शनिवार, 30 अप्रैल 2011

शम्मी कपूर के दोहरे रोमांस की प्रोफेसर


शम्मी कपूर एक असाधारण जीवट वाले इन्सान हैं। अपनी एक खास किस्म की अदा और अभिव्यक्ति रचने वाले और उसी से हिन्दी सिनेमा में लगातार चार दशकों तक लोकप्रियता के साथ बने रहने वाले इस कलाकार में आज भी गहरी जिजीविषा है। शायद उनका डायलिसिस हर दूसरे दिन होता है मगर कुछ दिन पहले उन्होंने अपने पोते रणबीर कपूर के साथ उसकी एक फिल्म में छोटा सा रोल भी किया, ऐसे शम्मी कपूर के प्रति आदर व्यक्त करते हुए इस रविवार उनकी एक दिलचस्प कॉमेडी फिल्म प्रोफेसर की चर्चा करना पहली ऐसी फिल्म को याद करना है जिसमें एक नायक दो चरित्र जीता है और दोनों में गजब विरोधाभास भी है।

प्रोफेसर का प्रदर्शन काल 1962 का है। वह दौर महानायकों के साथ-साथ रोमांटिक छबि के नायकों की भी खूब पूछ-परख का था। शम्मी इस काल में खूब पसन्द किए जाते थे। प्रोफेसर का नायक दोहरी जिन्दगी जीने के लिए मजबूर है। कहानी में भावुकता का मसाला शुरू में ही अपना काम करके कहानी को आगे बढ़ा देता है। पढ़ा-लिखा बेरोजगार नायक काम की तलाश में है। बूढ़ी माँ का इलाज कराना है, घर में खाने तक की कठिनाई है। ऐसे में एक प्रोफेसर की नौकरी सामने है जिसमें बूढ़ा होना जरूरी है। नायक बूढ़ा होकर उस परिवार की तानाशाह प्रौढ़ स्त्री के सामने खड़ा होता है और उसके सख्त निर्देशों का पालन करते हुए नौकरी शुरू करता है। काम दो लड़कियों को पढ़ाने का है।

जवान और खूबसूरत लड़कियों के लिए नायक भला सारे समय कैसे दाढ़ी लगाये, लाठी टेककर, खाँसते हुए अपना वक्त बरबाद कर सकता है, लिहाजा उनके लिए उसका जवाँ रूप। जवाँ होकर हीरो गाने गाकर, परेशान कर आखिरकार नायिका की मोहब्बत हासिल करता है मगर साथ ही उसकी बूढ़ी छबि से एक और मोहब्बत हासिल होती है और वह है उस प्रौढ़ा अविवाहित महिला की जिसकी भतीजियों को प्रोफेसर साहब पढ़ा रहे हैं। सारी फिल्म अब इस दो धरातल पर रोचक प्रसंग रचती है, हास्य के दृश्य उपस्थित करती है और दर्शकों का मनोरंजन करती है। अन्त में जाहिर है, खुलासा होता है कहें या भाण्डा फूटता है कहें, बहरहाल बहुत सहज और सुरुचिपूर्ण विषय निर्वाह के कारण फिल्म क्लायमेक्स में तनाव की स्थितियों को भी आसानी से सुलझाने में कामयाब होती है।

लेख टण्डन निर्देशित इस फिल्म में शम्मी कपूर ही केन्द्र में हैं, दूसरी मजेदार भूमिका ललिता पवार की है। नायिका कल्पना एक सहज सामान्य किरदार की तरह फिल्म में हैं। फिल्म में कोई खलनायक नहीं है, खुद की खड़ी की गयी समस्याएँ हैं और खुद के ही ढूँढे गये समाधान। फिल्म का गीत-संगीत अच्छा है, शंकर-जयकिशन की संगीत रचनाओं का अपना आकर्षण है और गाने हमारे गाँव कोई आयेगा, ऐ गुलबदन, खुली पलक में झूठा गुस्सा, आवाज दे के हमें तुम बुलाओ आदि यादगार हैं आज भी।

शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों का अस्तित्व


मनुष्य के जीवन में विलासिता के कुछेक आयाम निर्धारित हैं, जैसे धूम्रपान, मद्यपान, ऐश और भी तमाम जाने। इन आयामों में एक आयाम सिनेमा देखना भी जुड़ गया है। ऐसा नहीं कि सिनेमा आदमी पहले देखता नहीं था, देखता था मगर तब शायद वह विलासिता की श्रेणी मेें उतना नहीं आता रहा होगा, जितना आज। तीस-चालीस साल पहले परिवार का बच्चा सिनेमा देख ले, यह सम्भव ही नहीं था, साथ ले जाने की बात तो दूर। चोरी-छुपे स्कूल-कॉलेज का छात्र यदि सिनेमा देखता हुआ किसी परिचित की निगाह आ गया तो उसकी शामत तय हुआ करती थी। बाद में माँ-बाप ने भी डराना छोड़ दिया और बच्चे के दिल और दिमाग से भी डर जाता रहा।

