टेलीविजन के चैनलों पर अब अवार्ड का उत्सव शुरू हो गया है। पहले एक समय था, जब फिल्म फेयर अवार्ड को लेकर पूरे साल सितारों और दर्शकों में आकर्षण बना रहता था। बाद में यह प्रभावित हुआ। बीच-बीच में कुछ और कम्पनियाँ और संस्थाएँ इस काम में आगे आयीं। दो-चार बरस उनका भी बोलबाला रहा। सितारे भी, चूँकि उनकी ही प्रतिष्ठा के लिए यह समारोह आयोजित होते थे, शिरकत करने में पीछे नहीं रहते थे लेकिन बीच-बीच में अवार्ड विवादित भी हुए। सितारों के बहिष्कार, उपस्थित न होना और प्रतिवादी बयान जारी करना- यह सब अपने समय में खूब हुआ है। इधर हम देखते ही हैं कि सितारों में परस्पर मैत्री और सद्भाव की लगातार कमी आयी है।
एक समय था जब यदि कोई दिलीप कुमार को यह कहता था कि फलाँ फिल्म में आपके काम को लेकर राज कपूर ने कुछ आलोचना या विपरीत कहा है तो दिलीप कुमार कहते थे, कि उसने सही कहा होगा, उसको ये हक है क्योंकि वो स्वयं भी एक उत्कृष्ट कलाकार है। वो मेरे काम का मूल्याँकन कर सकता है और अपनी राय भी दे सकता है। इन बातों के साथ ही आपसी रिश्तों में जरा सा भी फर्क नहीं पड़ता था। आज आमिर से शाहरुख, शाहरुख से सलमान और अक्षय से अन्य तमाम, इस तरह बड़े विरोधाभासी समीकरण देखने को मिलते हैं। विद्वेष और सहजता के अपने विरोधाभास होते हैं। परस्पर विद्वेष आपस की सहजता को तो समाप्त करता ही है साथ ही साथ परस्पर उपस्थिति में तनावमुक्त नहीं रहने देता।
एक समारोह में दस विरोधी ऐसा सन्नाटा साधे बैठे रहते हैं कि पता नहीं कब क्या हो जाए, आते-जाते कहाँ-क्या होने लगे। कैमरे एक को अवार्ड मिलने पर दूसरे विरोधी का चेहरा इसलिए केन्द्रित करते हैं ताकि उसके मन के भाव जाहिर हों। जाहिर है, भाव जाहिर हुए बगैर रहते नहीं। स्पर्धी नाच रहा है या अवार्ड ले रहा है या बात कह रहा है तो प्रतिस्पर्धी को कैसा लग रहा है, यह जरूर दिखाया जाता है।
अतीत के रिश्तों से जुड़े चेहरों की भी परस्पर छबियाँ, लगता है, शरारतन बार-बार संचित करके दिखायी जा रही हैं। यह सब बड़ा विचित्र सा है। अवार्ड किसको मिलना चाहिए, किसको मिल गया है, चयन समिति के अपने मापदण्ड क्या हैं, दर्शक खुद क्या सोचता है, इन सबमें व्यापक वैविध्य नजर आता है।
कुछ दिन अवार्डों की शाम रहेगी। हँसी-मजाक, मान-अपमान, अवसाद अकस्मात और नियोजित प्रसंग भी इनका हिस्सा होंगे। देखते जाइए.. .. .. ..।
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