बुधवार, 20 अगस्त 2014

गोविन्द निर्मलकर : छत्तीसगढ़ी नाचा के शीर्ष स्तम्भ का अवसान


कुछ समय पहले जब गोविन्द निर्मलकर के देहान्त की खबर मिली तो मन में यही आया कि छत्तीसगढ़ी नाचा के शीर्ष कलाकारों की श्रेणी के ये लगभग आखिरी प्रतिनिधि भी चले गये। मदनलाल, भुलवाराम यादव, रामचरण निर्मलकर, माला बाई, फिदा बाई, देवीलाल नाग सभी एक-एक करके। 

हबीब तनवीर के रंगकर्म का ये सब कलाकार अनिवार्य, अपरिहार्य सा हिस्सा थे, मैं उनके सारे ही प्रमुख नाटक और उनमें से कई एकाधिक बार देखे थे। आकर्षण कुछ ऐसा था कि मैं इन सारे ही कलाकारों की चमत्कारिक अभिव्यक्ति क्षमता से चकित हो जाया करता था, लिहाजा प्रतीक्षा रहती कि भोपाल फिर कब इनके नाटक का आना हो और मैं देखूँ। इसका आकर्षण सूत्र दरअसल श्याम बाबू की फिल्म चरणदास चोर रही जो बीसियों बार देखी और अब भी देखा करता हूँ। वह इन कलाकारों को लेकर ही बनी थी। एक बार आप अपने आपको इस फिल्म के हवाले कर दो देखते हुए तो फिर लगता है, दो घण्टे जमकर जीने का मजा आया, खैर।

चरणदास चोर, कामदेव का अपना वसन्त ऋतु का सपना, लाला शोहरत राय, आगरा बाजार, देख रहे हैं नैन, मिट्टी की गाड़ी आदि नाटकों की बड़ी पक्की स्मृतियाँ दिमाग में हैं। अपने आपसे जिद विफल होती है, काश उतना पीछे जाया जा सकता, इन सब प्रस्तुतियों के संसार में, जो अब सम्भव नहीं है। हाँ, गोविन्द निर्मलकर बाद में चरणदास चोर नाटक में चोर का किरदार करने लगे थे जो लम्बे समय तक करते रहे। छूटा तब जब उनको लकवा हो गया। चरणदास चोर नाटक का एक दृश्य है जिसमें चरणदास चोर पुलिस को चकमा देने के लिए लकवाग्रस्त होने का स्वांग करता है, पुलिस के सामने से निकल जाता है और सिपाही जान नहीं पाते। अजीब बात कही जा सकती है कि इस भूमिका को करने वाले दीपक तिवारी को भी यही बीमारी हुई और गोविन्द बाबा को भी।

छत्तीसगढ़ में उनको मिले सम्मान और बाद में भारत सरकार से पद्मश्री ने उम्र के संध्याकाल में रुग्णता के बावजूद थोड़ा खुशी देने वाली हल्की सी स्फूर्ति उनको दी थी। जब वे नईदिल्ली इस सम्मान को ग्रहण करने गये तो मित्र बालेन्द्र और उनके साथ अनूप रंजन पाण्डे के समन्वय से हमने यह योजना बनायी कि वापसी में गोविन्‍द बाबा को भोपाल उतार लें और यहाँ उनके साथ छोटा सा अनौपचारिक कार्यक्रम करके उनका सम्मान करें। हमारे औघड़ दोस्त प्रेम गुप्ता इसके लिए तत्काल न केवल तैयार हुए बल्कि अपनी संस्था में इस कार्यक्रम को बहुत अच्छे से संजोया। यह एक भावनात्मक तथा अविस्मरणीय उपक्रम था जिसमें गोविन्द बाबा अपनी धर्मपत्नी के साथ मंच पर बैठे, अपने अनुभव साझा किए, वे रोये, विनोद किया, अपने नाटकों और किरदारों के बारे में बताया। वह याद आज भी ताजा है। बीच-बीच में उनकी बीमारी की सूचनाएँ मिला करती थीं, शायद अस्सी पार उनका निधन हुआ।

