शुक्रवार, 5 अगस्त 2011

सिनेमा में हिंसा की जगह और जरूरत




जोया अख्तर की फिल्म जिन्दगी न मिलेगी दोबारा देखकर यह सवाल मन आया कि एक अच्छी फिल्म बिना किसी हिंसा और खासतौर पर बिना किसी खलनायक के भी बनायी जा सकती है। बड़ी व्यावसायिक सफलता, जिसे बाजार की भाषा में सुपर-डुपर हिट कहा जाता है, वैसी न होकर भी यह फिल्म ऐसी बनी कि अच्छे सिनेमा के जरूरतमन्द इसे देखने गये और पसन्द भी किया। ठीक इसके बाद हमने खलनायक और हिंसा से भरी फिल्म सिंघम देखी। यह फिल्म भी उसी तरह सफल हुई जिस तरह जिन्दगी न मिलेगी दोबारा हिट हुई।

सिंघम में अजय देवगन ने जी-जान एक करके अपनी वही छबि को स्थापित करना चाहा जिसके लिए वे हमेशा जाने जाते हैं। फूल और काँटे से अपना कैरियर शुरू करने वाले अजय देवगन ने हाल में गोलमाल श्रेणी की दो-तीन फिल्में और अतिथि तुम कब जाओगे में अपनी एक अलग अदा-लहजा प्रस्तुत किया था। राजनीति में अपनी छाँटी गयी भूमिका से क्षुब्ध अजय ने प्रकाश झा की आरक्षण के साथ ही राजकुमार सन्तोषी की पावर को भी ना कह दी थी। रोहित शेट्टी की सिंघम से एक तरह से अजय का प्रतिवाद है, उन्होंने साबित किया है कि उनका बहुत अधिक समझौता करने का समय अभी नहीं आया है।

बहरहाल फिल्मों में नकारात्मक चरित्रों को गढऩा, उनको भयावहता प्रदान करना और इस काम में अतिरेक तक जाना, यह अब हिन्दी सिनेमा में बहुत कम हो गया है। दरअसल इस सब की अति भी बहुत पहले हो गयी थी। सिनेमा को सुरुचि के दायरे में लाने के लिए बहुत सी समानान्तर धाराएँ भी हमने पिछले दो दशकों में देखी हैं। जो निर्देशक मुकम्मल कॉमेडी बनाता है वो खलनायकों को और बुराइयों को भी सॉफ्ट रूप में पेश करने की कोशिश करता है, आखिरकार हम अब ऐसे समय के भी साक्षी हैं जहाँ ओडोमास से लेकर फिनाइल तक फूलों की खुश्बू में मिला करती है। ऐसा ही फ्लेवर्ड मनोरंजन हमारे सामने अब आने लगा है।

ये हम ही हैं जो भेजा फ्राय जैसी फिल्म को पसन्द कर लेते हैं तो विनय पाठक जैसी नेपथ्य में पड़े मेहनती सितारों की पौ-बारह हो जाती है। समाज में भी दो तरह की स्थितियाँ देखने में आती हैं, एक वह है जहाँ हम एक आदमी को दूसरे आदमी की जरा सी भी बात बर्दाश्त करते देख नहीं पाते, तुरन्त वो कॉलर पकड़ लेता है वहीं दूसरी ओर ऐसे लोग भी हैं जो गुर्राते आदमी के मुस्कराकर हाथ जोड़ लेते हैं और कठिन वक्त का अक्ल से इलाज करते हैं। सिनेमा का भी यही हाल है।

निर्देशक और कलाकार और पूरी टीम परदे की तरफ से दर्शकों की तरफ देखती है और दर्शक आँख और अक्ल तराजू की तरह रखता है। परिणाम इस बात का सच्चा और सार्थक प्रमाण हैं।

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