सिनेमा मनोरंजन में शामिल हुआ। धीरे-धीरे, आधुनिक जगत में जब मम्मी-पापा, फ्रेण्ड की तरह होने लगे तब सब मिलकर देखने लगे। इधर सिनेमा बनाने वालों, सिनेमा लगाने और दिखाने वालों ने भी तेजी से आधुनिकता का चोला पहना और एक से बढक़र एक आलीशान सिनेमाघर बनाये। सोफे की कुर्सियों की तरह पसर कर बैठने वाले सिनेमाघर, पच्चीस-पचास रुपए की कॉपी-चाय और पॉपकार्न परोसने वाले सिनेमाघर, चार दरवाजों से चार-चार स्क्रीन के सामने ला खड़े करने वाले और सब जगह अलग-अलग किस्म का सिनेमा दिखाने वाले सिनेमाघर। हम सभी की जीवनशैली में यह सब कब दाखिल हुआ और रच-बस गया पता ही नहीं चला, बस हम इसके आदी हो गये तब जाकर होश में आये।

ऐसे में एक मित्र ने बात छेड़ी कि भैया, देश में अब सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों का अस्तित्व समाप्त हो रहा है। एक-एक करके जाने कितने सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर बन्द हो गये हैं। वाकई स्थिति ऐसी ही है। जिस शहर में पन्द्रह-बीस सिनेमाघर हुआ करते थे उस शहर में पाँच सिनेमाघर हो गये हैं, सिने-प्लेक्स के नाम पर। कुछेक मल्टीप्लेक्स, आयनॉक्स बन गये हैं। ऐसे में अब न तो सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों तक अच्छी फिल्म पहुँच पाती है और न ही अस्तित्व को बनाये रखने लायक कमाई ही हो पाती है। तब क्या हो, बन्द न हों तो क्या हो?

सिनेमा, अपनी परम्परा में बहुत सारे अनुभवों को हमसे विस्मृत कर गया है। अब सबसे आगे बैठकर देखने वाला क्लास नहीं रहा। न्यूज रीलें नहीं रहीं, जन गण मन नहीं होता, ट्रेलर नहीं दिखाये जाते, फिल्म शुरू होने के पहले चार-पाँच गाने नहीं होते। हम सब धक्के और धकेले जाने की संस्कृति और जीवनशैली के शिकार हैं अब, छोटे शहरों से सुदूर अंचलों तक सिनेमाघर का चिर-परिचित बड़ा पुराना अस्तित्व अब समाप्त हो रहा है।

गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

बयान से बयाँ होते रिश्ते


शत्रुघ्र सिन्हा, भोजपुरी भाषा के एक चैनल में शीघ्र प्रसारित होने वाले कार्यक्रम कौन बनेगा करोड़पति के प्रस्तुतकर्ता यानी होस्ट होने को तैयार हो गये हैं। उनसे कुछ लोगों ने पूछा कि उनका कौन बनेगा करोड़पति, किस तरह अमिताभ बच्चन के प्रभाव से मुक्त रहेगा तो उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि यह धारावाहिक पूरी तरह अमिताभ की छाया या प्रभाव से मुक्त होगा। शत्रुघ्र सिन्हा भूलकर भी यह नहीं चाहते कि उनके काम पर अमिताभ बच्चन की छाया या प्रभाव की बात उनसे कोई करे।

यह आन्तरिक विभेद आज का नहीं बल्कि बड़े पुराने जमाने का है जब दोनों नायक के रूप में अपनी-अपनी पारी खेल रहे थे। अमिताभ बच्चन फिल्मों में नये-नये आये थे। ख्वाजा अहमद अब्बास की फिल्म सात हिन्दुस्तानी और सुनील दत्त की फिल्म रेश्मा और शेरा में उनको जिस तरह की भूमिकाएँ बड़े प्रयत्नों से मिलीं थीं, उससे कुछ बनने वाला नहीं था। इधर शत्रुघ्र सिन्हा पुणे फिल्म इन्स्टीट्यूट से डिप्लोमा करके पूरी ठसक के साथ फिल्मों के लिए भाग्य आजमा रहे थे। उनको नकारात्मक भूमिकाएँ मिल रही थीं मगर उसका भी अपना प्रभाव था। जब अमिताभ बच्चन जंजीर और दीवार से हिट हो गये तब तक शत्रुघ्र सिन्हा भी खलनायक की भूमिकाओं से ऊब कर नायक बनने के प्रयास में लगे। कालीचरण जैसी फिल्म से उनको खासा फायदा हुआ।