मुझे याद आता है, एक बार हबीब साहब ने अपने सभी कलाकारों को भोपाल बुलाकर कुछ नाटक पुनर्संयोजित किए थे, पृथ्वी थिएटर, मुम्बई के उत्सव के लिए। तब मैं इन कलाकारों के ठहरने के ठिकाने पर भुलवाराम यादव से एक लम्बी बातचीत के इरादे से टेप लेकर गया था, दोपहर का वक्त था। भुलवा दादा दोपहर का खाना खाकर और देसी रसरंजन करके आराम कर रहे थे। उस वक्त गोविन्द बाबा, यद्यपि रसरंजन किए थे मगर विकल्प में बातचीत करने को सहर्ष तैयार हो गये थे, तब उनसे लम्बी बातचीत की थी जो चौमासा पत्रिका में शायद दस-बारह पेज में प्रकाशित हुई थी। भुलवाराम जी से बातचीत फिर अगले दिन हुई और कई दिन कई-कई बार हुई।

गोविन्द निर्मलकर से वह साक्षात्कार और भोपाल सम्मान का कार्यक्रम रह-रहकर याद आता है। वास्तव में उन जैसे, ग्रामीण किसान मजदूर और सारी जिन्दगी असाधारण योग करते हुए भी बस दो रोटी भर के रह जाने वाले कलाकारों के बारे में जितना समृद्ध देखा है, अपना हर कहा उस वजन का नहीं लगेगा, ये लोग सचमुच अपनी देह में जाने कौन सा विलक्षण जादू लेकर आये थे कि मंच पर किरदार को ऐसे जिन्दा करते थे बात ही क्या थी.......

शनिवार, 16 अगस्त 2014

जीभ लुपुर-लुपुर होना

शंकरदत्त मामा की स्मृतियाँ लगभग तीस साल पुरानी हैं। बड़ी दूर रेल्वे स्टेशन के समीप उनका घर था, एक बार उनकाे लेकर मित्रों के बीच कुछ यादें साझा की हैं। हफ्ते दस दिन में वे कभी अपनी साइकिल से घर आया करते थे। फिर शाम रात तक खाना खाकर ही मम्मी उन्हें जाने देतीं। वे पूछ लेती थीं, कि भैया क्या खाओगे, सब्जी कौन सी आदि। मामा बता दिया करते। पूड़ियाँ पसन्द करते थे फिर सब्जी भी बताते, बैंगन, भिण्डी भरवाँ या मसाले का कटहल या गोभी-आलू या परवल-आलू उन्हें सुहाते थे। मम्मी का बनाया उनको पसन्द भी बहुत आता था।

मामा चूँकि दोपहर या दोपहर बाद आ जाते थे तो टाइम पास करने के लिए मुझे और मुझसे छोटी को पढ़ाया करते थे। पढ़ाना यानी मुसीबत। वे हमारे पाठ या पाठ्यक्रम से अलग संसार का पढ़ाते थे लेकिन हमारी ही किताबें सामने रखकर जिनसे हमारा कोई साबका नहीं। हमारे पास उत्तर नहीं होता था तो मम्मी से शिकायत करते थे। उनमें पर्याप्त मसखरी के तत्व भी मौजूद होते थे। कहते थे, अब तुम्हारी मम्मी को बताता हूँ कि तुम लोगों को कुछ नहीं आता, सप्लीमेंट्री भी नहीं आयेगी, अभी पुजवाता (पिटवाता) हूँ। लेकिन मम्मी जानती थीं कि भैया ये शैली है, मामा कहते भी थे, मैं इनकी जड़ें मजबूत कर रहा हूँ।

बैठक में मम्मी, पापा, मामा और हम सब बैठा करते थे तो मामा सबकी नजर बचाकर हम लोगों को जीभ चिढ़ाया करते थे, हम इस बात से चिढ़ते थे, चिल्लाने पर उल्टे हमें ही डाँट खानी पड़ती क्योंकि मम्मी पापा कौन मानेंगे कि मामा जीभ चिढ़ा रहे हैं।

कई बार मामा आने के बाद हलवा बनाने की फरमाइश करते, मम्मी बनाती जब तो जरा देर में खुश्बू आने लगती। हम भाई बहन खुश होते कि हमको भी मिलेगा तो मामा कहते धीमे से, क्यों बड़ी जीभ लुपुर-लुपुर कर रही है......! हम उस बात पर फिर चिढ़ते तो मामा तुरन्त ऐसे संयत होकर बैठ जाते जैसे उन्होंने कुछ किया ही न हो। उनकी इस मजे लेने की आदत में हमें और बहन को अक्सर मुँह की खानी पड़ती।

