शनिवार, 29 जनवरी 2011

अभिमान - तेरे-मेरे मिलन की ये रैना

आज हम प्रख्यात फिल्मकार हृषिकेश मुखर्जी की जिस फिल्म अभिमान की चर्चा करने जा रहे हैं, वह 1973 में प्रदर्शित हुई थी। तिहत्तर का साल इसलिए उल्लेखनीय है कि एक तरफ यश चोपड़ा की दीवार और प्रकाश मेहरा की जंजीर से हम हिन्दी सिनेमा मे एक ऐसे महानायक का वृहद अभिनंदन करने जा रहे थे जिसने बीसवीं सदी पूरी होते-होते अपने कैनवास को अभूतपूर्व विस्तार दिया। वही नायक अमिताभ बच्चन, जंजीर और दीवार के वक्त में ही हृषि दा की फिल्म अभिमान में भी काम कर रहे थे, भावी छबि और प्रभाव की,बिना नापतौल किए।

हृषिकेश मुखर्जी, महान फिल्मकार स्वर्गीय बिमल राय के सहयोगी और खास, उनकी फिल्मों के सम्पादक थे। दरअसल सिनेमा के ऐसे विलक्षण सृजनधर्मियों की टीम जिनमें पटकथाकार नबेन्दु घोष भी शामिल थे, एक जमाने में कोलकाता से अशोक कुमार और शशधर मुखर्जी के बुलावे पर मुम्बई आये थे और वहीं रहकर काम करने में इस तरह जुट गये कि वहीं के होकर रह गये। सम्पादक हृषिकेश मुखर्जी की मुसाफिर पहली फिल्म थी। अभिमान तक आते-आते हृषि दा का सम्पादक बड़ा आश्वस्त और आत्मविश्वास से भर चुका था। वे जरूरत के शॉट लेते थे। फिजूल शूट करके तमाम इकट्ठा करना और छाँटना उनकी शैली नहीं थी।

अभिमान, एक ऐसे लोकप्रिय शहरी गायक सुबीर की कहानी है जिसके सामने प्रसिद्धि का खुला आसमान है और दूर-दूर तक प्रतिद्वन्द्विता का पता तक नहीं। एक बार वह गाँव आता है तो वहाँ एक सुरीले कंठ वाली खूबसूरत युवती उमा को देखकर उस पर मोहित हो जाता है। उमा, एक संस्कारी परिवार की बेटी है, उसका पिता सदानंद इसे अपना भाग्य समझता है कि इतना प्रसिद्ध व्यक्ति उसकी बेटी का हाथ माँग रहा है। विवाह हो जाता है। शहर में उमा का गाना एक बार घर की महफिल में इतना पसन्द किया जाता है कि उसको गाने के अवसर मिलना शुरू हो जाते हैं। आरम्भ में ये अवसर सुबीर को अच्छे लगते हैं लेकिन एक स्थिति यह होती है कि उमा की लोकप्रियता, सुबीर से ज्यादा हो जाती है। रिश्ते यहीं से बिखरने लगते हैं। बिखराव का चरम अलगाव तक जाता है।

यह फिल्म दरअसल एक संवेदनशील कहानी और प्रेम के नाजुक रिश्तों से जुडक़र संकीर्णता और भीतरी दम्भ के जरिए दुखद परिणामों तक जाती है। व्यथित उमा का गर्भपात और निरन्तर टूटती स्थितियों के बीच सुबीर का पश्चताप जिस तरह फिल्म के अन्त को मर्मस्पर्शी गहराइयों तक ले जाता है, वह अनूठा है। अमिताभ बच्चन और जया की यह अविस्मरणीय फिल्म है जिसकी कहानी, एक बार फिल्म देखने के बाद मन से हटती ही नहीं। दुर्गा खोटे, ए.के. हंगल, बिन्दु, असरानी सभी अपनी सकारात्मक और अहम भूमिकाओं में नजर आते हैं। सचिन देव बर्मन के संगीत से सजे, मजरूह सुल्तानपुरी के गीत- नदिया किनारे, तेरी बिंदिया, लूटे कोई, अब तो है तुमसे, पिया बिना और तेरे मेरे मिलन की ये रैना, आज भी अनुभूतियों के असीम संसार में ले जाते हैं।

शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

यमला पगला दीवाना

धर्मेन्द्र, अपनी जिन्दगी में बहुत सहज रहते हैं। यह उनकी खासियत है कि उनको किसी से ईष्र्या नहीं होती, इसीलिए हर कोई उनका आदर करता है। एक बार उनका कोई प्रशंसक उनसे अतिभावुकता में उनकी और उनके दोनों बेटों की खूब तारीफें किये जा रहा था। वे सुन रहे थे लेकिन अचानक उसने धरम जी से बेटों के समकालीन कलाकारों के बारे में कुछ कहा, यह कि आपके बेटे उनसे ज्यादा आगे हैं, तो इस पर उन्होंने तुरन्त उसको चुप रहने को कहा, और कहा कि ऐसी बातें मत करो, सब अच्छा काम करते हैं, सब मेरे बच्चे हैं। मुझे सभी पर फक्र है।

अभी ही एक चैनल पर सलाना अवार्ड्स में उनको लाइफ टाइम एचीवमेंट अवार्ड दिया, तो उस अवसर पर शाहरुख ने उनके लिए बड़े अच्छे शब्द कहे। सलमान तो धरम जी की बेहद इज्जत करते हैं। उनके पिता सलीम से धरम जी की अच्छी आत्मीयता है। प्यार किया तो डरना क्या, सोहेल की फिल्म थी जिसमें धरम जी की भूमिका बहुत अच्छी भी थी। बात यहाँ, दरअसल यमला पगला दीवाना की होनी है जो दो सप्ताह पहले प्रदर्शित हुई थी और जिसे देश भर में अच्छी तरह देखा गया। हमने पहले चर्चा की भी थी कि इस फिल्म को देओल परिवार ने खूब प्रमोट किया और खास धरम जी अकेले ही अनेक शहरों में अपनी फिल्म के पक्ष में गये थे।

यह सब अनूठे योग ही कहे जाएँगे कि कैसे यमला पगला दीवाना, प्रतिज्ञा के एक लोकप्रिय गाने से प्रेरित नाम हुआ, कैसे तीनों देओल इस हास्य फिल्म का हिस्सा बने। धरम जी बताते हैं कि पहले वे इस फिल्म में नहीं थे, उनका रोल बाद में गढ़ा गया लेकिन समीकरण ऐसे बने कि फिल्म आलोचकों की विभिन्न राय के बावजूद चल गयी, सिनेमाहॉल में भी जब तक यह फिल्म चलती है, तालियाँ-सीटियाँ रह-रहकर खूब बजती हैं। इस फिल्म की खासियत यह है कि यह आज की फिल्मों की तरह हिंसक कहानी या प्रभाव से दूर है और एक अलग ढंग से दर्शकों का मनोरंजन करती है। विशुद्ध मनोरंजन फिल्म का उद्देश्य रहा जो कारगर साबित हुआ।

आमतौर पर मनोरंजनप्रधान सिनेमा को बौद्धिक तार्किकता से बाहर रखा जाना चाहिए, यही यमला पगला दीवाना को देखते हुए बात ध्यान में आती है। धर्मेन्द्र, इस फिल्म की सफलता से बेहद खुश हैं। प्रदर्शनबाद पार्टियाँ हुई हैं जिसमें उनके शुभचिन्तक खूब शामिल हुए हैं। एक उल्लेखनीय बात यह भी है कि इस फिल्म के प्रदर्शन के अगले सप्ताह धोबीघाट प्रदर्शित हुई जिसका बाजार सीमित रहा, लिहाजा यमला पगला दीवाना के दर्शक सिनेमाहॉल और परिसर में उत्साहजनक उपस्थिति के साथ दिखायी दिए।

गुरुवार, 27 जनवरी 2011

समय और काल से पराजय

फिल्म जगत में सक्रियता के अपने मायने होते हैं। सक्रियता जवान रखती है, चुस्त और फुर्तीला रखती है, आपको ऊर्जा दिए रहती है। कहा जाता है कि रोज गड्ढा खोदकर पानी पीने की यह एक ऐसी जगह है जहाँ पक्की नौकरी किसी की नहीं होती। रोज काम करना पड़ता है और रोज के लिए कमाना पड़ता है। इसीलिए यहाँ लचीलापन और विनम्रता के साथ-साथ दक्षता फायदेमन्द होती है। अकड़ और ठसक के समय और आवृत्तियाँ बड़ी सीमित होती हैं। जो इसके फेर में पड़ता है, वह लाइन हाजिर हो जाता है। जो समन्वयकारी होता है, उसका समय देर तक चलता है। आखिरकार स्थितियाँ एक न एक दिन सभी को रिटायर करती हैं मगर वक्त से पहले के रिटायरमेंट, विडम्बनाओं और कुण्ठाओं को जन्म देते हैं।

एक चैनल पर दो दिन पहले एक हास्य धारावाहिक शुरू हुआ है, उसमें कादर खान दिखे सूत्रधार के रूप में। एक लम्बे अरसे बाद उनका दीदार हुआ। एक जमाना था जब जमने के लिए इस गुणी और कुशल आदमी ने बड़ा संघर्ष किया था। बहुत सारी छोटी-छोटी भूमिकाएँ उनकी सत्तर के दशक की शुरूआत में की गयीं, जो याद आती हैं। वे पटकथा और संवाद लेखक के रूप में अपनी जगह बनाने की धुन में थे मगर अभिनय के अवसर भी ले लिया करते थे, भले भूमिकाएँ छोटी हों। अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्म अदालत में उनकी पुलिस इन्स्पेक्टर की एक प्रभावशाली भूमिका थी। एक ऐसा किरदार था, जिसकी तरक्की इसलिए नहीं हो पाती क्योंकि पुलिस डिपार्टमेंट में इस बात का शक बना रहता है कि यह नायक अपराधी से मिला हुआ है और उसकी मदद कर रहा है। कादर खान ने इस भूमिका में जान डाल दी थी।

समय रहते ही कादर खान की भूमिकाओं को विस्तार मिला। वे सकारात्मक चरित्रों के साथ-साथ खलनायक बनकर भी आते रहे। मरहूम अमजद खान से छूटी भूमिकाएँ कई बार उनको मिल जाया करती थीं। अस्सी के दशक में कादर खान लेखक के रूप में बड़े प्रतिष्ठित हुए। हर दूसरी फिल्म के लिए डायलॉग लिखने लगे और उसी दरम्यान दक्षिण की फिल्मों से फूहड़ और द्विअर्थी कॉमेडी का जो प्रदूषण आया, उसके लगभग सर्वेसर्वा बनकर वे उभरे। यह समय भी कादर खान ने लम्बा व्यतीत किया। बाद में भावुक चरित्र भूमिकाओं में वे नये आयाम के साथ दाखिल हुए और फिर कई वर्ष सक्रिय रहे। उन्होंने एक फिल्म शमाँ बनायी थी जो फ्लॉप हो गयी। अमिताभ बच्चन से अच्छी दोस्ती रखने वाले किशोर कुमार, अमजद खान और कादर खान उनको हीरो लेकर खुद अपनी फिल्म बनाना चाहते थे। कादर भी जाहिल फिल्म बनाना चाहते थे मगर तीनों की इच्छाएँ पूरी न हो सकीं जिसके मलाल तीनों को रहे।

बहरहाल, कादर खान एक बड़ी रेंज के कलाकार, लम्बे समय से परदे से दूर रहे, अब उनको छोटे परदे पर सूत्रधार की महत्वहीन भूमिका में हम देख रहे हैं। जाने, किस कृतज्ञता में वे बरसों बाद इस तरह दीख रहे हैं?

मंगलवार, 25 जनवरी 2011

भीमसेन जोशी, मन्नाडे और बसन्त बहार

भारतीय शास्त्रीय संगीत परम्परा की मूर्धन्य मनीषी पण्डित भीमसेन जोशी से जुड़ा एक महत्वपूर्ण किस्सा विख्यात पाश्र्व गायक मन्नाडे ने टिप्पणीकार से एक अन्तरंग बातचीत में बताया था जो फिल्म बसन्त बहार से जुड़ा है। मन्ना दा ने जिस तरह ये किस्सा सुनाया था, जस का तस सुनना, ज्यादा अनुभूतिजन्य है-

वे कहते हैं, एक बार की घटना बताऊँ, बसन्त बहार फिल्म की बात है। उसमें एक गाना था, केतकी गुलाब जूही चम्पक बन फूलें। तो उस समय संगीतकार शंकर ने टेलीफोन किया, आइये मन्ना बाबू गाना तैयार है। मैं गया, तो वो बोले कसकर बाँधकर तैयार हो जाइये। मैंने बोला, क्या बात है, तो शंकर बोले, दादा कॉम्पिटीशन का गाना है। मैंने कहा, अच्छी बात है। कौन रफी मियाँ गायेगा? शंकर बोले, नहीं, रफी मियाँ नहीं, ये भीमसेन जोशी गायेंगे। मैं यह सुनकर बैठ गया वहाँ पर। मैंने कहा, भीमसेन जोशी गायेंगे, कॉम्पिटीशन कर रहे हो?

