गुलजार साहब ने विशाल भारद्वाज की फिल्म इश्किया में एक गाना लिखा था, दिल तो बच्चा है जी। बड़ा चर्चित हुआ था। फिल्म भले उतनी न चली हो मगर उसकी अलग-अलग तरहों से चर्चा होती रही। आलोचकों ने उसकी आलोचना करते हुए भी कुछ पक्षों को सराहा था। बाद में अच्छे नामों को तरसती मुम्बइया फिल्म इण्डस्ट्री के एक निर्माता और निर्देशक मधुर भण्डारकर को इसी नाम पर फिल्म बनाने की इच्छा हो गयी। इच्छा क्या हो गयी, गम्भीर फिल्म बनाते-बनाते चुटीले विषय पर हाथ आजमाने का मन हुआ तो तीन युवाओं की कहानी सोची-विचारी पर नाम वही रखा, दिल तो बच्चा है जी। अब इस फिल्म का प्रोमो आ रहा है। अजय देवगन हैं, इमरान हाशमी हैं और ओमी वैद्य हैं। तीनों की अलग-अलग कहानियाँ हैं। फिल्म के प्रोमो में सभी कलाकारों के अलग-अलग दृश्य हैं, संवाद बहुत कुछ चुटकुलेनुमा लगते हैं।
आजकल हँसने के लिए खूब सारे चुटकुलों का ज्ञान हासिल करना और उसमें विशेषज्ञता हासिल करना जरूरी है, वो हर कहीं काम आ जाते हैं, हास्य कवि सम्मेलनों से लेकर फिल्मों तक। अपने से लेकर परायों तक के चुटकुलों का लगातार शोध करते रहना और वक्त पडऩे पर तुरन्त सुनाकर आगे बढ़ जाना तात्कालिक सफलता का एक तरह से नुस्खा हो गया है। हास्य के कई मंचीय कवि, अक्सर एक-दूसरे के चुटकुलों को अपना कहा करते हैं और कई बार एक ही मंच पर चार कवि एक ही जैसे चुटकुलों की तैयारी से आते हैं, खैर। मधुर भण्डारकर ने इससे पहले हास्य फिल्म नहीं बनायी थी। लीक से हटकर सिनेमा बनाने में उनकी पहचान बड़ी जल्दी स्थापित हुई। मधुर के लिए, जिन्होंने चांदनी बार, सत्ता, कार्पोरेट, फैशन जैसी महत्वपूर्ण फिल्में बनायीं यह उपलब्धि कम नहीं है कि पिछले दिनों सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने उनकी फिल्मों के प्रिन्ट्स पुणे स्थित भारत सरकार के राष्ट्रीय फिल्म अभिलेखागार में संग्रहीत किए जाने का निर्णय लिया है।
अपनी अर्थपूर्ण फिल्मों के लिए ऐसे सम्मान को पाने वाले मधुर, दिल तो बच्चा है जी, के रूप में कैसी फिल्म बना रहे हैं यह जल्द ही दर्शकों को मालूम ही हो जाएगा, यद्यपि इसकी चैनलों में दिखायी देने वाली झलकियों में संवाद उसी तरह की आधुनिकता लिए हुए हैं जो वक्त-वक्त पर हमें शर्मसार करने के खूब काम आती है। अपने स्तम्भ में पिछले दिनों हमने ऐसी ही एक-दो फिल्मों की चर्चा की भी थी। दिल तो बच्चा है जी, उसी अन्दाज की फिल्म लगती है, इतना जरूर है कि मधुर ने उसे उस स्तर तक जाने नहीं दिया होगा कि बीप का इस्तेमाल करना पड़े। दरअसल बच्चों की गुस्ताखियों के लिए उनके हमदर्द, उसके बच्चे होने का हवाला ही देते हैं मगर अनुशासन सिखाने वाले इस बात के पक्ष में होते हैं कि गुस्ताखियों के लिए बच्चे के भी कान खींचने में गुरेज नहीं करना चाहिए। उम्मीद है, मधुर की यह बच्चा शैली की रोमांटिक फिल्म गुस्ताख नहीं होगी।
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