिस्टम के स्याह पक्षों को कमजोर
प्रतिवाद संरचना के साथ सामने लाती है, इसीलिए प्रभावित नहीं कर पाती। वे अपनी फिल्मों में अच्छा गीत-संगीत इस्तेमाल
करते हैं मगर उसके लिए भी वातावरण नजर नहीं आता और न ही वैसी रूमानी संवेदना।
फिल्म में आयटम सांग भी निरर्थक है जिसका अर्थ स्पष्ट नहीं होता। अच्छा कैमरावर्क
जरूर है। कुल मिलाकर निर्देशक की पिछली दो-तीन फिल्मों ही तरह ही सत्याग्रह भी है,
इससे ज्यादा क्या कहें?