मंगलवार, 31 जुलाई 2012

प्रेम का उदय

परिपक्व रंगकर्मियों के काम का हमेशा आकर्षण रहता है। सरोज शर्मा को भोपाल के रंगजगत में श्रेष्ठ रंगकर्म करते हुए लगभग तीन दशक से लगातार देखने के मौके आये हैं। पिछले कुछ समय से वे जहाँ रह रही हैं, वहाँ पास-पड़ोस के बच्चों के साथ उन्होंने अच्छे रंगप्रयोग किए हैं वहीं शहर के प्रतिभाशाली युवा कलाकारों के साथ उनका काम इन अर्थों में मायने रखता है कि उनके माध्यम से एक अच्छी और प्रतिबद्ध पीढ़ी तैयार होगी जो कम से कम जल्दी भटकेगी नहीं और न ही बड़ी ही जल्दी अपने आपको एकदम पारंगत ही मान लेगी। यह मुंशी प्रेमचन्द की जन्मशताब्दी का साल है। यह स्तुत्य है कि उनकी कृतियों को नाटककारों ने इस विशेष साल में मंच पर लाने का उपक्रम शुरू किया है। 

सरोज शर्मा ने भी आज भारत भवन में प्रेम का उदय नाटक का मंचन किया जिसका पूर्वाभ्यास वे तकरीबन डेढ़ माह से कर रही थीं। नाटक की कहानी यायावर बंजारों की दुनिया को नजदीक से देखती है। संदिग्ध गतिविधियों से हमेशा आरोपित और अपराध में संलिप्त जीवन इस दुनिया की नियति रही है मगर उसके बावजूद पुरुषार्थ और जोखिम से पीछे न हटने वाले लोग अपने भीतर एक अच्छी और अनुकूल जिन्दगी की कल्पना भी करते हैं और वैसा जीवन जीना भी चाहते हैं। इस नाटक के नायक भोंदू और उसकी पत्नी बंटी का जीवन भी ऐसा ही है। बंटी अपने पड़ोस के सुख और आनंद से इसलिए आक्रान्त है क्योंकि उसका पति गलत रास्ते पर जाने से डरता है। एक स्त्री की ईष्र्याएँ और असन्तुष्टियाँ कई बार घातक नहीं होतीं मगर उसको खुशी देने और सुख पहुँचाने के लिए दुस्साहस करने वाला पुरुष राह भटक जाता है। लेकिन इसी स्त्री का मन बदलता है और वह दुर्घटनाओं से खुशकिस्मती से बच रह गये जीवन को सँवारती है, अपने पुरुषार्थ से। प्रेम का उदय यही है। 

इस नाटक में मंच परिकल्पना और आकल्पन बहुत प्रभावित करता है। अनूप जोशी बंटी और अनिल गायकवाड़ को इसका श्रेय है। दूसरा पक्ष संगीत का है जो रंगक्षेत्र में लक्ष्मीनारायण ओसले और अनिल संसारे की मौलिक और ऊर्जावान आमद के प्रति बड़ी आशाएँ जगाता है। नाटक में बहुत ज्यादा किरदार नहीं हैं, छोटी सी दुनिया और छोटा सा पड़ोस और दुनिया-समाज को पथभ्रष्ट न होने देने वाली, उनकी निगरानी करने वाली संस्था पुलिस। इसी में कलाकार योगिता यादव चिढ़ी हुई पत्नी, सबक सीखने वाली पत्नी और जीवन को बदलने वाली पत्नी के रूप में ज्यादा प्रभाव छोड़ती हैं। रूपेश तिवारी ने पति भोंदू की भूमिका निभायी है जिसकी अपनी सीमाएँ हैं मगर किरदार के रूप में उन्हें संवादों में नुक्ता लगाने की जरूरत नहीं है। जमीनी किरदारों को उस धरातल की ही भाषा बोलनी चाहिए। बूढ़ा बाबा, चरवाहा, पड़ोसन, बच्चे सबमें बड़ा रंग और जीवन्तता है, बच्चे तो बेडऩी बने अनिल के नाच में जिस तरह भागीदार होते हैं, मजा देते हैं, सही मायने में वे ज्यादा सहजता से नाटक का हिस्सा बनते हैं। 

