गुरुवार, 25 अगस्त 2011

खाली खिड़कियाँ और हाल-बेहाल



कुछ ऐसा ही माहौल है कुछ दिनों से सिनेमाघरों का। अन्ना हजारे के आन्दोलन और उसके पहले उसके पूर्वरंग ने प्रदर्शित होने वाली फिल्मों को बहुत दयनीय स्थिति में सिनेमाघरों में ला दिया। एक दिन पहले पत्रिका अखबार में ही खाली सिनेमाघर का फोटो प्रकाशित हुआ है। वैसे इस तरह की फिल्में अब बना ही करती हैं और सिनेमाघरों के ऐसे फोटो जैसी स्थितियाँ रोज ही दिखायी पड़ती हैं मगर इक्कीसवीं सदी के इस पहले जन-जागरुकता वाले आन्दोलन ने देश में ऐसा वातावरण खड़ा कर दिया कि अपने-अपने काम में लगा हर आदमी, अपनी क्षमता, अपने वक्त और अपनी ऊर्जा के साथ अन्ना की ऊर्जा में अपनी ऊर्जा लगाने लगा।

जब अन्ना के आन्दोलन का पूर्वरंग चल रहा था, उस वक्त आरक्षण रिलीज होने को थी, टेलीविजन चैनलों में रिलीज से पहले दो दिन मुद्दा खूब गरमाया जाता रहा। एक साथ तीन राज्यों ने प्रतिबन्ध लगाया लेकिन फिल्म प्रदर्शित होते ही विरोध करने वालों ने यह जाना कि विषय आरक्षण नहीं आरक्षण की कोटिंग में शिक्षा के व्यावसायीकरण, कोचिंग और इसी के इर्द-गिर्द आपसी ठसक का है, तो लोगों का उत्साह ध्वस्त हो गया। यही कारण रहा कि प्रदर्शन के दो दिन के भीतर ही दो राज्यों ने प्रतिबन्ध उठा लिया। आलोचकों ने फिल्म को इस बहाने रिलीज करने और व्यर्थ माहौल खड़ा करने की निन्दा भी की। बहरहाल इसी बीच अन्ना की दृढ़ता और दम ने जनता और मीडिया को इस तरह आसक्त किया कि लोग इस फिल्म को ही भूल गये।

बाद के हफ्ते में चतुर सिंह टू स्टार फिल्म रिलीज हुई वह भी पता ही न चली। समझदार निर्माताओं ने फिलहाल माहौल देखकर अपनी फिल्मों को प्रदर्शन से रोक लिया है। निर्माता अब जितना सार्थक-निरर्थक मैचोंं से घबराते हैं और अपनी फिल्म रिलीज करने से बचते हैं वैसे ही सार्थक आन्दोलनों से भी घबराया करेंगे। अन्ना का आन्दोलन जगाने वाला आन्दोलन है, जागकर आदमी सारी एकाग्रता जगाने वाले पर केन्द्रित करता है। हिन्दी फिल्में लम्बे समय से बुरे वक्त, बुरे दौर से गुजर रही हैं। व्यावसायिक सफलता के फार्मूले अब हवा हो गये हैं।

लगता नहीं कि अच्छा सिनेमा पर पहले की तरह निरन्तर बना करेगा, लिहाजा यह भी गुन्जाइश नहीं है कि दर्शक भी अब सिनेमाघर बड़े उत्साह से जाया करेगा। फिल्में साल में आने वाले त्यौहारों की संख्या में भी हिट नहीं होतीं। हिट फिल्मों का त्यौहार बमुश्किल साल में चार-पाँच बार आता है। जिस तरह इस समय सिनेमाघरों की खिड़कियों में बाहर से भीतर की ओर फुर्सत में बैठा आदमी दिखायी दे रहा है और हाल की स्थिति बेहाल है, वह समय अभी लगता है, हफ्ते भर तो रहेगा ही।

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