नये साल का पहला दिन है। बीते साल लगभग दो सौ फिल्में असफल हुईं। एक बड़ी संख्या है, बड़ा आँकड़ा है। हिन्दी सिनेमा का यथार्थ, वर्तमान के साथ जिस तरह के निराशाजनक परिदृश्य में है, उसको देखते हुए 98 वर्ष उम्र के इस माध्यम के स्वर्णयुग की याद हो आना स्वाभाविक है। यह अपने आपमें एक बड़ा तथ्य है कि हमारे देश में सिनेमा उस वक्त से है जब भारत में वे देश भी समाहित थे जो बाद में अलग हुए।
सिनेमा की शुरूआत मूक युग से हुई थी लेकिन उसके बावजूद अभिव्यक्ति और मनोरंजन का वह सशक्त माध्यम था। बात इशारों में होती थी, हावभाव से सारी चेष्टाएँ व्यक्त होती थीं मगर समझाने के लिए अलग से अध्यापक की आवश्यकता नहीं होती थी। 1913 में सिनेमा का अविष्कार हुआ। 1931 में सिनेमा बोलने लगा लेकिन उसके चार साल बाद भी चार्ली चेपलिन जैसे कलाकार-फिल्मकार मूक फिल्म बनाकर भी वो काम कर रहे थे जिसके दर्शक से सीधे सरोकार थे। हिन्दुस्तान में सिनेमा की बुनियाद महान और प्रतिबद्ध लोगों ने रखी। वे हिमांशु राय थे, वे बिमल राय थे, वे दामले-फत्तेलाल और व्ही. शान्ताराम थे, वे महबू्रब खान थे। वासन थे, नागिरेड्डी थे। जेमिनी, प्रसाद जैसे निर्माण घराने थे। पश्चिम बंगाल से, महाराष्ट्र से, गुजरात से, दक्षिण से हिन्दी में सिनेमा, श्रेष्ठ सिनेमा बनाने वालों की ताकत अपना साहित्य, संस्कृति और परम्पराएँ थीं।
भारतीय सभ्यता में मनुष्य ने सृजनात्मक उपक्रमों के माध्यम से हम सबकी जिन्दगी को नये अर्थ देने, उसे अर्थवान बनाने का काम किया। क्या कल्पना की जा सकती है कि कितने परिश्रम, जतन और इच्छाशक्ति से राजा हरिश्चन्द्र से एक परम्परा की शुरूआत होती है और सावकारी पाश, सन्त तुकाराम, पृथ्वीवल्लभ से होती हुई स्वराज्य तोरण, आलमआरा, विद्यापति, चण्डीदास, अयोध्या का राजा, सन्त ज्ञानेश्वर, किस्मत, कर्मा, जीवननैया, अछूत कन्या, सिकन्दर और दो आँखें बारह हाथ से परवान चढ़ती है। बड़े कठिन काम थे और बड़े कठिनाई से सम्पन्न भी हुए।
महान लोगों ने महान सिनेमा बनाया जिसमें सामाजिक मूल्य, परम्पराएँ, विद्रूपताएँ और आने वाले समय के ऐसे बहुत सारे संकेत हुआ करते थे जिनसे सजग होने की आवश्यकता थी। सिनेमा ने अशिक्षा से लेकर, स्त्रियों की सामाजिक स्थिति, कुरीतियाँ और शोषण को आधार बनाया। यह यात्रा बखूबी लगभग छ: दशक तक चली है। यह उल्लेखनीय है कि सिनेमा का अपना छ: दशक के बाद का उत्तरार्ध और उसकी अब तक की यात्रा का एक बड़ा हिस्सा एक ऐसा जबरन पहनाया हुआ आधुनिक चश्मा है, जिसके उस पार कुछ भी प्रभावित करने वाला नजर नहीं आता।
अब सिनेमा के संवाद, तुम्हारे पिताजी की तबियत कैसी है, के बजाय, यार तुम्हारे फादर की हेल्थ कैसी है, पर आकर ठहर गये हैं। बड़ी मुश्किल उम्मीद है, फिर भी सोच सकते हैं, बचे दो साल में कुछ फिल्में तो ऐसी बनें जिनकी वजह से सौ साल के सिनेमा का चेहरा शिथिल और हारा हुआ न लगे।
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