निर्देशक के रूप में सरोज शर्मा का यह पूरा क्राफ्ट अच्छे ढंग से सम्पादित किया हुआ है हालाँकि उन्होंने बंजारा जीवन और बुन्देली लोकभाषा को अपने ढंग से समाहित किया है। सूत्रधार बहुत ज्यादा जरूरी नहीं लगते और जरूरत है तो केवल योगेश परिहार काफी हैं। समग्रता में नाटक अच्छा है, अच्छा तरश जायेगा, एक-दो प्रदर्शन यदि इसके और तत्काल ही हो जायें।

गुरुवार, 12 जुलाई 2012

गैंग ऑफ वासेपुर : संक्षेप में एक पुनर्व्याख्या

 गैंग ऑफ वासेपुर देखना अपने आपमें एक बड़ा रोमांचक अनुभव है। सिनेमा देखते हुए यद्यपि उसकी विवरणात्मकता में जाने की जहमत कोई उठाना नहीं चाहता और जिस तरह से एक सेकेण्ड में बत्तीस फ्रेम निगाहों से गुजर जाते हैं, हमारी चेतना उससे कहीं ज्यादा आगे जाकर सिनेमा को देखने का काम पूरा कर डालती है। यही कारण है कि हमारे पास व्यक्त करने के लिए प्रतिक्रिया अमूमन होती ही नहीं। हम केवल शुभकामनाएँ देने और खेद व्यक्त करने की मुद्रा में ही हमेशा बने रहते हैं। यह तो गनीमत है कि इस पिछले एक दशक में लगातार सृजनात्मक परिश्रम करते हुए टिग्मांशु धूलिया, अनुराग कश्यप और पीयूष मिश्रा जैसे फिल्म सर्जकों ने अपनी जगह दिखाने और उस जगह पर आपकी तवज्जो को लाकर ठहरा देने का काम किया है वरना हम सस्ती और रंगीन इमरती खा-खाकर अपना हाजमा खराब कर चुके हैं मगर चटखारे लेने से बाज नहीं आ रहे। 

व्यक्तिश: मुझे यही लगता है कि एक सशक्त फिल्म को किस तरह गढऩा कठिन होता है, हरेक के लिए यह उतना सहज भी नहीं। अच्छी फिल्मों का रास्ता कठिन है। अच्छी फिल्मों के बनाने वालों का रास्ता भी उतना ही बल्कि उससे ज्यादा कठिन है। अनुराग कश्यप को कई बरस लग गये गैंग ऑफ वासेपुर तक आने में और यहाँ वे अल्प विराम की मुद्रा में हैं, अगले महीने वे इसी फिल्म का दूसरा भाग प्रदर्शित करेंगे। हिन्दी सिनेमा में उन्होंने यह प्रयोग बड़ी तैयारी के साथ किया है। इस फिल्म का पहला भाग देखते हुए जब हम अन्तिम दृश्य से प्रत्यक्ष होते हैं तो यह जानने की विकट जिज्ञासा रहती है कि शाहिद खान और रामाधीर सिंह की पुरानी दुश्मनी कहाँ जाकर खत्म होगी? प्रतिशोध की मानसिकता भयावह है। सरदार खान अपने पिता शाहिद खान की असमय मौत का बदला लेना चाहता है, वो कहता है, कह कर..................यही वाक्य एक पूरे गाने में भी आया है, ठीक उसी तरह जैसे प्रवृत्तियाँ अनिष्ठ गढऩे को हर दम आतुर हों। अमरीकन फिल्म गॉडफादर का नायक भी उस व्यक्ति से अपना बदला तब भी लिए बगैर नहीं रहता जब वो बीमार, लाचार और अतिवृद्ध हो चुका है क्योंकि बचपन से उसकी आँखों में उस शख्स की तस्वीर है और वह अपने पिता-माँ के साथ हुई हिंसा का एकमात्र गवाह है। 