मैं तुरन्त अपने घर लौट आया और अपनी बीवी को बोला, चलो पन्द्रह दिन बाहर चले जाते हैं। वो बोली, क्यों? तो मैंने बताया कि वो लोग भीमसेन जोशी के साथ कॉम्पिटीशन का गाना गवाना चाहते हैं। हम लोग बाहर जाते हैं, पुणे में जाकर रहेंगे, फिर जब गाने का रेकॉर्डिंग हो जायेगा तब जाकर वापस आयेंगे। मेरी वाइफ ने मुझे समझाया। दरअसल मैं इसलिए डर रहा था कि मेरी आवाज़ हीरो पर थी जो अपने स्पर्धी को हराता है। अब मेरी हिम्मत कैसे हो, इतने बड़े गायक को हराने की? मैं बहुत परेशान हो गया था। ये भी अजीब बात है। मैं गाना गाकर जोशी को हरा दूँ, ये कोई आसान बात है? मैं अपनी हार मानता हूँ, मैं यह नहीं कर सकता। वाइफ ने मुझसे कहा, क्यों नहीं कर सकते, ये आपको करना पड़ेगा। तो फिर मैं दोबारा शंकर के पास गया और उनसे कहा, शंकर जी, मैंने कहा, मुझे थोड़ा समय दीजिए, मैं रियाज़ करके अपने आपको थोड़ा तैयार कर लूँ, फिर मिलता हूँ।

शंकर बोले, हाँ ठीक है, दादा, मैं बोलता हूँ डायरेक्टर को। वो भारत भूषण के भाई का पिक्चर था। उन्होंने भी कहा, ठीक है, पन्द्रह-बीस दिन के बाद हम रेकॉर्डिंग करेंगे। फिर खूब तैयारी की, तानबाज़ी की। तब मेरी आवाज़ भी काफी असरदार थी लेकिन मैं शास्त्रीय संगीत के बारे में कुछ भी जानता नहीं था। वो पन्द्रह दिन मैंने सुबह उठकर जो क्लैसिकल रियाज़ किया न, उससे मुझे बहुत बल मिल गया। गाना रेकॉर्ड हो गया। गाना होने के बाद भीमसेन जोशी ने कहा, मन्ना जी, आप तो बहुत अच्छा क्लैसिकल गाते हैं! आप क्लैसिकल प्रोग्राम क्यों नहीं करते? मैंने उनसे कहा, शर्मिन्दा न कीजिए मुझे, आप लोग के होते हुए मैं क्या खाक गाऊँगा। वे बोले, नहीं, नहीं आप गा सकते हैं। आप दिल में तय कर लें कि क्लैसिकल गायेंगे तो आप बहुत अच्छा गायेंगे।

उनका यह कम्प्लीमेन्ट मुझे बहुत अच्छा लगा।

सोमवार, 24 जनवरी 2011

विद्वेष और सहजता के विरोधाभास

टेलीविजन के चैनलों पर अब अवार्ड का उत्सव शुरू हो गया है। पहले एक समय था, जब फिल्म फेयर अवार्ड को लेकर पूरे साल सितारों और दर्शकों में आकर्षण बना रहता था। बाद में यह प्रभावित हुआ। बीच-बीच में कुछ और कम्पनियाँ और संस्थाएँ इस काम में आगे आयीं। दो-चार बरस उनका भी बोलबाला रहा। सितारे भी, चूँकि उनकी ही प्रतिष्ठा के लिए यह समारोह आयोजित होते थे, शिरकत करने में पीछे नहीं रहते थे लेकिन बीच-बीच में अवार्ड विवादित भी हुए। सितारों के बहिष्कार, उपस्थित न होना और प्रतिवादी बयान जारी करना- यह सब अपने समय में खूब हुआ है। इधर हम देखते ही हैं कि सितारों में परस्पर मैत्री और सद्भाव की लगातार कमी आयी है।

एक समय था जब यदि कोई दिलीप कुमार को यह कहता था कि फलाँ फिल्म में आपके काम को लेकर राज कपूर ने कुछ आलोचना या विपरीत कहा है तो दिलीप कुमार कहते थे, कि उसने सही कहा होगा, उसको ये हक है क्योंकि वो स्वयं भी एक उत्कृष्ट कलाकार है। वो मेरे काम का मूल्याँकन कर सकता है और अपनी राय भी दे सकता है। इन बातों के साथ ही आपसी रिश्तों में जरा सा भी फर्क नहीं पड़ता था। आज आमिर से शाहरुख, शाहरुख से सलमान और अक्षय से अन्य तमाम, इस तरह बड़े विरोधाभासी समीकरण देखने को मिलते हैं। विद्वेष और सहजता के अपने विरोधाभास होते हैं। परस्पर विद्वेष आपस की सहजता को तो समाप्त करता ही है साथ ही साथ परस्पर उपस्थिति में तनावमुक्त नहीं रहने देता।

एक समारोह में दस विरोधी ऐसा सन्नाटा साधे बैठे रहते हैं कि पता नहीं कब क्या हो जाए, आते-जाते कहाँ-क्या होने लगे। कैमरे एक को अवार्ड मिलने पर दूसरे विरोधी का चेहरा इसलिए केन्द्रित करते हैं ताकि उसके मन के भाव जाहिर हों। जाहिर है, भाव जाहिर हुए बगैर रहते नहीं। स्पर्धी नाच रहा है या अवार्ड ले रहा है या बात कह रहा है तो प्रतिस्पर्धी को कैसा लग रहा है, यह जरूर दिखाया जाता है।

अतीत के रिश्तों से जुड़े चेहरों की भी परस्पर छबियाँ, लगता है, शरारतन बार-बार संचित करके दिखायी जा रही हैं। यह सब बड़ा विचित्र सा है। अवार्ड किसको मिलना चाहिए, किसको मिल गया है, चयन समिति के अपने मापदण्ड क्या हैं, दर्शक खुद क्या सोचता है, इन सबमें व्यापक वैविध्य नजर आता है।

कुछ दिन अवार्डों की शाम रहेगी। हँसी-मजाक, मान-अपमान, अवसाद अकस्मात और नियोजित प्रसंग भी इनका हिस्सा होंगे। देखते जाइए.. .. .. ..।

रविवार, 23 जनवरी 2011

एक हंगल ही नहीं.. .. ..

चरित्र अभिनेता अवतार कृष्ण हंगल की आर्थिक कठिनाइयों को लेकर प्रकाशित और प्रसारित समाचार ने उसी प्रश्र को फिर हरा कर दिया है। हंगल साहब ऐसे पहले व्यक्ति नहीं हैं, उनसे पहले भी बहुत सारे सितारे, अभिनेत्रियाँ, नामी चरित्र कलाकार दुखदायी उत्तरार्ध का शिकार हुए हैं। ऐसा बहुत कम होता है जब कलाकार के जीते जी समाज चेतता हो, वरना खबरें तब आती हैं जब लम्बी बीमारी, कई दिनों की भूख और उपेक्षा के बाद कलाकार दुनिया से रुखसत हो लेता है।

हंगल साहब लम्बे समय से बीमार हैं, फिर भी उनका आत्मबल मजबूत है, पिन्च्यानवे वर्ष की उम्र में भी सोच और दृष्टि वृद्ध नहीं हुई है। टेलीविजन के एक समाचार चैनल पर बात करते हुए उन्होंने किसी के प्रति कोई शिकवा नहीं किया, किसी के लिए भला-बुरा नहीं कहा, जबकि बात करने वाले चैनल के प्रतिनिधि उनके मुँह में ऐसे सवाल भेज रहे थे कि व्यथित और असंयत व्यक्ति कुछ न कुछ बोल जाये। उन बेचारों से यह भी पूछा गया कि आपको देखने जय-वीरू नहीं आये। इशारा शोले के कलाकारों अमिताभ और धर्मेन्द्र को लेकर था मगर हंगल साहब ने मुस्कराकर नहीं में इशारे से सिर भर हिलाया। ऐसे सवाल करने वाले यह भी नहीं सोचते कि किसी ऐसे व्यक्ति को जिसे सहृदयता और आत्मीयता के माध्यम से ही सार्थक मदद हो सकती है, उसके मुँह से बुरे-भले शब्द क्यों निकलवाए जाएँ?

सृजनात्मक और रचनात्मक माध्यमों में अधीर और जानकारीविहीन पीढ़ी ऐसी लापरवाहियाँ प्राय: किया करती है। अच्छा स्पेस और बड़ा कैनवास कई बार निरर्थक स्थापनाओं पर खर्च होता दीखता है। निश्चय ही अवतार कृष्ण हंगल असाधारण जीवट वाले कलाकार हैं। उनका यश भी उन थोड़े अभिनेताओं में से है जो सौ साल के होते सिनेमा में सौ साल की उम्र के नजदीक हैं। निश्चय ही वे हमारी धरोहर भी हैं। यह दुखद है कि उनका बेटा, यद्यपि वो भी वृद्ध और बीमार हैं, यह कहता है कि उनके लिए पिता का इलाज करा पाना सम्भव नहीं है। आमिर खान, हंगल साहब की मदद करेंगे, यह बोध आज के समय में महत्वपूर्ण है। हंगल साहब, हिन्दी सिनेमा में सदा उपस्थिति वाले कलाकार रहे हैं जिनकी सक्रियता ने उनकी स्मृति को कभी भी हमारे जेहन से लोप नहीं होने दिया। भूमिकाएँ भले छोटी हों, पर काम की निरन्तरता बनी रही। सभी बड़े निर्देशकों के साथ उन्होंने काम किया। ऋषिकेश मुखर्जी की बावर्ची सहित अनेक फिल्मों के साथ बासु चटर्जी की शौकीन और राजेश खन्ना के साथ उनकी एक उल्लेखनीय फिल्म अवतार भी यहाँ याद आती है।

ईश्वर उनको स्वस्थ और दीर्घायु करें, यही प्रार्थना है। सिनेमा के प्रति अपने लगाव और सिनेमा के स्वर्णयुग के ऐसे प्रतिनिधि कलाकारों के प्रति अपने विनम्र आदर के साथ, हंगल साहब के चरणों में अपने इस स्तम्भ का एक माह का मानदेय सादर अर्पित करता हूँ।

शनिवार, 22 जनवरी 2011

मुस्कुराहट और उसकी अन्तर्सम्वेदना

हमारे दर्शक प्रियदर्शन को आज जिन तमाम चालू हास्य फिल्मों के माध्यम से जानते हैं उन्होंने शुरू में सजा ए काला पानी, विरासत, मुस्कुराहट और गर्दिश जैसी बड़ी महत्वपूर्ण फिल्में भी बनायी हैं। उन्हीं में से एक मुस्कुराहट फिल्म की चर्चा हम इस रविवार कर रहे हैं। यह बड़ी संवेदनशील फिल्म थी जिसका तानाबाना, मौलिक हास्य की परिस्थितियों के बीच बुना गया था। यह फिल्म जिस दौर 1992 में बनी थी उस वक्त अमरीश पुरी का खासा वर्चस्व हिन्दी सिनेमा में हुआ करता था। नकारात्मक चरित्रों के निर्वाह में वे एकमात्र उत्कृष्ट, विविध प्रयोगी और जोखिम लेने वाले कलाकार माने जाते थे। वे मजबूत थिएटर बैकग्राउण्ड से आये थे और अभिव्यक्ति उनके लिए एक तरह से जीवन-मरण का प्रश्र होती थी। अमरीश पुरी ने प्रियदर्शन के साथ उपरोक्त सभी फिल्में कीं है और भी कुछ फिल्में दोनों ने साथ-साथ कीं।

