रविवार, 28 अगस्त 2011

आधी हकीकत आधा फसाना



राजकपूर की फिल्म मेरा नाम जोकर, उनके निर्माण की अनेक श्रेष्ठ और सफल फिल्मों के बीच एकमात्र श्रेष्ठ मगर विफल व्यावसायिक कृति है। इस रविवार इस फिल्म की चर्चा हम कर रहे हैं। मेरा नाम जोकर का प्रदर्शन काल सत्तर का है। इस फिल्म में निर्देशक और नायक राजकपूर के साथ-साथ बड़े सितारों की एक बड़ी श्रृंखला थी, सिमी ग्रेवाल, मनोज कुमार, दारा सिंह, धर्मेन्द्र, पद्मिनी, अचला सचदेव वगैरह वगैरह। यह बहुत बड़ी फिल्म थी, दो मध्यान्तर वाली।

एक करोड़ रुपए में तब यह फिल्म बनी, उसने आर्थिक रूप से बड़ा घाटा दिया। यह फिल्म एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जिसके पिता सरकस में जोकर थे और एक बड़े हादसे का शिकार होकर जान से हाथ धो बैठे थे। माँ कभी नहीं चाहती कि बेटा भी सरकस में काम करे लेकिन बेटे के मन में वही इच्छा है, पिता की तरह जोकर बनने की। वह चोरी-छुपे, माँ को बताये बिना अपना यह शौक पूरा करता है। जिस दिन सरकस में अपनी माँ को बुलाकर वह उसे यह खुशखबरी देना चाहता है, उसी क्षण माँ के दिल की धडक़न रुक जाती है। बड़ा त्रासद दृश्य है जिसमें यह जोकर एक ही क्षण में रोता भी है, सम्हलता है, हँसने लगता है।

फ्लैश बैक से शुरू इस फिल्म में राजू अपने जीवन में आयी तीन स्त्रियों को सरकस में अपने महात्वाकाँक्षी शो के लिए आमंत्रित करता है। हमारे सामने एक कहानी चलती है। सोलह साल की उम्र में अपनी अध्यापिका से मन ही मन प्यार करता राजू, सरकस में एक रूसी युवती के प्रेम में राजू और उत्तरार्ध में एक मतलबी युवती के प्रेम में छला राजू।

मेरा नाम जोकर में लगातार फिलॉसफी चलती है। ऐ भाई जरा देख के चलो, जीना यहाँ मरना यहाँ, जाने कहाँ गये वो दिन जैसे गाने मनुष्य की छटपटाहट को महसूस करते हैं। केन्द्र में राजकपूर हैं, वे ही दर्शकों को एकाग्र रखते हैं। इस फिल्म के पहले भाग में किशोरवयी ऋषि कपूर, राजकपूर के बचपन की भूमिका बखूबी निबाहते हैं।

शनिवार, 27 अगस्त 2011

शकुन की मौत


इस अभिव्यक्ति को यह शीर्षक देते हुए भीतर से बहुत विचलन रहा है, मगर न जाने क्यों मुझे इसके अलावा कोई शीर्षक नहीं सूझ पा रहा है। मैं अपनी बात हो सकता है, इस टिप्पणी पर शकुन की बेटियाँ शीर्षक के साथ भी कह पाता पर वह इस शीर्षक से नाहक समझौता करना होता क्योंकि शकुन की मौत ही अन्तत: वह परिणाम है जिसने मुझे चार-पाँच दिन से निरन्तर परेशान कर रखा है।

वो शायद रात के चार बजे का समय होगा जब गहरी नींद से मुझे हिला-जगाकर मेरे बेटे सुमुख ने मुझे बताया कि पापा, शकुन नहीं रही है, अभी उसके भाई का फोन आया है। जागकर, जाग्रत होने के पहले की अवस्था में मैं उसका वाक्य सुनता हूँ, लेटे-लेटे, कोई उत्तर नहीं होता मेरे पास उसकी बात के जवाब में। उसके देखते-देखते ही पत्नी का आदेश बेटे को प्राप्त होता है, पापा के कमरे की बत्ती बन्द कर दो। वो ऐसा करके चला जाता है, फिर मैं उस अंधेरे में आँख मूँदने और सोने का उपक्रम करता हूँ। यह तो नहीं कहता कि सुबह तक सो नहीं पाया, हाँ पता नहीं, कब सो गया फिर सुबह आठ बजे नींद खुली। उस वक्त ही बाकी बातें भी पता चलीं कि उसका भाई उसको बड़ी बहन के यहाँ ले गया है, वहीं से उसे ले जाया जायेगा। यह भी बात पता चली कि उसकी दोनों बच्चियाँ बहन के पास ही हैं।

शकुन हमारे यहाँ काम करने वाली बाई का नाम था। खानदेश के किसी गाँव से बरसों पहले वो यहाँ आयी थी। दस-बारह साल पहले उसने हमारे यहाँ बरतन माँझने का काम शुरू किया था, तब से वो बीच के दो-चार सालों को छोडक़र लगातार काम करती रही। शकुन सुबह भीतर के आँगन में बरतन माँझा करती थी। उसके आने का वक्त और मेरे उठने का वक्त लगभग एक ही हुआ करता। घर से काम करने के बाद फिर वो लोक निर्माण विभाग के मेन्टिनेंस ऑफिस में वहाँ के सब-इन्जीनियर साहब के बंगले पर काम करने जाया करती थी।

सुबह जब वो बरतन साफ किया करती, तब मैं आँगन में ब्रश कर रहा होता था, दाढ़ी बनाने का काम भी आँगन में ही शीशे के सामने। शकुन अपने आपमें बहुत दुखी, निश्छल और साफ मन की औरत थी। शायद चार-सवा चार फीट कद रहा होगा उसका, एकदम टिंगू सी और रंग स्याह काला। बड़ी सी बाल्टी भरकर वो टंकी से बरतन धोने के लिए पानी निकालती। आधा-पौन घण्टे उसका काम चलता, फिर चली जाती।

काम करते हुए उसकी अक्सर पत्नी से बातचीत चला करती, कभी बरतन ठीक से साफ न करने को लेकर, कभी बिना बताये न आने को लेकर मगर इसमें शकुन के तर्क और जवाब भी जारी रहते, कभी-कभी या अक्सर दिलचस्प और निडर से जवाब। बेपहरवाह उत्तर। फिर इसी बीच यह भी होता कि चाय बन गयी है, उठा ले जा शकुन पी ले या जाते हुए खाने की फलाँ चीज लेते जाना। मुझे वो भैया कहा करती थी। मुझे बताया गया था कि शकुन की तीन लड़कियाँ हैं। जब उसकी तीसरी लडक़ी का जन्म हुआ था, तभी उसका पति दुर्घटनाग्रस्त होकर इस दुनिया से चला गया था। दस-बारह साल की बड़ी बेटी दादी के पास रहती है, इससे बोलती-बताती नहीं। दो छोटी बेटियाँ एक छ: साल और एक चार साल की, वो इसके साथ झुग्गी में रहा करती थीं।

शकुन से उसकी बड़ी बेटी के बारे में पूछो तो वह बताती थी, भैया, वो मेर कू नई मिलती, मारपीट करती है, जब आती है। यई दो बच्चियों को सम्हालती हूँ मइ। शाम के वक्त शकुन को आते-आते झुटपुटा हो जाता, उस वक्त वो अपनी दोनों नन्हीं बेटियों को साथ लाती, एकदम साँवली सी, अच्छी सी आँखें और उनको देखो तो एकदम मुस्करा दें दोनों। जब तक शकुन बरतन माँझती, वे चौके में बैठी रहतीं, कुछ खाने को दिया जाता तो खातीं, आपस में झगड़तीं भी कई बार।

शकुन ने एक बार मुझे बताया था कि उसको एक झुग्गी का पट्टा बाग मुगलिया के पास मिला था लेकिन पड़ोसी ने उस पर कब्जा कर लिया है और उसको मारकर भगा दिया। शकुन चाहती थी कि मैं कुछ कार्रवाई करूँ। एक बार मैंने अपने एक परिचित सहायक उप निरीक्षक को भी उसके साथ भेजा था, एक बार जन सुनवाई के दौरान कलेक्टर को अपने मित्र के जरिए आवेदन भी दिलवाया था, लेकिन कमजोर और निरीह शकुन को जीते-जी न्याय नहीं मिल पाया। पता नहीं काईवाइयाँ किस दशा में होंगी और इस जरा सी औरत का दमन करके पड़ोसी ने उस जगह पर अपनी दीवारें खड़ीं कर लीं। अक्सर शकुन शाम को मुझसे पूछा करती, भैया मेरे काम का क्या हुआ? मैं उससे यही कहता, चिन्ता मत करो, जल्दी कुछ न कुछ होगा। वो निरुत्तर चली जाती मगर मुझे लगता था कि वो सोचती होगी, कि भैया के बस का कुछ भी नहीं है।

दो महीने पहले ही घर में बच्चों ने बताया कि शकुन को तो गम्भीर बीमारी है। मैंने पत्नी को कहा कि शकुन को हमारे अपने वरिष्ठ डॉक्टर साहब को दिखाकर लायें। जब दिखाकर लाया गया तो मालूम हुआ कि उसकी दोनों किडनी खराब हो चुकी हैं। ज्यादा दिन जी नहीं पायेगी। डॉक्टर साहब ने पन्द्रह दिन के अन्तर से एक इन्जेक्शन लिखा था, वह उसको लगवा दिया था। गैस राहत अस्पताल का उसका कार्ड था, जहाँ वो जाती थी तो अक्सर यहाँ जाओ, वहाँ जाओ करके उसको चलता कर दिया जाता था।

कुछ दिन पहले वो फिर जब चार-पाँच दिन नहीं आयी और एक तारीख नजदीक आयी तो मैंने उसकी तनख्वाह के साथ पत्नी को उसके घर भेजा था। मालूम हुआ, अस्पताल में भर्ती है, तबीयत ज्यादा खराब है। मैंने घर में कहा कि एक हजार रुपये ले जाकर उसको दो और हालचाल लो। लौटकर जो बात मालूम पड़ी उसने व्याकुल कर दिया। शकुन, पत्नी से लिपटकर रो पड़ी थी। कह रही थी, अब मैं बच नहीं पाऊँगी। मेरे बाद मेरी बच्चियों का क्या होगा?

यही आखिरी के दो-तीन वाक्यों के साथ मैं शकुन के बारे में सोचा करता था। समय इतना संकुचित हो गया था कि कुछ किया नहीं जा सकता था। क्षमता तो थी ही नहीं कि उस बेचारी को दूसरी किडनी मिल जाती। मुझे लगता था कि कभी भी शकुन को लेकर कोई बुरी खबर आ जायेगी। उसका भाई उसके पास था, दवा का इन्तजाम, खून का इन्तजाम। उस रात उसको खून चढ़ाया जा रहा था, जब लगभग तीन-साढ़े तीन बजे उसने अन्तिम साँस ली। शकुन की मरते समय उम्र पैंतालीस से ज्यादा नहीं रही होगी।

मैं सोचता था, सब करम हो गये इस दुखिया के, जरा सी जिन्दगी में। शकुन का ध्यान अक्सर आ जाया करता है, जाते हुए उसका मेरी मेज के पास खड़े होकर पूछना, भैया, मेरे काम का क्या हुआ? चौके मे बैठी अपनी माँ को काम करते देखतीं, उसके काम पूरा होने का इन्तजार करती उसकी बेटियाँ। शकुन की मौत इस दारुण समय का एक त्रासद उदाहरण है। हो सकता है, इतनी भयानक शारीरिक व्याधियों के साथ उसका जीना दिनों-दिन दुरूह होता मगर अब उन बच्चियों का क्या होगा? कितने दिन मौसी के पास रहेंगी, कितने दिन मामा फिक्र करेगा?

शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

ब्रेक (अप) के बाद सितारों की दुनिया



बॉलीवुड में कुछ समय से ब्रेकअप का मौसम छाया हुआ है। साथ-साथ घूमते, जीते, रोमांस करते डेट-वेट करते हीरो-हीरोइन अचानक प्रेस कॉन्फ्रेन्स बुलाकर अपने ब्रेकअप की घोषणा कर देते हैं। पिछली छमाही में लगभग छ: ब्रेकअप चर्चा में आये। कलाकारों ने अपने परस्पर सान्निध्य को खूब हवा दी, लोकप्रियता लूटी, गॉसिपिंग को बढ़ावा दिया, अवसर हासिल किए, मैगजीनों, अखबारों में फोटो छपवाये और बाद में जब भरपाये तो अपनी-अपनी राह।

दिलचस्प यह भी है कि ब्रेकअप की सार्वजनिक घोषणा या खुलासे के बाद हमें अगले ही दिन दोनों में से एक कोई नये कमिटमेंट के साथ नजर आता है, सुर्खियों में चर्चाओं में। ऐसे सितारा ब्रेकअप में सबसे टॉप पर जॉन अब्राहम और बिपाशा बसु का ब्रेक रहा। सुना तो पहले यह गया था कि रामगोपाल वर्मा की खोज तेलुगु कलाकार राणा दगुबत्ती पर बिपाशा फिदा हो गयी थीं इस वजह से उनका बे्रकअप हुआ, बाद में लेकिन सुनने में यह आया कि जॉन अब्राहम मुम्बई में किसी बैंक अधिकारी पर फिदा हो गये। जो भी हुआ हो, नौ साल पुराना रोमांस, रिश्ता इसकी भेंट चढ़ गया। रास्ते अलग-अलग हैं, खुलासे एक तरफ हुए, एक तरफ नहीं।

ऐसा ही एक ब्रेकअप अनुष्का शर्मा और रणबीर सिंह के बीच कुछ दिनों पहले हो गया। यशराज फिल्म्स के बैण्ड बाजा बारात वाले ये सितारे इस फिल्म के सुपरहिट होने के साथ ही एक-दूसरे के सुख-दुख के साथी हो गये थे। घूमना-फिरना, पार्टी में शामिल होना, हमेशा संग रहना, दोनों को प्रोफेशनल रिलेशन से ज्यादा साबित कर रहा था। सुना जा रहा है कि यहाँ भी रास्ते बदल गये हैं। अनुष्का इन दिनों बोनी-मोना कपूर के बेटे अर्जुन कपूर के साथ नजदीकियाँ बढ़ा रही हैं। अर्जुन इन दिनों यशराज फिल्म्स में दो-तीन फिल्मों में हीरो बनकर आ रहे हैं। सलमान और कैटरीना का भी ब्रेकअप कुछ समय पहले हो ही गया। यह सलमान के पिछले जन्मदिन के आसपास ही हुआ। हालाँकि दोनों ही एक साथ यशराज की फिल्म एक था टाइगर में आ रहे हैं।

एक ब्रेकअप प्रियंका चोपड़ा और शाहिद कपूर के बीच भी सुनने में आ रहा है और लगे हाथ यह भी खबर कि प्रियंका इन दिनों शाहरुख पर शिद्दत से फिदा हैं, इस तरह की गौरी से लेकर शाहरुख के सहयोगी भी एक पल को अपनी बात कर पाने में शाहरुख के संग कठिनाई अनुुभव कर रहे हैं। कंगना राणावत और संजय दत्त का बेमेल संग भी ब्रेकअप की भेंट चढ़ गया। वजह यह रही कि कंगना ने संजय दत्त की फिल्म में बिकनी पहनने से इन्कार कर दिया, सो दत्त साहब नाराज हो गये।


गुरुवार, 25 अगस्त 2011

खतरे में नहीं है बॉडीगार्ड



एक लगी हुई फिल्म देखने दो दिन पहले सिनेमाघर गये तो एक आने वाली फिल्म के पोस्टर ने ध्यान आकर्षित किया। नजदीक गये तो देखा, बॉडीगार्ड का बड़ा पोस्टर था, बाकायदा फ्रेम में फिट किया हुआ। कॉमर्शियल सिनेमा के सबसे सुरक्षित एक्टर सलमान खान इस फिल्म के नायक हैं जिनका केन्द्र में फोटो था, साथ में हीरोइन करीना कपूर भी। इस बड़े पोस्टर फ्रेम में एक बड़ा सा फूलों का हार लटका हुआ था। यह फ्रेम, पोस्टर, हार और भावना देखकर एक सुपरहिट आमद का आभास होता था। सिनेमाघर में एक फ्लॉप फिल्म लगी हुई थी, जिसको बॉडीगार्ड ही रिप्लेस करेगी। बॉडीगार्ड 31 अगस्त को ईद के दिन रिलीज हो रही है।

सलमान की सेहत को लेकर चली खबरों से चहेते चिन्तित हैं। पिछले दो सालों में यह हीरो अकेला सुपर पावर बनकर उभरा है। हालाँकि हीरो का कैरियर दो दशक लम्बा है और लगातार है मगर तमाम झंझावातों और उलझनों के बाद और बावजूद इसी समय में फिजा एकदम बदली हुई है। यह हीरो अब निर्माताओं के लिए एक तरह से सफलता की गारण्टी है। इसके पीछे वह सूझ है जिसके चलते पिछले समय में तीन-चार फिल्मों का चुनाव बड़ी समझदारी से किया गया, बड़ी समझदारी से हीरो के लिए कैरेक्टर गढ़ा गया, वैसा ही ट्रीटमेंट और हीरो ने निभाया भी उसी तरह। वाण्टेड का अपना रंग था, दबंग की तो खैर बात ही क्या, रेडी ने एक सॉफ्ट फ्लो में किरदार को उभारा और बॉडीगार्ड एक दूसरे अन्दाज की फिल्म।

सलमान खान की फिल्मों का रंग अलग ही होता है। कैरेक्टर भिन्न होते हैं मगर परदे पर क्रियाशील उसी तरह होते हैं जैसा दर्शक देखना पसन्द करते हैं। यह गौरतलब है कि उतरी शर्ट में सदाबहार अभिनेता धर्मेन्द्र को देखना लोग पसन्द करते रहे। कहानी किस्मत की से लेकर फूल और पत्थर तक और बाद में भी जाने कितनी फिल्मों में महानायक ने खलनायक को उघाड़ा होकर मारने में ज्यादा फ्रीडम महसूस किया। सलमान खान की अदा अलग है, वो लडऩे-भिडऩे के बजाय रोमांटिक इमेज को शर्ट उतारकर ज्यादा सफलता के साथ साबित कर पाते हैं। उनके डाँस और मारधाड़ के सीन भी बड़ी खूबी के साथ गढ़े जाते हैं। कॉमेडी में उनका आत्मविश्वास देखते ही बनता है।

सलमान खान की तबीयत ठीक है। वे सारी अफवाहों के बीच काम कर रहे हैं। शूटिंग पर आने वाले प्रशंसकों से मिल रहे हैं। बच्चों के साथ हँसी-मजाक-ठिठोली जारी है। बच्चों ने इस बीच मस्ती-मस्ती में उनके साथ मोटरबाइक में घूमने का लुत्फ भी उठाया है। यह जरूर है कि बॉडीगार्ड के प्रदर्शन और उसके बाद की सफलता को कुछ दिन वे एन्जॉय करेंगें। ईद मनायेंगे और बाद में अपने घर में गणपति उत्सव। उसके बाद सीधे वे यशराज की फिल्म एक था टाइगर की शूटिंग के लिए विदेश चले जायेंगे।

खाली खिड़कियाँ और हाल-बेहाल



कुछ ऐसा ही माहौल है कुछ दिनों से सिनेमाघरों का। अन्ना हजारे के आन्दोलन और उसके पहले उसके पूर्वरंग ने प्रदर्शित होने वाली फिल्मों को बहुत दयनीय स्थिति में सिनेमाघरों में ला दिया। एक दिन पहले पत्रिका अखबार में ही खाली सिनेमाघर का फोटो प्रकाशित हुआ है। वैसे इस तरह की फिल्में अब बना ही करती हैं और सिनेमाघरों के ऐसे फोटो जैसी स्थितियाँ रोज ही दिखायी पड़ती हैं मगर इक्कीसवीं सदी के इस पहले जन-जागरुकता वाले आन्दोलन ने देश में ऐसा वातावरण खड़ा कर दिया कि अपने-अपने काम में लगा हर आदमी, अपनी क्षमता, अपने वक्त और अपनी ऊर्जा के साथ अन्ना की ऊर्जा में अपनी ऊर्जा लगाने लगा।

जब अन्ना के आन्दोलन का पूर्वरंग चल रहा था, उस वक्त आरक्षण रिलीज होने को थी, टेलीविजन चैनलों में रिलीज से पहले दो दिन मुद्दा खूब गरमाया जाता रहा। एक साथ तीन राज्यों ने प्रतिबन्ध लगाया लेकिन फिल्म प्रदर्शित होते ही विरोध करने वालों ने यह जाना कि विषय आरक्षण नहीं आरक्षण की कोटिंग में शिक्षा के व्यावसायीकरण, कोचिंग और इसी के इर्द-गिर्द आपसी ठसक का है, तो लोगों का उत्साह ध्वस्त हो गया। यही कारण रहा कि प्रदर्शन के दो दिन के भीतर ही दो राज्यों ने प्रतिबन्ध उठा लिया। आलोचकों ने फिल्म को इस बहाने रिलीज करने और व्यर्थ माहौल खड़ा करने की निन्दा भी की। बहरहाल इसी बीच अन्ना की दृढ़ता और दम ने जनता और मीडिया को इस तरह आसक्त किया कि लोग इस फिल्म को ही भूल गये।

बाद के हफ्ते में चतुर सिंह टू स्टार फिल्म रिलीज हुई वह भी पता ही न चली। समझदार निर्माताओं ने फिलहाल माहौल देखकर अपनी फिल्मों को प्रदर्शन से रोक लिया है। निर्माता अब जितना सार्थक-निरर्थक मैचोंं से घबराते हैं और अपनी फिल्म रिलीज करने से बचते हैं वैसे ही सार्थक आन्दोलनों से भी घबराया करेंगे। अन्ना का आन्दोलन जगाने वाला आन्दोलन है, जागकर आदमी सारी एकाग्रता जगाने वाले पर केन्द्रित करता है। हिन्दी फिल्में लम्बे समय से बुरे वक्त, बुरे दौर से गुजर रही हैं। व्यावसायिक सफलता के फार्मूले अब हवा हो गये हैं।

लगता नहीं कि अच्छा सिनेमा पर पहले की तरह निरन्तर बना करेगा, लिहाजा यह भी गुन्जाइश नहीं है कि दर्शक भी अब सिनेमाघर बड़े उत्साह से जाया करेगा। फिल्में साल में आने वाले त्यौहारों की संख्या में भी हिट नहीं होतीं। हिट फिल्मों का त्यौहार बमुश्किल साल में चार-पाँच बार आता है। जिस तरह इस समय सिनेमाघरों की खिड़कियों में बाहर से भीतर की ओर फुर्सत में बैठा आदमी दिखायी दे रहा है और हाल की स्थिति बेहाल है, वह समय अभी लगता है, हफ्ते भर तो रहेगा ही।

समाज और सिनेमा की हिंसा



अपराध करते समय अंजाम की परवाह अपराधी नहीं करता। यह दुख और दुर्भाग्य की बात है कि समाज में ऐसे दुस्साहसी भी सिर उठाए अपना काम कर रहे हैं जो पहले अपराध से अपनी असामाजिकता को भयावह रूप में प्रमाणित करने से जरा भी गुरेज नहीं रखते।

हफ्ते की शुरूआत, त्यौहार का दिन और अखबारों में पहले पेज का सबसे पहला सनसनीखेज समाचार यही है कि सेंधवा के पास दो स्पर्धी बस ट्रेवलर्स की आपस की खुन्नस और यात्रियों को ले जाने और ले जाने नहीं देने का परिणाम यह हुआ कि ड्रायवर और क्लीनर ने निर्दोष लोगों को बस में बन्द करके पेट्रोल छिडक़कर आग लगा दी। जाने कितनों को जान से हाथ धोना पड़ा, जाने कितने गम्भीर जख्मी की जानें और जायेंगी, जिनके जख्म देर से भरेंगे, उनके जख्म दरअसल कभी भी भर नहीं पायेंगे।

हमारे यहाँ हिन्दी सिनेमा में बहुत से सितारा और मँहगे निर्देशक गाडिय़ों, बसों और ट्रकों में ब्लास्ट और धमाके के दृश्य बखूबी फिल्माया करते हैं। नायक, खलनायक और उसके गुण्डों को हवा में उड़ाता है, गाडिय़ों में जलाता है और अपने बदले पूरे करता है। हाल की फिल्म सिंघम इस बात का उदाहरण है जिसमें जमकर हिंसा और आगजनी है। पिछले चालीस सालों से अब फिल्मों में मौत के मंजर भी एडवेंचर की तरह फिल्माए जाते हैं।

