सोमवार, 25 मई 2015

भोपाल पत्रकारिता इतिहास के शलाका पुरुष मदन मोहन जोशी


शीर्षक में नाम के पहले स्व. जोड़ते हुए एक बार फिर अपने पर जिद करके भरोसा करना पड़ा है। भोपाल में पत्रकारिता के इतिहासपुरुष मदन मोहन जोशी का जाना, उनकी सक्रिय और सार्थक उपस्थिति के अनेक पहलुओं का स्मरण कराता है। पिछले पन्द्रह बीस सालों में वे पत्रकारिता से दूर थे लेकिन खासी पत्रकारिता के दौर में जवाहरलाल नेहरु कैंसर अस्पताल का जो स्वप्न उन्होंने देखा और साकार किया था, उसके मुखिया के रूप में वे अपनी अहम और उत्तरदायी भूमिका का निर्वाह कर ही रहे थे। यह सार्थक स्वप्न ही उनको अमर करता है, एक भयावह और असाध्य बीमारी से जूझने के लिए मानस तैयार करना, बड़ा समूह बनाना। इस अस्पताल को जस्टिफाय करते हुए उन्होंने आरम्भ में एक वाक्य भी प्रसारित किया था, कैंसर से डरिए नहीं, हमारे साथ लडि़ए...........
एक पत्रकार के रूप में, सम्पादक के रूप में उनका आभामण्डल बहुआयामी रहा है। उनके बारे में कहा जाता था कि वे पत्रकारों में आय ए एस हैं। हमेशा अच्छे सन्दर्भों से समृद्ध, खूब पढ़ने वाले, न केवल देशकाल बल्कि विश्वकाल के भी खासे जानने और अपडेट बने रहने वाले जोशी जी की भाषा, व्यवहार और अपनी टीम के साथ बरताव में अनुशासन अपनी सारी सात्विकताओं के साथ रहा करता था। मेरे वे पहले गुरु थे। 1985-86 के आसपास पंचायत विभाग की अधूरी कच्ची और छोटी सी नौकरी करते हुए लिखने का शौक रखते हुए एक दिन सुबह उनके घर चला गया था, यह कहने की चार दिन बाद रवीन्द्र भवन में एक फिल्म समारोह हो रहा है सात दिन का, उसकी समीक्षा नईदुनिया के लिए लिखना चाहता हूँ। उन्होंने तत्काल अनुमति दी, यह कहते हुए कि करो, हम देख भी लेंगे, कैसा लिखते हो। तब नईदुनिया का क्षेत्रीय दफ्तर प्रोफेसर्स काॅलोनी में था और फेसीमाइल से समाचार टाइप होकर जाया करते थे। पेज 3 भोपाल का होता था। सात दिन समीक्षा लिखी, नाम से छपी, उसके कुछ महीने बाद कहीं मिले, नमस्कार के उत्तर में कहने लगे, कहाँ हो, तब से आये नहीं, भाई अच्छी भाषा है, हमारे साथ जुड़ो। मैंने खिसिया कर कहा कि सर पंचायत में नौकरी भी करता हूँ तब कहने लगे कि शाम को 7 बजे आ जाया करो रोज, जिस दिन कार्यक्रम हों, कवर कर लिया करो। ऐसे में नईदुनिया का हिस्सा बना। याद आता है, उस समय एक महती काम उन्होंने नईदुनिया सामाजिक वार्षिकी तैयार करने का भी किया था जिसमें कहीं कार्यक्रम न होने पर मैं भी काम करता था। कई आर उनका डिक्टेशन मुझ सहित वहाँ काम करने वाली टीम को भी लेना पड़ता था, उनका काॅलम - राजधानी में आजकल।
उस समय के अनेक अनुभव हैं, वहाँ वरिष्ठ पत्रकार जो जोशी जी के साथ काम करते थे, कुछ जो नये शामिल हुआ करते थे। बहुत सारे नाम हैं जो नईदुनिया स्कूल से निकले और आज बड़ी जगहों पर हैं। जोशी जी ने सबकी काॅपी जाँची, सबकी काॅपी में संशोधन भी किए जो बड़े वाजिब और तार्किक भी होते थे। नईदुनिया की परम्पराओं को लेकर वे बहुत सजग और संवेदनशील भी रहते थे। उनकी उपस्थिति के शाम के तीन घण्टे जिस सक्रियता, एकाग्र किए रहने वाली चुप्पी और एक लक्ष्य लेकर 9 बजे तक सारी खबरों को इन्दौर पहुँचा देने का टास्क गजब का होता था। कई बार वे बाद की आकस्मिक घटनाओं और घटने वाली परिस्थितियों की जानकारी मिलते ही रात-बिरात लौट भी आते थे तब वे अकेले ही काम को अंजाम देकर जाते थे। हमें याद है कई बार घण्टों बिजली चली जाने पर हाॅटलाइन पर इन्दौर नईदुनिया दफ्तर में समाचार बोलकर भी लिखवाये जाते थे। जोशी जी के भाषण, उद्बोधन के हम सभी कायल थे। अपनी बात की पुष्टि में वे प्रायः कुछ अच्छे उदाहरण या उद्धरण भी दिया करते थे, वे बड़े प्रेरणीय होते थे।
जोशी जी ने सांस्कृतिक पत्रकारिता और विशेषकर समीक्षा को लेकर नईदुनिया में जो जगह अन्य सारी खबरों के साथ, चिन्ता के साथ रखी, वह भी भूल नहीं सकता। एक पेज से अधिक खबरों के पहुँच जाने के बाद छँटने में कला-संस्कृति की खबर प्रभावित न हो, इसका भी उन्होंने ध्यान रखा। हर महत्व के काम की शुरूआत करते हुए इन्दौर में अभय जी से, राहुल जी से, सेठिया जी से एप्रूवल ले लेने का काम बड़े ध्यान से करते थे। जोशी जी स्वयं अपनी व्यस्तताओं के बावजूद शहर के कला परिदृश्य पर गहरी निगाह रखते थे। मुझे याद है जब भारत भवन में एम एस सुब्बलक्ष्मी को संगीत का कालिदास सम्मान मिला था तब उन्होंने आधे पेज का लेख लिखा था, सम्पादकीय पेज पर। उस लेख में एक महान गायिका की सर्जना को जिस तरह वे अपनी भाषा में अलंकृत कर रहे थे, वह प्रेरणीय था।
जोशी जी को व्यक्तिशः असाधारण जीवट का धनी मानता हूँ। मेरे लिए वे मन ही मन बड़े हौसले का जीते-जागते प्रमाण बने रहे हैं जिनको तीन-चार हृदयाघात हुए जिससे वे जूझे और जीते। कुछ माह पहले ही दोपहर में मुम्बई से आये विमान से उनको व्हील चेयर पर लाया गया तो मालूम हुआ कि हृदय की सर्जरी हुई है और ठीक हैं। उनका दरअसल आत्मविश्वास, हौसला, जीवट और निरन्तरता का मानस स्तुत्य है जो हर कमजोर और हताश हो जाने वाले इन्सान के लिए प्रेरणीय है। जोशी जी ने हमेशा अपनापन बनाये रखा जो कभी भूल नहीं सकता हूँ। लिखने-पढ़ने के संसार में वे प्रथम गुरु, मार्गदर्शक और प्रोत्साहक थे मेरे, स्वाभाविक है मुझसे बेहतर और भी वरिष्ठजनों और सहकर्मियों के वे ऐसे ही सम्माननीय थे।
हम जैसे लोगों की चेतना में जोशी जी सदैव उसी तेवर, अपनेपन और साफगोई के साथ उपस्थित रहेंगे जो हमने प्रत्यक्षतः उनके साथ काम करते हुए महसूस की। पत्रकारिता में उनकी लम्बी शिष्य परम्परा उनको याद करते हुए जरूर अपना आदर देगी। भोपाल में जवाहरलाल नेहरु कैंसर अस्पताल उनके सच्चे पुरुषार्थ का साक्ष्य हमेशा बना रहेगा...............
Madan Mohan Joshi, Bhopal - a Tribute