मुस्कुराहट एक बड़ी खूबसूरत कहानी है जिसमें एक अख्खड़ मिजाज बुजुर्ग आदमी है। उसका परिवार है मगर सभी के अपने-अपने स्वार्थ हैं। यह आदमी अपने से जुड़े हरेक आदमी के चेहरे पहचानता है। वक्त के साथ उसका मिजाज चिड़चिड़ा हो गया है। सभी से उसका बर्ताव डाँट-फटकार वाला है। पल भर को भी उसका सान्निध्य पाने वाला, अपने वक्त को बाद में कोसता रह जाता है। ऐसे इन्सान के जीवन में एक अनाथ और कमजोर मन:स्थिति की एक लडक़ी का अकस्मात आना होता है। यह लडक़ी स्वयं नहीं जानती कि उसकी भूमिका इस चिड़चिड़े और बदमिजाज आदमी के जीवन में क्या है मगर इसी की वजह से यह आदमी एक दिन हँसता है, ठहाके लगाता है, अपनी मूँछ तक कटवा लेता है और उसकी तानाशाही के शिकार जो निर्दोष लोग होते थे, उनसे माफी भी माँग लेता है। यह बुजुर्ग फिर अपने परिवार के उन मतलबपरस्तों को भी आड़े हाथों लेकर उन्हें आइना दिखाता है जिनके सरोकार सम्पत्ति और धनसम्पदा से जुड़े हैं।

मुस्कुराहट, संवेदना और मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति में एक अनूठी फिल्म है जिसमें अमरीश पुरी ने असाधारण अभिनय किया है। खासतौर पर हास्य अभिनेता जगदीप के साथ उनका कन्ट्रास्ट बहुत प्रभावित करता है। जगदीप ने भी यह भूमिका बहुत अच्छे ढंग से निभायी है। यह अमरीश पुरी के साथ-साथ अभिनेत्री रेवती की भी फिल्म है। रेवती ने दिल को छू लेने वाला ऐसा अभिनय किया है कि उनके किरदार को भुला पाना मुमकिन नहीं होता। जय मेहता फिल्म के नायक हैं जो बस कुछ दृश्यों में ठीकठाक उपस्थित से लगते हैं।
पूरी फिल्म एक हिल स्टेशन से शुरू होती है। फिल्म की नामावली से लेकर पाश्र्व संगीत, मीटर गेज पर छुक-छुक चलती रेल, स्टेशन और यथार्थ को नजदीक से छूकर फिल्म की अनुभूतियों को मन तक लाने वाला मौसम, सब कुछ बड़ी एकाग्रता देता है। मुस्कुराहट सचमुच अन्तर्सम्वेदना तक पहुँच करने वाली फिल्म है।

किरण राव के असमंजस और अनुभव

किरण राव, आमिर खान के करीब उस वक्त आयीं जब लगान बन रही थी। आशुतोष गोवारीकर फिल्म के निर्देशक थे लेकिन मूल मे सारा नियंत्रण आमिर का ही था। आमिर खान, किरण राव की सक्रियता, तल्लीनता और काम के प्रति समर्पण देखा करते थे। वे उनसे प्रभावित होते थे। हर काम वक्त पर या लगभग वक्त से पहले करने के साथ-साथ अपनी प्रतिबद्धता को प्रमाणित करने की लगन ही किरण को आमिर के करीब ले आयी। लगान का परिणाम हिन्दी सिनेमा परिदृश्य में एक अच्छी फिल्म के बनने के साथ-साथ आमिर खान और किरण राव के ब्याह के साथ भी सामने आया। किरण राव की जिन्दगी का यह एक अलग मोड़ था।

हो सकता है, लगान से जुड़ते समय उनको ख्याल भी न रहा हो कि रास्ता किस तरफ जा सकता है? वे अपने कैरियर में आगे बड़ा करने के लिहाज से ही निर्देशन के क्षेत्र में आयीं थीं। उनकी गम्भीरता ने ही आमिर से शादी के बाद धोबी घाट की जमीन बुनी। यहाँ बात दूसरी हो जाती है। आमिर खान की पत्नी बनकर उनके लिए धोबी घाट का सपना देखना शायद ज्यादा आसान हो गया माना जाता है, वरना आमिर खान जैसे चयन में सोच-समझकर सहमत होने वाले कलाकार अन्य परिस्थितियों में किरण राव के प्रस्ताव से कैसे जुड़ते, यह अपने आपमें प्रश्र ही बना रह जाता। किरण राव के लिए लगान में अपने निर्देशक आशुतोष गोवारीकर के लिए काम करते हुए आमिर खान से दृश्यों और संवादों की चर्चा करना और सीधे आमिर खान को निर्देशित करना दो अलग-अलग चीजें थीं।

बहरहाल भीतर ही भीतर जरूर किरण राव इसे अपनी खुशकिस्मती मानती होंगी कि उनकी पहली निर्देशित फिल्म के हीरो आमिर खान हैं। धोबी घाट, जाहिर है, किरण कहती भी हैं कि अलग तरह की फिल्म है। किरण की यह साफगोई भी प्रभावित करती है कि हो सकता है यह फिल्म बहुत सारे दर्शकों को पसन्द न भी आये या सुपरहिट जैसी न हो मगर यह भी उतना ही सच है कि दर्शक की चेतना में आमिर खान का किसी भी परियोजना से जुडऩा ही अपने आपमें काम को आम से विशिष्ट बना देता है। धोबी घाट से पहले अपनी उपस्थिति और मैनरिज्म को संयत और लगभग अप्रत्यक्ष रख, वे तारे जमीं पर और पीपली लाइव को सफल बना चुके हैं। धोबी घाट में भी प्रतीक बब्बर और दूसरे कलाकारों को भी मौके हैं। आमिर यहाँ भी अपनी वाजिब उपस्थिति भर हैं।

हमें किरण राव के रूप में एक युवा और कल्पनाशील निर्देशिका का स्वागत करना चाहिए।

सोमवार, 17 जनवरी 2011

सक्रियता और सन्यास

फिल्म जगत में सक्रियता, कलाकार को हर वक्त तरोताजा और जवाँ बनाए रखती है। यदि नियमित सक्रियता से दूर हुए तो लम्बी अवधि का आराम, दोबारा सक्रिय करने में आलस्य और प्रमाद के व्यवधान खड़े ही रखता है। अब चूँकि फिल्म जगत में मिलने-मिलाने और मुस्कुराहट के रिश्ते भी आर्थिक गणित के इर्द-गिर्द आकर सिमट गये हैं लिहाजा न तो कोई व्यक्तिगत रिश्ता बन पाता है और न ही हमदर्दी या संवेदना की कोई जगह बन पाती है। ऐसे में कब कौन विस्मृति में दर्ज हो जाये, कहा नहीं जा सकता। फिर अब जो पीढ़ी सिनेमा बनाने के काम में है, वह वरिष्ठ और बड़े कलाकारों को उनके स्वभाव के साथ कई बार साबका बैठा पाने में असमर्थ होती है। ऐसे में जो एक बार लाइन हाजिर हुए, वे मुख्य धारा में लौट ही नहीं पाते।

अमिताभ बच्चन जैसे उदाहरण तो और दूसरे न ही होंगे जो खुद इस बात को चार जगह कहकर बताएँ कि सात-आठ साल लगातार कुछ न करने के बाद एक दिन अपने घर से यश चोपड़ा के घर पैदल ही चला गया और जाकर कहा कि मुझे आपके साथ काम करना है। इसके बाद उनको यशराज फिल्म्स ने मोहब्बतें फिल्म की केन्द्रीय भूमिका दी। बाद में उनका सितारा यहीं से बागवान तक आकर जो परवान चढ़ा कि फिर उसमें कौन बनेगा करोड़पति से लेकर तमाम तरह के विज्ञापन अनुबन्ध भी शरीक हो गये। धर्मेन्द्र भी बीच में कई वर्ष फिल्मों से दूर रहे फिर अचानक जॉनी गद्दार, मेट्रो की भूमिकाओं के साथ ही अनिल शर्मा के निर्देशन में बनी अपने ने उनको फिर सक्रियता दी। आज यमला पगला दीवाना के प्रदर्शन के पहले जिस तरह से उन्होंने देश भर में अपनी फिल्म का खुद आगे जाकर प्रचार किया, वह कम बड़ी बात नहीं है। चार फिल्में वे और भी कर रहे हैं।

इस समय कुछ कलाकार ऐसे ध्यान में आते हैं जिनकी अच्छी खासी जगह सिनेमा जगत में है मगर वे फिल्मों से एकदम दूर हो गये हैं, ऐसे कलाकारों में कादर खान का नाम भी प्रमुख है। वे अब मुम्बई से पूना जाकर बस गये हैं। फिल्में कुछ वर्षों से वे नहीं कर रहे हैं। एक कलाकार देवेन वर्मा हैं, जो पूना में रहकर फिल्मों से दूर हो गये, फिर कुछ वर्ष पहले दो-चार फिल्मों में उनको देखा गया। बहुत सी अभिनेत्रियाँ जिन्होंने शादी कर ली और परिवार सम्हालने लगीं उनकी बात अलग है मगर कुछ अभिनेत्रियों, अभिनेताओं-चरित्र अभिनेताओं में राखी, जैकी श्रॉफ, मिथुन चक्रवर्ती, अमोल पालेकर जैसे कलाकार अक्सर याद आते हैं। वक्त, भले उनकी भूमिकाओं को बदल दे मगर छबियाँ सामने बनी रहनी चाहिए।

रविवार, 16 जनवरी 2011

मित्रता और उसके दिखावे

पिछले दिनों जब रानी मुखर्जी और विद्या बालन की फिल्म नो वन किल्ड जेसीका का प्रचार-प्रसार किया जा रहा था तब इस बात पर खास जोर दिया जा रहा था कि दोनों के बीच रिश्ते अच्छे हैं, सामान्य हैं, किसी तरह का विवाद नहीं है, वगैरह, वगैरह। जहाँ-जहाँ दोनों का जान होता था, इस बात पर खास अलग से सवाल होते थे और दोनों की तरफ से जवाब भी दिए जाते थे। जवाब भी जाहिराना तौर पर तयशुदा होते थे। दोनों ही अभिनेत्रियाँ साथ-साथ मुस्कराते हुए आती थीं, बैठती थीं, बात करती थीं और खासतौर पर दोनों एक-दूसरे की जमकर तारीफ भी करती थीं। कई बार लगता है कि इस तरह के खुलासे की जरूरत किसी वक्त में क्यों पड़ती है।

यह सम्भव है कि जब यह फिल्म बन रही हो उसके पहले काम करने वाली दो अभिनेत्रियों के रिश्ते कुछ और हों। रानी मुखर्जी स्वाभाविक रूप से बड़ी और वरिष्ठ कलाकार हैं और विद्या बालन उनसे कम अनुभवी। रानी को बड़े संघर्षों के बाद आगे की श्रेणी मिली है और विद्या को पहली फिल्म परिणीता से चर्चाएँ मिल गयीं। दोनों के अपने-अपने लिए खड़े किए गये अलग-अलग स्वाभिमान हैं। यह फिल्म एक विवादास्पद विषय पर थी, सच्ची घटना से प्रेरित थी और निर्देशक के पास अपनी दक्षता और सूझ के अलावा अपने आपको प्रमाणित करने का एक और कारण यही था कि वे कलाकार नामचीन लें। इस फिल्म में कोई नायक नहीं है जिसको पहचाना या याद किया जा सके।

रानी और विद्या की अपनी सितारा छबियाँ हैं, हालाँकि दोनों ही इस समय मुकम्मल संकट से जूझ रही हैं। रानी की पिछली पेशकश दिल बोले हडि़प्पा विफल रही वहीं विद्या भी इस बीच कोई बड़ा काम न कर पायीं। नो वन किल्ड जेसिका, दोनों को ही उस तरह से महत्वपूर्ण लगी होगी, कि उनको फिलहाल सुर्खियाँ मिल जाएँ। किसी बड़ी सुपरहिट की उम्मीद उनको भी न होगी। बहरहाल फिल्म को चर्चा मिली, सफलता बहुत नहीं मिली मगर तार्किक रूप से प्रेक्षकों ने फिल्म को सराहा। यह खुशकिस्मती विद्या और रानी दोनों की है कि दोनों एक अच्छी फिल्म का हिस्सा बनीं। यह प्रश्र इस फिल्म के साथ ही फिलहाल धूमिल हो जायेगा कि बाद में उनके रिश्ते कैसे रहे या रहेंगे।

