मंगलवार, 11 जनवरी 2011

अच्छी पटकथाओं का संक्रमण काल

फिल्में प्रदर्शित होने के बाद परिणाम देती हैं, ज्यादातर परिणाम निराशाजनक होते हैं। विफलता का प्रतिशत सफलता के प्रतिशत से कहीं ज्यादा है मगर इसके बावजूद सिनेमा का आकलन करने वाले इस बात पर ताज्जुब करते हैं कि आखिर वह कौन सी जिजीविषा है जो लगातार निराशाजनक परिणामों के बावजूद इस माध्यम में खूब सारा काम करने वालों को जिलाए रखती है? कैसे वे लोग भी काम करते रहते हैं जिनका काम सराहा नहीं जाता। वक्त उनको भी लगता है।

जिस फिल्म को सफल नहीं होना होता है, ऐसा नहीं कि वो चुटकियों में बन जाती हो। ऐसी फिल्म भी साल-दो साल या छ:-आठ महीने लगाती है। ऐसी फिल्मों में भी बड़े सितारे होते हैं। ऐसी फिल्मों के भी स्वनामधन्य निर्देशक होते हैं जिनके नामे दो-चार पिछली सफल फिल्में रहती हैं, बावजूद इसके अचानक दर्शक उनकी फिल्म खारिज करके उनके काम पर प्रश्रचिन्ह लगाता है।

आजकल कुछ बड़े और हाल के अपने कामों से विफल रहे निर्देशक समीक्षकों को भी कटघरे में खड़ा करते हैं, कुछ लोग अपने सम्बन्ध तक खराब कर लिया करते हैं मगर प्रबुद्ध समीक्षक की अवधारणा का हमेशा आदर होता है। आकलन के अच्छे-बुरे का निर्णय भी केवल फिल्म बनाने वाले और फिल्म की आलोचना करने वाले के बीच नहीं होता। अच्छे को परखने वाली बहुसंख्य दृष्टि, किसी भी आदर्श समीक्षक की दृष्टि के अनुकूल ही रहती है।

बहुत से युवा और चांदी का चम्मच मुँह में लिए फिल्म निर्देशित करने चले आये निर्देशक, सिनेमा में खुलेपन की एक ऐसी धारा बहा देना चाहते हैं जिसके सरोकार केवल आज की युवा पीढ़ी से जुड़ते हैं। ऐसा सिनेमा चार दिन की चांदनी की तरह भी नहीं हो पाता। कितने लोग होंगे जो पटकथाओं पर मेहनत करते हैं? पिछले सालों में लीना यादव, राकेश चतुर्वेदी, नीरज पाण्डे जैसे प्रतिभाशाली और कल्पनाशील निर्देशकों ने ध्यान आकृष्ट किया है। अभी ये तीनों ही निर्देशक अगली फिल्म के लिए अपनी पटकथा को मजबूत करने का काम कर रहे हैं।

यह हमारे समय की विडम्बना ही है कि बावजूद अच्छे निर्देशकों का काम रेखांकित होने के, व्यापक दर्शक वर्ग तक अच्छा सिनेमा नहीं पहुँच पाता। हमारे यहाँ अब सिनेमा के ऐसे प्रेमी या रसिक नजर नहीं आते जो समीक्षा पढक़र या चार समझदार लोगों की सराहना पर फिल्म देखने का निर्णय लें। इस समय लगातार अच्छी पटकथाओं पर बनने वाली फिल्मों की दरकार है। यद्यपि बहुलता में सिनेमा ज्यादातर दिशाहीनता का है, श्रेष्ठता के न्यूनतम मापदण्डों पर विश्वास करने वाला सिनेमा अपने प्रतिशत में बहुत कम है।

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