मंगलवार, 19 मई 2015

सिनेमाघर से भागते दर्शक


अनुराग कश्यप की इस फिल्म की अब तक भरपूर आलोचना-समीक्षा हो चुकी है। नब्बे करोड़ की यह कालसापेक्ष फिल्म बड़े और अब के प्रसिद्ध सितारों के बावजूद बाजार में निराशाजनक सिद्ध हुई है। इसे प्रेरित करने की दृष्टि से न सोचा जाये तो बताना चाहूँगा कि मध्यान्तर होते-होते आधे दर्शक हाॅल में रह जाते हैं, यद्यपि मध्यान्तर से पहले भी कोई उत्साहजनक संख्या नहीं रहती। कल इसका साक्ष्य खुद देखा और दो दिन पहले इन्दौर में भी सुना।

शुरू में कालसापेक्ष शब्द आया है, ऐसी फिल्मों के लिए वाकई एक्टर पर्सनैलिटी की जरूरत होती है। मेरा ख्याल है उस तेवर के जैसा किरदार अखबार मालिक का फिल्म में नजर आता है। करण जौहर के अभिनय की तारीफ कम होने को ही नहीं आ रही। एक खलनायक को प्रस्तुत करने के लिए खासा मजबूत परिवेश तो आप गढ़ देते हैं लेकिन उसके अभिनय और आवाज का क्या कीजिएगा? फिल्म जिस समय के साथ प्रस्तुत हो रही है, उस दौर में बहुत जीनियस क्राइम के बजाय दमखम और दुस्साहस का ही सारा खेल हुआ करता था। षडयंत्र भी देगची में घण्टों पकाये नहीं जाते थे।

खैर, हिन्दी दर्शकों को एक विडम्बना बड़ी खलती है, फिल्म की रोमन स्क्रिप्ट तभी नायक, नायिका को प्यार करने की दीवानगी के लिए लिखे गये शब्द खूँखार को खूनखार बोलता है और शाॅट लेते समय शायद इसे कोई दुरुस्त नहीं कराता होगा। वह बेतजुर्बा बाॅक्सर है, मूलतः छुटपुटिया अपराधी जिसका कद पूछ-परख होते ही दिन दूना रात चैगुना बढ़ता चला जाता है। वह बुद्धिहीनता के साथ बड़ों से लड़ रहा है और मूल में उसकी हीरोइन है तो गाते हुए जब भी सीन में आती है, प्रायः आँखों में आँसू भरे रहती है, रोयी चली जाती है। अपने आसपास घट रहे विरोधाभासों का उसके दिल पर गहरा असर पड़ता दीखता है।

हाँ, बाॅक्सर के शरीर पर भरपूर टैटू तब नहीं हुआ करते थे, 1960 के दशक में। इधर कुछ समय से अनुराग कश्यप पीयूष मिश्रा जैसे बौद्धिक लेखकों से दूर हैं। उनके यहाँ फिल्म को लेकर सामयिकता से लेकर देशकाल के धरातल पर अब दूसरे लेखक सोच रहे हैं। इधर दो-चार फिल्में उनकी ऐसी ही आयीं-गयीं। बहुत सम्भव है कश्यप की महात्वाकांक्षा का यह चरम हो, बड़ा बजट, बड़ा सेटअप, बड़े सितारे। हो सकता है प्रतिक्रियाओं और आलोचनाओं के थमने के बाद वे अपनी इस फिल्म को लेकर कुछ कहें या फिर अगली फिल्म घोषित करें, सब कुछ जिज्ञासा का विषय है..............

सोमवार, 18 मई 2015

दर्शक को अच्छा सिनेमा चाहिए

Bombay Velvet अनुराग कश्यप की नयी बहुचर्चित फिल्म को लेकर तत्काल कुछ समीक्षात्मक टिप्पणियाँ उसे बहुत अच्छी फिल्म दर्शाती दिखी थीं। अक्सर तीन सितारों से आगे जाकर नवाज़ देना बड़ी उम्मीद जगाता है और तब लगता है कि जरूर बाॅलीवुड का तेज़ी से आवाजाही करते सिनेमा में से कुछ अपेक्षा से ज़्यादा बेहतर नज़र आने वाला है। लेकिन देखते हुए उसका साक्ष्य वैसा नहीं होता। अपेक्षाएँ भी पूरी नहीं होतीं जो बहुत जल्दबाज़ी में की गयी टिप्पणियों से यकायक पनप गयी होती हैं। अनुराग कश्यप की फिल्म बाॅम्बे वेलवेट के सम्बन्ध में यह बात खासतौर पर महसूस की गयी है। सुबह जिस तरह की उत्तेजना दिखायी दी वह शाम होते-होते शनिवार-इतवार की छुट्टियों के भरोसे ठहर गयी, दर्शक अब क्या तय करने वाला है?

