अपराध करते समय अंजाम की परवाह अपराधी नहीं करता। यह दुख और दुर्भाग्य की बात है कि समाज में ऐसे दुस्साहसी भी सिर उठाए अपना काम कर रहे हैं जो पहले अपराध से अपनी असामाजिकता को भयावह रूप में प्रमाणित करने से जरा भी गुरेज नहीं रखते।
हफ्ते की शुरूआत, त्यौहार का दिन और अखबारों में पहले पेज का सबसे पहला सनसनीखेज समाचार यही है कि सेंधवा के पास दो स्पर्धी बस ट्रेवलर्स की आपस की खुन्नस और यात्रियों को ले जाने और ले जाने नहीं देने का परिणाम यह हुआ कि ड्रायवर और क्लीनर ने निर्दोष लोगों को बस में बन्द करके पेट्रोल छिडक़कर आग लगा दी। जाने कितनों को जान से हाथ धोना पड़ा, जाने कितने गम्भीर जख्मी की जानें और जायेंगी, जिनके जख्म देर से भरेंगे, उनके जख्म दरअसल कभी भी भर नहीं पायेंगे।
हमारे यहाँ हिन्दी सिनेमा में बहुत से सितारा और मँहगे निर्देशक गाडिय़ों, बसों और ट्रकों में ब्लास्ट और धमाके के दृश्य बखूबी फिल्माया करते हैं। नायक, खलनायक और उसके गुण्डों को हवा में उड़ाता है, गाडिय़ों में जलाता है और अपने बदले पूरे करता है। हाल की फिल्म सिंघम इस बात का उदाहरण है जिसमें जमकर हिंसा और आगजनी है। पिछले चालीस सालों से अब फिल्मों में मौत के मंजर भी एडवेंचर की तरह फिल्माए जाते हैं।
दर्शक सिनेमाहॉल में बैठकर तालियाँ और सीटियाँ बजाता है और अपने नायक की विजयी मुद्रा और बहादुरी पर फक्र करता है। दो-ढाई घण्टे सपनों की दुनिया में हम जैसे नीम बेहोशी में हुआ करते हैं, हमें समझ में नहीं आता कि हम क्या देख रहे हैं और किसका समर्थन कर रहे हैं। हिंसा शोले में ठाकुर के हाथ काटने से भी पहले शुरू हो गयी थी। यह विस्तार आगे बहुतेरे लाल रंगों और आतिशबाजियों में रंगा।
सेंधवा की घटना स्तब्ध कर देने वाली है। अखबार लिखते हैं कि इस तरह बस में आग लगायी गयी कि लोग बस के अन्दर देखते ही देखते कंकाल में तब्दील हो गये। ये सब उन हाथों से हुआ होगा जिनके परिवार होंगे और हो सकता है घर से निकलते वक्त कुछ समय अपने अराध्य के सामने भी खड़े होते हों। अपराधियों का पकड़ा जाना, उन पर मुकदमा चलना और उनको सजा होना एक बड़े वक्त का मसला है। लेकिन वे निरीह लोग जो कहीं से आ रहे होंगे, कहीं जा रहे होंगे, अपनों से मिल रहे होंगे, अपनों से बिछुड़ रहे होंगे, सब के सब वे निरपराध मौत की सजा का शिकार हो गये।
समाज और सिनेमा की हिंसा में परस्पर एक-दूसरे पर एक-दूसरे को प्रेरणा देने का आरोप लगाया जाता है। ऐसा नहीं है कि हिंसक फिल्में बनना बन्द हो जाने से समाज की हिंसा भी एकदम बन्द हो जायेगी। दरअसल उस मानवीय दुस्साहस को नाथने की जरूरत है, जिसकी पहुँच निरीहों तक बिना किसी व्यवधान के है। सेंधवा की घटना और अधिक सजग और सचेत करने वाली है।
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