हाँ, हमारे छोटे भाई को जो उनके हाथ नहीं आता था, उसको वो पास बैठाना चाहते, बात करना चाहते पर वो उनको लकड़ी-फुटा वगैरह मारकर भाग जाया करता था, उसको वे, बेताज बादशाह कहा करते थे। कल से मामा के कुछ ऐसे ही बोल याद आ रहे हैं, जीभ लुपुर-लुपर होना जबकि उस समय पापा, मामा के लिए कहते थे कि भैया बड़े स्वादिल हैं, उनकी जीभ लुपुर-लुपर किया करती है। बताइये मामा खुद जैसे, वैसा हमें कहते थे जबकि उनकी खातिर में एक छोटी सी कटोरी चम्मच के साथ हमारा भी भला हो जाया करता था।

मामा ऐसे छुट्टी के दिनों में दिन भर आकर रहा करते थे। शाम तक हम लोगों की खैर नहीं होती थी, रात जब जाते थे तब हम लोग याने भाई-बहन चैन की साँस लेते थे..........................

मंगलवार, 5 अगस्त 2014

हिफाजत


दोपहर तेज बारिश में एक स्कूल की सड़क से गुजरना हुआ। शायद 1:30 का समय रहा होगा। बच्चों का एक स्कूल दिखायी दिया, जिसमें कुछ ही मिनट पहले ही छुट्टी हुई थी। सभी बच्चे अपने घर को जा रहे थे। कुछ जरा बड़े से बच्चे होंगे आठ-दस का समूह जो न छाता लिए था और न बरसाती, पीछे बैग टाँगे इत्मीनान से जा रहे थे। वे जल्दी में भी न दीखे। अपना समय याद आ गया, ऐसे भीगना आनंद की बात होती थी। कपड़े धोना-सुखाना तो माँ का काम होता था, अगले दिन सूखे कपड़े पहनाना उनकी जवाबदारी। 

कुछ बहुत छोटे बच्चे बरसातियाँ पहने, अन्दर ही पीठ पर अपना बैग लटकाये घर लौट रहे थे, दो-दो, तीन-तीन के समूह में। कुछ को लिवाने उनकी मम्मियाँ आयीं हुई थीं, वे ही साथ लिए आ रही थीं। वैसे एक बच्चे की मम्मी के साथ पास-पड़ोस के बच्चे भी सहजता से आ-जा लेते हैं। बच्चों की माँए परस्पर सखियाँ-सहेलियाँ होती हैं, आपस में बच्चों को लाते-ले जाते समय पूछ-बता लिया जाता है।

थोड़ा आगे चला तो सड़क जरा सी खाली हुई। बढ़ते हुए एक पिता को सायकिल के पीछे अपने बेटे को बैठाकर पैदल ही सायकिल ले जाते देखा। छोटा सा बच्चा था, सायकिल के कैरियर पर बैठा था जो सीट के पीछे होता है। वह बच्चा प्लास्टिक की बरसाती से पूरा ढँका हुआ, सीट को दोनों से हाथों से पकड़े झुका सा बैठा हुआ था और उसके पिता सिर से पाँव तक तर पानी में भीगते हुए पैदल सायकिल लिए चले जा रहे थे। स्वाभाविक है, घर पास ही होगा, जरा देर में पहुँच भी गये होंगे। 

मुझे उस संरक्षित बच्चे की पूरी चेष्टा और एक तरह का अभय प्रभावित कर गया। पीछे से आते हुए मैंने हॉर्न इसी इरादे से बजाया कि बच्चे का चेहरा देखूँ, वाकई बच्चा उस आवाज से पीछे घूमा, निगाह मिली तो मैं सुख से मुस्कुराये बगैर न रह सका। बच्चे और उसके पिता को थोड़ी देर देखते हुए यह जरूर सोचने लगा कि पिता किस तरह अपने बच्चे की अपनी ही सीमाओं और क्षमताओं में फिक्र के साथ हिफाजत करते हुए घर ले जा रहा है। 

बच्चों के साथ भीगने का डर हमेशा माता-पिता को सताता है क्योंकि उससे बच्चे जल्दी बीमार हो जाते हैं। यह चिन्ता मुझे सामने दिखायी दे रही थी। मैं सोच रहा था कि यह बच्चा अभी मासूम है, अपने पापा की सरपरस्ती में आनंद की सवारी कर रहा है। बड़ा होकर यही बच्चा अपने पिता का भी इसी तरह ख्याल रखेगा तो पिता का सारा संघर्ष सार्थक हो जायेगा, यह पूरा का पूरा समय निरर्थक न होगा जो वह बेटे की फिक्र के साथ व्यतीत कर रहा है........... 