दर्शक सिनेमाहॉल में बैठकर तालियाँ और सीटियाँ बजाता है और अपने नायक की विजयी मुद्रा और बहादुरी पर फक्र करता है। दो-ढाई घण्टे सपनों की दुनिया में हम जैसे नीम बेहोशी में हुआ करते हैं, हमें समझ में नहीं आता कि हम क्या देख रहे हैं और किसका समर्थन कर रहे हैं। हिंसा शोले में ठाकुर के हाथ काटने से भी पहले शुरू हो गयी थी। यह विस्तार आगे बहुतेरे लाल रंगों और आतिशबाजियों में रंगा।

सेंधवा की घटना स्तब्ध कर देने वाली है। अखबार लिखते हैं कि इस तरह बस में आग लगायी गयी कि लोग बस के अन्दर देखते ही देखते कंकाल में तब्दील हो गये। ये सब उन हाथों से हुआ होगा जिनके परिवार होंगे और हो सकता है घर से निकलते वक्त कुछ समय अपने अराध्य के सामने भी खड़े होते हों। अपराधियों का पकड़ा जाना, उन पर मुकदमा चलना और उनको सजा होना एक बड़े वक्त का मसला है। लेकिन वे निरीह लोग जो कहीं से आ रहे होंगे, कहीं जा रहे होंगे, अपनों से मिल रहे होंगे, अपनों से बिछुड़ रहे होंगे, सब के सब वे निरपराध मौत की सजा का शिकार हो गये।

समाज और सिनेमा की हिंसा में परस्पर एक-दूसरे पर एक-दूसरे को प्रेरणा देने का आरोप लगाया जाता है। ऐसा नहीं है कि हिंसक फिल्में बनना बन्द हो जाने से समाज की हिंसा भी एकदम बन्द हो जायेगी। दरअसल उस मानवीय दुस्साहस को नाथने की जरूरत है, जिसकी पहुँच निरीहों तक बिना किसी व्यवधान के है। सेंधवा की घटना और अधिक सजग और सचेत करने वाली है।

रविवार, 21 अगस्त 2011

हिन्दी सिनेमा के अनोखे शमशेर



सिनेमा की शताब्दी की बेला हमसे विलक्षण कलाकारों को छुड़ाये लिए जा रही है। जिस तरह हमारे बीच से बड़े-बुजुर्ग कलाकार जा रहे हैं, वो दुखद है। शम्मी कपूर का निधन भी इसी तरह की एक बड़ी क्षति है। बीते रविवार बड़ी सुबह उनका देहान्त हुआ और भोर होते-होते देश को मालूम हो गया कि शम्मी कपूर नहीं रहे। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और बहुत सारे अखबारों में अगले दिन शम्मी कपूर के नाम पर एक सार्थक टिप्पणी नहीं थी।

गूगलप्रेरित फौरी जानकारियों के साथ यह घटना लगभग दिन भर में निबटा ली गयी। हम सब भी अगले दिन से उन्हें भूलने में शुमार हो गये। कपूर परिवार के जीवित मुखिया के रूप में उनकी जिस सम्मान और प्यार से चिन्ता की जाती थी, वह महत्वपूर्ण है। अपनी भाभी कृष्णा राजकपूर से शम्मी दो साल ही छोटे थे लेकिन पारिवारिक विषयों में दोनों की मिलकर होने वाली बातें और निर्णय खानदान को शिरोधार्य होते थे।

शम्मी कपूर का पूरा नाम शमशेर राजकपूर था। परिवार में मँझले पुत्र थे, माता-पिता को राज और शशि के रूप में दो बेटों के नाम जिस तरह उच्चारण करना सहज होता था, शमशेर भी वाचिक सहूलियत के लिए शम्मी पुकारे जाने लगे। फिल्मों में भी फिर शमशेर, शम्मी के नाम से ही आये। लेकिन उनको हिन्दी सिनेमा के एक ऐसे शमशेर के रूप में हमने जाना जिसने अपने आत्मविश्वास, अपनी प्रतिभा और खासतौर पर अपनी मौलिकता से अपनी जगह बनायी।

यह भी कि, उन्होंने यह जगह बड़े प्रतिष्ठित अपने भाई राज और उनके स्पर्धी बड़े प्रतिष्ठित देव आनंद और दिलीप कुमार के बीच बनायी। साठ के दशक में क्षमताओं के मायनों में ये सभी बलिष्ठ सितारे काम कर रहे थे। निर्देशकों का सिनेमा सफल हुआ करता था। निर्माण घरानों की अपनी बड़ी पहचान थी। उत्कृष्ट गीतकार गीत लिख रहे थे। गुणी संगीतकार इन गीतों को अपनी सर्जना से सदाबहार और यादगार बनाने का उपक्रम बड़ी गम्भीरतापूर्वक किया करते थे। गायक कलाकारों की अपनी पहचान थी जो उस समय के महानायकों की छबि में इस तरह समाहित हो जाया करती थी कि भरोसा करना मुश्किल होता था, परदे पर नायक खुद गा रहा है या यह हुनर पाश्र्व गायक का है।

स्वर्गीय मोहम्मद रफी ने शम्मी कपूर की लिए गाने का विशेष अन्दाज सृजित किया था। रफी साहब की आवाज उस समय जितनी मौजूँ दिलीप कुमार के लिए हुआ करती थी उतनी ही देव आनंद के लिए भी। राज साहब तो खैर मुकेश जी का पाश्र्व स्वर अपने लिए चुन चुके थे लेकिन और जॉय मुखर्जी, राजेन्द्र कुमार, विश्वजीत, धर्मेन्द्र के लिए भी रफी साहब अपने पूरे लोकतांत्रिक स्वभाव के साथ गाया करते थे। इन सब कलाकारों के लिए गाते हुए उन्होंने शम्मी कपूर के लिए एक प्रबल सम्भावना अपनी आवाज और अन्दाज से सिरजी। यह अन्दाज वाकई शम्मी कपूर के अन्दाज में शामिल होकर ऐसा एकरंग हो गया कि सुनते हुए फिर किसी को भी और कुछ ख्याल आया भी नहीं। बदन पे सितारे लपेटे हुए ओ जाने तमन्ना किधर जा रही हो, प्रिंस का यह गाना रिकॉर्ड होने के बाद जब शम्मी ने सुना तो उन्होंने भावविभोर होकर रफी साहब से पूछा था कि किस तरह आप मेरी काया में रूह बनकर उतर जाते हैं, सचमुच कितना आश्चर्य है।

चाहे कोई मुझे जंगली कहे, अई यई या करूँ मैं क्या सुकू सुकू, एहसान तेरा होगा मुझ पर, सर पर टोपी लाल, यूँ तो हमने लाख हँसीं देखे हैं तुमसा नहीं देखा, इस रंग बदलती दुनिया में इन्सान की नीयत ठीक नहीं, जवानियाँ ये मस्त-मस्त, ऐ गुलबदन, दीवाना हुआ बादल, ओ मेरे सोना रे, आजकल तेरे मेरे प्यार के चरचे, तुमसे अच्छा कौन है, है ना बोलोा-बोलो जैसे गानों की एक पूरी की पूरी श्रृंखला है जो बड़ी तेजी से याद आती चली जाती है, जब शम्मी कपूर की फिल्मों के बारे में सोचो।

शम्मी कपूर नायिकाओं के सितारे थे। यह जानना दिलचस्प है कि अपने समय की चार महत्वपूर्ण नायिकाओं का कैरियर शम्मी कपूर के साथ शुरू हुआ था। ये नायिकाएँ थीं, आशा पारेख, सायरा बानो, कल्पना और शर्मिला टैगोर। आशा पारेख के साथ दिल दे के देखो, नासिर हुसैन की फिल्म थी। सायरा बानो के साथ वे जंगली में आये। यह भी दिलचस्प है कि सायरा बानो के ही पिता की भूमिका उन्होंने बरसों बाद अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्म जमीर में की। कल्पना के साथ उन्होंने प्रोफेसर फिल्म में काम किया। प्रोफेसर की कॉमेडी का एक अलग रंग था जिसमें नायिका के साथ-साथ ललिता पवार भी उम्रदराज किरदार का मेकअप किए नायक पर मोहित हो जाती हैं। चौथी नायिका थीं, शर्मिला टैगोर जिनके साथ उन्होंने कश्मीर की कली फिल्म में काम किया। शम्मी कपूर की छबि एक अपनी तरह के लवर बॉय की थी।

अपने समय के समकालीन हीरो के बीच एक अलग अन्दाज का आदमी। बोलने का साफ-सपाट अन्दाज जिसमें शायद आपको भाव न दिखें, संवेदना न दिखे मगर बातचीत करने में एक तरह का आकर्षण जो उनकी देह में रची-बसी चपलता और ऊर्जा से परवान चढ़ता था। देह को अपनी ढंग से मरोडक़र नाचना-गाना उनका हुनर था। नाच-गाने के दृश्य में जैसे रग-रग में बिजली दौड़ती दिखायी देती थी। उनका अंग-अंग फडक़ता था, ऐसा तक दर्शक कहते थे। संगीत की मस्ती में सिर हिलाने का अन्दाज भी खूब था। शम्मी इन्हीं सब बड़े सहज और लोकप्रिय कारणों से ही अपने समय दर्शकों के पसन्दीदा नायक बने और बने रहे।

शम्मी कपूर को उस समय विद्रोही सितारा कहा जाता था, रेबल स्टार। तीसरी मंजिल उनकी वो फिल्म थी जिसके लिए नासिर हुसैन देव आनंद को लेना चाहते थे। विजय आनंद फिल्म के निर्देशक थे। आरम्भिक बातचीत में जब देव साहब को बताया कि फिल्म में खूब सारे डाँस हैं, नायक एक ड्रमर है, ड्रम खूब बजाना है, तो उनकी रुचि इस फिल्म को करने में कम हुई। उस समय हेलन की सिफारिश या कहें सुझाव पर शम्मी कपूर को इस भूमिका के लिए चुना गया। शम्मी कपूर को इस फिल्म के नायक के रूप में देखकर लगता भी है कि शम्मी के सिवा और कोई विकल्प नहीं था।

शम्मी कपूर की बहुत सी फिल्मों में प्राण साहब ने खलनायक की भूमिका निभायी है। निजी जिन्दगी में प्राण साहब से उनके बहुत अच्छे रिश्ते थे। अपने कैरियर में लगभग दो सौ फिल्मों में काम करने वाले शम्मी कपूर की कुछ उल्लेखनीय फिल्मों में हम तीसरी मंजिल, ब्लफ मास्टर, प्रिंस, राजकुमार, तुम सा नहीं देखा, जंगली, प्रोफेसर, चाइना टाउन, कश्मीर की कली को याद कर सकते हैं। एक ओर जंगली में अई यई या करूँ मैं क्या गाने में उनका हेलन के साथ डाँस दर्शकों को आज भी याद होगा वहीं चाइना टाउन में उनका डबल रोल, एक शकीला और एक हेलन के नायक।

शम्मी कपूर स्वयं अपनी क्षमताओं पर एक लम्बा कैरियर सफलतापूर्वक व्यतीत करने वाले कलाकार थे। वे अपने पिता, अपने बड़े भाई की छत्रछाया से पूरी तरह मुक्त रहने का कौशल रखते थे। एक बार राज साहब पर चार्ली चेपलिन की कॉपी करने की बात कही जा सकती है पर शम्मी कपूर पर मौलिकता की पूरी छाप थी। शम्मी कपूर और राजकपूर सिर्फ एक बार साथ आये, फिल्म प्रेम रोग में जिसमें परदे पर शम्मी थे और कैमरे के पीछे निर्देशक उनके भाई राजकपूर। प्रेम रोग में शम्मी कपूर की शख्सियत में उनके पिता का सा तेवर लिए ही वो किरदार गढ़ा गया था, जिसे उन्होंने बखूबी निभाया।

नायक के रूप में उनकी लगभग आखिरी फिल्म रमेश सिप्पी की अन्दाज थी जिसमें उन्होंने एक अधेड़ विधुर की भूमिका निभायी थी। इस फिल्म के बाद एक बड़े अन्तराल में वे सेहत में इतने समृद्ध हो गये कि नायक बनने के अनुकूल नहीं रह पाये। चरित्र अभिनेता के रूप में भी उनका काम काफी सराहा जाता था। सुभाष घई की विधाता, हीरो, राहुल रवैल की बेताब और और प्यार हो गया फिल्में यहाँ जिक्र करने को एकदम से याद आती हैं।