इतना जरूर है कि इस फिल्म के पक्ष में दोनों ने जमाने के सामने परम मित्रता के नाम पर खूब गलबहियाँ कीं और अपने अच्छे रिश्तों की पुरजोर वकालत की। जाने क्यों अपने काम के पक्ष में इस आयाम को स्थापित करने के पीछे कारण क्या होते होंगे? पता नहीं क्यों मित्रता से ज्यादा उसके दिखावे की अब जरूरत पडऩे लगी है।

शनिवार, 15 जनवरी 2011

झूठ बोले कौआ काटे

सुपरहिट फिल्म के फार्मूले को तरसते इस मुश्किल समय में महान शो-मैन राजकपूर की बहुचर्चित फिल्म बॉबी को याद करना इसलिए प्रासंगिक लगता है क्योंकि इस फिल्म ने अपने प्रदर्शन काल में आय के रेकॉर्ड तोडऩे के साथ-साथ कई सिनेमाघरों में भी तोडफ़ोड़ की स्थितियाँ खड़ी की थीं। राजकपूर कुछ साल पहले अपनी सबसे महात्वाकाँक्षी फिल्म मेरा नाम जोकर की विफलता से आहत थे। वे अब तक मूल्यों और संवेदनाओं का सिनेमा बनाते हुए शिखर पर स्थापित हो गये थे। मेरा नाम जोकर उनकी रचनात्मकता की सबसे अहम पूँजी थी मगर वह दर्शकों को पसन्द नहीं आयी। आत्ममंथन के समय में उन्होंने अपनी ही एक पहले की सशक्त फिल्म आवारा से प्रेरित हो, बॉबी का तानाबाना बुना।

बॉबी का प्रदर्शन काल 1973 का है। अमीरी और गरीबी के बीच प्रेम किस तरह परवान चढ़ता है, किस तरह अल्हड़ उम्र का प्रेम बिना किसी गम्भीरता या जज्बात के, एक तरह की दीवानगी और जुनून के सामने सारी दुनिया को झुका देना चाहता है, यह उस वक्त बड़ा आधुनिक सा सन्देश इस फिल्म के माध्यम से समाज तक गया था। यह वह वक्त था जब प्रेम विवाह परिवार की रजामन्दी से होता ही नहीं था और खराब शब्दों में अविभावक की इच्छा के खिलाफ शादी करने के मसले को भागकर शादी करना कहा जाता था। राज साहब ने इस फिल्म के माध्यम से अपने बेेटे ऋषि कपूर को नायक बनाया था और नायिका के रूप में एक नया चेहरा डिम्पल कपाडिय़ा को लिया था।

बॉबी में अमीर पिता का बेटा है जो अपने घर में आये दिन रसूख वालों का जश्र देखता है। पार्टियाँ और अमीरों की दुनिया के बीच वो अकेला है। उस अपने घर की बुजुर्ग आया याद आती है जिसने उसको बचपन में पाला पोसा है और अब वो अपने बेटे के पास मछुआरों की बस्ती में रहती है। वह मिसेज ब्रिगेंंजा से मिलने जाता है तो वहाँ उसका सामना अचानक उसकी पोती बॉबी से होता है। पहली नजर का आकर्षण धीरे-धीरे प्यार में बदल जाता है। इधर अमीर पिता अपने बेटे का ब्याह एक बड़े रईस की मन्दबुद्धि बेटी से कर देना चाहता है क्योंकि उसकी नजरों में समाज और दुनिया पर काबिज होने के लिए पैसा ही सब कुछ है। द्वन्द्व यहीं से शुरू होते हैं। नाथ का बेटा और बॉबी घर छोडक़र भाग जाते हैं।

अन्त में जाहिर है, नायक-नायिका ही जीतते हैं। अमीर पिता का अहँकार और नायिका के गरीब पिता का अपमान और खासकर दोनों भूमिकाएँ निबाह रहे सशक्त कलाकार प्राण और प्रेमनाथ के दृश्य बहुत प्रभावी हैं और कहानी को रोचक मोड़ पर लाते हैं। भागे हुए नायक-नायिका के पीछे कुछ गुण्डे पड़ जाते हैं। प्रेम चोपड़ा यहाँ छोटे से मगर दिलचस्प रोल में हैं जो बार-बार कहते हैं, प्रेम नाम है मेरा, प्रेम चोपड़ा। बॉबी एक सुपरहिट फिल्म थी, बहुत सफल और लम्बे समय याद रहने वाले गाने, झूठ बोले कौआ काटे, मैं शायर तो नहीं, हम-तुम एक कमरे में बन्द हों।

शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

सितारों की रंग-सक्रियताएँ

अभिनेता, निर्देशक सतीश कौशिक हाल ही में पुणे में अपना नाटक सेल्समेन रामलाल का मंचन करके लौटे हैं। वो बतलाते हैं कि नाटक को देखने हॉल पूरा भरा हुआ था और रंग-प्रेमियों ने नाटक का खूब आनंद लिया। सेल्समेन रामलाल, सतीश कौशिक का वो नाटक है जो वे तकरीबन दो दशकों से देश के विभिन्न मंचों पर खेलते आ रहे हैं। सतीश कौशिक की पहचान का यथार्थ किसी सपने से कम नहीं है।

करोलबाग, नई दिल्ली के सतीश, अपने आपमें व्यापक रचनात्मक ऊर्जा समेटे एक ऐसे अनूठे कलाकार हैं, जिनका उनकी क्षमताओं के अनुकूल मूल्याँकन आज तक नहीं हो पाया। दरअसल उनमें जितना स्पार्क है, उसको व्यक्त करने वाले माध्यम सिनेमा में अब तक ऐसा कोई काम सामने नहीं आ सका है, जिसमें वे अपने आपको साबित कर सकें। हमेशा ही उनकी अभिव्यक्ति, परिवेश से ज्यादा सशक्त होकर, अचम्भित करते हुए व्यक्त होती है। सतीश कौशिक की सरलता अद्भुत है और उनका शत्रु कोई नहीं।

सेल्समेन रामलाल के साथ ही सतीश कौशिक की सृजन यात्रा भी परवान चढ़ी है, वह सदा-प्रासंगिक, मौलिक और श्रेष्ठ हास्य की फिल्म जाने भी दो यारों की पटकथा और संवाद लेखन के मूल में रहे हैं। तमाम काम जो वे अब तक कर आये, वो गिनाना यहाँ जरूरी नहीं है। अवसर मिलने पर नाटक के लिए अपने आपको खुद तत्पर और तैयार रखने वाले सतीश कौशिक के भीतर सेल्समेन रामलाल जैसे मुकम्मल जिन्दगी और संघर्ष को जीता-जागता है।

फिल्मों के ऐसे बहुत से सितारे हैं जो नाटक के अपने पूर्वआधार से परदे तक पहुँचे हैं। इनमें से बहुत से ऐसे कलाकार हैं जिनके पाँव, अपनी जड़ों से पूरी तरह उखड़े नहीं हैं। यह बात अलग है कि इन सभी कलाकारों का रंगकर्म, अब हर जगह भार सहने लायक इसलिए नहीं होता क्योंकि इनकी सिनेमाई शख्सियत उस पर हावी रहती है और सब कुछ बड़ा मँहगा सा हो जाता है। हालाँकि यह भी दिलचस्प है कि ऐसे सितारों का रंगकर्म वे लोग ज्यादा तादात में देखते हैं जो केवल इनकी सिनेमाई पहचान से ही वाकिफ हैं और नजदीक से इनको देखकर अन्त:-तृप्त होना चाहते हैं। बहरहाल इनका रंगकर्म उनको तो जरूर ही नजदीक से आनंदित करता है जो इनकी क्षमताओं को बखूबी जानते हैं।

यही कारण है कि नसीरुद्दीन शाह, शाबाना आजमी, टॉम आल्टर, अनुपम खेर, नाना पाटेकर, रत्ना पाठक शाह आदि अनेक कलाकार दोनों आयामों में अपनी आवाजाही से आकृष्ट करते हैं। हम यहाँ पर लेकिन खासतौर पर खासे रंग-प्रतिबद्ध दिनेश ठाकुर का जिक्र करना चाहेंगे जिन्होंने सिनेमा के बाद नाटक में वो जगह बनायी कि सिनेमा ही भूल गये। पिछले दिनों वे गहरे बीमार रहे हैं। उनकी सक्रियता को लेकर पुन: बड़ी आशाएँ हैं।

गुरुवार, 13 जनवरी 2011

धारावाहिकों का मैगापन.. .. ..

बड़े दिनों से एक धारावाहिक का प्रचार बड़ा आकृष्ट कर रहा था। प्रचार पर, जाहिर है, बहुत कुछ निर्भर होता है। अच्छा काम प्रचारित न किया जाये तो लोग जान ही नहीं पाते। हमारे यहाँ अब ऐसी संस्कृति तो है नहीं कि हम परस्पर ऐसे समाज का जीवन्त हिस्सा बन पाते हों, या बन पाने का समय मिल पाता हो, जहाँ हम अपने बेहतर पढ़े, देखे, सुने-समझे की चर्चा कर सकते हों या उसमें लोगों को शामिल कर पाते हों या उसके लिए प्रेरित कर पाते हों। बहरहाल, प्रचार का बड़ा बिगुल, बड़ा बैण्ड बजाकर कई बार चीजें बेहतर रूप में अपने आपको इसलिए स्थापित नहीं कर पातीं क्योंकि वे बेहतर होती नहीं हैं।

मुक्ति का बन्धन का नाम धारावाहिक ऐसा ही लगता है। महानगरों में इसके बड़े-बड़े होर्डिंग लगे हैं। इस धारावाहिक का मुख्य किरदार मुम्बई महानगर में एक बड़े रसूखवाला आदमी है जिसका एक बड़ा परिवार है और कम से कम आगे-पीछे तीन पीढिय़ाँ हैं। उसके संवाद ही एक पखवाड़े से भी अधिक समय से प्रचार के लिए इस्तेमाल किए जा रहे थे। प्रोमो में भी उसकी आमद, तमाम कृत्रिम अन्दाज के साथ बड़े शाही ढंग से प्रस्तुत भी की जा रही थी। सारा कुछ इस तरह से हो रहा था, कि खास इस बात का इन्तजार करना पड़ा कि इसका आगाज देखा जाये। पहली कड़ी देखकर ही बहुत निराशा हुई।

बड़े औद्योगिक घरानों, उनके परिवार और लोगों की जिन्दगी के साथ-साथ दुनिया को देखने का उनका नजरिया, लोगों से व्यवहार-बर्ताव करने का उनका रवैया और जीवन-दृष्टि पर समय-समय पर कुछ अच्छे धारावाहिक और फिल्में बनी हैं। यकायक श्याम बेनेगल की फिल्म कलयुग या ठेठ व्यावसायिक अन्दाज की सफल फिल्म कहें तो यश चोपड़ा की त्रिशूल या धारावाहिकों में खानदान का स्मरण हो आता है। मगर आज के समय के काम को देखकर लगता है कि गलत समय में सही चीजों को याद कर लिया गया। मुक्ति का बन्धन नाम के धारावाहिक का तथाकथित महानायक असाध्य अहँकार से भरा है। महानगर में वह बहुत दयनीय स्थिति में आया था, बड़े संघर्ष किए और बड़ा रसूख भी बनाया मगर बर्ताव से लग रहा है कि वह जीवन को ही नहीं समझ पाया।

समग्रता में हम इस धारावाहिक के रूप में जिस बड़े प्रस्तुतिकरण का आरम्भ देख रहे हैं, वह बिखरा-बिखरा सा लगता है। जड़ें, यदि अपनी जगह छोडक़र, शिखर की पत्तियाँ बनकर आसमान को ही ताकने लगें तो नीचे की शाखों का क्या होगा, कैसा विस्तार लेंगी, कहाँ जाएँगी? लेखक क्या लिख रहा है, कौन उसका सलाहकार, बनाने वाला निर्देशक और काम करने वाले अभिनेता, सभी को ठहरकर सोचना चाहिए, दोबारा।