Anurag Kashyap के लिए बाॅम्बे वेलवेट भरपूर आर्थिक संसाधनों से बनायी गयी वो फिल्म है जिसका बजट, उनकी बनायी गयी पिछली फिल्मों से बहुत ज्यादा है। अस्सी करोड़ या लगभग सौ करोड़ की लागत से फिल्म बनाने वाले फिल्मकार के पास अपनी तरह की स्वतंत्रता होना स्वाभाविक है। वे गैंग आॅफ वासेपुर का पहला भाग बनाकर जो सुर्खियाँ और चमक अपनी मुस्कुराती छबि पर बतौर समृद्ध प्रभाव पाते हैं उससे आगे दूसरा भाग बनाकर दो कदम पीछे हटते उन्हें देखा जाता है। एक प्रभावी और कसे हुए पूर्वार्ध पर बनी गैंग..... उत्तरार्ध में आशाओं पर खरी नहीं उतरती। लेकिन सफलता और उपलब्धियों का अपना आशावाद है, होना भी चाहिए, भले ही आत्मविश्वास और अतिरेक में कुछ चीज़ों की तरफ ठीक से ध्यान न जा पाये।

बाॅम्बे वेलवेट समय से पीछे जाकर विषय और परिवेश का चुनाव करते हुए फिल्म बनाने के शगल का अब लगभग वो अन्तिम हिस्सा माना जाये जिसके और पीछे कोई जाना नहीं चाहेगा। फराह खान ने जब ओम शान्ति ओम बनायी तो उन्होंने बखूबी अपनी देखीभाली स्मृतियों से सत्तर के दशक का परिवेश गढ़ा और बाज़ार के लिहाज से एक सफल फिल्म रची। व्यतीत कालखण्ड के प्रति यह आकर्षण फिर और कुछेक फिल्मों में नजर आया जब डिस्को से लेकर बेलबाॅटम तक हमारी स्मृतियों के आज में फिर दोहराया गया। कुछ फिल्में सफल हुईं कुछ विफल। अभी दम लगा के हइशा में नब्बे का दौर बड़े दिलचस्प ढंग से याद किया गया। जनता का कैसेट्स प्रेम, चुनिन्दा गानों की कैसेट्स रिकाॅर्डिंग करवाकर घर के टेप रेकाॅर्डर में सुनने का शगल और उसी दौर में एक कहानी। यह प्रयोग भी सफल हुआ। अनुराग कश्यप ने लगभग वो समय चुन लिया जब भारत का सिनेमा इतिहास और समाज के आसपास अपनी धारा तलाश कर रहा था और विश्व सिनेमा में विशेष रूप से अपराध और एक्शन को लेकर कुछ समास गढ़े जा रहे थे। एकदम से कुछ विदेशी फिल्में याद भी आती हैं हमें जैसे सिटीज़न केन, कासाब्लांका इत्यादि। हमारे यहाँ हावड़ा ब्रिज या काला बाजार।

बाॅम्बे वेलवेट को बनाने में स्वाभाविक तौर पर कल्पनाशीलता का प्रयोग किया गया है, मेहनत भी है लेकिन फिल्म को उस पूरे समय के अनुकूल ढालकर प्रस्तुत करने में कई तरह की चुनौतियाँ खड़ी होती हैं, विशेष रूप से परिवेश के स्तर पर आर्ट डायरेक्टर के लिए, वेशभूषा के स्तर पर कास्ट्यूम डिज़ायनर के लिए, एक्शन के स्तर पर एक्शन डायरेक्टर के लिए, दृश्यबंधों के स्तर पर सिनेमेटोग्राफर के लिए। इन बुनियादी बातों के साथ-साथ फिर कलाकारों का उस पूरे समयविशेष को समझना और बरतना एक बड़ा काम है। स्वाभाविक है रणवीर कपूर के लिए अपने दादा और परदादा के जमाने के सिनेमा की कल्पना करना और उनके तथा उनके ही जैसे श्रेष्ठ कलाकारों के द्वारा निभाये गये किरदार को जीवन्त करना। ऐसे बहुत से धरातलांे पर फिल्म कई जगह असन्तुलित हो गयी है। सशक्त पटकथा जिसकी जरूरत थी, उत्तरार्ध में बिखरती सी लगती है। महात्वाकांक्षाओं के रास्ते में लक्ष्य जो है वो रोमांस के टापू पर जाकर भटक जाता है। प्रेम की अभिव्यक्ति से लेकर कई जगह बातचीत और सशक्त दृश्यों के साथ सम्पन्न होने वाले प्रसंगों में पचास और साठ का दशक और तब का देशकाल पहचान में ही नहीं आता।

अच्छा सिनेमा बनाने वाले, अपने अच्छे सिनेमा से उम्मीद जगाने वाले फिल्मकार नागेश कुकूनूर, नीरज पाण्डे, टिग्मांशु धूलिया, सुधीर मिश्रा लगता है आर्थिक रूप से बहुत अधिक निश्चिंत होकर दर्शकों की उम्मीदों पर प्रायः वज्रपात कर दिया करते हैं। इन सभी फिल्मकारों ने समय-समय पर दर्शकों को ही बहुत जाग्रत किया है। दर्शक अब इनके प्रति अधिक आश्वस्त हो गया है। उन आश्वस्तियों और अपेक्षाओं के धरातल पर अपने काम का पूर्वावलोकर इन्हें करना चाहिए ऐसा लगता है। हालाँकि आशय यह नहीं है कि इन विभूतियों को हम सब कोई सिनेमा बनाना सिखा सकते हैं फिर भी बुनियादी तौर पर जो बाद बहुत मुखर होकर दिखायी देती है, उसके नज़रअन्दाज़ नहीं किया जा सकता। बाॅम्बे वेलवेट का अच्छा खासा प्रचार, गोवा में भरपूर आतिथ्य से लेकर रणवीर और अनुष्का का चैनल-चैनल घूमना फिल्म के पक्ष में उतना काम न आया जिसके लिए ये सारी जद्दोजहद की गयी, यहाँ तक कि दोनों भले सितारों ने अपने निजी रिश्तों के प्रश्नों पर भी उत्तर दिए। दरअसल दर्शक को अच्छा सिनेमा चाहिए, इसको लेकर भ्रम खड़े नहीं होने चाहिए।

शनिवार, 16 मई 2015

अपनी निजी कृतज्ञताओं से....

वे अक्सर हालचाल पूछने या कई बार कुछ कहने के लिए फोन कर लिया करते हैं। मेरे लिए उनका फोन आना बहुत मायने रखता है। पहले सोच यही जाता हूँ कि वो जो कहने जा रहे हैं या कहने जा रहे होंगे, उसे निबाह पाना मेरी क्षमताओं के बाहर न हो। मैं उनसे डरता भी हूँ। डरता इस तरह हूँ जैसे अपने बड़े भाई से डरा जाता है यद्यपि वे भीतर-बाहर बेहद साफ हैं, भरपूर संवेदनशील होने के साथ।

ध्रुव भाई साहब (कवि, कथाकार, आलोचक ध्रुव शुक्ल) आज मुझे सड़क पार करते हुए दीखे। उनके हाथ में एक छोटा, पतला सा डण्डा था। बच्चों ने सचेत किया, ताऊ जी जा रहे हैं, उन्हें छोड़ दीजिए जहाँ तक वे जाने को हैं। मैंने कहा, वो घूमने निकले हैं, घूमते हुए घर जायेंगे, पूछूँगा तो भी मना कर देंगे। यह बात मैंने उनके और अपने पच्चीस वर्ष के सान्निध्य और परिचय पर कही।