शम्मी कपूर का निधन हिन्दी सिनेमा से एक ऐसे कलाकार का जाना है जिसकी अपने मुकम्मल दौर में उपस्थिति बड़े जीवट और असाधारण ऊर्जा के साथ बनी हुई थी। कुछ दिनों पहले ही सुनने में आया था कि रणबीर कपूर को लेकर रॉक स्टार फिल्म बनाने वाले निर्देशक इम्तियाज अली की गुजारिश पर अपने पोते के साथ इस फिल्म में एक स्टेप करने को शम्मी कपूर राजी हुए और उन्होंने शूटिंग में भी हिस्सा लिया। शम्मी साहब के निधन के बाद आने वाली यह उनकी अन्तिम फिल्म होगी।
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शनिवार, 20 अगस्त 2011

याहू जंगली शम्मी कपूर साहब



एक सप्ताह पहले ही शम्मी कपूर का निधन हुआ। पचास साल पहले प्रदर्शित सुबोध मुखर्जी की फिल्म जंगली, उनके कैरियर में ऐसी फिल्म साबित हुई जो लगातार साठ हफ्ते चलने के बाद उनके लिए एक यादगार बन गयी। जंगली में उनके गाये गाने, चाहे कोई मुझे जंगली कहे, में याहू कहकर अपनी खुशी जाहिर करने का अन्दाज उनकी स्थायी पहचान बन गया। शम्मी कपूर ने यों दो सौ से ज्यादा फिल्मों में काम किया होगा मगर उनकी पन्द्रह-बीस शानदार फिल्मों में जंगली की चर्चा विशेष उल्लेख के साथ होती है।

जंगली, इस्टमेन कलर फिल्म थी जिसके गाने हसरत जयपुरी और शैलेन्द्र ने लिखे थे। फिल्म के संगीतकार शंकर-जयकिशन थे। इसके सभी गाने हिट थे। शम्मी कपूर के लिए मोहम्मद रफी जरा अलग से गाते थे, उनके व्यक्तित्व के अनुरूप मस्ती और मिजाज को अपने में आत्मसात करके। एक गीत का जिक्र तो अभी ऊपर हुआ ही, इसके साथ ही एहसान तेरा होगा मुझ पर, अइ अइया सूकू सूकू, नैन तुम्हारे मजेदार ओ जनाबे-आली जैसे गानों को हम आज भी याद रखते हैं।

जंगली फिल्म की कहानी यों कोई विशेष नहीं है। एक परिवार है राजघराने का जिसमें माँ है, बेटा है, बेटी है। चेहरे पर बिना किसी संवेदना, बिना किसी भाव के बात करनी होती है। मतलब की बात चन्द शब्दों में होकर बात खत्म होती है, सब अपना-अपना काम करते हैं। उठने-बैठने, खड़े होने, चलने सबका अनुशासन है। बेटा शेखर विदेश से आया है, अपनी कम्पनी सम्हाल रहा है। सभी को खींचकर रखा है, दस सेकेण्ड विलम्ब से आने पर दस दिन के लिए सस्पेण्ड कर देता है अपने कर्मचारी को। बैरा घर में बिना पगड़ी साफे के खाना परोसने आ जाता है, तो भूचाल आ जाता है।

ऐसे में ही एक घटना के चलते उसे कश्मीर जाना पड़ता है, अपनी बहन के साथ। यहीं से उसके जीवन में परिवर्तन आता है जब एक शोख-सुन्दर और चुहलबाज लडक़ी राजकुमारी से उसकी मुलाकात होती है। पहला सीन बहुत अच्छा है जिसमें वो बर्फ का गोला नायक को मारती है और कहती है कि मैंने तो बन्दर को मारा था। नायिका ही उसके जीवन को रंगीन बनाती है। कहानी प्यार की खूबसूरती और मजे से आगे बढ़ती है। सुधरकर लौटे नायक से माँ भी चकित है। फिल्म में मामूली से खलनायक हैं और मामूली सी ही मारपीट। फिल्म के अन्त में सब ठीक हो जाता है।

शम्मी कपूर और सायरा बानो ही दरअसल इस फिल्म को रंगते हैं। आश्चर्य होता है इस बात पर कि जंगली जैसे नितान्त अप्रभावित करने वाले नाम पर ऐसी सुपरहिट डायमण्ड जुबली फिल्म बन गयी। फिल्म में अनूप कुमार और शशिकला पर ही नैन तुम्हारे मजेदार ओ जनाबे आली गाना फिल्माया गया है, मतलब मुकेश की आवाज पर अनूप की अदा।

इस फिल्म को देखना, कश्मीर के मनोरम स्थलों की भी रूमानी यात्रा करने जैसा अनुभव है। आधी सदी पहले की इस फिल्म को देखते हुए जब आज के सन्दर्भ में यह याद आता है कि शम्मी अब नहीं हैं, तो दुख होता है।

शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

किस सिनेमा को सफलता आखिर?



विफल सिनेमा, असावधानियों की ओर इशारा करता है। विफल सिनेमा इस बात के भी संकेत देता है कि दर्शक अन्तत: डुबो देने और पार लगाने का फैसला देता है। फिल्म बनाने का सीधा-सादा रास्ता जैसे अब रह ही नहीं गया है। दवाएँ यदि शरीर को फायदा पहुँचाएँ तो चाहे जितनी भी कड़वी या कसैली हों, मरीज पी ही लेता है। नहीं पीता तो उसके खिदमतगार प्यार से या जिदपूर्वक पिला दिया करते हैं मगर कई बार ऐसी दवा बड़ी त्रासद हो जाती है जो कड़वी और कसैली तो होती ही है लेकिन बीमारी दूर नहीं कर पाती। ऐसी दवा पीने वाला किस तरह की मुसीबत का सामना करता है, यह वही बता सकता है।

हिन्दी फिल्मों के साथ अब धीरे-धीरे इतनी अविश्वसनीयता जुड़ गयी है कि दर्शक सिनेमाघर को दूर से ही सलाम करता है। एक साल में दो सौ से ज्यादा फिल्में रिलीज होती हैं मगर अपनी पाँचों उंगलियों के पन्द्रह खाने भी पूरे नहीं होते, अच्छी या सफल फिल्म के नाम लेने के लिए। पिछले शनिवार को आरक्षण फिल्म का दूसरा दिन था और दोपहर के शो में एक सिनेमाघर में दस दुपहिया गाडिय़ाँ खड़ी थीं। शायद पच्चीस-तीस लोग फिल्म देख रहे होंगे। पचास कदम पर एक दूसरा सिनेमाघर था जिसमें चार हफ्ते से सिंघम फिल्म लगी हुई है। वहाँ दो सौ से अधिक लोग भीड़ लगाये खड़े थे। दर्शक हमारा जैसे चुटकियाँ बजाकर फैसले देता है। वह फिल्मकार के किसी प्रोपेगण्डा से प्रभावित नहीं होता। जितनी तेजी से प्रोपेगण्डा भी व्यर्थ और नाहक खड़ा किया साबित होता है वह भी दर्शकों में विश्वसनीयता पर असर डालता है।

सफल सिनेमा के अनेक सार्थक फार्मूले भी होते हैं। पता नहीं क्यों, फिल्मकार उस रास्ते पर चलना चाहते? जाने कैसे ऐसे फिल्मकार भी उस श्रेणी में जाकर खड़े हो गये जिन पर बड़ी उम्मीदें रही हैं। सिनेमा के सौवें साल की बेला में हमको इस बात पर खूब ध्यान देना चाहिए कि फिल्में बन किस तरह की रही हैं, आ किस तरह की रही हैं? सिनेमा में अब मौलिकता चलो, माना नहीं ही है, होना हो सकता है मुश्किल भी हो मगर प्रेरणा, अनुसरण या एक हद तक नकल करके भी कुछ हद तक ही सही कभी-कभार सफल सिनेमा बनाया जा सकता है। लेकिन वहाँ भी अब दृष्टि का अभाव ही दीखता है। पिछला सप्ताह ऐसी ही खीज और झुंझलाहट से भरा रहा है।

अन्ना हजारे के आन्दोलन ने प्रदर्शित फिल्मों के विवाद, उनकी सार्थकताओं और अर्थ को स्मरण या चिन्ता के दायरे से ही बाहर कर दिया। दर्शकों को आश्चर्य होगा कि किस तरह इस बदहवासी में एक दिलचस्प भले ही कम सफल फिल्म, पर देखी जा सकने वाली चतुर सिंह टू स्टार आकर लग गयी है। वाकई में इस वक्त यह थ्री स्टार वाली फिल्म का काम कर रही है।

सिनेमा और समाज के आन्दोलन



यह एक बड़ा अहम सवाल है। भारतीय सिनेमा, जिसमें खासतौर पर हम हिन्दी सिनेमा पर आकर अपनी जानकारियों और ज्ञान को केन्द्रित करते हैं, अब की स्थिति में नैतिक मूल्यों या राष्ट्रप्रेम की कितनी बातें करता है? अब ऐसे समय में जब हमें विवाद भी खड़े किए गये दिखायी दें, हम कितनी उम्मीद कर सकते हैं बेहतर और सार्थक सिनेमा की? एक तरफ देश में अन्ना हजारे के आन्दोलन से बड़ी संख्या में बुद्धिजीवी, कलाकार, साहित्यकार, सामाजिक सक्रियता से जुड़े लोग और आमजन आन्दोलित हो गये हैं वहीं हमारे सामने ऐसे वक्त में मैं आजाद हूँ, लीडर, क्लर्क, आक्रोश, मेरी आवाज सुनो, इंकलाब जैसी फिल्मों की याद आ जाती है।

कुछेक फिल्मकार या कलाकार ऐसे होंगे जिनकी नजरों में इस माध्यम से कुछ सरोकारों की बात की जा सकती है, अन्यथा सभी जगह अब वातावरण बदला हुआ है। हिन्दी फिल्मों में उपकार से लेकर रोटी कपड़ा और मकान तक देशप्रेम की बात की गयी है। शहीद से लेकर लीडर तक आजादी के पहले और आजादी के बाद के हिन्दुस्तान को देखने की कोशिश की गयी है। सत्यकाम से लेकर अर्धसत्य तक नायक व्यवस्था, परिस्थितियों और प्रवृत्तियों से लड़ता है। सत्यकाम के नायक को कैंसर हो जाता है, वो अपने प्रतिवाद और मूल्यों के साथ अपने आप पर अडिग रहकर सारे विरोधाभासों का सामना करता है।

अर्धसत्य के इन्स्पेक्टर अनन्त वेलणकर के सामने बुरे आदमी का अन्तर कर देना ही अन्तिम विकल्प रह जाता है। मनोज वाजपेयी की फिल्म शूल भी आज के समय के बड़े तनाव को यथार्थ के साथ सामने लाती है। उसका नायक भी पुलिस अधिकारी है, जो अन्त में राजनेता खलनायक को मार देता है। अजय देवगन की फिल्म सिंघम भी इस बात का ताजा उदाहरण है। सिनेमा अपनी सार्थकता में आसपास की बहुत सारी विद्रूपताओं को देख सकता है, पर उसकी अपनी सीमाएँ स्थापित नहीं होनी चाहिए। रचनात्मक माध्यम अपनी क्षमताओं में भी बड़ी सामाजिक भूमिका का निर्वाह करते हैं। उन माध्यमों में, उन माध्यमों में काम करने वालों में यह बोध बने रहना चाहिए।

बहुत से गहरे सिने-विश्लेषक इस बात को कहते हैं कि आजादी के बाद खासतौर पर उसके पन्द्रह वर्षों का समय हमारे सिनेमा में मूल्यों, शोषण, दमन, भ्रष्टाचार की बात करते हुए सार्थकता के साथ व्यतीत हुआ है। इस अवधि में अपने समय की अहम फिल्में आयी हैं। सैंतालीस के साल में ही विजय भट्ट निर्देशित फिल्म समाज को बदल डालो आयी थी।

इक्यावन में फणि मजुमदार ने आन्दोलन बनायी। बावन में आनंदमठ, तिरपन में दो बीघा जमीन, छप्पन में जागते रहो, सत्तावन में मदर इण्डिया, नया दौर आदि के माध्यम से विषमताओं, विद्रूपताओं और उम्मीदों की बातें ठोस और यादगार ढंग से कही गयी हैं। अब फिल्में उस तरह से बनती नहीं और न ही विवादित होती हैं। अब सन्दर्भ बदल गये हैं। सिनेमा के लिए अब आन्दोलन का अर्थ परम्परा से अलग आधुनिकता और उसी से प्रेरित अराजकता की बोली बोलना ज्यादा हो गया है।