रविवार, 3 अगस्त 2014

वो सितारों का पता रखते थे

राजेन्द्र ओझा को यूँ शायद सब लोग नहीं जानते होंगे लेकिन उनका सबसे बड़ा काम था मुम्बई में सितारों का पता बताने वाली डायरेक्ट्री का प्रकाशन करना। स्क्रीन वल्र्ड इस डायरेक्ट्री का नाम था जिसका प्रकाशन वे पिछले 33वर्षों से कर रहे थे। इस बात की कल्पना की जा सकती है कि मध्यप्रदेश के मन्दसौर से एक युवा चालीस साल पहले मुम्बई जाता है, फिल्मी दुनिया उसको आकृष्ट करती है, पत्रकारिता और लेखन करते हुए अपना कैरियर वो उसमें बनाना चाहता है। कुछ ही दिनों में उसे एक अलग ढंग का काम सूझता है, वह एक प्रकाशन करने के बारे में सोचता है जिसमें उसका उद्देश्य होता है फिल्म जगत के लोगों के पते और फोन नम्बरों की जानकारी देना। 

राजेन्द्र ओझा, मध्यप्रदेश से ही मुम्बई गये एक वरिष्ठ फिल्म पत्रकार बद्रीप्रसाद जोशी के साथ मिलकर फिल्म से जुड़े प्रकाशनों और रिपोर्टिंग के कामों से जुड़ गये थे। कुछ समय बाद जब फिल्म डायरेक्ट्री के प्रकाशन का विचार आया तब यह काम उन्होंने स्वतंत्र रूप से किया। कुछ समय वे राजश्री प्रोडक्शन्स से भी जुड़े रहे जब इस निर्माण संस्था के नियंता ताराचन्द बड़जात्या थे और उस दौर में निरन्तर साफ-सुथरी, मनोरंजक और सभ्य किस्म की फिल्मों का निर्माण यह बैनर कर रहा था। यह बात जरूर है कि शुरू में राजेन्द्र ओझा को स्क्रीन वल्र्ड का प्रकाशन करना बहुत कठिन रहा लेकिन उन्होंने उस दौर में भी जब मोबाइल या सूचना संचार के आधुनिक साधन नहीं थे, सभी से सम्पर्क स्थापित कर अपने इस काम को आगे बढ़ाया। कहा जाता है कि इसका जब पहला प्रकाशन हुआ था तब शायद इसका मूल्य दो सौ पचास रुपए था और आज यही डायरेक्ट्री तमाम आधुनिक सूचनाओं से लैस लगभग दो हजार रुपए मूल्य की हो गयी है।

स्क्रीन वल्र्ड को राजेन्द्र ओझा ने बहुत विस्तार दिया। हिन्दी, मुम्बइया सिनेमा से आगे वे गुजराती सिनेमा, मराठी सिनेमा, चेन्नई फिल्म इण्डस्ट्री, बंगला फिल्मोद्योग के साथ-साथ साल भर आने वाले सितारों के जन्मदिन महीनेवार प्रस्तुत करने का काम इस डायरेक्ट्री ने किया है। राजेन्द्र ओझा का यह प्रकाशन हर साल किसी न किसी बड़े सितारे ने ही लोकार्पित किया है। मुम्बई फिल्म जगत में प्रत्येक सितारे के पास यह डायरेक्ट्री हर साल अपने नये संस्करण में अद्यतन हुआ करती है। इस तरह का काम किसी अन्य व्यक्ति ने मुम्बई में नहीं किया जो मध्यप्रदेश के राजेन्द्र ओझा ने करके दिखाया।

राजेन्द्र ओझा ने ही दादा साहब फाल्के पुरस्कार प्राप्त कलाकारों के परिचय के साथ एक वृहद किताब का भी प्रकाशन किया और राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्राप्त करने वाले कलाकारों की जानकारी देने वाली किताब का प्रकाशन भी किया। उन्होंने सिनेमा के सौ साल पूरे होने पर उसके बड़े वाल्यूम भी प्रकाशित किए, पहले 1913 से 1988 तक और बाद में अद्यतन। उनके बारे में, उनके योगदान को लेकर यह सब लिखे बगैर इसलिए नहीं रहा जा रहा है क्योंकि 26 जुलाई को उनका मुम्बई में अकस्मात निधन हो गया। दुखद यह है कि सारे कलाकारों का पता रखने वाले राजेन्द्र जी के अचानक इस तरह चले जाने का पता किसी को नहीं चला।