ध्रुव भाई साहब का रचनाकर्म मुझे बहुत सम्प्रेषणीय लगता है। खासतौर पर वे अपना लिखा जिस सम्मोहक प्रभाव और ग्राहृयता के साथ बाँचते हैं वो अनूठा है। समय-समय पर उनका लिखा देखने पर पढ़ न लिया होऊँ ऐसा कभी नहीं रहा। वे यदि शहर में कुछ सुना रहे होते हैं तो भी सारी तथाकथित मसरूफियाँ छोड़कर सुनना अच्छा लगता है। उनकी कविताएँ, उनके उपन्यास, उनका प्रवचन, कई बार गा-कर गीत को बाँचना और इसके अलावा और भी अनौपचारिक रूप से मिलना बहुत सुहाता है।

मेरे जीवन पर उनका बहुत उपकार है। यह बात लिखते हुए थोड़े आँसू आ गये आँख में पर इन्हीं से उपकार की पुष्टि भी होती है यद्यपि उन्होंने कभी इस बात को सोचा भी नहीं होगा। जीवन में लिखने-पढ़ने की शुरूआत तो कर ली थी पर शऊर सीखने उनके सान्निध्य में ही गया। उन्हीं ने भारत भवन सम्भावनाओं की खिड़की खोलकर दिखायी, आती हुई हवा का आभास कराया। उनके मिलने के बाद ही उन्होंने साहित्य और कला के क्षेत्र के मेरे सम्मानित अग्रजों सर्वआदरणीय मदन सोनी, हरचन्दन सिंह भट्टी, अखिलेश, उदयन वाजपेयी, यूसुफ, राॅबिन डेविड और उनके मार्गदर्शन की ड्यौढ़ी तक पहुँचाया। मदन सोनी पहले ऐसे अधिकारी थे जो कहते थे कि काम न हो तो कुर्सी पर बैठे रहने की जरूरत नहीं है। गैलरी देख आया करे, वागर्थ में चले जाया करे, अच्छी किताबें पढ़ा करे.....। 

ध्रुव भाई साहब और मदन सोनी जी के सामने बैठकर खूब प्रूफ मिलान कराना याद है, आलोचना की पत्रिका पूर्वग्रह का। भट्टी जी का किया आकल्पन, उस समय जतन से बनाये जाने वाले कवर, प्रेस में प्रकाशन सामग्री की कम्पोजिंग, मास्किंग, छपाई, बाइण्डिंग सब कुछ। ये भाई साहब लोग ऐसे थे कि बाइण्ड होने के बाद किताब की कटिंग को लेकर भी बड़े बारीक और संवेदनशील होते थे। देखने में एक किताब सुडौल भी किस तरह हो, इसकी भी बड़ी फिक्र क्योंकि उन सबसे अधिक बारीक और संवेदनशील आदरणीय अशोक वाजपेयी जी के पास प्रारम्भ में पाँच काॅपी कटवाकर, बाइण्ड कराकर वे ही उतने समय तक खड़े होते और सुनते थे जब तब अशोक जी पहले से लेकर आखिरी पेज तक न आ जायें।

उत्कृष्ट कार्यों के संस्कार बहुत बाद में समझ में आते हैं। कहीं किसी ओर यदि अपने किए और सीखे को कुछ तवज्जो मिलती है तो संस्कारों का स्मरण हो ही आता है। अखिलेश जी प्रदर्शनी अधिकारी थे। याद आता है, एक तरफ कान में सोने की बाली पहनते थे, अपनी तरह के चुस्त और फुर्तीले कलाकार। वे दीर्घाओं में नये काम को लेकर बताते थे। दीर्घाओं के परिष्कार का अवलोकन करने और सीखने की प्रेरणा देते थे। राॅबिन डेविड के रूप में एक बहुत ही सहज और मिलनसार भाई साहब, वे शिल्पकार हैं, मकराना से पत्थर लाकर काम करते थे, अपने काम के प्रति बेहद सुचिन्तित और संवेदनशील भी। यूसुफ भाई ग्राफिक्स में पीढि़यों को दीक्षित और संस्कार प्रदान करने वाले, अब तक जाने कितने कलाकार उनके वर्कशाॅप से निकले। 

ध्रुव भाई साहब जब-जब कहीं कुछ हमारा देखा, पढ़ा तो जरूर कहा। हालाँकि मैं यह बराबर जानता था कि जिस आयाम-संसार में मेरा लिखना-पढ़ना है वहाँ ज्यादा बौद्धिकता उस माध्यम के विश्लेषण को ही जटिल बना देगी और सम्प्रेषण के लिए जो भाषा या लहजा मैं चुनता हूँ उस पर श्रेष्ठिवर्ग की कमी नहीं है, दावों और गारण्टियों में। फिर भी ध्रुव भाई साहब ने उस माध्यम में भी अच्छा काम मुझसे करवाया। मध्यप्रदेश सन्देश के सम्पादक रहते हुए उन्होंने महत्व के विषय दिए और सन्तुष्ट होने तक मेहनत करवायी।

ध्रुव भाई साहब और उनके सभी मित्र जिनका जिक्र इस टिप्पणी में आया, इस बात के लिए कभी लालायित नहीं रहे कि उनका धन्यवाद किया करूँ या अतिरिक्त कृतज्ञता के साथ उनके सम्पर्क में लगातार बना रहूँ बल्कि वे हर सम्भावना और महत्व के समय या अवसर पर अपनी दुआएँ और शुभेच्छाओं के साथ ही मिले। जीवन में उनसे जो सीखने को मिला, निरन्तर याद आता है, याद रहता है। सभी के सामने आज भी विद्यार्थी हूँ, सीख रहा हूँ क्योंकि कला और आयामों के साथ सभी अग्रजों को अपने जगत में न केवल देश बल्कि दुनिया तक मान्यता और सम्मान मिला है। साहित्य और आलोचना में मदन जी, धु्रव जी, उदयन जी, कला में राॅबिन डेविड साहब, अखिलेश जी, भट्टी जी का अब का संसार बड़ा व्यापक है। सभी का कृतित्व आज भी मन में जिज्ञासाएँ खड़ी करता है, प्रेरणा देता है और विनम्रता भी...............