धन्ना सेठ से करोड़पति तक



बच्चन साहब एक बार फिर करोड़पति बनाने का सपना लिए छोटे परदे पर प्रकट हो गये हैं। इसके पहले एक क्षेत्रीय चैनल ने भी यह धारावाहिक शत्रुघ्र सिन्हा को लेकर शुरू कर दिया था। करोड़पति होना हर इन्सान के सपनों में शामिल है, कौन नहीं चाहता कि वो करोड़पति बन जाये। जब पहले पहल कौन बनेगा करोड़पति शुरू हुआ था, तो यह धारावाहिक दर्शकों में आरम्भ की मौलिकता, तैयारी और खासतौर पर इसके प्रस्तुतकर्ता अमिताभ बच्चन के इस धारावाहिक में काम शुरू करने के ठीक पहले की भरपूर फुरसत और शो में संजीदगी से जुडऩे के कारण सफल हुआ था।

इस धारावाहिक से पहले अमिताभ बच्चन ने फिल्मों में खास काम नहीं ले रखा था। एक तरह से यही धारावाहिक ऐसा था जो अमिताभ बच्चन को लाइम लाइट में ले आया। अमिताभ बच्चन ने इसे मनोयोग से प्रस्तुत किया और अपनी वाक्पटुता, पिता की काव्यात्मक विरासत और सिनेमा के अपने लम्बे और अच्छे-बुरे अनुभवों को ध्यान में रखते हुए जनता से सीधे जुड़े। जनता से संवाद का उनका ढंग आज भले ही ट्विटर और ब्लॉग के माध्यम से बहुत औपचारिक और सामान्य हो गया हो मगर उस समय करोड़पति देखते हुए दर्शक को इस बात पर मुग्ध होने के लिए अवसर ही अवसर थे कि अमिताभ उनसे सीधे बात कर रहे हैं।

देवियों और सज्जनों का उनका उद्बोधन और आखिरी में अपना ख्याल रखिएगा ने बड़ा काम किया। हम सबके जेहन में धन्ना सेठ किसी कथा या कहानी का नायक नहीं है बल्कि हमारे बुजुर्गों से ही सुना हुआ शब्द है जो किसी अमीर या रईस के लिए या तो इस्तेमाल किया जाता था या किसी रसूख बताने वाले के लिए बतौर उपहास।

धन्ना सेठ से अब के युग में करोड़पति होने तक यह शाब्दिक प्रतीक अपने अर्थ बदल चुका है। करोड़पति शब्द जनता को आमजन को लुभाता है, उसका आकर्षण बना हुआ है लिहाजा कौन बनेगा करोड़पति को भले ही पहले भाग जैसा प्रभाव और आकर्षण न मिले मगर पच्चीस-तीस प्रतिशत दर्शक उसको अभी भी देखना चाहते हैं।

करोड़पति बनने जाना किसी बड़े स्वयंवर से कम नहीं है। चयन से लेकर जीत तक सभी कठिन है पर दूसरी बात यह भी है कि कठिन कुछ भी नहीं होता। तकदीर अपना काम करती है और प्रतिभा और दक्षता तकदीर के समर्थन से सफलता के दरवाजे पर भी ला खड़ा करती है। कुल मिलाकर हमारे सामने सपना है या कहें सपने हैं, बच्चन साहब सपनों के सौदागर। इस धारावाहिक में भी समय और आधुनिकता का असर है, देखना होगा, दर्शकों में इस बार इसका क्या प्रभाव पड़ता है?

मंगलवार, 16 अगस्त 2011

शम्मी कपूर : बीमारियों को हराने वाला एक सिकन्दर



शम्मी कपूर साहब पिछले लगभग दस-बारह साल से बीमारियों को मात दे रहे थे। सच मायने में वे इस फ्रण्ट में किसी बड़े योद्धा की तरह ही थे। आमतौर पर गम्भीर बीमारियों की पहचान ही आदमी को आधा मार देती है। हम मामूली ब्लड टेस्ट कराने जाते हैं तो उसकी रिपोर्ट आने तक हमारी जान सूखी रहती है। ऐसा लगता है जाने किस तरह का इम्तिहान है, क्या परिणाम आयेगा और इधर शम्मी कपूर, किडनी की बीमारी और निरन्तर डायलिसिस की तकलीफदेह और त्रासद स्थितियों से अपने जीवट के दम पर ही जूझते रहे।

कुछ समय पहले ही हमने यह खबर पढ़ी थी कि इम्तियाज अली की फिल्म रॉक स्टार के एक गाने की सीक्वेंस में वे अपने पोते रणबीर कपूर के साथ एक-दो स्टेप्स करने को तैयार हो गये हैं। इम्तियाज अली ने यह काम बड़ी सावधानी से, शम्मी साहब की बड़ी फिक्र करते हुए पूरा किया। इस साल जब वह फिल्म आयेगी तो हमें लगेगा कि ताजिन्दगी ऊर्जा को अपने आपमें जीने वाला, सबको अपनी ऊर्जा से ऊर्जा बाँटने वाला कैसा विलक्षण शख्स था यह शम्मी कपूर नाम का। यह बात मन में क्लेश पैदा करती है कि इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया में शम्मी साहब को लेकर एक कायदे की टिप्पणी भी दिखायी नहीं दी।

चैनलों ने, खासकर उसमें मनोरंजन के कार्यक्रम बनाने वाले लोगों ने, स्क्रिप्ट लिखने वाले लोगों ने शम्मी कपूर पर पाँच-दस मिनट भी सार्थक श्रद्धांजलि नहीं दी। घटनाएँ अपनी प्रमुखताएँ जाने, खुद कैसे तय करती होंगी, शायद नहीं करतीं क्योंकि यह काम जिसके हाथ में होता है, कई बार जमावट में उसके निर्णय विस्मित करते हैं। शम्मी कपूर भी अखबारों में पहले पेज पर दस लाइन और भीतर के किसी पेज पर शेष की तरह थे। एक स्मृति शेष कलाकार, वह भी इतना बड़ा, वरिष्ठ और बीसवीं सदी के सिनेमा में अपनी बड़ी मौलिक, बड़ी ठोस और नजरअन्दाज न की जा सकने वाली जगह रखने के बावजूद पन्द्रह लाइन की सो-काल्ड खबर में पूरा हो गया।

शम्मी कपूर क्या थे, पहली फिल्म क्या थी, कितनी फिल्में की थीं, क्या-कितना योगदान था, इस पर बात करना शायद यहाँ उतना मौजूँ नहीं है पर कम से कम यह बात की जानी बेहद जरूरी है कि कैसे अपने बड़े भाई सहित तीन-तीन महानायकों और पाँच-छ: दूसरे लोकप्रिय नायकों के बीच एक शमशेर अपनी धारा खुद सृजित करता है, स्थापित करता है और आप-दर्शकों को उससे सहमत भी करता है, बिना दबाव के, खुशी-खुशी।

शम्मी कपूर समकालीन उपस्थिति में अपने अनुशासन के बावजूद एक्सपॉण्ड होते दीखते थे, अपनी हर फिल्म में। हमें जिन्दगी में जीते-जी मार देने वाली बीमारी-हारी से लडऩे वाले एक सिकन्दर के रूप में शम्मी कपूर को याद रखना चाहिए।

रविवार, 14 अगस्त 2011

अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों


15 अगस्त, भारत की स्वतंत्रता का दिन। चौंसठ साल पहले मिली आजादी का यादगार दिन। हर साल उसी ऊष्मा और भावनाओं के साथ हम यह दिन मनाते हैं। इसी बेला में चेतन आनंद की फिल्म हकीकत की याद आती है। भारत-चीन युद्ध की पृष्ठभूमि में बनी इस फिल्म का प्रदर्शन काल 1964 का है। चेतन आनंद एक प्रयोगधर्मी फिल्मकार थे। देव आनंद और विजय आनंद के बड़े भाई, चेतन की दृष्टि सबसे अलग थी, अपने भाइयों में। उनकी फिल्में कम हैं मगर आकृष्ट करती हैं।

देशप्रेम पर हकीकत फिल्म का उदाहरण हिन्दी सिनेमा के इतिहास में हमेशा दिया जाता है। हकीकत में बड़े सितारों को एक साथ लिया गया था। बलराज साहनी, धर्मेन्द्र, प्रिया राजवंश, विजय आनंद, जयन्त, संजय खान, अचला सचदेव, भूपिन्दर, सुधीर आदि। हकीकत फिल्म कैप्टन बहादुर सिंह की वीरता की दास्तान है। सीमा पर अपने देश की रक्षा करते हुए इस अधिकारी को सीमा की ही एक युवती से प्रेम हो जाता है। धर्मेन्द्र कैप्टन बहादुर सिंह की भूमिका में हैं और प्रिया उनकी प्रेयसी। हकीकत का फिल्माँकन लद्दाख में बड़े जोखिमों के साथ किया गया था। फिल्म में जाँबाज हिन्दुस्तानियों के जज्बे को बड़ी बहादुरी और संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत किया गया है।

युद्ध के दृश्य चेतन आनंद ने जिस सजीव वास्तविकता के साथ फिल्माए हैं, उसमें उनकी कुशलता और दक्षता जाहिर होती है। नायिका के भाई के साथ नायक के दृश्य भी दिलचस्प हैं, जिसमें नायक, नायिका के भाई को एक जगह खड़े रहने का आदेश देता है और वह बच्चा वहीं लगातार खड़े रहकर एक ऐसा संवाद बोलता है कि नायक का चेहरा एक नन्हें देशभक्त के सामने फक्र से भर जाता है। कैफी आजमी साहब ने इस फिल्म के लिए ऐसे गीत लिखे हैं जो मर्म को छू जाते हैं। कर चले हम फिदा जान ओ तन साथियो अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो, हो के मजबूर मुझे उसने भुलाया होगा, जरा सी आहट होती है तो कहता है दिल कहीं ये वो तो नहीं।

मदन मोहन ने इन गीतों की संगीत रचना भी मर्म के अनुकूल ही तैयार की थी। कर चले हम फिदा, गीत सुनते हुए सचमुच देशभक्त शहीदों की याद में हमारी आँखें नम हो जाती हैं। यह गाना कैप्टन बहादुर सिंह की शहादत पर फिल्माया गया है। मोहम्मद रफी साहब ने इस गाने को गहरे भाव में डूबकर गाया है, और कोरस की बात ही क्या।

धर्मेन्द्र के कैरियर की यह एक उल्लेखनीय फिल्म है। हकीकत सुपरहिट फिल्म थी। बलराज साहनी, जयन्त की भूमिकाएँ याद रह जाती हैं और हम भूपिन्दर जो कि गायक भी हैं, सुधीर के अभिनय को भी याद रखते हैं। यह फिल्म सैनिकों के साथ-साथ उनके परिवार, माँ-पिता, पत्नी, भाई-बहनों की संवेदनाओं को भी मन को छू लेने वाली निगाह से देखती है।

बुधवार, 10 अगस्त 2011

आरक्षण, सुर्खिया, उम्मीदें-नाउम्मीदें



अपने पाठकों के बीच एक बार जैसी कि चर्चा हुई थी, 12 अगस्त यों तो प्रकाश झा की बहुचर्चित फिल्म आरक्षण के प्रदर्शन का दिन है लेकिन इसी फिल्म के साथ-साथ लगभग पाँच-सात छोटी और मझौले किस्म की फिल्में भी इसी दिन प्रदर्शित होने जा रही हैं।

प्रकाश झा की पिछली कुछ फिल्मों से जिस तरह प्रदर्शन पूर्व प्रायोजित किस्म के प्रतिवाद-विवाद और सुर्खियाँ दिखायी देने लगी हैं, वैसी ही आरक्षण के साथ भी पिछले एकाध माह से अखबारों में छोटी-बड़ी खबरों के रूप में नजर आ रही हैं। अपहरण के साधु यादव वाले विवाद से लेकर राजनीति में कैटरीना की छबि या आरक्षण में विषय का ही मूल मुद्दा बनना कितना यथार्थपरक है, कितना फिल्म के पक्ष में माहौल के लिए, इसकी चर्चा प्रबुद्ध करते हैं।

कभी खबर यह बनती है कि लखनऊ में बच्चन साहब को छात्रों के बीच सम्बोधित करने की अनुमति नहीं मिली, कभी उत्तरप्रदेश में ही इस फिल्म के लिए फिल्म के दूसरे सितारों के साथ की जाने वाली यात्रा को प्रोत्साहित नहीं किया गया बल्कि व्यवधान पेश किए गये। चार दिन पहले अखबार में छपा कि कि बच्चन साहब और प्रकाश झा पर पटना में मुकदमा दर्ज हुआ। आरक्षण फिल्म विरोधी हवा उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र से बिहार तक पहुँच गयी है।