बुधवार, 12 जनवरी 2011

मैं जट यमला पगला दीवाना

उस समय उनकी उम्र चालीस वर्ष थी जब प्रतिज्ञा फिल्म रिलीज हुई थी। इस फिल्म का प्रदर्शन साल 1975 का है। उसी के आसपास शोले अपना परचम फहरा रही थी। वीरू, बसन्ती को पाने के लिए तरह-तरह के जतन करता है, कभी आम के पेड़ पर निशाना लगाना सिखाता है तो कभी मन्दिर में शिव जी के मन्दिर में मूर्ति के पीछे से खड़े होकर लाउडस्पीकर से खुद भगवान बनकर बसन्ती को समझाता है। अपने दोस्त जय की भी मदद माँगता है और जब बात नहीं बनती तो पानी की टंकी के ऊपर चढक़र पूरे गाँव को धमकाकर आखिर मौसी से अपनी बात मनवाकर ही दम लेता है। और भी आसपास की तमाम फिल्में मनमोहन देसाई उनको लेकर धरमवीर और चाचा भतीजा बना रहे होते हैं।

प्रतिज्ञा इसी परिदृश्य की फिल्म है जिसका नायक बिगड़ैल शराबी है और एक पुलिस अधिकारी को बन्दी बनाकर पुलिस की वरदी पहनकर गाँव में अपना एक थाना स्थापित करता है। इस नायक की जिन्दगी बिल्कुल अलग है, अपनी हेकड़ी, ठसक और जेब में शराब की बोतल। अपनी ही तरह के चार पियक्कड़ों को भी पुलिस में भरती कर लिया है। नायिका से उसे प्यार मन ही मन है और नायिका को भी मगर यह बात वो नहीं जानता। जिस समय यह फिल्म लगी थी, भोपाल में बीस हफ्ते चली थी। तब अखबार में फिल्म के विज्ञापन के साथ दो लाइन का यह वाक्य भी आता था, पूरे गाँव की लड़कियों ने अजीत को राखी बांधी मगर राधा ने नहीं, क्यों, जानने के लिए देखिए, प्रतिज्ञा। इसी प्रतिज्ञा का एक गाना, मस्ती भरा जिसमें धर्मेन्द्र जैसे अपनी सर्वज्ञ क्षमताओं के साथ परदे पर खुलकर सामने आ गये, मैं जट यमला पगला दीवाना.. .. ..।

दुलाल गुहा निर्देशित इस फिल्म की कहानी प्रख्यात लेखक नबेन्दु घोष ने लिखी थी, जिन्होंने धर्मेन्द्र की बन्दिनी से लेकर क्रोधी तक कितनी ही फिल्मों की पटकथाएँ लिखीं। विक्रम सिंह दहल के साथ धर्मेन्द्र स्वयं इस फिल्म के निर्माता भी थे। फिल्म अपने आपमें मुकम्मल मजा थी। स्वर्गीय मोहम्मद रफी का गाया गाना, मैं जट यमला, धर्मेन्द्र की स्थायी पहचान बन गया।

पैंतीस वर्ष बाद का आज, वो महानायक अब पचहत्तर का है, अभी भी जोशीला, जवान। हाल में ही पचास साल पूरे किए हैं, फिल्म इण्डस्ट्री में अपनी सक्रियता के। खूब जोश के साथ, देश भर में घूम रहे हैं, अपनी नयी फिल्म यमला पगला दीवाना के प्रचार में। जवाँ चेहरे पर न तो शिकन, न थकान। टेलीविजन के कई शो में खूब नाचे-गाये हैं, धर्मेन्द्र।

धर्मेन्द्र को दरअसल अपने दर्शकों पर गहरा विश्वास है, व्यवहारिक और मिलनसार वे सबसे ज्यादा हैं। प्रेक्षकों को इस समय पूरा विश्वास है कि जिस तरह से धर्मेन्द्र दर्शकों को सिनेमाघर आकर फिल्म देखने के लिए निमंत्रित कर रहे हैं, अपने अनेकानेक हास्य किरदारों में खुदसिरमौर रहे धर्मेन्द्र, मजा बांध देंगे।

मंगलवार, 11 जनवरी 2011

अच्छी पटकथाओं का संक्रमण काल

फिल्में प्रदर्शित होने के बाद परिणाम देती हैं, ज्यादातर परिणाम निराशाजनक होते हैं। विफलता का प्रतिशत सफलता के प्रतिशत से कहीं ज्यादा है मगर इसके बावजूद सिनेमा का आकलन करने वाले इस बात पर ताज्जुब करते हैं कि आखिर वह कौन सी जिजीविषा है जो लगातार निराशाजनक परिणामों के बावजूद इस माध्यम में खूब सारा काम करने वालों को जिलाए रखती है? कैसे वे लोग भी काम करते रहते हैं जिनका काम सराहा नहीं जाता। वक्त उनको भी लगता है।

जिस फिल्म को सफल नहीं होना होता है, ऐसा नहीं कि वो चुटकियों में बन जाती हो। ऐसी फिल्म भी साल-दो साल या छ:-आठ महीने लगाती है। ऐसी फिल्मों में भी बड़े सितारे होते हैं। ऐसी फिल्मों के भी स्वनामधन्य निर्देशक होते हैं जिनके नामे दो-चार पिछली सफल फिल्में रहती हैं, बावजूद इसके अचानक दर्शक उनकी फिल्म खारिज करके उनके काम पर प्रश्रचिन्ह लगाता है।

आजकल कुछ बड़े और हाल के अपने कामों से विफल रहे निर्देशक समीक्षकों को भी कटघरे में खड़ा करते हैं, कुछ लोग अपने सम्बन्ध तक खराब कर लिया करते हैं मगर प्रबुद्ध समीक्षक की अवधारणा का हमेशा आदर होता है। आकलन के अच्छे-बुरे का निर्णय भी केवल फिल्म बनाने वाले और फिल्म की आलोचना करने वाले के बीच नहीं होता। अच्छे को परखने वाली बहुसंख्य दृष्टि, किसी भी आदर्श समीक्षक की दृष्टि के अनुकूल ही रहती है।

बहुत से युवा और चांदी का चम्मच मुँह में लिए फिल्म निर्देशित करने चले आये निर्देशक, सिनेमा में खुलेपन की एक ऐसी धारा बहा देना चाहते हैं जिसके सरोकार केवल आज की युवा पीढ़ी से जुड़ते हैं। ऐसा सिनेमा चार दिन की चांदनी की तरह भी नहीं हो पाता। कितने लोग होंगे जो पटकथाओं पर मेहनत करते हैं? पिछले सालों में लीना यादव, राकेश चतुर्वेदी, नीरज पाण्डे जैसे प्रतिभाशाली और कल्पनाशील निर्देशकों ने ध्यान आकृष्ट किया है। अभी ये तीनों ही निर्देशक अगली फिल्म के लिए अपनी पटकथा को मजबूत करने का काम कर रहे हैं।

यह हमारे समय की विडम्बना ही है कि बावजूद अच्छे निर्देशकों का काम रेखांकित होने के, व्यापक दर्शक वर्ग तक अच्छा सिनेमा नहीं पहुँच पाता। हमारे यहाँ अब सिनेमा के ऐसे प्रेमी या रसिक नजर नहीं आते जो समीक्षा पढक़र या चार समझदार लोगों की सराहना पर फिल्म देखने का निर्णय लें। इस समय लगातार अच्छी पटकथाओं पर बनने वाली फिल्मों की दरकार है। यद्यपि बहुलता में सिनेमा ज्यादातर दिशाहीनता का है, श्रेष्ठता के न्यूनतम मापदण्डों पर विश्वास करने वाला सिनेमा अपने प्रतिशत में बहुत कम है।

सोमवार, 10 जनवरी 2011

दिल तो गुस्ताख बच्चा है जी

गुलजार साहब ने विशाल भारद्वाज की फिल्म इश्किया में एक गाना लिखा था, दिल तो बच्चा है जी। बड़ा चर्चित हुआ था। फिल्म भले उतनी न चली हो मगर उसकी अलग-अलग तरहों से चर्चा होती रही। आलोचकों ने उसकी आलोचना करते हुए भी कुछ पक्षों को सराहा था। बाद में अच्छे नामों को तरसती मुम्बइया फिल्म इण्डस्ट्री के एक निर्माता और निर्देशक मधुर भण्डारकर को इसी नाम पर फिल्म बनाने की इच्छा हो गयी। इच्छा क्या हो गयी, गम्भीर फिल्म बनाते-बनाते चुटीले विषय पर हाथ आजमाने का मन हुआ तो तीन युवाओं की कहानी सोची-विचारी पर नाम वही रखा, दिल तो बच्चा है जी। अब इस फिल्म का प्रोमो आ रहा है। अजय देवगन हैं, इमरान हाशमी हैं और ओमी वैद्य हैं। तीनों की अलग-अलग कहानियाँ हैं। फिल्म के प्रोमो में सभी कलाकारों के अलग-अलग दृश्य हैं, संवाद बहुत कुछ चुटकुलेनुमा लगते हैं।

आजकल हँसने के लिए खूब सारे चुटकुलों का ज्ञान हासिल करना और उसमें विशेषज्ञता हासिल करना जरूरी है, वो हर कहीं काम आ जाते हैं, हास्य कवि सम्मेलनों से लेकर फिल्मों तक। अपने से लेकर परायों तक के चुटकुलों का लगातार शोध करते रहना और वक्त पडऩे पर तुरन्त सुनाकर आगे बढ़ जाना तात्कालिक सफलता का एक तरह से नुस्खा हो गया है। हास्य के कई मंचीय कवि, अक्सर एक-दूसरे के चुटकुलों को अपना कहा करते हैं और कई बार एक ही मंच पर चार कवि एक ही जैसे चुटकुलों की तैयारी से आते हैं, खैर। मधुर भण्डारकर ने इससे पहले हास्य फिल्म नहीं बनायी थी। लीक से हटकर सिनेमा बनाने में उनकी पहचान बड़ी जल्दी स्थापित हुई। मधुर के लिए, जिन्होंने चांदनी बार, सत्ता, कार्पोरेट, फैशन जैसी महत्वपूर्ण फिल्में बनायीं यह उपलब्धि कम नहीं है कि पिछले दिनों सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने उनकी फिल्मों के प्रिन्ट्स पुणे स्थित भारत सरकार के राष्ट्रीय फिल्म अभिलेखागार में संग्रहीत किए जाने का निर्णय लिया है।

अपनी अर्थपूर्ण फिल्मों के लिए ऐसे सम्मान को पाने वाले मधुर, दिल तो बच्चा है जी, के रूप में कैसी फिल्म बना रहे हैं यह जल्द ही दर्शकों को मालूम ही हो जाएगा, यद्यपि इसकी चैनलों में दिखायी देने वाली झलकियों में संवाद उसी तरह की आधुनिकता लिए हुए हैं जो वक्त-वक्त पर हमें शर्मसार करने के खूब काम आती है। अपने स्तम्भ में पिछले दिनों हमने ऐसी ही एक-दो फिल्मों की चर्चा की भी थी। दिल तो बच्चा है जी, उसी अन्दाज की फिल्म लगती है, इतना जरूर है कि मधुर ने उसे उस स्तर तक जाने नहीं दिया होगा कि बीप का इस्तेमाल करना पड़े। दरअसल बच्चों की गुस्ताखियों के लिए उनके हमदर्द, उसके बच्चे होने का हवाला ही देते हैं मगर अनुशासन सिखाने वाले इस बात के पक्ष में होते हैं कि गुस्ताखियों के लिए बच्चे के भी कान खींचने में गुरेज नहीं करना चाहिए। उम्मीद है, मधुर की यह बच्चा शैली की रोमांटिक फिल्म गुस्ताख नहीं होगी।

रविवार, 9 जनवरी 2011

परिपक्वता की अपेक्षाएँ

एक चैनल बड़े विस्तार से एक बात बतला रहा था जिससे दो बातें साफ होती दीखीं। चैनल का समाचार यह था कि करीना कपूर अपने प्रेमी सैफ की फिल्म एजेन्ट विनोद में तो काम कर रही हैं, उनको आने वाले समय में शाहरुख खान, सलमान खान और आमिर खान को लेकर नयी फिल्में बनाने वाले निर्देशकों ने भी अनुबन्धित कर लिया है। करीना कपूर अब ऐसी व्यस्त हो गयी हैं कि उनके पास अब सैफ की दो फिल्मों के लिए वक्त नहीं है। इसलिए सैफ ने अपनी निर्माण संस्था की आने वाली इन फिल्मों के लिए दीपिका पादुकोण से सम्पर्क किया है।

