कुछ संजीदा लोगों के बीच बात चल रही थी, अच्छे सिनेमा के निर्माण को लेकर। एक ने अनायास शशि कपूर का जिक्र किया। खास इस वजह से कि उन्होंने मुम्बइया मसाला फिल्मों में खूब काम किया। कभी किसी भूमिका को लेकर नुक्ताचीनी नहीं की। निर्देशकों को पूरा सहयोग दिया और हर माहौल में सहजता से शामिल हो जाते रहे। जो धन उनको ऐसी फिल्मों से कमाकर हासिल हुआ उसका उपयोग उन्होंने एक निर्माता के रूप में बहुत अच्छी फिल्मों का निर्माण करने में किया।
इस बात पर ध्यान केन्द्रित करने में वाकई उन पर इस बात के लिए फक्र होता है कि उनकी वजह से सत्तर के दशक में हमने निर्देशक के रूप में श्याम बेनेगल, गोविन्द निहलानी, गिरीश कर्नाड, अपर्णा सेन को शशि कपूर के लिए फिल्में निर्देशित करते देखा। उस पूरे समय की तरफ हम जरा होकर आयें तो ध्यान आयेगा कि किस तरह श्याम बेनेगल ने शशि कपूर के लिए त्रिकाल, जुनून और कलयुग का निर्देशन किया। किस तरह गोविन्द निहलानी ने उनके लिए विजेता फिल्म बनायी। किसी तरह अपर्णा सेन ने उनके लिए छत्तीस चौरंगी लेन फिल्म बनायी। किस तरह गिरीश कर्नाड को उन्होंने श्रेष्ठ क्लैसिक उत्सव के निर्देशन का भार सौंपा।
एक निर्माता के रूप में भी शशि कपूर अपने निर्देशकों के लिए बहुत सहज और प्रोत्साहक रहे, ऐसा उनके निर्देशकों ने वक्त-वक्त पर माना भी। जाहिर है यह सच भी था नहीं तो ऐसी फिल्में बनना आसान न होता। इन्हीं फिल्मों के माध्यम से हम नसीरुद्दीन शाह, नफीसा अली, अनंत नाग, रेखा, कुलभूषण खरबन्दा, लीला नायडू, जेनिफर कपूर और खुद शशि कपूर को अपने कैरियर की उत्कृष्ट और महत्वपूर्ण भूमिकाओं में देखते हैं।
हो सकता है कि ऐसी फिल्में बनाकर एक निर्माता के रूप में शशि कपूर को बड़ा व्यावसायिक लाभ न हुआ हो मगर ये सभी फिल्में मील का पत्थर हैं। अच्छा सिनेमा बनाना बड़े साहस का काम होता है, उसमें सुनिश्चित लाभ की सम्भावनाएँ न के बराबर हो सकती हैं मगर इसके बावजूद वह न तो आर्थिक रूप से बड़ी हानि का सौदा होता है और न ही किया गया वो काम निरर्थक होता है। समय उसका तत्क्षण मूल्याँकन करता है और वह एक स्थायी श्रेय की तरह भी होता है। शशि कपूर ने अपने कैरियर में बहुत सारी फिल्में की हैं। अपने बड़े और प्रतिभासम्पन्न भाइयों और समकालीन अभिनेताओं के बीच भी वे एक सक्रिय और आश्वस्त अभिनेता रहे हैं। वे किसी धमचक में कभी नहीं पड़े। जी-भर के काम किया जब तक अभिनय किया और निर्माता के रूप में भी ऐसी फिल्में दीं जिनका हमने जिक्र किया।
अब प्राय: सम्पन्न फिल्मकार अपनी निर्माण संस्थाओं में दूसरे निर्देशकों को अवसर देकर व्यर्थ का सिनेमा बनाकर लाभ-हानि के बड़े जोखिम लेते हैं और हानियाँ ही उठाते हैं, उन्हें जरा पीछे देखना चाहिए। देश और समाज हित में कुछ काम लाभ-हानि के गणित के बगैर भी किए जा सकते हैं।
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