परिपक्व रंगकर्मियों के काम का हमेशा आकर्षण रहता है। सरोज शर्मा को भोपाल के रंगजगत में श्रेष्ठ रंगकर्म करते हुए लगभग तीन दशक से लगातार देखने के मौके आये हैं। पिछले कुछ समय से वे जहाँ रह रही हैं, वहाँ पास-पड़ोस के बच्चों के साथ उन्होंने अच्छे रंगप्रयोग किए हैं वहीं शहर के प्रतिभाशाली युवा कलाकारों के साथ उनका काम इन अर्थों में मायने रखता है कि उनके माध्यम से एक अच्छी और प्रतिबद्ध पीढ़ी तैयार होगी जो कम से कम जल्दी भटकेगी नहीं और न ही बड़ी ही जल्दी अपने आपको एकदम पारंगत ही मान लेगी। यह मुंशी प्रेमचन्द की जन्मशताब्दी का साल है। यह स्तुत्य है कि उनकी कृतियों को नाटककारों ने इस विशेष साल में मंच पर लाने का उपक्रम शुरू किया है।
सरोज शर्मा ने भी आज भारत भवन में प्रेम का उदय नाटक का मंचन किया जिसका पूर्वाभ्यास वे तकरीबन डेढ़ माह से कर रही थीं। नाटक की कहानी यायावर बंजारों की दुनिया को नजदीक से देखती है। संदिग्ध गतिविधियों से हमेशा आरोपित और अपराध में संलिप्त जीवन इस दुनिया की नियति रही है मगर उसके बावजूद पुरुषार्थ और जोखिम से पीछे न हटने वाले लोग अपने भीतर एक अच्छी और अनुकूल जिन्दगी की कल्पना भी करते हैं और वैसा जीवन जीना भी चाहते हैं। इस नाटक के नायक भोंदू और उसकी पत्नी बंटी का जीवन भी ऐसा ही है। बंटी अपने पड़ोस के सुख और आनंद से इसलिए आक्रान्त है क्योंकि उसका पति गलत रास्ते पर जाने से डरता है। एक स्त्री की ईष्र्याएँ और असन्तुष्टियाँ कई बार घातक नहीं होतीं मगर उसको खुशी देने और सुख पहुँचाने के लिए दुस्साहस करने वाला पुरुष राह भटक जाता है। लेकिन इसी स्त्री का मन बदलता है और वह दुर्घटनाओं से खुशकिस्मती से बच रह गये जीवन को सँवारती है, अपने पुरुषार्थ से। प्रेम का उदय यही है।
इस नाटक में मंच परिकल्पना और आकल्पन बहुत प्रभावित करता है। अनूप जोशी बंटी और अनिल गायकवाड़ को इसका श्रेय है। दूसरा पक्ष संगीत का है जो रंगक्षेत्र में लक्ष्मीनारायण ओसले और अनिल संसारे की मौलिक और ऊर्जावान आमद के प्रति बड़ी आशाएँ जगाता है। नाटक में बहुत ज्यादा किरदार नहीं हैं, छोटी सी दुनिया और छोटा सा पड़ोस और दुनिया-समाज को पथभ्रष्ट न होने देने वाली, उनकी निगरानी करने वाली संस्था पुलिस। इसी में कलाकार योगिता यादव चिढ़ी हुई पत्नी, सबक सीखने वाली पत्नी और जीवन को बदलने वाली पत्नी के रूप में ज्यादा प्रभाव छोड़ती हैं। रूपेश तिवारी ने पति भोंदू की भूमिका निभायी है जिसकी अपनी सीमाएँ हैं मगर किरदार के रूप में उन्हें संवादों में नुक्ता लगाने की जरूरत नहीं है। जमीनी किरदारों को उस धरातल की ही भाषा बोलनी चाहिए। बूढ़ा बाबा, चरवाहा, पड़ोसन, बच्चे सबमें बड़ा रंग और जीवन्तता है, बच्चे तो बेडऩी बने अनिल के नाच में जिस तरह भागीदार होते हैं, मजा देते हैं, सही मायने में वे ज्यादा सहजता से नाटक का हिस्सा बनते हैं।
निर्देशक के रूप में सरोज शर्मा का यह पूरा क्राफ्ट अच्छे ढंग से सम्पादित किया हुआ है हालाँकि उन्होंने बंजारा जीवन और बुन्देली लोकभाषा को अपने ढंग से समाहित किया है। सूत्रधार बहुत ज्यादा जरूरी नहीं लगते और जरूरत है तो केवल योगेश परिहार काफी हैं। समग्रता में नाटक अच्छा है, अच्छा तरश जायेगा, एक-दो प्रदर्शन यदि इसके और तत्काल ही हो जायें।
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