इस बात से एक बात यह साबित हुई कि इस समय करीना कपूर, एक बार फिर कैटरीना को पीछे छोडक़र कैरियर में नम्बर वन की जगह के इर्दगिर्द पहुँचने लगी हैं और दूसरी बात यह कि इस वक्त के तीन सफल सितारे, शाहरुख, सलमान और आमिर में अलग-अलग मतभेद और वाक्युद्ध भले खूब चलते रहें, एक नायिका तीनों नायकों के साथ काम कर रही है और वह भी बाकायदा, बड़े सधे हुए सामंजस्य के साथ। तीनों खानों में शाहरुख खान अकेले आमिर और सलमान के सामने हैं और लगातार वाक्मोर्चा में हार मानने को तैयार नहीं। आमिर यदि थ्री ईडियट्स पर फूले नहीं समा रहे हैं तो सलमान के पास अपनी दबंगई के जायज कारण हैं। माय नेम इज खान, शाहरुख खान की ऐसी फिल्म थी जिसमें किरदार के लिए उनकी जी-जान से लगायी प्रतिभा भी उनके कलाकार की साख बढ़ा न सकी। इसके विपरीत आमिर और सलमान ने अपना झण्डा ढंग से गाड़ दिया।

यह दिलचस्प है कि सलमान, आमिर की प्रतिभा को जानते हैं और उन्हें सलाम भी करते हैं और आमिर भी सलमान की प्रशंसा करने में देर नहीं लगाते। दोनों की ठीक जमती है और दोनों मिलकर हर उस अवसर का भरपूर लाभ लेते हैं जब उन्हें शाहरुख के बारे में कुछ कहना हो। शाहरुख ज्यादातर झुंझलाए रहते हैं और दूसरे दोनों खान के सवाल पर कुछ न कुछ कह जाते हैं। यह खाइयाँ जाने कब जाकर पटेंगी? यह गौरतलब है कि करीना ने अपने आपको इन लड़ाइयों का हिस्सा नहीं बनाया है, एक समझदार प्रोफेशनल कलाकार की तरह वह सबकी मित्र हैं और सबके साथ हैं। बात सही भी है। समझदार प्रोफेशनलिज्म उम्र के साथ ही आता है।

हालाँकि परिपक्वता की अपेक्षाएँ प्राय: उम्मीदों के विपरीत परिणाम देती हैं, पर ठीक है, जो जिस उम्र में समझदार हो जाये, वही काफी है। यह साल करीना के लिए फिलहाल तो बेहतर ही लगता है।

शनिवार, 8 जनवरी 2011

जिन्दगी की शाम में एक बुजुर्ग शायर : इन कस्टडी

मर्चेन्ट आयवरी प्रोडक्शन की फिल्म इन कस्टडी का प्रदर्शन काल 1993 का है। प्रदर्शन के दो साल पहले इस फिल्म की शूटिंग भोपाल में हुई थी। दरअसल यह वह पूरी फिल्म है, जो भोपाल में बनी पहली मुकम्मल फिल्म कही जा सकती है। इस्माइल मर्चेन्ट ने यह फिल्म बनायी थी। लगभग बीस साल पहले, भोपाल का माहौल, एक अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की अंग्रेजी और उर्दू में बनने वाली फिल्म की गहमागहमी शशि कपूर, शाबाना आजमी, ओम पुरी, परीक्षित साहनी, नीना गुप्ता, सुषमा सेठ जैसे कलाकारों का भोपाल लगातार रहना, खासे रोमांच और आकर्षण का विषय था। मरहूम फजल ताबिश, पूरे भोपाल भर के दोस्त, प्रोफेसर, तत्समय उर्दू अकादमी के सचिव और खासे मिलनसार, इस फिल्म के सारे इन्तजामों से जुड़े थे।

मुख्यत: गौहर महल में यह फिल्म शूट हुई जो शायर नूर शाहजहाँबादी बने शशि कपूर का घर बना, साथ में हाथीखाना, ओम पुरी का घर, मोती मस्जिद, पुराने भोपाल की मजबूत और यादगार इमारतों में हम एक शायर की जिन्दगी की शाम को गहरी निराशा और अवसाद में दिन-दिन व्यतीत होते देखते हैं। ओम पुरी ने एक प्रोफेसर की भूमिका की है जो भुला-बिसरा दिए गये शायर नूर का छोटी उम्र से मुरीद है। उसकी मंशा, अकेलापन और दर्द भोग रहे शायर से एक बार मिलना, उनसे बातचीत करना और उनके कलाम को लोगों तक पहुँचाने की है। कॉलेज में उसकी मदद होती है, वीडियो कैमरा खरीदना चाहता है मगर किसी तरह एक पुराने टेप रेकॉर्डर खरीदने की मदद मिलती है।

प्रोफेसर प्रयास करता है कि वह उनकी बातचीत रेकॉर्ड करे मगर हर बार नाकाम होता है। कभी नूर साहब का मूड कुछ और होता है तो कभी उनके खुशामदगीर आकर लम्बा वक्त बरबाद करते हैं और उनके साथ दावतें उड़ाकर उनको थका दिया करते हैं। कभी टेप कर रहा सहायक सो जाता है कभी माइक की लीड ही वो टेप में लगाना भूल जाता है। आखिर बहुत सारी जद्दोजहद के बाद सारी टेप आपस में उलझ जाती है। प्रोफेसर निराश होता है। अपने छात्रों की सहायता लेता है मगर वह भी उसके मन्तव्य को मखौल में उड़ा देते हैं। एक दिन उसके घर नूर साहब का भेजा पार्सल आता है, नूर साहब ने अपने बेशकीमती कलाम उसको सौंप दिए हैं ताकि उसका मंसूबा पूरा हो सके। वह उनका शुक्रिया अदा करने उनके घर जाता है मगर देखता है कि शायर का इन्तकाल हो चुका है और जनाजा जा रहा है।

ओम पुरी उस आखिरी दृश्य में बड़े प्रभावित करते हैं, जब वे पार्सल खोलकर शायर का खत पढ़ते हैं, उस मेहरबानी पर उनकी आँखों में आँसू आ जाते हैं। शशि कपूर उस समय ही बहुत भारी और स्थूल हो गये थे, वे निराश शायर के अन्तिम वक्त को बखूबी जीते हैं। शाबाना ने दूसरी बीवी की भूमिका की है, पहली बीवी सुषमा सेठ हैं। नीना गुप्ता की भूमिका महत्वपूर्ण है जो अपने पति के अरमानों के बीच खुद छोटे-छोटे समझौते करती है मगर झुंझलाती भी नहीं। भोपाल के वरिष्ठ रंगकर्मी रामरतन सेन को शशि कपूर के नौकर अली की भूमिका में कई दृश्य मिले थे। वरिष्ठ रंगकर्मी अलखनन्दन के भी कुछ अच्छे दृश्य ओम पुरी के साथ थे।

अच्छा निर्माता होना भी कठिन काम

कुछ संजीदा लोगों के बीच बात चल रही थी, अच्छे सिनेमा के निर्माण को लेकर। एक ने अनायास शशि कपूर का जिक्र किया। खास इस वजह से कि उन्होंने मुम्बइया मसाला फिल्मों में खूब काम किया। कभी किसी भूमिका को लेकर नुक्ताचीनी नहीं की। निर्देशकों को पूरा सहयोग दिया और हर माहौल में सहजता से शामिल हो जाते रहे। जो धन उनको ऐसी फिल्मों से कमाकर हासिल हुआ उसका उपयोग उन्होंने एक निर्माता के रूप में बहुत अच्छी फिल्मों का निर्माण करने में किया।

इस बात पर ध्यान केन्द्रित करने में वाकई उन पर इस बात के लिए फक्र होता है कि उनकी वजह से सत्तर के दशक में हमने निर्देशक के रूप में श्याम बेनेगल, गोविन्द निहलानी, गिरीश कर्नाड, अपर्णा सेन को शशि कपूर के लिए फिल्में निर्देशित करते देखा। उस पूरे समय की तरफ हम जरा होकर आयें तो ध्यान आयेगा कि किस तरह श्याम बेनेगल ने शशि कपूर के लिए त्रिकाल, जुनून और कलयुग का निर्देशन किया। किस तरह गोविन्द निहलानी ने उनके लिए विजेता फिल्म बनायी। किसी तरह अपर्णा सेन ने उनके लिए छत्तीस चौरंगी लेन फिल्म बनायी। किस तरह गिरीश कर्नाड को उन्होंने श्रेष्ठ क्लैसिक उत्सव के निर्देशन का भार सौंपा।

एक निर्माता के रूप में भी शशि कपूर अपने निर्देशकों के लिए बहुत सहज और प्रोत्साहक रहे, ऐसा उनके निर्देशकों ने वक्त-वक्त पर माना भी। जाहिर है यह सच भी था नहीं तो ऐसी फिल्में बनना आसान न होता। इन्हीं फिल्मों के माध्यम से हम नसीरुद्दीन शाह, नफीसा अली, अनंत नाग, रेखा, कुलभूषण खरबन्दा, लीला नायडू, जेनिफर कपूर और खुद शशि कपूर को अपने कैरियर की उत्कृष्ट और महत्वपूर्ण भूमिकाओं में देखते हैं।

हो सकता है कि ऐसी फिल्में बनाकर एक निर्माता के रूप में शशि कपूर को बड़ा व्यावसायिक लाभ न हुआ हो मगर ये सभी फिल्में मील का पत्थर हैं। अच्छा सिनेमा बनाना बड़े साहस का काम होता है, उसमें सुनिश्चित लाभ की सम्भावनाएँ न के बराबर हो सकती हैं मगर इसके बावजूद वह न तो आर्थिक रूप से बड़ी हानि का सौदा होता है और न ही किया गया वो काम निरर्थक होता है। समय उसका तत्क्षण मूल्याँकन करता है और वह एक स्थायी श्रेय की तरह भी होता है। शशि कपूर ने अपने कैरियर में बहुत सारी फिल्में की हैं। अपने बड़े और प्रतिभासम्पन्न भाइयों और समकालीन अभिनेताओं के बीच भी वे एक सक्रिय और आश्वस्त अभिनेता रहे हैं। वे किसी धमचक में कभी नहीं पड़े। जी-भर के काम किया जब तक अभिनय किया और निर्माता के रूप में भी ऐसी फिल्में दीं जिनका हमने जिक्र किया।

अब प्राय: सम्पन्न फिल्मकार अपनी निर्माण संस्थाओं में दूसरे निर्देशकों को अवसर देकर व्यर्थ का सिनेमा बनाकर लाभ-हानि के बड़े जोखिम लेते हैं और हानियाँ ही उठाते हैं, उन्हें जरा पीछे देखना चाहिए। देश और समाज हित में कुछ काम लाभ-हानि के गणित के बगैर भी किए जा सकते हैं।

गुरुवार, 6 जनवरी 2011

बिग बॉस की अवधारणाएँ

बिग बॉस अब समापन की ओर है। तीन महीनों की कश्मकश कई तरह के रंग, कई तरह के अनुभव से भरी रही। इस बार बिग बॉस जरा ज्यादा ही बोल्ड हो गया। शुरूआत से ही कई तरह के विवाद इसके साथ जुड़ते रहे। पता नहीं कितने स्वाभाविक थे, कितने पूर्वनियोजित मगर चर्चा का विषय बने। ये शो अपने पहले ही चरण से एक अलग तरह की पहचान लेकर चल रहा है। हम एक साथ दस-बारह लोगों को एक जगह पर एक लम्बे समय तक रहते हुए देखकर उनके बीच रिश्तों और सहभाव की स्थितियों को देखते हैं, उतार-चढ़ाव को देखते हैं।

हर मनुष्य का अपना स्वभाव होता है, समाज में, अपने-परायों के बीच वह अपने स्वभाव से ही पहचाना जाता है। हम मित्रों से जितने समय मिलते हैं, उतने समय में हम एक-दूसरे का आकलन करते हैं। काम करने की जगहों में सात-आठ घण्टे रहते हैं, वहाँ भी हमारे बिग बॉस होते हैं। हम एक-दूसरे के साथ पूरा दिन रहकर काम के साथ-साथ स्वभाव को भी बाँटते हैं, एक-दूसरे के स्वभाव का शिकार बनते-बनाते हैं। बिग बॉस में चौबीसों घण्टे, नब्बे दिन साथ रहना होता है। कोई दोस्त बनता है, कोई दोस्त नहीं बनता। दोस्ताना अपनी स्थितियाँ भी बदलता है। दूसरों को कटघरे में खड़ा करने वाला खुद श्रेष्ठ होता है, ऐसा वह मानता है।

