शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

सिनेमा और समाज के आन्दोलन



यह एक बड़ा अहम सवाल है। भारतीय सिनेमा, जिसमें खासतौर पर हम हिन्दी सिनेमा पर आकर अपनी जानकारियों और ज्ञान को केन्द्रित करते हैं, अब की स्थिति में नैतिक मूल्यों या राष्ट्रप्रेम की कितनी बातें करता है? अब ऐसे समय में जब हमें विवाद भी खड़े किए गये दिखायी दें, हम कितनी उम्मीद कर सकते हैं बेहतर और सार्थक सिनेमा की? एक तरफ देश में अन्ना हजारे के आन्दोलन से बड़ी संख्या में बुद्धिजीवी, कलाकार, साहित्यकार, सामाजिक सक्रियता से जुड़े लोग और आमजन आन्दोलित हो गये हैं वहीं हमारे सामने ऐसे वक्त में मैं आजाद हूँ, लीडर, क्लर्क, आक्रोश, मेरी आवाज सुनो, इंकलाब जैसी फिल्मों की याद आ जाती है।

कुछेक फिल्मकार या कलाकार ऐसे होंगे जिनकी नजरों में इस माध्यम से कुछ सरोकारों की बात की जा सकती है, अन्यथा सभी जगह अब वातावरण बदला हुआ है। हिन्दी फिल्मों में उपकार से लेकर रोटी कपड़ा और मकान तक देशप्रेम की बात की गयी है। शहीद से लेकर लीडर तक आजादी के पहले और आजादी के बाद के हिन्दुस्तान को देखने की कोशिश की गयी है। सत्यकाम से लेकर अर्धसत्य तक नायक व्यवस्था, परिस्थितियों और प्रवृत्तियों से लड़ता है। सत्यकाम के नायक को कैंसर हो जाता है, वो अपने प्रतिवाद और मूल्यों के साथ अपने आप पर अडिग रहकर सारे विरोधाभासों का सामना करता है।

अर्धसत्य के इन्स्पेक्टर अनन्त वेलणकर के सामने बुरे आदमी का अन्तर कर देना ही अन्तिम विकल्प रह जाता है। मनोज वाजपेयी की फिल्म शूल भी आज के समय के बड़े तनाव को यथार्थ के साथ सामने लाती है। उसका नायक भी पुलिस अधिकारी है, जो अन्त में राजनेता खलनायक को मार देता है। अजय देवगन की फिल्म सिंघम भी इस बात का ताजा उदाहरण है। सिनेमा अपनी सार्थकता में आसपास की बहुत सारी विद्रूपताओं को देख सकता है, पर उसकी अपनी सीमाएँ स्थापित नहीं होनी चाहिए। रचनात्मक माध्यम अपनी क्षमताओं में भी बड़ी सामाजिक भूमिका का निर्वाह करते हैं। उन माध्यमों में, उन माध्यमों में काम करने वालों में यह बोध बने रहना चाहिए।

बहुत से गहरे सिने-विश्लेषक इस बात को कहते हैं कि आजादी के बाद खासतौर पर उसके पन्द्रह वर्षों का समय हमारे सिनेमा में मूल्यों, शोषण, दमन, भ्रष्टाचार की बात करते हुए सार्थकता के साथ व्यतीत हुआ है। इस अवधि में अपने समय की अहम फिल्में आयी हैं। सैंतालीस के साल में ही विजय भट्ट निर्देशित फिल्म समाज को बदल डालो आयी थी।

इक्यावन में फणि मजुमदार ने आन्दोलन बनायी। बावन में आनंदमठ, तिरपन में दो बीघा जमीन, छप्पन में जागते रहो, सत्तावन में मदर इण्डिया, नया दौर आदि के माध्यम से विषमताओं, विद्रूपताओं और उम्मीदों की बातें ठोस और यादगार ढंग से कही गयी हैं। अब फिल्में उस तरह से बनती नहीं और न ही विवादित होती हैं। अब सन्दर्भ बदल गये हैं। सिनेमा के लिए अब आन्दोलन का अर्थ परम्परा से अलग आधुनिकता और उसी से प्रेरित अराजकता की बोली बोलना ज्यादा हो गया है।

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