 पूरी फिल्म में हिंसा और वीभत्स परिणाम हैं, जो बेहद नजदीक से दिखाये गये हैं। यह फिल्म दर्शक से बड़े साहस की मांग भी करती है। देखा जाये तो पहली बार हिन्दुस्तानी दर्शक एक वयस्क फिल्म देख रहा होता है, गैंग ऑफ वासेपुर देखते हुए। यह फिल्म हमारी वयस्कता की भी परीक्षा लेती है। हमें यहाँ किसी भी किस्म की संवेदना या नाटकीयता की जरा भी उम्मीद नहीं करनी चाहिए। हमें बार-बार लगता है कि हम सच के सामने खड़े हैं। सरदार खान के अपनी बीवी नगमा के साथ अन्तरंग दृश्य और चारपायी पर साथ लेटे हुए की जाने वाली बातें दरअसल उस पूरे के पूरे गोपनीय स्थान में हमें साँस रोककर खड़ा कर देती हैं जिसकी हमने कल्पना भी नहीं की होती। जल्दी-जल्दी गर्भवती हो जाने से चिढ़ता हुआ सरदार और नगमा के संवाद बड़े चटख हैं। कुछ बातों पर हँसी भी आती है मगर दरअसल निजता के उस समय की वह बड़ी विडम्बना भी है। सरदार खान का एक और औरत दुर्गा से रिश्ते बना लेना, खासकर उसके उपक्रम सहज पुरुषवृत्ति का ही परिचायक है। सरदार खान पर अन्तिम दृश्य में हमले का प्रारब्ध यही स्त्री बनती है। हम यहाँ आकर दूसरे भाग के लिए ठहर अवश्य जाते हैं लेकिन एक साथ अनेक प्रश्र कौंधने लगते हैं। 

इस फिल्म के लिए वास्तव में अनुराग कश्यप, टिग्मांशु धूलिया जिन्होंने रामाधीर सिंह की भूमिका निभायी है और सम्प्रेषक-सूत्रधार पीयूष मिश्रा जो कि फरहान की भूमिका में है, तीनों को सलाम करना चाहिए। दिलचस्प है कि टिग्मांशु निर्देशक हैं मूल रूप से और हाल ही में पान सिंह तोमर से वे भी अपनी एक दशक की सृजन यात्रा का चरम पेश कर गये हैं। अनुराग कश्यप ने उन्हें रामाधीर सिंह के किरदार के लिए चुना, यह अहम है। एक निर्देशक क्या चाहता है, यह एक निर्देशक से बेहतर कौन समझ सकता है। टिग्मांशु का किरदार इसीलिए पूरी फिल्म में एक तरह का प्रतिरोधी प्रभाव बनाये रखता है। पीयूष मिश्रा इस फिल्म के बहुत कुछ हैं, सूत्रधार, किरदार, गीतकार, संगीत परिकल्पक और गायक भी। इन आयामों में बड़ी आजादी के साथ वो पूरे परिवेश के साथ सार्थक न्याय करते हैं। 


 सरदार खान मनोज वाजपेयी, शाहिद खान जयदीप अहलावत, नगमा खातून रिचा चड्ढा, दुर्गा रीमा सेन अपनी भूमिकाएँ किरदार की तरह ही निबाहते हैं। वास्तव में गैंग ऑफ वासेपुर के रूप में हम ऐसा यथार्थ देखते हैं जो जितना कल्पनातीत है उतना ही हमारे संज्ञान से अछूता भी नहीं रहा है लेकिन न तो हम वहाँ पहुँच पाये और न ही अब तक कोई आइना लेकर हमारे सामने खड़ा हुआ। अब निगाहें फिल्म के दूसरे भाग पर टिकी हैं, यदि इसी प्रवाह और वातावरण में हम उस भाग को देखते हुए वही धारणाओं को बनाये रख सके जो इस फिल्म से बनी है तो निश्चित ही अनुराग कश्यप हमारे समय के एक असाधारण फिल्मकार के रूप में स्थापित होंगे।