कुछ दिन पहले ही धु्रव भाई साहब का फोन आया था। वे इच्छा व्यक्त कर रहे थे कि भोपाल में विशेष बच्चों की संस्था आरुषि के बच्चों के बीच बैठकर समय-समय पर वे कुछ कहानियाँ और कविताएँ सुनाना चाहते हैं, अपनी कुछ किताबें उनको भेंट करना चाहते हैं। इस विषय में संस्था के प्रमुख भाई अनिल मुद्गल को भी बताया था। जिस दिन वह पहल हो जायेगी, सहभागी होने का व्यग्रता से इन्तजार कर रहा हूँ...............
Chandan Bhatty​, Akhil Esh​, Yusuf Yusuf​, Robin David​

बुधवार, 13 मई 2015

चालीस साल बाद मौसम की याद

कुछ फिल्में दिमाग से निकलती नहीं। कई कारणों से वे मस्तिष्क में बनी रहती हैं। स्वाभाविक है, उनमें से एक प्रमुख कारण उनका बहुत अच्छा होना भी होता है और एक मन को छू जाना। मौसम (1975) एक ऐसी ही फिल्म है जिस पर शायद एक बार बात करना ही उस मानसिक बेचैनी से निजात पाना होगा जो इस फिल्म को लेकर बनी हुई है।

1975 में जब यह फिल्म प्रदर्शित हुई थी तब उस साल शोले से लेकर जय सन्तोषी माँ तक और तमाम बाजार लूट लेने वाली फिल्में सिनेमाघरों में लगी थीं। एकल परदे वाले सिनेमाघरों का वह सम्भवः सबसे चरम लोकप्रियता का दौर था। सफल फिल्मों के लिए लम्बी-लम्बी लाइनें, धक्का-मुक्की, कमीज के बटन टूट जाना, मौके-बेमौके दो-चार से मारपीट भी सिनेमाघर परिसर के दृश्य हुआ करते थे। महिलाओं से सभ्यतापूर्वक अपने लिए भी टिकिट खरीद लेने की गुजारिशें की जाती थीं। ऐसे दौर में जब सब तरफ भीड़भरी फिल्में सिनेमाघरों में चढ़ी हों तब मौसम देखने कौन और कितने लोग गये होंगे, यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है! लेकिन इस फिल्म के लिए भी उतने लोग तो अच्छे ढंग से जुटे ही थे कि गुलजार आगे भी इसी तरह अपने मन की फिल्में बनाते गये, नहीं तो हम आज उस धारा, उस रस, उस आस्वाद से वंचित ही रहते।

गुलजार एक सर्जक फिल्मकार की तरह अपने गुरु बिमल राॅय से सीखते, समझते और तजुर्बे लेते इस दुनिया में शामिल हुए। मौसम तक आते-आते उनका आत्मविश्वास और खासकर वो धारा जिस पर वे चल पड़े थे, दर्शकों में मान्य हो चली थी। पढ़े-लिखे और भद्र दर्शक चार मित्रों में जताने के लिए भी कि गुलजार की फिल्म देखी, उनकी फिल्म जाकर देखते थे। 

मौसम की कहानी पूर्वदीप्ति में चलती है, मूल में प्रेम है मगर उसका पूरा विस्तार प्रायश्चित में है और ऐसी घुटन में है जिससे नायक का उबर पाना अन्त तक प्रायः असम्भव ही रहता है। शर्मिला टैगोर की चन्दा और कजली की दो भूमिकाएँ उस गहराई की हैं जिसकी थाह पाना मुश्किल है। हममें अच्छे सिनेमा से अच्छे दर्शक की तरह बरताव करना मुश्किल से आता है। कई बार हम माहौल के कारण भी इसमें विफल होते हैं। गनीमत है कि अब तकनीक इतनी आगे आ गयी है कि आप एकाग्रता और अपने अकेलेपन के साथ भी माहौल से बाधित हुए बिना फिल्में देख सको। फिल्म का नायक डाॅक्टर अपनी प्रेमिका को वचन देकर वर्षों बाद जिस तरह अपने भीतर नैतिक भय और अन्देशे के साथ लौटता है वह फिल्म का सशक्त पहलू है। प्रेमिका के बदले उसी शक्ल की बेटी से मिलना और लगातार एक छुपी मगर तड़पभरी दूरी के साथ उसका पीछा करना, उससे जुड़ना अत्यन्त विचलन भरे पहलू हैं। शर्मिला तो खैर अपनी तरह से दूसरी भूमिका में उतर आती हैं पर प्रतिभासम्पन्नता की जो अनुभूतियाँ संजीव कुमार को उनका किरदार जीते हुए देखकर होती हैं, वो भुलायी नहीं जा सकतीं। शर्मिला और संजीव की क्षमताओं का चरम फिल्म का आखिरी दृश्य है जहाँ नायक का प्रायश्चित फूट पड़ता है। यहाँ फूट पड़ना शब्द जानकर लिखा है।

भूषण बनमाली की कहानी पर कमलेश्वर और गुलजार का सृजनात्मक परिश्रम ही इस फिल्म की सजीव आत्मा है। गुलजार के लिखे गाने भूपिन्दर, रफी, लता ने गाये हैं मदन मोहन के संगीत निर्देशन में। दिल ढूँढ़ता है फिर वही फुरसत के रात-दिन, रुके-रुके से कदम और छड़ी रे छड़ी कैसी गले में पड़ी गाने मदन मोहन की गीत संयोजित करने की असाधारण क्षमता का प्रमाण होते हैं। मदन मोहन का निधन भी फिल्म के प्रदर्शन के साल में हो गया था। गुलजार ने मौसम का पाश्र्व संगीत सलिल चैधुरी से आग्रहपूर्वक तैयार कराया था। छड़ी रे छड़ी कैसी गले मेें पड़ी गाने में एक-दो पंक्तियाँ दिमाग में टिक कर रह जाती हैं, धीरे-धीरे चलना सपने, नींदों में डर जाते हैं.....कहते हैं सपने कभी, जागे तो मर जाते हैं...नींद से न जागे कोई ख्वाबों की लड़ी.....और भी बहुत कुछ।

गुलजार अपनी फिल्मोें के साथ हमेशा उसी तरह हुआ करते रहे हैं जैसे किसी देह के साथ उसका नाम जो परस्पर पुरुषार्थ के साथ एक-दूसरे को पहचान देने का काम करता है। अनुभूतियों में जाओ तो ऐसे लगता है जैसे गुलजार स्वयं बोलकर अपनी फिल्म कह रहे हों। 

गुलजार साहब वाकई भारतीय सिनेमा की अस्मिता के बहुत अलग से, अपने समय के एक विलक्षण फिल्मकार हैं।
about film : MAUSAM (1975)
just recall after four dacade
creation of GULZAR.

शुक्रवार, 8 मई 2015

पीकू देखते हुए.......