वैसे यह दिलचस्प है कि प्रकाश झा भोपाल में फिल्म पूरी बना लेने के बाद भोपाल या मध्यप्रदेश छोड़ शेष भारत में कलाकारों के साथ जाने के लिए आतुर और उत्सुक हैं, उन जगहों में जहाँ तार से तार रगडक़र स्पार्क से फुलझड़ी का मजा लिया जा सके। फिल्म जहाँ बनी, वो जगह, राजनीति फिल्म के समय की तरह ही उपेक्षित है।

जब राजनीति फिल्म का प्रदर्शन हुआ था तब यह अपेक्षा की जा रही थी कि निर्देशक और सितारे भोपाल में उन तमाम कलाकारों के साथ इस खुशी को सबसे पहले बाँटेंगे जो एक झलक से लेकर एक सीन के छोटे-बड़े हिस्से थे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। भोपाल से जो हाइप इस फिल्म को प्रदर्शित होने पर मिला, उसका प्रभाव व्यापक रहा और फिल्म को उस तरह की व्यावसायिक सफलता मिल गयी, जिसने प्रकाश झा के अपहरण और गंगाजल वाले आत्मविश्वास और और समृद्ध कर दिया। झा, भोपाल उन दिनों तब आये जब फिल्म प्रदर्शित हुए चार-पाँच हफ्ते हो चुके थे। आरक्षण में हालाँकि राजनीति की तरह हजारों कलाकार मध्यप्रदेश के नहीं हैं मगर फिर भी जो हैं वे एक-एक दिन गिन ही रहे हैं। जाने इस बात भी उनकी इच्छा पूरी हो पाती है या नहीं।

आजकल सिनेमाघरों में जिस तरह फिल्मों को चढ़ाने और उतारने का चलन आम हो गया है, उसमें कम समय में अधिकतम लागत वसूल करके अगली फिल्म लाने-लगाने की तैयारी की जाने लगती है, ऐसे में पता नहीं भोपाल में आरक्षण का प्रीमियर हो सकेगा कि नहीं, कलाकारों के साथ विशेष शो हो सकेगा कि नहीं या हफ्ते-दस दिन निर्देशक या कोई सितारा, भोपाल के कलाकारों के साथ खुशी बाँट सकेगा या नहीं, कहा नहीं जा सकता।

मंगलवार, 9 अगस्त 2011

ताश के महल, फूँक का तूफान



शेयर मार्केट में आयी गिरावट ने बड़े निवेशकों के माथे पर पसीना चुहचुहा दिया है। अखबारों की मुख्य खबरों में पिछले तीन-चार दिनों से यही छाया हुआ है। यह ऐसे मार्केट का फलसफा है जहाँ पारा ब्लड प्रेशर मापने के यंत्र में जिस तरह चढ़-उतरकर जान-जोखिम में डाल दिया करता है, उसी तरह बाजार में भी। सूखे घाव की पपड़ी उखडऩे जैसा एहसास है जो किसी न किसी लापरवाही से उखड़ जाती है मगर आदमी देर तक छटपटाता रहता है।

शेयर मार्केट जाने कितने नागरिकों के भी सपने को साकार होने का ऐसा माध्यम बनकर पिछले दो दशकों में आया है, जहाँ बड़े सपने देखने वाले की भी अपनी दुनिया है और छोटे सपने देखने वालों की भी। महल बनाने का लक्ष्य रखने वाले भी यहाँ हैं और एयर कण्डीशण्ड झोपड़ी भी। अपने धन को उम्मीद से कई गुना बढ़ाने का भरोसा दिलाने वाली संस्थाओं में निवेश करने वाले और दाँव पर लगने-लगाने वालों के काम की तुलना भले अब सट्टे से सीधे किया जाना बहुत कम हो गया है मगर यह बाजार-व्यावसाय भी दरअसल आया उसी जगह से है।

हिन्दी फिल्मों में बलराज साहनी की सट्टा बाजार से लेकर प्रेमनाथ की प्रभावी भूमिका वाली फिल्म धर्मात्मा तक रुपए की गिनती ताश के बावन पत्तों से बढ़ाने के खेल को भिन्नताओं में पेश करती है। दिलीप कुमार की दास्तान मे भी खलनायक को सबक सिखाने के लिए उसको निवेश के भ्रमजाल में फँसाया जाता है, जब खलनायक सारी पूँजी लगा बैठता है तब भाव गिर जाते हैं।

यश चोपड़ा की फिल्म त्रिशूल में भी इसी तरह के दृश्य हैं। यहाँ बेटा और बाप आमने-सामने हैं और सामने वाले को छोटा करने की होड़ है। आज शेयर बाजार में जितना दखल सरकार की कम्पनियों का है उससे कहीं ज्यादा निजी कम्पनियाँ मैदान में हैं। ऐसी निजी संस्थाएँ समानान्तर रूप से सरकार के सामने चुनौतियों की तरह खड़ी हो जाती हैं।

एयर इण्डिया को टक्कर देने के लिए बीस एयर लाइन्स हैं, डाक की परिपाटी को कोरियर ने अस्तित्वहीन कर दिया, सरकारी बीमा को निजी बीमा कम्पनियों ने जीभ दिखायी, बैंक के टक्कर में बैंक खड़े हो गये। हिन्दी फिल्मों के कितने ही किरदार विभिन्न दृश्यों में हमें शेयर मार्केट के अचानक गिर जाने से बरबाद होने वाली अवस्था को जीते दिखायी देते हैं। आम आदमी का हाल उससे भी ज्यादा बुरा होता है। शॉर्ट कट के सपने ताश के महल की तरह ही होते हैं जिनके लिए जरा सी फूँक भी तूफान का काम करती है।

सोमवार, 8 अगस्त 2011

मेरा लाखों का सावन जाये


हिन्दी फिल्मों में बरसात को दो तरह से खूब प्रयोग में लाया गया है। सबसे ज्यादा मनोरम और आनंद प्रदान करने वाला प्रयोग तो गानों में ही फिल्मकारों ने किया है लेकिन दूसरी तरफ सनसनीखेज घटनाओं और षडयंत्रों को अंजाम देने वाले दृश्यों में बरसात का पूरा का पूरा परिवेश ही दूसरा हो जाता है।

बहुत सी डरावनी फिल्मों में सन्नाटे के साथ-साथ बरसात में बुरे इरादों को पूरा करने वाली बातें देखने में आयी हैं। खासतौर पर रामसे ब्रदर्स की फिल्मों में ऐसे दृश्य हुए हैं, एक भाखड़ी ब्रदर्स भी थे जो रामसे की तर्ज पर डरावनी फिल्में बनाया करते थे, वे भी कडक़ती बिजली, स्याह आसमान और धुँआधार वर्षा के दृश्यों को अपनी फिल्मों का हिस्सा बनाते रहे।

बरसात के गानों का मामला ही अलग है, रिमझिम के तराने ले के आयी बरसात से लेकर बरसात में हम से मिले तुम सजन तुम से मिले हम बरसात में, प्यार हुआ इकरार हुआ, जिन्दगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात, एक लडक़ी भीगी भागी सी, रिमझिम गिरे सावन और न जाने कितने ही गाने हैं। याद करो तो अनेक गाने याद आते हैं। इन गानों को सुनना, उन दृश्यों के साथ यकायक जुड़ जाना होता है जो फिल्म का हिस्सा रहे।

यश चोपड़ा की फिल्म चांदनी में लगी आज सावन की फिर वो झड़ी में अवसाद और विरह नायक विनोद खन्ना के चेहरे और भाव से व्यक्त होते हैं। दासरि नारायण राव निर्देशित फिल्म प्यासा सावन में मौसमी चटर्जी और जीतेन्द्र पर फिल्माया गया गाना, मेघा रे मेघा, आज तू प्रेम का सन्देस बरसा रे, लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल के संगीत से बड़ा प्रभावी बन पड़ा है। बरसात के अच्छे गानों में से एक नमक हलाल का वो गाना भी है, जो अमिताभ बच्चन और स्वर्गीय स्मिता पाटिल पर फिल्माया गया है, आज रपट जायें तो होश न दिलइयो।

पहले के निर्देशकों और कलाकारों में बरखा के गानों के फिल्मांकन को लेकर एक सुविचारित और कलात्मक सोच भी हुआ करता था। बाद में ऐसे निर्देशक भी आये जिन्होंने बरसात को नायिका के अंग प्रदर्शन का जायज और मौसमी पर्याय मान लिया। नायक, रोजा, बॉम्बे, फना, लगान, थ्री ईडियट्स, हम तुम, ये दिल्लगी आदि बहुत सी फिल्में इसी सोच को आगे बढ़ाने वाली हैं।

रोटी कपड़ा और मकान में हाय हाय ये मजबूरी और क्रान्ति में जिन्दगी की न टूटे लड़ी इसी तरह के गाने हैं जिसमें मनोज कुमार ने अपनी ऐसी आकांक्षाओं को भी पूरा किया। हालाँकि उनकी इसके पहले की फिल्म शोर में पानी रे पानी तेरा रंग कैसा में भी कुछ ऐसे शेड्स रहे। हमारे पाठकों को हो सकता है, इस वक्त ऐसे बहुत से गाने याद आ जायें जो यहाँ जिक्र में छूट गये हों, मगर शब्द-सेंसर की सीमा का अतिरेक करती इस टिप्प्णी के माध्यम से यदि आप सबकी यादें ताजा हो जाएँ तो अच्छा ही है, एक बड़ी सूूची ही तैयार हो जायेगी।

रविवार, 7 अगस्त 2011

भोली सूरत दिल के खोटे


इस रविवार एक खूबसूरत फिल्म की चर्चा करने का मन हुआ है जिसका नाम है अलबेला। अब से साठ साल पहले प्रदर्शित यह फिल्म न केवल अपने समय की सुपरहिट थी बल्कि जिस तरह का पहले हमारे यहाँ हिन्दी सिनेमा में रिवाज था, मैटिनी शो में दोबारा प्रदर्शित करने का या कुछ साल बाद फिर से सिनेमाघर में किसी सुपरहिट फिल्म की याद ताजा कराकर उसके प्रति दर्शकों का फिर रुझान बढ़ाने का, इस तरह से अलबेला जितनी बार रिलीज हुई, खूब देखी गयी।

देखने की वजह सबसे पहली होती थी, इस फिल्म के नायक भगवान दादा, जो कि फिल्म के निर्माता और निर्देशक भी थे, दूसरी इस फिल्म की भोली-भाली मासूम सी कहानी और उसी फ्लो में मन को हिला कर रख देने वाली टे्रजिडी, फिर प्यारे-प्यारे गाने और मन मगन कर देने वाले डांस। यह एक छोटे से, गरीब से आदमी, एक क्लर्क के सपने को बयाँ करती है जो नाचने-गाने का शौकीन है और वह सपना देखता है कि एक दिन वह बड़ा स्टार बनेगा। भगवान दादा ने यह भूमिका निभायी है। फिल्म की नायिका गीता बाली हैं जिन्होंने एक सितारा भूमिका की है।

गरीब नायक प्रेम के ख्वाब देखता है मगर त्रासदी तब की फिल्मों में इतने वास्तविक ढंग से लिखी जाती थीं कि दर्शक भी नायक के दुख से दुखी हो जाया करता था और उदास होकर सिनेमाघर से बाहर निकलता था। यहाँ भी परिस्थितियाँ हैं, प्रतिरोधी चरित्र हैं और बुरे भी। भगवान दादा की नाच अदा अनूठी थी, वे साधारण नैन-नक्श और छोटे कद के गब्दू टाइप कलाकार थे, हीरो जैसे गुण न होते हुए भी वे इस फिल्म में हीरो बनकर आते हैं और खूब पसन्द किए जाते हैं। भोली सूरत दिल के खोटे, नाम बड़े और दर्शन छोटे, शाम ढले खिडक़ी तले तुम सीटी बजाना छोड़ दो और शोला जो भडक़े जैसे गाने आज भी हमें बिसरे नहीं लगते बल्कि लगभग हमें उस दौर में खींच ले जाते हैं जब के ये गाने थे।

अलबेला के सभी गीत राजेन्द्र कृष्ण ने लिखे थे और रामचन्द्र चितलकर ने संगीत तैयार किया था। जिन्होंने फिल्म अलबेला देखी होगी उन्हें, शोला जो भडक़े गाने का फिल्मांकन आज भी याद होगा, उसकी गति, खासतौर पर लाइट्स का इस्तेमाल और हवाइयन डाँस कोरियोग्राफी। प्रतिमा देवी, बद्री प्रसाद, निहाल, दुलारी, सुन्दर आदि फिल्म के प्रमुख कलाकार थे। भगवान दादा की ठुमके लगाने की मौलिक अदा ही हमारे बच्चन साहब की नृत्य कला पर हावी है। यह बात बच्चन साहब स्वयं भी स्वीकारते हैं।