रविवार, 8 जुलाई 2012

बालू शर्मा की शिल्प सर्जना






बालू शर्मा यह उनका प्रचलित नाम है, वैसे वे बालकृष्ण शर्मा हैं। चिर-परिचित शिल्पकार हैं। आदमकद शिल्प सर्जना में उनका काम इधर लगभग अपनी मौलिकताओं के साथ उनके ही पास है। दूसरे उदाहरण एकदम से ध्यान में नहीं आते। कुछ वर्षों का उनसे परिचय प्रगाढ़ आत्मीयता में तब्दील हो गया है। वे उज्जैन में रहते हैं, महाकाल की नगरी। वहीं से उनकी रचनात्मकता विस्तार दूर देश तक हुआ है। मालवा अंचल का यह प्रमुख शहर अपनी विलक्षण विरासत के कारण दुनिया में जाना जाता है। 

सृजनात्मकता साहित्य से लेकर अभिव्यक्ति के व्यापक आयामों का स्पर्श यहाँ देशज खूबियों के साथ करती है। पेंटिंग और शिल्पकला में यहाँ एक लम्बी परम्परा है जो वाकणकर से श्रद्धेय होती है। उसका विस्तार बड़ा है। आंचलिकता और उसके सारे रंग यहाँ सर्जना में दिखायी देते हैं। बालू शर्मा के पास अपनी अनूठी कल्पनाशीलता और रंग-समझ है। उनकी दृष्टि जीवन, रहन-सहन, हमारी उत्सवप्रियता, मांगलिक सरोकार और उसमें सदियों जीने और डूबे रहने वाली उत्कण्ठा तक जाती है। उनके शिल्पों को ध्यान से देखो, अकेले खड़े हुए या एक साथ समूह में, अलग-अलग अनुभूतियाँ छोड़ते हैं। हम उनमें मनुष्यों को ठहरे हुए देखते हैं, जो शायद उतनी देर हमारे लिए ही ठहरे हुए होते हैं। बाद में अकेले में वे जरूर कोलाहल करते होंगे, आपस में बातचीत या हँसी-खुशी बाँटते होंगे। हो सकता है दुख भी बाँटते हों लेकिन यह सब उनकी दुनिया का हिस्सा है। 

बालू शर्मा के ये शिल्प देखकर इससे भी ज्यादा विचार आते हैं। प्राय: शिल्पों का आकार हमारे कद के बराबर ही है लेकिन उनको गहनता से देखो और उनमें एक-एक मनुष्य, पुरुष या स्त्री की कल्पना करो तो उनके कद का अनुमान लगाना कठिन होता है। कलाकार ने इनको बनाते हुए पता नहीं यह सब सोचा होगा कि नहीं लेकिन इतना तो है कि बालू शर्मा अपने बचपन, मेले, तीज-त्यौहार और जीवन के साथ-साथ सामने से होकर गुजर गये मगर खुद में गहरे ठहर गये लोगों को भी अपनी सर्जना का आधार बनाया है। वे किरदारों को गढ़ते हैं, यह कहा जाये तो शायद अतिश्योक्ति न हो। उनके कलाकर्म को हम दो अलग-अलग रंगतों में देखते हैं, एक स्याह सलेटी रंग और दूसरा रंग-बिरंगे परिधान, गहने, श्रृंगार प्रसाधन, पगड़ी, धोती से भरे-पूरे लोग। बहुत सारे शिल्प उन्होंने बनाये हैं, नवाचार के साथ बनाया करते हैं। 


 उनके शिल्प विभिन्न कला संग्रहालयों में संग्रहीत हैं जिनमें भारत भवन, कालिदास अकादमी, ललित कला अकादमी इत्यादि शामिल हैं। बालू शर्मा अपने इस विशिष्ट काम के लिए नेशनल अवार्ड भी प्राप्त कर चुके हैं। वे लेकिन अपनी इन उपलब्धियों से बेफिक्र लगते हैं, खुद कभी बताते-गिनाते भी नहीं। एक कलाकार जो अपने आप में इतना शान्त और गम्भीर है वो दरअसल कितने मुखर और हमें कम से कम अपरिचित दिखायी देने वाले शिल्पों और चेहरों में कितनी कथाएँ समावेशित कर दिया करता है, यह विस्मय का विषय है। हालाँकि बालू इन सारी धारणाओं और मनन-चिन्तन से परे हमेशा जमीन पर बने रहते हैं जो कि उनकी खूबी है।