सबसे बड़ा काम एक-दूसरे की निंदा करना होता है, उससे ज्यादा बड़ा काम, उस व्यक्ति तक उसके लिए कही गयी बात पहुँचाना होता है, जूते-चप्पल चल जाएँ तो दूर से तमाशा देखना तो और भी बड़ा काम। अपनी-अपनी तरह सब उसमें माहिर होते हैं। बिग बॉस एक तरह से आइना है। एक-दूसरे को देखने-दिखाने का। जो टेलीविजन के सामने बैठकर चेहरे देखते हैं, वे भी कई बार अपना चेहरा पोंछने की स्थिति में होते हैं। एक बिग बॉस टीवी में आता है, सलमान खान आज के बिग बॉस हैं और उनके बाड़े में बन्द चेहरे हमारा प्रतिबिम्ब। ईश्वर को मानने वाले उन्हें बिग बॉस कहते हैं, नीली छतरी वाला, छतरी के नीचे जमाना।

हम बिग बॉस में नकली रंग देखते हैं, पल में रंग उतरता देखते हैं, पल-पल में एक-दूसरे के गिरेबाँ में हाथ डालते देखते हैं। अपने आसपास से लेकर खुद अपने को पहचान जाने की समझदारी का प्रदर्शन करते हैं मगर कितना बदल पाते हैं, अपने आपको इसका जवाब देना जरा मुश्किल होता है।

बिग बॉस के चाहे जितने शो आते जाएँ, वृत्तियाँ चाहे जितनी कुत्सित हमें दीखती रहें पर हम कितना बदलेंगे, इसकी जानकारी या जवाबदारी या आत्मबोध शायद ही कहीं देखने में आये। आज बिग बॉस में चार लोग बचे हैं, खली, अश्मित, श्वेता और डॉली। इनमें से भी कम होंगे, अन्त में एक रहेगा मगर वह भी जाहिर है निर्विवाद नहीं होगा परन्तु वह जीतकर जायेगा। जीत किस बात की, विजय किस वजह की, यह प्रश्र शायद कभी हल हो पाये।

बुधवार, 5 जनवरी 2011

मौसम का सिनेमा, एक आकलन

क्या सिनेमा के मौसम से कोई सरोकार हो सकता है, हो सकता है यह सवाल आपको अटपटा लगे मगर जरा सोच कर देखिए कि अलग-अलग मौसम में मूड विशेष का सिनेमा क्या आपको अधिक प्रभावित करता है? क्या मौसम में मन के अनुकूल फिल्म न मिलने पर आपका मिजाज गड़बड़ाता है? ये प्रश्र अपनी तरह से दिलचस्प हैं मगर इस रास्ते पर कुछ बातें विचार के दायरे में लायी जाएँ तो शायद इस बात पर सहमति बने कि अलग-अलग मौसम में उस मौसम के अनुकूल मन का मिजाज बनता है और उस समय उसी अनुकूलन की सुरुचि या आनंद मिल जाए तो बात कुछ और होती है।

एक बार हमने यहीं पर बात की थी कि बहुत सी फिल्में, अनेकानेक निर्देशक और कई नायक-नायिकाएँ खास मौसमी परिधानों में समय-समय पर हमें बहुत प्रभावित करते रहे हैं। तब हमने बात शॉल, स्वेटर, कार्डिगन और सूट की, की थी। आज हम अलग प्रभाव के सिनेमा की बात करते हैं। ऐसा जानकारों का कहना है कि गर्मी के मौसम में मारधाड़ और हिंसा की फिल्में दर्शक को ज्यादा प्रभावित करती हैं। मौसम आदमी को बेहाल रखता है, उसकी अपनी दिनचर्या और स्वभाव में ऐसे मौके प्राय: आते हैं जब वो बात-बात पर उत्तेजित हो जाया करता है। लडऩे-भिडऩे को आतुर चेष्टाएँ इसी वातावरण का पर्याय होती हैं। दर्शक दिन-दोपहर सिनेमाघर तक जायेगा नहीं और यदि जायेगा तो एक्शन फिल्में चुनेगा।

बरसात में रूमानी फिल्मों की बयार अलग तरह का आकर्षण पैदा करती है। भीगना, एक अलग तरह की अनुभूति है। बरसात में ही बगीचे मुस्कुराते हैं। बागों में रंग-बिरंगे फूल खिलते हैं, दूब हरियाती है। ऐसे मौसम में अच्छे गानों और रूमानी कथाओं पर बनी फिल्में बहुत सुहाती हैं। बरसात का मौसम मन को तन्मयता देता है, सौम्यता और ठहराव देता है, ऐसे में प्रेम कहानियों को परदे पर देखना, अच्छी प्रेम कहानियों को परदे पर देखना सुखद होता है। सर्दी के मौसम में वो सारी फिल्में बहुत अच्छी लगती हैं जिनकी शूटिंग हिल स्टेशनों, बर्फीले पहाड़ों और खूबसूरत भू-दृश्यों के बीच हुई हो। रंग-बिरंगा, गरम परिधान, ओढ़ी-लपेटी छवियाँ और गर्म-गर्म उबलती धुँआ देती चाय के दृश्य आपकी अनुभूतियों को अलग ही परवान चढ़ाते हैं। इस मौसम का सिनेमा यदि हीरो-हीरोइन की छेड़छाड़ और नोकझोंक से भरा हो तो फिर कहना ही क्या.. .. ..।

सर्दी के मौसम में खास लांग शॉट के दृश्य प्रभावित करते हैं। नायक-नायिका की नजदीकियाँ अलग तरह की गुदगुदी देती हैं और इसी मौसम में कॉमेडी फिल्मों का रंग भी बहुत चढ़ता है। वजह यह भी है कि मौसम मूड को अनुकूल बनाए रखता है और खुश रहने और हँसने-हँसाने की मानसिकता के विरुद्ध जाने की कोई इच्छा नहीं बनती। सिनेमा को जरा इस अन्दाज में देख-परखकर खुद अपने से पूछिए और जवाब लीजिए कि बात सच है कि नहीं.. .. ..।

मंगलवार, 4 जनवरी 2011

निर्देशक और सितारों का सिनेमा

जिसकी लोकप्रियता अधिक होती है, सिनेमा उसी के नाम से पहचाना जाता है। यह परम्परा शुरू से है। यदि सितारे के सितारे बुलन्द हुए तो सितारे के नाम से फिल्म जानी जायेगी और यदि निर्देशक की प्रतिष्ठा समृद्ध है तो फिल्म फिर निर्देशक की मानी जाती है। हालाँकि हम पुराने समय को याद करेंगे तो पायेंगे कि एक अच्छी फिल्म को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करने में एक साथ कई बुलन्द परदे पर और परदे के परे लोगों का योगदान रहा करता था।

सिनेमा के आरम्भ के लगभग छ: दशक निर्माण संस्थाओं और बैनर के नाम से जितने जाने जाते थे उतने ही निर्देशक के नाम से भी जाने जाते थे। जितना फिल्म को सितारों की वजह से भाव-प्रभाव मिलता था उतना ही अभिनेत्री को भी उसकी खूबियों की तवज्जो मिला करती थी। चरित्र अभिनेताओं की भी अपनी जगह होती थी और हास्य अभिनेताओं की भी। खलनायकों का भी अपना एक दर्शक वर्ग बना होता था, निश्चित ही वे खलनायक मानसिकता के नहीं होते थे मगर बुरे आदमी के बुरे पन से प्रभावित अवश्य रहा करते थे। गीतकार भी सितारा हैसियत रखते थे और संगीतकार भी। गायकों का भी प्रभाव उतना ही असरकारी था जिनके साथ फिल्म के कलाकार भी बैठक करते थे और अपने लिए बनने वाले गाने पर लम्बा विचार-विमर्श करते थे।

यह सच है कि आरम्भ के इन दशकों में, जब का सिनेमा, सिनेमा के इतिहास का श्रेष्ठ सृजन रहा है, किसी भी माध्यम के सर्जक एक-दूसरे को धकेलकर या पीछे करके खुद आगे आने की इच्छाएँ नहीं रखते थे। बाद में परस्पर नायकों के बीच एक दूसरे को पीछे हटाने का खेल शुरू हुआ और कौन किससे नियंत्रित हो, बाकायदा इसकी फितरत ही स्थापित हो गयी। सत्तर, अस्सी और नब्बे के दशक में कुछ कलाकारों ने कुछ कलाकारों के साथ काम करने में परहेज किया तो इसके पीछे यही कारण थे। बराबरी की प्रतिभा, लोकप्रियता और साख वाले निर्देशक और सितारे भी एक-साथ आने में पीछे हटने लगे। आ गये तो फिर फिल्म हिट हो जाने के बाद, किसकी वजह से हिट हुई इसको लेकर बाकायदा अभियान भी चलने लगे।
आज के समय में हम बहुत सारे विरोधाभास देखते हैं।

संजय लीला भंसाली की गुजारिश ऋतिक रोशन के बावजूद विफल हो सकती है। प्रियदर्शन की फिल्म अक्षय कुमार के होते हुए फ्लॉप हो सकती है। ऐसे बहुत से उदाहरण हैं। शाहरुख खान बीते साल अपने किसी काम को सामने लाये बगैर दूसरों की आतिशबाजियाँ देखते रहे हैं। अब वे इस साल अपनी दो फिल्मों रॉ-वन और डॉन-टू के साथ दर्शकों के सामने होंगे। फिल्मों का क्या होगा, जरा हम यह बात आज के समय में शाहरुख की स्टार-वैल्यू को पुनर्आकलन करके करें जरा।

सोमवार, 3 जनवरी 2011

धर्मेन्द्र की अँगड़ाई

हमारे समय में सिनेमा में दिलचस्प चीजें दिखायी दे रही हैं। अचानक एक महिला निर्देशक को लगा तो उसने सत्तर के दशक का सिनेमा आज की कथा में रच-बस कर अपने लिए बड़ी प्रतिष्ठा अर्जित कर ली। उससे प्रेरणा लेकर कुछ प्रतिभाशाली निर्देशकों उस तरह का सिनेमा बनाकर अपना नाम भी चमका लिया। ओम शान्ति ओम से लेकर दबंग तक ऐसी ही कुछ फिल्में नाम-दाम कमाने में काफी कामयाब रहीं।
अब दिलचस्प यह है कि उस दौर के महानायक ने अँगड़ाई ली है।

पाठक जानते ही हैं कि वो दशक जिन सितारों के नाम रहा है उनमें मुख्य रूप से धर्मेन्द्र, अमिताभ बच्चन, विनोद खन्ना, शत्रुघ्र सिन्हा, शशि कपूर और ऋषि कपूर आदि शामिल रहे हैं। इन सितारों के नाम के साथ हमारे सामने आइने की तरह सब कुछ साफ-साफ दीखने लगता है। इनमें से बहुतेरे सितारे लगभग एक दशक से बहुत कम दिखायी दे रहे थे। इस बीच हिन्दी सिनेमा का परिदृश्य बदल गया। अस्सी और नब्बे के दशक के सितारे आये और जाते हुए दीखे। कुछ सलमान, आमिर, शाहरुख से जमे हैं मगर यह समय अब रणबीर कपूर और नील नितिन मुकेश के नाम से भी जाना जाता है और शाहिद कपूर के नाम से भी। अब हम इसी दृश्य में एक बार फिर कुछ नवाचार देखते हैं। हमें कुछ वर्ष पहले अमिताभ बच्चन की फिल्म बागवान को याद करना चाहिए और सरकार को भी।

हमें भारतीय सिनेमा के महानायक का परिपक्व चेहरा दिखायी देता है। नये साल की शुरूआत में हम एक और महानायक को बहुत उत्साह और ऊर्जा के साथ देख रहे हैं। यह महानायक हैं धर्मेन्द्र। धर्मेन्द्र अभी दिसम्बर में पचहत्तर बरस के हुए हैं और इसी साल उनको फिल्म जगत में सक्रियता के पाँच दशक पूरे हुए हैं। दिल भी तेरा हम भी तेरे, उनकी पहली फिल्म थी, जिसमें उन्हें अर्जुन हिंगोरानी ने निर्देशित किया था।

अर्जुन हिंगोरानी, उनके बेहद अजीज दोस्त हैं जो इस जन्मदिन पर भी उनके घर में बैठे अपने दोस्त महानायक और प्रशंसकों से घिरा देखकर मुग्ध हो रहे थे। धर्मेन्द्र की नयी फिल्म यमला पगला दीवाना इसी माह के दूसरे सप्ताह में प्रदर्शित हो रही है। यह शीर्षक पैंतीस साल पहले की उन्हीं की सुपरहिट फिल्म प्रतिज्ञा के जिस गाने से प्रेरित है, उसका एक अलग अन्दाज, इस नाम की फिल्म में दिखायी देगा।