बदलते दृश्य-परिदृश्यों में



उगते सूरज को सलाम करना हो सकता है, अब एक सामाजिक चतुराई के रूप में सर्वव्यापी हो गयी हो, लेकिन सिनेमा में इसका सर्वाधिक साफ-सपाट स्वरूप देखने में आता है। बाजार जिसको झुक कर सलाम करता है, उसके पीछे सब होते हैं। आसपास खड़े होकर पूरी निष्ठा के साथ ख्याल रखने वाले और लगभग फिक्रमन्द रहने वालों से घिरी सितारा शख्सियतें वक्त बुरा होने पर सूनेपन को बड़े दुखी मन के साथ जीती हैं।

आस्थाएँ कब, कहाँ और कैसे बदल जायें कुछ कहा नहीं जा सकता। आये दिन नेता से लेकर बड़ी संख्या में कार्यकर्ता इस दल से उस दल में चले जाते हैं और तत्काल ससुराल में बैठकर मायके के खिलाफ बयान जारी करते हैं। कभी आगे चलकर मायके लौट गये तो फिर ससुराल में अपने नारकीय जीवन का दुख जताते नहीं अघाते।

बड़े-बड़े सितारों के साथ भी ऐसी घटनाएँ होती हैं, उनके साये कहीं और की छाया बनकर उन्हीं को जीभ दिखाते हैं। मोतीलाल से लेकर राजेश खन्ना तक कितने ही सितारे अपने समय में भुक्तभोगी रहे हैं। उस समय गनीमत यह थी कि भरोसा बहुत कुछ बाकी था और कहीं-कहीं लोग मुरव्वत में रिश्ते निभा लिया करते थे मगर आज एक-दूसरे से सभी जुड़े, परस्पर संदिग्ध निगाह से ही एक-दूसरे को देखते हैं। कलाकार सोचता है, चहेते तभी तक साथ हैं जब तक वक्त है, फिर कहीं और चले जायेंगे और चहेते सोचते हैं कि इस आदमी का भरोसा नहीं कब अपन को छोडक़र चार दूसरे इकट्ठा कर ले।

अब खैर उतनी पार्टियाँ और मौज-मस्तियाँ होटलों और बारों में दावतों और ऐश के नाम पर नहीं होतीं जितनी तीस-चालीस साल पहले हुआ करती थीं। तब होटल से लेकर रेस्त्राँ की मेजें तक आरक्षित रहा करती थीं। शाहीपन का जवाब नहीं था, संजीव कुमार से लेकर शंकर-जयकिशन तक अपनी जगहें आरक्षित रखा करते थे। आज के समय में मिलना तो दूर देखना और दिखायी देना भी मतलब होने पर ही सम्भव है।

फराह खान का अक्षय पसन्द होना और सलमान से आत्मीयता प्रदर्शित करना बादशाह को ऐसा नागवार गुजरा कि उन्होंने फराह से एक लम्बी दूरी बना ली। हौसलाआफजाई पर आये तो कोरियोग्राफर से निर्देशक बना दिया और मन हटा तो अपनी फिल्म तो दूर किसी एकाध गाने की कोरियोग्राफी भी नहीं देनी चाही। फिल्मी दुनिया में अब दस्तूर अपनी तरह के हैं, आज के सफल-असफल सितारों, निर्देशकों और तमाम लोगों के बनाये हुए। अब टीम-वर्क के बजाय गैंग वर्क करती है।

शुक्रवार, 5 अगस्त 2011

सिनेमा में हिंसा की जगह और जरूरत




जोया अख्तर की फिल्म जिन्दगी न मिलेगी दोबारा देखकर यह सवाल मन आया कि एक अच्छी फिल्म बिना किसी हिंसा और खासतौर पर बिना किसी खलनायक के भी बनायी जा सकती है। बड़ी व्यावसायिक सफलता, जिसे बाजार की भाषा में सुपर-डुपर हिट कहा जाता है, वैसी न होकर भी यह फिल्म ऐसी बनी कि अच्छे सिनेमा के जरूरतमन्द इसे देखने गये और पसन्द भी किया। ठीक इसके बाद हमने खलनायक और हिंसा से भरी फिल्म सिंघम देखी। यह फिल्म भी उसी तरह सफल हुई जिस तरह जिन्दगी न मिलेगी दोबारा हिट हुई।

सिंघम में अजय देवगन ने जी-जान एक करके अपनी वही छबि को स्थापित करना चाहा जिसके लिए वे हमेशा जाने जाते हैं। फूल और काँटे से अपना कैरियर शुरू करने वाले अजय देवगन ने हाल में गोलमाल श्रेणी की दो-तीन फिल्में और अतिथि तुम कब जाओगे में अपनी एक अलग अदा-लहजा प्रस्तुत किया था। राजनीति में अपनी छाँटी गयी भूमिका से क्षुब्ध अजय ने प्रकाश झा की आरक्षण के साथ ही राजकुमार सन्तोषी की पावर को भी ना कह दी थी। रोहित शेट्टी की सिंघम से एक तरह से अजय का प्रतिवाद है, उन्होंने साबित किया है कि उनका बहुत अधिक समझौता करने का समय अभी नहीं आया है।

बहरहाल फिल्मों में नकारात्मक चरित्रों को गढऩा, उनको भयावहता प्रदान करना और इस काम में अतिरेक तक जाना, यह अब हिन्दी सिनेमा में बहुत कम हो गया है। दरअसल इस सब की अति भी बहुत पहले हो गयी थी। सिनेमा को सुरुचि के दायरे में लाने के लिए बहुत सी समानान्तर धाराएँ भी हमने पिछले दो दशकों में देखी हैं। जो निर्देशक मुकम्मल कॉमेडी बनाता है वो खलनायकों को और बुराइयों को भी सॉफ्ट रूप में पेश करने की कोशिश करता है, आखिरकार हम अब ऐसे समय के भी साक्षी हैं जहाँ ओडोमास से लेकर फिनाइल तक फूलों की खुश्बू में मिला करती है। ऐसा ही फ्लेवर्ड मनोरंजन हमारे सामने अब आने लगा है।

ये हम ही हैं जो भेजा फ्राय जैसी फिल्म को पसन्द कर लेते हैं तो विनय पाठक जैसी नेपथ्य में पड़े मेहनती सितारों की पौ-बारह हो जाती है। समाज में भी दो तरह की स्थितियाँ देखने में आती हैं, एक वह है जहाँ हम एक आदमी को दूसरे आदमी की जरा सी भी बात बर्दाश्त करते देख नहीं पाते, तुरन्त वो कॉलर पकड़ लेता है वहीं दूसरी ओर ऐसे लोग भी हैं जो गुर्राते आदमी के मुस्कराकर हाथ जोड़ लेते हैं और कठिन वक्त का अक्ल से इलाज करते हैं। सिनेमा का भी यही हाल है।

निर्देशक और कलाकार और पूरी टीम परदे की तरफ से दर्शकों की तरफ देखती है और दर्शक आँख और अक्ल तराजू की तरह रखता है। परिणाम इस बात का सच्चा और सार्थक प्रमाण हैं।

जहाँ नहीं चैना, वहाँ नहीं रहना



किशोर कुमार का एक गाना है, दुखी मन मेरे, सुन मेरा कहना, जहाँ नहीं चैना, वहाँ नहीं रहना। अपने प्रशंसकों के बीच उनका व्यापी स्वरूप तो एक खिलन्दड़े और मसखरे व्यक्ति का ही रहा है। एक ऐसा विचित्र व्यक्ति जो कला जगत के शीर्ष पर रहा है। हिन्दी सिनेमा में पाश्र्व गायक की सबसे ज्यादा लोकप्रिय जगह और फिर उसी के साथ-साथ शौकिया अभिनय, उसमें भी कहीं-कहीं बिल्कुल विलक्षण और असाधारण उपस्थिति दूसरा अन्य अनेक जुड़े हुए आयामों पर भी अपनी जिद के साथ मौजूद रहने का शगल, जैसे गीतकार हो गये, संगीतकार हो गये, निर्देशक हो गये और जो कुछ छूटता दीखा वो भी हो गये।

किशोर कुमार अपनी एकाग्रता और जीवन में, कहा जा सकता है कि सब जगह वे पीठ करके खड़े रहे, सामने मुँह उसी तरह-उसी तरफ रखा जहाँ उनका मन रमा। उनके दोस्त, उनकी दुनिया खुद उनकी गढ़ी हुई, बाकी तो खैर सब जग है ही एक कलाकार का। चेतन आनंद की बड़ी पुरानी फिल्म फण्टूश का यह गाना, जिससे यह टिप्पणी शुरू हुई, बड़ा मौजूँ लगता है, उन पर। यह गाना देव आनंद पर फिल्माया गया है अलग-अलग सिचुएशनों में। फिल्म में देव आनंद की परदे पर कायिक उपस्थिति के साथ इस गाने को देखो-सुनो तो उनके चेहरे पर किशोर कुमार का बेचैन मन चेहरा कहीं धुंधले में महसूस होता है। वैसे किशोर कुमार इतने दुखी मन भी नहीं थे, कि सब जगह से यह कहते हुए पलायन कर जायें कि जहाँ नहीं चैना, वहाँ नहीं रहना।

यह फलसफा, उनका एक तरह का अपनी जिन्दगी जीने का फैसला, बड़ा निजी सा, अनुभवों से भरा हुआ और लगभग खारिज कर देने वाले भाव की तरह ज्यादा लगता है, वे अपनी जिन्दगी में यदि ये लाइनें लागू करते भी होंगे तो रो कर नहीं, चिढक़र कि, जहाँ नहीं चैना, वहाँ नहीं रहना।

पाठकों को शायद दिलचस्प लगे यह जानना कि खुद किशोर कुमार ने जो फिल्में बनायीं उनमें से कई के नामों में दूर शब्द का बड़ा प्रयोग हुआ है, दूर का राही, दूर गगन की छाँव में, दूर वादियों में कहीं। सोच सकते हैं कि उनके भीतर जहाँ नहीं चैना के साथ ही, ये दूर वाला फलसफा भी गहरे मायनों के साथ मौजूद था। वे इस दूर में भी अपने मन की शान्ति और चैन देखते थे, चैन आये मेरे दिल को, दुआ कीजिए।

कलाकार किशोर कुमार की जगह कोई नहीं ले सकता और किसी की भी जगह कोई भी ले नहीं सकता। अमित कुमार जैसे किशोर-पुत्र अपने दिवंगत पिता के जन्मदिन पर पेट भरकर केक खाते हैं मगर पिता की स्मृतियों के लिए कुछ नहीं करना चाहते। उन्हें अपने पिता के जन्म स्थान से बड़ा भय लगता है, खण्डवा के प्रश्रों के उत्तर जो नहीं हैं उनके पास। बड़े बेहतर हैं वे बड़े दूर के जो किशोर कुमार जैसे हरफनमौला को आज के दिन और उनकी पुण्यतिथि के दिन 13 अक्टूबर को मन भरके याद करते हैं।

बुधवार, 3 अगस्त 2011

माण्डू में जुगलबन्दी


मध्यप्रदेश में इस बार मानसून की बरसात बहुत अच्छी हो रही है। खासतौर पर ग्रामीण अंचलों में इस बार भरपूर पानी हुआ है। अभी तक जो बरसात हुई है और उसमें तीव्रता जरा भी दिखायी नहीं दी बल्कि हल्की और औसत गति से पानी बरस रहा है जो पथरीली जमीन से अपना रास्ता बनाता हुआ मिट्टी में गहरे जाकर पैठ बना रहा है। दरअसल पानी की जरूरत जमीन के नीचे इसलिए भी है कठिनाई के समय वही काम आता है और खेतों के लिए तो इस तरह का पानी जैसे वरदान हो गया है। शहरों में बरसात देर तक जमती है।

दिलचस्प यह भी होता है कि कुछ दूर पर ही सामने पानी नहीं बरस रहा होता है और हम जहाँ होते हैं वहाँ भीग रहे होते हैं। मुझे अक्सर ऊपर वाले की ऐसी लीला देखकर भागीरथ दूध वाले का वो डायलॉग याद आता है, जो वो अक्सर हमारे घर के दरवाजे रोज सुबह दूध के ढबरे रखकर काँख कर कहता था, ऊपरवाले तेरी माया, कहीं धूप, कहीं छाया। उस वक्त मेरी उम्र कोई पाँच-छ: बरस रही होगी। धूप और छाया की तरह बरसात का भी ऐसा ही है, ऊपरवाले तेरी माया.. .. ..।