हमारी जिन्दगी का अतीत और व्यतीत अपने आपमें अनेक दृष्टिकोणों से किसी न किसी ऐसी कहानी का हिस्सा बन जाता है जिसका घटित होना यथार्थ होता है, उसको हमने अधूरा-पूरा जिया होता है। कभी जीवन में ऐसे अवसर भी आते हैं कि हम रचनात्मक जगत के सामने अपने अतीत और व्यतीत को बाँटने का अवसर पा लेते हैं। पीकू फिल्म की लेखिका जूही चतुर्वेदी ने भी इसी प्रभाव में इस फिल्म की पटकथा लिखी, निर्देशक शुजित सरकार ने इस पर यह फिल्म बनायी जो कि सचमुच एक दिलचस्प फिल्म है। व्यर्थ तार्किकता में न जायें तो इसे चार सितारे देकर सराह सकते हैं।

पीकू प्रथमतः लेखन (Juhi Chaturvedi), निर्देशक (Shoojit Sircar), छायांकन (Kamaljeet Negi) और दृश्य विभाजन की दृष्टि से एक दिलचस्प फिल्म है। उम्र अधिक हो जाने के बाद शारीरिक और वैयक्तिक स्तर पर अपने को असुरक्षित और अंदेशों में देखने वाले एक पिता की यह कहानी है। हमारे देश में शायद प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी बिरादरी की पेट-व्याधि से ग्रसित है। इस फिल्म के मुख्य किरदार के साथ भी ऐसा ही है। बुढ़ापे में दवाइयों का जखीरा जिए रहने का हौसला दिए रहता है लेकिन भास्कर बैनर्जी को वेण्टिलेटर के त्रासद प्रयोगों की भी बखूबी जानकारी है जबकि उसका कोई अनुभव नहीं है। दर्शकों को लगातार गुदगुदाये रखने के लिए पेट से जुड़ी एक बड़ी असहजता साफ पाखाना न होना या बिल्कुल न होने को आधार बनाया गया है। फिल्म के प्रत्येक दृश्य पर इसी पर बैठक होती है जो कई बार सेमीनार की शक्ल भी ले लेती है।

निर्देशक ने लेखक के साथ मिलकर इस मूल चलाये रखने वाली हँसाऊ समस्या के साथ फिर कुछ संवेदनशील पक्षों को भी छुआ है। पुश्तैनी घर को लेकर मुख्य किरदार का लगाव और बेचैनी, बेटी के बगैर अपने जिये रहने को लेकर बना रहने वाला डर, सशंकित बने रहने और जिद्दी बचपने को बुजुर्ग परिपक्वता के साथ अपने आपमें बरतने की स्थितियों के बाद भी फिल्म बहुत सारे मनस्पर्शी दृश्यों के साथ घटित होती है। इनमें विशेष रूप से अमिताभ बच्चन का कोलकाता में सायकिल लेकर निकल पड़ना और खूब घूमकर आनंदित होना बड़ा ही महत्वपूर्ण दृश्य है। इस दृश्य के वे वाकई कमाल करते हैं। सदैव व्यग्र बने रहने वाला, घर में ही बना रहने वाला, बिस्तर पर ही पड़े रहकर आराम को सब कुछ मान लेने वाला शख्स जब सायकिल पर अपनी स्मृतियों के शहर को देखता है, तब साहब कमाल ही होता है।

दीपिका पादुकोण ने एक ऐसी आधुनिक बेटी की भूमिका की है जो जीवन की स्वतंत्रता में विश्वास करती है, उस तरह का जीवन जीती है लेकिन अपने पिता को बहुत प्यार करती है। पिता की सदा बनी रहने वाली व्यग्रता ने उसको सारा रूमान छीनकर चिड़चिड़ा और खब्ती बना दिया है लेकिन दीपिका भी उस दृश्य में कमाल करती है जब एक रात पिता अचानक गम्भीर बीमार हो जाते हैं और वह सुबह देर से जागकर जान पाती है। पिता के हाथ के पास बैठकर बेटी की आँखें भर आना ऐसा ही दृश्य है। 

इरफान पीकू का तीसरा कोण हैं जो अपनी उपस्थिति के कुछेक दृश्यों के बाद अपनी जगह बना पाते हैं। ट्रेवल एजेंसी चलाने वाले पढ़े-लिखे व्यक्ति के रूप में परिचित होने के बहुत बाद जब किसी भी ड्रायवर के कोलकाता ट्रिप के लिए दीपिका के घर न पहुँच पाने पर खुद चल देना उनकी जगह को विस्तार देता है। फिर बाद में तो खैर उनकी प्रतिभा उनके खुद अपने चाहे सन्तुलन से अपनी जगह बना लेती है, निस्संदेह वे अच्छे लगते हैं और प्रभावित करते हैं।

मौसमी चटर्जी कुछेक शुरूआती फिल्मों में अमिताभ बच्चन की नायिका रही हैं। सात-आठ साल बाद हिन्दी फिल्मों में वे आयीं हैं मगर उनकी भूमिका कहानी को कुछेक स्मृतियों से बड़े साधारण ढंग से जोड़ती है, कोई प्रभाव नजर नहीं आता। भोपाल के बालेन्द्र सिंह, वरिष्ठ रंगकर्मी नाटककार को इस फिल्म में बुधन का किरदार मिला है जो भास्कर का पुराना नौकर है। वे बड़े कलाकारों के बीच बिना हतप्रभ हुए अपने दृश्य करते चले जाते हैं। 
फिल्म में एक यात्रा है, दिल्ली से कोलकाता तक, सड़क मार्ग से। इस यात्रा के दृश्य, प्रसंग अच्छे लगे हैं। मालिक के पाखाने की समस्या से संवेदित बुधन का कामनापूर्ण ढंग से भास्कर को यह कहना कि देख लेना मालिक एक दिन आपको अच्छे से पाखाना होगा, हँसाता है। अच्छे पाखाने की कामना भर से खुश हो जाने वाले मालिक के मुँह से यह निकलना कि उसके बाद तो मैं मर ही जाऊँगा, ही फिल्म का अन्त है। 

निर्देशक शुजित सरकार इस फिल्म को बहुत सहजता से बरतते हैं। दृश्य विधान फिल्म के यह बताते हैं कि उन पर मेहनत हुई है। इसका श्रेय अच्छे सम्पादन (Chandrashekhar Prajapati) को भी जाता है। अच्छी फिल्म अच्छी सराही जाये, उसको अच्छा बाजार मिले तो यह सुख भी शायद निर्देशक के लिए खुलकर पेट साफ होने जैसा होगा, माफ कीजिएगा, फिल्म के विषय से जुड़कर ही यह वाक्य सहज चला आया। बहरहाल एक अच्छी और देखने योग्य फिल्म..............

