आज हम प्रख्यात फिल्मकार हृषिकेश मुखर्जी की जिस फिल्म अभिमान की चर्चा करने जा रहे हैं, वह 1973 में प्रदर्शित हुई थी। तिहत्तर का साल इसलिए उल्लेखनीय है कि एक तरफ यश चोपड़ा की दीवार और प्रकाश मेहरा की जंजीर से हम हिन्दी सिनेमा मे एक ऐसे महानायक का वृहद अभिनंदन करने जा रहे थे जिसने बीसवीं सदी पूरी होते-होते अपने कैनवास को अभूतपूर्व विस्तार दिया। वही नायक अमिताभ बच्चन, जंजीर और दीवार के वक्त में ही हृषि दा की फिल्म अभिमान में भी काम कर रहे थे, भावी छबि और प्रभाव की,बिना नापतौल किए।
हृषिकेश मुखर्जी, महान फिल्मकार स्वर्गीय बिमल राय के सहयोगी और खास, उनकी फिल्मों के सम्पादक थे। दरअसल सिनेमा के ऐसे विलक्षण सृजनधर्मियों की टीम जिनमें पटकथाकार नबेन्दु घोष भी शामिल थे, एक जमाने में कोलकाता से अशोक कुमार और शशधर मुखर्जी के बुलावे पर मुम्बई आये थे और वहीं रहकर काम करने में इस तरह जुट गये कि वहीं के होकर रह गये। सम्पादक हृषिकेश मुखर्जी की मुसाफिर पहली फिल्म थी। अभिमान तक आते-आते हृषि दा का सम्पादक बड़ा आश्वस्त और आत्मविश्वास से भर चुका था। वे जरूरत के शॉट लेते थे। फिजूल शूट करके तमाम इकट्ठा करना और छाँटना उनकी शैली नहीं थी।
अभिमान, एक ऐसे लोकप्रिय शहरी गायक सुबीर की कहानी है जिसके सामने प्रसिद्धि का खुला आसमान है और दूर-दूर तक प्रतिद्वन्द्विता का पता तक नहीं। एक बार वह गाँव आता है तो वहाँ एक सुरीले कंठ वाली खूबसूरत युवती उमा को देखकर उस पर मोहित हो जाता है। उमा, एक संस्कारी परिवार की बेटी है, उसका पिता सदानंद इसे अपना भाग्य समझता है कि इतना प्रसिद्ध व्यक्ति उसकी बेटी का हाथ माँग रहा है। विवाह हो जाता है। शहर में उमा का गाना एक बार घर की महफिल में इतना पसन्द किया जाता है कि उसको गाने के अवसर मिलना शुरू हो जाते हैं। आरम्भ में ये अवसर सुबीर को अच्छे लगते हैं लेकिन एक स्थिति यह होती है कि उमा की लोकप्रियता, सुबीर से ज्यादा हो जाती है। रिश्ते यहीं से बिखरने लगते हैं। बिखराव का चरम अलगाव तक जाता है।
यह फिल्म दरअसल एक संवेदनशील कहानी और प्रेम के नाजुक रिश्तों से जुडक़र संकीर्णता और भीतरी दम्भ के जरिए दुखद परिणामों तक जाती है। व्यथित उमा का गर्भपात और निरन्तर टूटती स्थितियों के बीच सुबीर का पश्चताप जिस तरह फिल्म के अन्त को मर्मस्पर्शी गहराइयों तक ले जाता है, वह अनूठा है। अमिताभ बच्चन और जया की यह अविस्मरणीय फिल्म है जिसकी कहानी, एक बार फिल्म देखने के बाद मन से हटती ही नहीं। दुर्गा खोटे, ए.के. हंगल, बिन्दु, असरानी सभी अपनी सकारात्मक और अहम भूमिकाओं में नजर आते हैं। सचिन देव बर्मन के संगीत से सजे, मजरूह सुल्तानपुरी के गीत- नदिया किनारे, तेरी बिंदिया, लूटे कोई, अब तो है तुमसे, पिया बिना और तेरे मेरे मिलन की ये रैना, आज भी अनुभूतियों के असीम संसार में ले जाते हैं।
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