इसी मौसम में माण्डू में एक रचनात्मक जुगलबन्दी का साक्षी होना मेरे लिए बड़ा सुखद रहा। सृजन की बहुआयामी विधाओं में एक जिज्ञासु की तरह मेरा मन बड़ा रमता है। हालाँकि इतना अवकाश कम होता है या मिलता है कि अपनी ऐसी चाह पूरी कर सको, लेकिन जब कभी ऐसे अवसर सार्वजनिक अवकाश के साथ इकट्ठा हो जाते हैं, तो मन की यह इच्छा पूरी हो जाती है।

माण्डू में यह जुगलबन्दी मंच पर किसी गायन, वादन या नृत्य की नहीं वरन कैनवास पर देखने को मिली। एक कला शिविर का आयोजन था, सात-आठ दिन रहकर नागर और लोक के चित्रकारों को एक साथ काम करना था। अपने-अपने चित्रों के साथ एक-एक कैनवास पर आधी-आधी जगह लेकर एक नागर और एक लोक चित्रकार को भी अपने-अपने चित्र बनाने थे।


मध्यप्रदेश के वरिष्ठ चित्रकारों, युवा और प्रतिभाशाली चित्रकारों का यह शिविर था जो पर्यटन विभाग के एक होटल में एक बड़ा हॉल लेकर आयोजित किया गया था। यहाँ सुबह नौ बजे से कलाकार आ जाया करते थे, नाश्ता करने के बाद। फिर शाम तक लगातार काम होता। दोपहर के भोजन का वक्त होता तो कई बार भोजन वहीं आ जाया करता था, कई बार पास के ही कमरे में जाना होता था। शाम के वक्त चाय होती थी, वो वहीं ला दी जाती।

शिविर में मूर्त-अमूर्त दोनों माध्यमों के कलाकार थे, लक्ष्मीनारायण भावसार, रामचन्द्र भावसार, विवेक, मोरेश्वर कानड़े, नर्मदा प्रसाद, भूरी बाई, शबनम शाह, भारती दीक्षित, मीतू वर्मा, लाडो बाई, हँसली बाई आदि। इनमें भावसार बन्धु, विवेक, मोरेश्वर कानड़े, शबनम, भारती और मीतू नागर कलाकार थे और शेष लोक चित्रकार। सभी ने अपना काम वातावरण और परिवेश के साथ मिलकर गहरी तल्लीनता के साथ किया।

बातचीत और कहने-सुनने के आधुनिक माहौल में चित्र को पेंटिंग कहकर उसकी सार्थकता तक ज्यादा जल्दी पहुँचा जाता है, ऐसा मानकर ही शायद उसे सभी ने चलन में ले लिया होगा, अन्यथा पेंटिंग करना, चित्र बनाने से अधिक प्रभावी नहीं है। इस कला शिविर में एकाग्रता के साथ काम करते हुए, एक-दूसरे के काम में अपना विचार या संशोधन प्रकट करने की स्थितियों से कई बार अच्छी चर्चा और परिष्कार की स्थितियाँ बनती थीं।

अक्सर मजा तब भी आता था जब कला और उसके धरातल को लेकर होने वाली बातचीत उम्र, अनुभव, ज्ञान और इन सबके प्राकट्य से दिलचस्प बन जाती थी। इस शिविर की यह एक विशिष्टता रही कि सभी ने एक-दूसरे की प्रतिभा, व्यक्तित्व, मर्यादा का ख्याल लगातार रखा। संस्कृति विभाग की ओर से समन्वय का काम करने वाले संजय राजापुरकर, हमारे सहयोगी भी थे और छोटी उम्र के मित्र भी।


शिविर के दिनों में माण्डू में भी पानी खूब बरसता रहा। माण्डू का महल और उसके तमाम हिस्से, रानी रूपमति और बाज बहादुर की प्रेमकथा की प्रतिध्वनियों को सदियों बाद भी महसूस कराते हैं। आसपास ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों से घिरा, दूर-दूर तक दिखायी देते जलाशय, गले में घण्टियाँ बांधे घास चरते मवेशी और समग्रता में प्रशान्त वातावरण माण्डू को अनूठा सौन्दर्य प्रदान करता है। जहाँ-जहाँ तक निगाह जाती थी, सब कुछ भीगा-भीगा दिखायी देता था। महल की दीवारें धुल गयी थीं, बह नहीं सकने वाली जगहों पर पानी इकट्ठा हो रहा था, महल के अलग-अलग अस्तित्व वाले भागों में कहीं सरोवर में भरे पानी से बरसती बून्दें छेड़छाड़ कर रही थीं, तो कहीं लम्बी खुली जगह पर हरी घास गलीचे की तरह दिखायी दे रही थी।

यह सब एक रविवार, जिस दिन काम से अवकाश रखा गया, उस दिन देखने को मिला। गुलजार की 1977 में बनी फिल्म किनारा को यहीं घूमते हुए याद किया। धर्मेन्द्र, हेमा मालिनी, जितेन्द्र ने इस फिल्म में काम किया था। नाम गुम जायेगा, चेहरा ये बदल जायेगा, मेरी आवाज ही पहचान है, गर याद रहे, गाना यहीं फिल्माया गया था। अन्तरों में यह गाना बहुत याद आया, लगा कहीं धीमा बज भी रहा है.. ..।
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शशिकला : भीगी भीगी फज़ा



3 अगस्त, अपने जमाने की यादगार अभिनेत्री शशिकला का जन्मदिन है। वे अठहत्तर वर्ष की हुई हैं। पाँच साल पहले उनको, उनके योगदान के लिए भारत सरकार ने पद्मश्री से नवाजा था। शशिकला बहुत छोटी सी उम्र से फिल्मों में काम करने लगी थीं। यही कारण है कि इस उम्र में भी उनका कैरियर छ: दशक से भी अधिक समय बराबर है। जो फिल्मों के शौकीन हैं और जिनके पास तीस-चालीस साल की फिल्मों को देखने का अनुभव है, वे शशिकला को अच्छी तरह जानते हैं।

वे बिन्दु और हेलन के पहले की सबसे चर्चित वैम्प हैं जिनका क्रम नादिरा के बाद आता है। लेकिन उसके पहले नायिका और सहायक अभिनेत्री की भूमिकाएँ उन्होंने अनेक वर्ष निभायी हैं। उनकी फिल्मोग्राफी में स्वर्गीय बिमल राय से लेकर हृषिकेश मुखर्जी और दिलीप कुमार से लेकर शम्मी कपूर और धर्मेन्द्र के साथ की गयी अपने समय की सफल और लोकप्रिय फिल्में शामिल हैं। उन्होंने मीना कुमारी से लेकर मीनाक्षी शेषाद्रि तक को अपने तेवर से टक्कर दी है।

महाराष्ट्र के सोलापुर में 1933 में जन्मीं शशिकला ने बारह वर्ष की उम्र में फिल्म में काम शुरू किया था। इसके पहले वे पाँच साल की उम्र से सांस्कृतिक मंचों पर अपनी प्रतिभा नृत्य और गाने से प्रदर्शित किया करती थीं। पिता के मुम्बई आ जाने के बाद उनके लिए अपने लिए अवसर तलाश करना ज्यादा सार्थक और आसान हुआ।

शशिकला को अपने जमाने की प्रसिद्ध अभिनेत्री नूरजहाँ के पति शौकत ने अपनी फिल्म जीनत की एक कव्वाली में रखा था। बाद में व्ही. शान्ताराम की फिल्म तीन बत्ती चार रास्ता में उनको एक अवसर और मिला। आरजू, दीवाली की रात, बंधन, नौ दो ग्यारह, सुजाता, कानून, जंगली, हरियाली और रास्ता, हमराही, गुमराह, दूर गगन की छाँव में, आयी मिलन की बेला, आपकी परछाइयाँ, नीला आकाश, हिमालय की गोद में, वक्त, फूल और पत्थर, नींद हमारी ख्वाब तुम्हारे, देवर, अनुपमा, नीलकमल, हमजोली से लेकर कभी खुशी कभी गम तक जाने कितनी फिल्में होंगी जिनमें शशिकला को उनकी खूबसूरत और आकर्षक पर्सनैलिटी में भी खास नकारात्मक तेवरों, नकारात्मक किरदारों में हमने याद रखा।

फिल्मी दुनिया में नायिका बनने का ख्वाब लेकर हर महिला कलाकार का आना होता है मगर नायिका के रूप में अवसर और पहचान कठिन होने की स्थितियों में नायिका के बरक्स अपनी उपस्थिति रेखांकित करना जितना सशक्त शशिकला के लिए रहा, शायद किसी और अभिनेत्री के लिए नहीं। वे बी. आर. चोपड़ा की अनेक फिल्मों का हिस्सा रही हैं। फूल और पत्थर में उनका कैबरे, शीशे से पी या पैमाने से पी, या मेरी आँखों के मयखाने से पी, धर्मेन्द्र के साथ आज भी याद है।

अनुपमा में भी उनका गाना, भीगी भीगी फजा, सन सन सन के जिया, आशा जी की आवाज में याद आता है। शशिकला जी की यशस्वी उपस्थिति हमारे बीच हिन्दी सिनेमा के एक गौरव की उपस्थिति है। वे स्वस्थ, दीर्घायु हों, यही कामना है।

सोमवार, 1 अगस्त 2011

अनुराधा पटेल की वापसी



गिरीश कर्नाड निर्देशित उत्सव और गुलजार निर्देशित इजाजत में अपनी महत्वपूर्ण भूमिकाओं से याद रह जाने वाली अभिनेत्री अनुराधा पटेल एक अरसे बाद सक्रियता के साथ लौटी हैं। हाल ही में सलमान खान अभिनीत फिल्म रेडी और पिछले हफ्ते प्रदर्शित एक उल्लेखनीय फिल्म खाप में वे नजर आयी हैं। दो अलग-अलग तरह के किरदार उनको इन फिल्मों में करने को मिले जिसमें वे अपनी पहचान रेखांकित करती हैं। रेडी, अलग मिजाज की मजेदार फिल्म है, उसमे उनका कैरेक्टर हल्का-फुल्का है लेकिन खाप में वे गम्भीर भूमिका में दिखायी देती हैं।

अनुराधा पटेल, भारतीय सिनेमा के महानायक दादामुनि अशोक कुमार की नातिन हैं। अभिनेता कँवलजीत से उन्होंने विवाह किया है। लम्बे समय सिनेमा में सक्रिय रहने के बाद नब्बे के दशक से ही उन्होंने काम करना कम कर दिया था। 2000 के बाद भी उनका काम करना लगभग नगण्य सा रहा लेकिन इस बीच उनको मिले अनुबन्ध और उनकी सक्रियता ने यह साबित किया है कि अब वे पारिवारिक जवाबदारियों से फारिग होकर एक बार फिर इस दौर को अपने लिए आजमाना चाहती हैं। अपने नाना अशोक कुमार की जन्मशताब्दी वर्ष में, जो कि इस साल अक्टूबर तक चल रहा है, वे उन पर केन्द्रित कई समारोहों में भी शामिल हुईं।


पिछले साल गोवा अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में भी अनुराधा ने अशोक कुमार के प्रति आदरांजलि व्यक्त करने वाले उस सत्र में हिस्सा लिया था जिसमें उनकी अविस्मरणीय फिल्मों के प्रदर्शन हुए थे। अनुराधा पटेल की क्लैसिक उत्सव 1984 में प्रदर्शित हुई थी जिसमें उन्होंने रेखा की सखी की भूमिका निभायी थी। गिरीश कर्नाड ने इस एपिक को बड़े ही कलात्मक ढंग से निर्देशित किया था। गुलजार की इजाजत तो जैसे स्मृतियों में प्रेम-कविता की तरह थी जिसमें नसीर की प्रेमिका के रूप में अनुराधा के पूर्वदीप्ति (फ्लैश बैक) के जितने भी प्रसंग हैं, वो भुलाये नहीं भूलते। मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास रखा है, गाना गहरे मर्म तक उतरता है, अनुराधा पर ही फिल्माया गया है।

अनुराधा पटेल ने बंधन अनजाना, अनंत यात्रा, सदा सुहागन, तोहफा मोहब्बत का, जेंटलमेन, हमारी बेटी आदि फिल्मों में काम किया है। एक अन्तराल बाद वे 2007 में फिल्म दस कहानियाँ में दिखायी दीं। एक सिलसिला फिर बना और फिर इट्स माय लाइफ, जाने तू या जाने ना, आयशा में उन्होंने काम किया, फिर रेडी और खाप जिसका कि जिक्र हमने ऊपर किया। राजकुमार सन्तोषी की पावर भी उनकी आने वाली फिल्मों में से एक है।