हाँ फिल्म में गाने हैं, अच्छे शब्द और संगीत संयोजन (Anupam Roy) के साथ लेकिन बात वही कि वे फिल्म का हिस्सा नहीं बन पाते।

पीकू के बुधन बालेन्द्र सिंह

शुक्रवार का दिन सिनेमा के लिए खास हुआ करता है। इस दिन फिल्में रिलीज होती हैं। सफलता-असफलता का मापदण्ड रचती हैं। एक फिल्म का फैसला उससे जुड़े हर व्यक्ति के भाग्य का फैसला करता है। यह फैसला दर्शकों के हाथ में होता है। मेरे लिए भी पहली बार शुक्रवार का दिन आज कुछ खास हो गया है जब अपने कैरियर की पहली फिल्म पीकू रिलीज होने जा रही है।

यह कहना है भोपाल के वरिष्ठ रंगकर्मी बालेन्द्र सिंह का जो आज प्रदर्शित हो रही फिल्म पीकू में एक अहम किरदार निबाह रहे हैं। बालेन्द्र के लिए फिल्म सम्भवतः पहला बड़ा तजुर्बा है तथापि रंगमंच से वे पिछले पच्चीस वर्षों से जुड़े हुए हैं और शहर के प्रतिभाशाली निर्देशक तथा अभिनेता के रूप में अपनी पहचान भलीभाँति रखते हैं। ऐसी पहचान कि शहर संजीदगीपूर्वक काम करने के लिए उनको बखूबी जानता है।
बालेन्द्र बताते हैं कि इस फिल्म के लिए मेरा चयन अपनी खुशकिस्मती मानता हूँ जब मेरा साक्षात्कार हुआ, यह अन्दाजा नहीं था कि किसी फिल्म के लिए हो रहा है, वह भी शुजित सरकार की फिल्म जिसमें मुख्य भूमिका महानायक अमिताभ बच्चन करने जा रहे हैं। इसके लिए मैं जोगी जी और मनोज जोशी का आभार मानता हूँ। चयन होने के बाद मुझे मालूम हुआ कि मेरे स्तर पर जाने-अनजाने मैं आने वाले समय में सिनेमा में एक अच्छी आमद का हिस्सा हुआ। बाकी सब फिल्म की सफलता, दर्शकों की पसन्दगी पर निर्भर है, मेरे अलावा फिल्म में बड़े कलाकार हैं, दीपिका पादुकोण, इरफान, मौसमी चटर्जी, रघुवीर यादव वगैरह। 

इस फिल्म की कहानी एक ऐसे बुजुर्ग की बैचेनी को बयाँ करती है जो हाजमे से जुड़ी है और यह समस्या चैबीस घण्टे जाग्रत रहती है। बेटी या किसी के पास भी इसका इलाज नहीं है। छुटपन से साथ रह रहा घरेलू नौकर बुधन सोते-जागते भास्कर बैनर्जी की मुसीबतों को दूर करने के विफल प्रयत्न करता रहता है। 

बालेन्द्र ने बताया कि फिल्म की शूटिंग मुम्बई, कोलकाता, बनारस और नईदिल्ली में हुई है। शूटिंग के तजुर्बे मेरे लिए जीवन के यादगार अनुभव है। शायद मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि छः माह का एक बड़ा समय ऐसे विलक्षण कलाकारों के साथ काम करते, सीन शेयर करते, शाॅट खत्म हो जाने के बाद अनौपचारिक बातचीत, महत्व की बातें, जरूरी विषयों पर चर्चा का फिर ऐसा मौका नहीं मिल सकता है। सौभाग्यशाली हूँ कि इतने बड़े कलाकारों ने मुझ जैसे नये आर्टिस्ट के साथ अच्छा बरताव किया और शूटिंग भर किरदार के नाम से ही बुलाते रहे। 

बालेन्द्र रोमांचित हैं, वे विनम्र और भले इन्सान हैं, बच्चन साहब के साथ काम करने का कोई अतिरिक्त गर्व उनकों नहीं है। उन्होंने बातचीत में उतना ही बताया जितना यथार्थ था। बढ़-चढ़कर बताने के औरों के शगल से दूर उनमें ऐसे एहसास छू तक नहीं गये। बालेन्द्र कहते हैं कि वास्तव में पीकू एक मनोरंजक फिल्म है, बुजर्गों की स्वास्थ्यजनित समस्याओं से उनको होने वाली परेशानी को व्यक्त करती है। हमें भी अपने परिवार के बुजुर्गों को संवेदनशीलता और सदाशयता के साथ महसूस करना चाहिए। पीकू का यही सन्देश है। इस फिल्म को जूही चतुर्वेदी ने जिस तरह से लिखा है, उनकी सराहना की जानी चाहिए। 

बुधवार, 6 मई 2015

गब्बर का खौफ उधार लेकर यह गब्बर......