अनिल शर्मा निर्देशित अपने में तीनो देओल थे, अब यमला पगला दीवाना में भी तीनों देओल हैं और जोर-शोर से इस फिल्म के प्रचार-प्रसार में हिस्सा ले रहे हैं। अपने चाहने वालों के बीच गर्मजोशी के साथ पहुँचने का इस बार उनके पास अलग ही मंत्र है। फिल्म की सफलता के लिए बड़े देओल आश्वस्त भी बहुत हैं।

रविवार, 2 जनवरी 2011

हिन्दी सिनेमा की अंग्रेजी चाल

हमारे समय में सिनेमा की सिनेमा बनाने वालों ने एक नयी परिभाषा विकसित की है। वे कहते हैं कि सिनेमा मनोरंजन के लिए होता है। मनोरंजन को अंग्रेजी में वे इन्टरटेनमेंट कहते हैं। निर्देशक से लेकर कलाकार तक यही कहते हैं कि वे दर्शकों के मनोरंजन के लिए काम करते हैं, कर रहे हैं। मनोरंजन को अंग्रेजी में जो कहा जाता है, वे वही कहते हैं।

अंग्रेजी का मसला दरअसल हिन्दी सिनेमा में भी इस तरह घर कर गया है कि अब उसका उस अन्त:चक्र से बाहर आना सम्भव नहीं लगता। वह उसी घुटन में रहेगा भले ही उसे तमाम नकली सुगन्ध अपने आसपास छिडक़ कर अपने प्राण बचाना पड़े। अपनी फिल्मों को लेकर अब हर कलाकार, समाज को अंग्रेजी में ही बताता है। नाक खुजाते हुए सब के सब बड़े दार्शनिक अन्दाज में अपने काम को, अपनी समझ को, सामने वाले की समझ के समानान्तर प्रमाणित करते हैं।

हिन्दी सिनेमा के बारे में अंग्रेजी में सवाल-जवाब करने वालों को कलाकार जल्दी समय भी दे देता है और उससे जमकर बात भी करता है, उसे भाव भी देता है मगर हिन्दी अखबार का हिन्दी में लिखने वाला सिने-पत्रकार अपने तथाकथित पिछड़ेपन और अपनी हीनता पर आखिरकार ऐसी स्थिति में जाकर खड़ा हो जाता है, जहाँ से उसके साहस खुद जवाब दे जाते हैं। अंग्रेजी मेें जानकारियों और सवालों, खासकर जिज्ञासाओं की अपनी कोई परिपक्वता भले न नजर आये, कलाकार को उस पर चहक-चहककर जवाब देने में अलग ही रस आता है। हिन्दी के समझदार पत्रकार से कलाकार बात करना ही नहीं चाहता। हिन्दी फिल्मों की लगातार विफलता का यह एक बड़ा कारण बन गया है, यह बात शायद बहुत कम फिल्मकार, कलाकार जानना-या-समझना चाहते हैं।

देश का बड़ा दर्शक समाज, सिनेमा की अंग्रेजी पत्रिकाओं में आवरण कथा या लेख या गप्पबाजी पढक़र सिनेमा देखना या नहीं देखना तय नहीं करता। हिन्दी सिनेमा जो दर्शक वर्ग बहुतायात में देखने जाता है, वह अपने दायरे से लेकर दायरे के बाहर तक हिन्दी में ही बात करता है, हिन्दी के अखबार पढ़ता है और सिनेमा के बारे में भी ज्यादा से ज्यादा हिन्दी में ही जानने की जिज्ञासा भी रखता है। सिनेमा जगत ने पिछले दो दशकों में हिन्दी के प्रकाशनों की बड़ी उपेक्षा की है। खासतौर पर तवज्जो में विरोधाभासी फर्क किया है। चैनलों में अंग्रेजीदाँ सिनेमा पर सहज सुलभ कलाकारों से उनकी आने वाली फिल्मों पर, निर्देशकों से उनके किए काम पर जो बात करते हैं उसको वो दर्शक कितने प्रतिशत देखता होगा, जो फिल्में देखने या नहीं देखने का फैसला करता है, यह बात जानी जाये तो उसका फर्क साफ समझ आयेगा।

हिन्दी सिनेमा जिन बहुत से कारणों से उपेक्षित हुआ है, उसमें ये कारण सबसे बड़ी भूमिका निबाहते हैं।

शनिवार, 1 जनवरी 2011

श्याम बेनेगल की यादगार अंकुर

सत्तर के दशक में आयी और नये सिनेमा के उत्कृष्ट फिल्मकार की पहली कथा फिल्म अंकुर पर इस रविवार चर्चा करना उपयुक्त लगता है। श्याम बेनेगल, महान फिल्मकार सत्यजित राय से प्रभावित थे। अंकुर के संवाद पण्डित सत्येदव दुबे ने लिखे थे। फिल्म का सिने-छायांकन गोविन्द निहलानी ने किया था और संगीतकार थे वनराज भाटिया। श्याम बाबू का यही टीम ऑफ एक्सीलेंस था। दक्षिण के एक सुदूर गाँव में इसका फिल्मांकन किया गया था। शाबाना आजमी, साधु मेहर और अनंत नाग फिल्म के मुख्य कलाकार थे।

कहानी जमींदार शोषक और मजदूर शोषित की है। ऐसे शोषण की बहुतेरी सत्य कथाएँ हमने सुन-पढ़ रखी हैं। जमींदार चाहता है कि शहर से पढ़-लिखकर उसका बेटा उसकी ही विरासत को सम्हाले। छल-प्रपंच और दमन से इकट्ठी दौलत का उपभोग करे, उसकी परम्परा को आगे बढ़ाए और जैसा वो करता आया है, वैसा ही बेटा भी करे। बेटा विवाहित है मगर गाँव में अकेले रहते हुए उसे एक मजदूर की स्त्री भाने लगती है।

स्त्री के गूँगे-बहरे पति को चोरी के अपराध में पकड़ लिया गया था। उसका सिर मुण्डवाकर, गधे पर बैठाकर गाँव भर में जुलूस निकालकर अपमानित किया जात है और गाँव के बाहर कर दिया जाता है। पति की अनुपस्थिति में जमींदार के बेटे से उसके सम्बन्धों के कारण उसे गर्भ ठहर जाता है। इधर, जमींदार के बेटे की पत्नी भी गाँव में ही आकर रहने लगती है, जिससे मजदूर की पत्नी का भी सहकार बन गया है।
एक दिन गूँगा-बहरा मजदूर लौटकर आता है तो उसकी पत्नी उसे गर्भवती होने की बात बताती है।

मजदूर ज्यादा कुछ समझे बिना, अपने लिए इस खुशखबरी को बाँटता हुआ जमींदार के घर की तरफ दौड़ लगाता है। दूर से अपनी तरफ लाठी लिए दौड़ते आते मजदूर को देखकर जमींदार का बेटा, अन्देशे में यह सोचकर डर जाता है कि कहीं मजदूर की औरत ने उसे सब बता न दिया हो। परिणामस्वरूप वह दौडक़र अन्दर से चाबुक ले आता है और बाहर आकर बिना बात सुने गूँगे-बहरे मजदूर को बेरहमी से मारना शुरू कर देता है। उस समय मजदूर की औरत अपने पति के लिए गुहार करती है और जमींदार पुत्र को खूब कोसते हुए शाप देती है। एक स्त्री के नजरिए से यह फिल्म शोषण की पराकाष्ठा में प्रतिवादी विद्रोह को मर्माहत ढंग से व्यक्त करती है। यह वही स्त्री है जो उस व्यक्ति को शाप दे रही है जिसका बच्चा उसके पेट में है।

शाबाना ने इस भूमिका में प्रभावी अभिनय किया है। अनंत नाग का चरित्र शुरू से नकारात्मक और शोषक की तरह ही स्थापित होना शुरू होता है। साधु मेहर अपनी सीमाओं मे ंप्रभावित करते हैं। अंकुर, दरअसल निर्देशकीय सूझ का सिनेमा है जिसमें कथ्य और स्थितियाँ कमाल की हैं। श्याम बेनेगल की पकड़ फिल्म में हम निरन्तर देखते हैं।

आज का सिनेमा और उसकी बुनियाद

नये साल का पहला दिन है। बीते साल लगभग दो सौ फिल्में असफल हुईं। एक बड़ी संख्या है, बड़ा आँकड़ा है। हिन्दी सिनेमा का यथार्थ, वर्तमान के साथ जिस तरह के निराशाजनक परिदृश्य में है, उसको देखते हुए 98 वर्ष उम्र के इस माध्यम के स्वर्णयुग की याद हो आना स्वाभाविक है। यह अपने आपमें एक बड़ा तथ्य है कि हमारे देश में सिनेमा उस वक्त से है जब भारत में वे देश भी समाहित थे जो बाद में अलग हुए।

सिनेमा की शुरूआत मूक युग से हुई थी लेकिन उसके बावजूद अभिव्यक्ति और मनोरंजन का वह सशक्त माध्यम था। बात इशारों में होती थी, हावभाव से सारी चेष्टाएँ व्यक्त होती थीं मगर समझाने के लिए अलग से अध्यापक की आवश्यकता नहीं होती थी। 1913 में सिनेमा का अविष्कार हुआ। 1931 में सिनेमा बोलने लगा लेकिन उसके चार साल बाद भी चार्ली चेपलिन जैसे कलाकार-फिल्मकार मूक फिल्म बनाकर भी वो काम कर रहे थे जिसके दर्शक से सीधे सरोकार थे। हिन्दुस्तान में सिनेमा की बुनियाद महान और प्रतिबद्ध लोगों ने रखी। वे हिमांशु राय थे, वे बिमल राय थे, वे दामले-फत्तेलाल और व्ही. शान्ताराम थे, वे महबू्रब खान थे। वासन थे, नागिरेड्डी थे। जेमिनी, प्रसाद जैसे निर्माण घराने थे। पश्चिम बंगाल से, महाराष्ट्र से, गुजरात से, दक्षिण से हिन्दी में सिनेमा, श्रेष्ठ सिनेमा बनाने वालों की ताकत अपना साहित्य, संस्कृति और परम्पराएँ थीं।

भारतीय सभ्यता में मनुष्य ने सृजनात्मक उपक्रमों के माध्यम से हम सबकी जिन्दगी को नये अर्थ देने, उसे अर्थवान बनाने का काम किया। क्या कल्पना की जा सकती है कि कितने परिश्रम, जतन और इच्छाशक्ति से राजा हरिश्चन्द्र से एक परम्परा की शुरूआत होती है और सावकारी पाश, सन्त तुकाराम, पृथ्वीवल्लभ से होती हुई स्वराज्य तोरण, आलमआरा, विद्यापति, चण्डीदास, अयोध्या का राजा, सन्त ज्ञानेश्वर, किस्मत, कर्मा, जीवननैया, अछूत कन्या, सिकन्दर और दो आँखें बारह हाथ से परवान चढ़ती है। बड़े कठिन काम थे और बड़े कठिनाई से सम्पन्न भी हुए।

महान लोगों ने महान सिनेमा बनाया जिसमें सामाजिक मूल्य, परम्पराएँ, विद्रूपताएँ और आने वाले समय के ऐसे बहुत सारे संकेत हुआ करते थे जिनसे सजग होने की आवश्यकता थी। सिनेमा ने अशिक्षा से लेकर, स्त्रियों की सामाजिक स्थिति, कुरीतियाँ और शोषण को आधार बनाया। यह यात्रा बखूबी लगभग छ: दशक तक चली है। यह उल्लेखनीय है कि सिनेमा का अपना छ: दशक के बाद का उत्तरार्ध और उसकी अब तक की यात्रा का एक बड़ा हिस्सा एक ऐसा जबरन पहनाया हुआ आधुनिक चश्मा है, जिसके उस पार कुछ भी प्रभावित करने वाला नजर नहीं आता।

अब सिनेमा के संवाद, तुम्हारे पिताजी की तबियत कैसी है, के बजाय, यार तुम्हारे फादर की हेल्थ कैसी है, पर आकर ठहर गये हैं। बड़ी मुश्किल उम्मीद है, फिर भी सोच सकते हैं, बचे दो साल में कुछ फिल्में तो ऐसी बनें जिनकी वजह से सौ साल के सिनेमा का चेहरा शिथिल और हारा हुआ न लगे।