कई बार लगता है कि कुछ निर्देशक दक्षिण की सफल फिल्मों को हिन्दी में बनाकर भी कुछ खास किस्म की समझदारी करना नहीं भूलते, वही समझदारी उनको बाॅक्स आॅफिस पर भी निहाल कर दिया करती है। दरअसल दक्षिण की फिल्मों का एक्शन पक्ष इतना मजबूत और दर्शकों को खासे अचम्भे के साथ बांध कर रखने वाला होता है कि अगर पूरी की पूरी ही नकल कर दी जाये तो भी हम देखने वाले मुम्बइया एक्शन फिल्मों की परिपाटी या एकरसता से अलग कुछ दिलचस्प देख लेते हैं।
गब्बर इज़ बैक बनाते हुए निर्देशक कृष ने यथासम्भव यही किया है। यह निर्माता संजय लीला भंसाली की फिल्म है जिसमें उनके द्वारा निर्मित पिछली फिल्म राओडी राठौर के ही नायक अक्षय कुमार दोहराये गये हैं। अक्षय चुस्त और फुर्तीले एक्शन हीरो हैं और तमाम समय से एकरस होने के बावजूद भी बुरे नहीं लगते लिहाजा यहाँ भी नायक प्रभावशाली है। संवेदना, प्रतिशोध और साहस-दुस्साहस के आधुनिक फलसफों के साथ इस फिल्म को देखकर दर्शक जाग्रत बना रहता है वरना सुला देने वाली फिल्में भी हमारे यहाँ कम नहीं आतीं।
सामाजिक बुराइयों, व्यवस्था की खामियों और भ्रष्टाचार के साथ-साथ खामियों के साथ नायक अप्रत्यक्ष रूप से एक दहशत खड़ी करके लड़ता है। ए आर मुरुगदौस (गजनी के निर्देशक) ने इस फिल्म की पटकथा लिखी है। कृष ने बारह वर्ष पहले दक्षिण में हिट हो चुकी इस फिल्म का मुम्बइयाकरण नहीं किया और यथासम्भव जस का तस प्रस्तुत कर दिया है। माहौल और कहानी के लिए परिवेश जरूर मुम्बई और आसपास के जिले जिनके नाम सुनायी पड़ते हैं, रख लिया गया है। किस्सा एक बिल्डर के भ्रष्टाचार और ढह जाने वाली इमारत से सैकड़ों लोगों के साथ नायक के जीवन में भी हुए हादसे से कहानी आगे बढ़ती है। बिल्डर दुबई चला जाता है और उसका बेटा एक बड़ा निजी अस्पताल चलाकर मरीजों का शोषण करता है। नायक का बुराई और बुरों की सफाई के अभियान में ही खलनायक से नायक की दोबारा मुलाकात होती है। अस्पताल से याद आया, इस प्रायवेट अस्पताल में मुर्दे को भरती करके उसका इलाज करते रहने और पाँच लाख रुपए की फीस मांगने वाला प्रसंग खूब गढ़ा गया है।
रोमांचक और रोचक लड़ाई चलती है। पुलिस की भूमिका पूरी तरह हास्यास्पद बना दी गयी है। कण्ट्रोल रूम में बैठकर एक साथ चार-आठ पुलिस अधिकारी केवल मुखाग्र परम्परा में ही सारी चिन्ताएँ व्यक्त करते रहते हैं और गब्बर के कसीदे काढ़ा करते हैं। एक कान्स्टेबल ड्रायवर की भूमिका अच्छी है जो मुसीबत और व्यवस्था का मारा है, वह गब्बर को पकड़ने का बौद्धिक उपक्रम अकेले करता है। यह भूमिका सुनील ग्रोवर ने निभायी है, बखूबी। करीना अतिथि हैं। श्रुति हसन नायिका होकर भी नायक से अलग ही अन्य कामों में व्यस्त रहती हैं। जयदीप अहलावत मध्यान्तर के बाद आते हैं और अपने किरदार में उतर पाने के बजाय खीजे और बदहवास से पुलिस अधिकारी का किरदार निबाहते हैं।
यह फिल्म वास्तव में अक्षय कुमार के साथ गब्बर की पृष्ठभूमि में इस आन्दोलन से जुड़े छोटे-छोटे बहुत से कलाकारों के संजीदा काम से सधती है। फिल्म में नायक के साथ जो युवा और नैतिक रूप से मूल्यों पर अडिग रहने वाली युवा शक्ति काम करती है, वे नये और सहायक कलाकार फिल्म को सम्हालते हैं। फिल्म में दो-तीन गाने नजर आये, व्यर्थ के, सबसे ज्यादा व्यर्थ हो गयीं चित्रांगदा सिंह जिन्हें लगभग एक घटिया सा कैबरे करना पड़ा, अन्यथा सुधीर मिश्रा की फिल्म में वे यथासम्भव महत्व के किरदारों में आती थीं।
फिल्म का क्लायमेक्स अच्छा है, खासकर खलनायक सुमन तलवार को उन्हीं के मुखौटों वाली भीड़ के बीच से उठा ले जाने वाला सीन। सुमन तलवार को अच्छे से पेश भी किया गया है। दक्षिण की फिल्मों में खलनायक का प्रस्तुतिकरण भी प्रभावशाली होता है। मुम्बइया सिनेमा में खलनायक बड़ा दयनीय है।
आखिर में जरूर अक्षय कुमार का भाषण, दृष्टान्त की तरह हो गया है। फिल्म का अन्त, हीरो को होने वाली फाँसी की सजा से बड़े अरसे बाद किसी फिल्म में यह सन्देश लौटने की अच्छी घटना है कि कानून अपने हाथ में लेना, अपराध का सहारा लेकर अपराध से लड़ना भी गुनाह है, जितना बड़ा गुनाह उतनी बड़ी सजा, भले हीरो हो।
गब्बर को तीन सितारे देना चाहिए तथापि फिल्म जरा पन्द्रह मिनट और सम्पादित हो जाती तो और बेहतर होता...............

सोमवार, 4 मई 2015

उनकी मरहम-पट्टी से

बहुत देर से जागता हूँ। पता नहीं, क्या हमेशा ही ऐसा रहा होगा कि मैं अपनी नींद पूरी न सो पाया होऊँ? मुझे दरअसल इसका उत्तर अपने आपसे ही नहीं मिला। इस बात की इच्छाएँ बनाये रखी हैं कि ऐसे समय ही उठकर बैठ जाऊँ जब नींद, देह का घर खाली कर के चली जाये। पर यह इच्छा, इच्छा ही रही है। पूरा जीवन ही मैं साल, महीनों और दिन में बँटे टुकड़ों में देखा करता हूँ। मुझे लगता है कि कुछ दिन बाद जो छुट्टियाँ लाल रंग में लिखी आकर्षित कर रही हैं, उनमें मुझे जरूर ठीक से सोने को मिलेगा।

माँ और पिता से मिलकर आने की ख्वाहिश भी कुछ घण्टों की तात्कालिक दवा की तरह होती है। जो पीड़ा तत्क्षण दूर होती है वह फिर होने लगती है। जरा से समय का साथ होना दूरी से अधिक तनाव दिया करता है। अपने लोगों के बीच कहता ही रह जाता हूँ कि कुछ-कुछ दिन उनके साथ रहा करूँगा पर यह दिन भी उसी तरह हाथ से छूटते हैं। लेकिन तय मैंने फिर भी कर लिया है कि दूर किसी कमरे में ही सही पर उनकी ऊष्मा में थोड़ा-थोड़ा जिया जरूर करूँगा।

कई बार बहुत सारे अपने मिलकर जैसे जाने-अनजाने तोड़ दिया करते हैं। उस वक्त बहुत घबराहट होती है। मन करता है कि किसी की शिकायत न करूँ लेकिन टूटे-तड़के हिस्सों के साथ कम से कम माता-पिता के पास चले जाया करूँ। उनकी दवा, की गयी मरहम-पट्टी से जरूर फिर ठीक हो जाया करूँगा। माँ अक्सर यह कहकर आँखों में आँसू भर लिया करती हैं कि कई दिनों के लिए उनको छोड़कर न जाया करूँ। मैं निरुत्तर होता हूँ। मेरी कितनी ही दुष्टताओं को अपनी निस्सीम उदारता में बिसरा देने वाली माँ ही हो सकती है जो एक-दो दिनों के बिछोह से भी विचलित हो जाया करती है।

जीवन छोटे-छोटे टुकड़ों में तरह-तरह का आस्वाद प्रदान करने वाली कहानियों की तरह हो गया है। इन कहानियों में सभी को रस आ सकता है। ये कहानियाँ लेकिन अपने-अपने सार और तत्वों में ऐसे विचलन से भरी हैं जिनके दृश्य मात्र की कल्पना भर से नींद छूटकर दूर जा गिरती है। नींद के समय के विरुद्ध समय में जागे रहना सन्नाटे में दूर की आवाजों को सुनना होता है। ऐसे अनेक दूर में बड़ी दूर रेल की सीटी और उसके आने-जाने की आवाज भी सुनायी देती है। मैं दोस्त फिल्म का अपना प्रिय गाना, गाड़ी बुला रही है, सीटी बजा रही है, याद करने लगता हूँ। इस गाने को याद करते ही मेरे आँसू छलक आते हैं, एक अनाथ को गोद लेकर बेटे की तरह प्यार करने वाला एक पादरी उसे रेल के माध्यम से जीवन की सीख दे रहा है..........................