सफलता के दिनों में अमिताभ बच्चन पर अपने साथी कलाकारों की भूमिकाओंं को प्रभावित करने के कथित आरोप भी लगा करते थे। उस समय अमिताभ बच्चन के साथ धर्मेन्द्र, विनोद खन्ना, शत्रुघ्र सिन्हा, विनोद मेहरा, शशि कपूर आदि कलाकार एक साथ कई फिल्मों में काम किया करते थे। आरोपों के इर्दगिर्द यह भी देखने में आया कि शशि कपूर को छोडक़र लगभग सभी अभिनेता, अमिताभ बच्चन के साथ काम करने के अनिच्छुक रहने लगे। शत्रुघ्र सिन्हा उन दिनों अकेले ऐसे कलाकार थे जो उनके साथ टक्कर की भूमिकाएँ ही स्वीकार करते थे। निर्देशक भी इस बात का ख्याल रखते थे कि शत्रुघ्र, बच्चन के सामने किसी भी तरह कमजोर न पड़ें।

दोस्ताना, नसीब, काला पत्थर, शान आदि फिल्में इस बात की गवाह हैं कि शत्रु, दृश्यों, भूमिकाओं और संवादों में अमिताभ से उन्नीसे नहीं पड़े। पत्र-पत्रिकाओं में भी दोनों के रिश्तों को लेकर बराबर ऐसा लिखा गया है जिससे जाहिर होता रहा कि दोनों में रिश्ते कम से कम दोस्ताना नहीं हैं, एक-दूसरे के कद्रदाँ होने वाले बयानों की औपचारिकताओं को यदि छोड़ दें तो बात और है। यह शत्रुघ्र सिन्हा में ही दमखम है कि वे अभिषेक की शादी में निमंत्रित न किए जाने के बाद बच्चन साहब के घर से आने वाली मिठाई स्वीकार न करें। ऐसे पूर्व-पाश्र्व के बाद निश्वित ही शत्रुघ्र सिन्हा, भोजपुरी में कौन बनेगा करोड़पति को लेकर पूरे सावधान रहेंगे और सजग भी, इसका विश्वास निरर्थक नहीं है।

बुधवार, 27 अप्रैल 2011

तमन्नाएँ, आशा जी और माई फिल्म


आशा भोसले लगभग अस्सी वर्ष की उम्र में एक नयी पारी की शुरूआत करने जा रही हंै। यह पारी है अभिनय की। अभिनेत्री पद्मिनी कोल्हापुरे उनकी दूर की रिश्तेदार हैं। इन दिनों वे हिन्दी-मराठी में फिल्मों का निर्माण किया करती हैं। उनकी भी यह एक अलग तरह की पारी है जो उनके निर्माता पति से अलग है। एक अभिनेत्री के रूप में पद्मिनी का समय बहुत उत्साहजनक नहीं रहा तो बहुत निराशाजनक भी नहीं। शादी के बाद पति टूटू शर्मा के साथ सहयोग करतीं पद्मिनी परदे से दूर हो गयी थीं।

कुछ समय पहले फिल्म निर्माण से उनकी वापसी हुई। प्रतिभाशाली निर्देशक राकेश चतुर्वेदी ने उनको बोलो राम में एक बहुत अच्छी भूमिका दी थी। इस फिल्म में उनकी छोटी मगर केन्द्रित करने वाली भूमिका थी। इस सक्रियता ने उनको फिर अभिनय की तरफ प्रेरित किया मगर फिल्म निर्माण उनकी अभिरुचियों में शामिल रहा। इधर वे आशा भोसले के साथ एक महत्वपूर्ण फिल्म माईं को लेकर चर्चा में हैं। इसका मुहूर्त पिछले दिनों विख्यात निर्देशक यश चोपड़ा की उपस्थिति में सम्पन्न हुआ। इस फिल्म की सबसे बड़ी विशेषता यही थी कि आशा भोसले, फिल्म माई के नाम के अनुरूप केन्द्रीय भूमिका में अपने एक दूसरे आयाम का आरम्भ करने जा रही हैं।

आशा जी के लिए एक भावुक अनुभव, एक पारिवारिक सच यह है कि उनकी माँ को माईं ही कहा जाता था। लता जी, आशा जी, ऊषा, मीना, हृदयनाथ मंगेशकर सभी अपनी माँ को माईं कहते थे। माईं मंगेशकर के नाम से ही वे जानी जाती रहीं। आशा जी इस अनुभूति की भावुकता को इस फिल्म का हिस्सा बनने के साथ से ही जी रही हैं। वे कहती हैं कि अभिनय करने की बात को लेकर उनको अपने मन में किसी भी तरह की परेशानी का अनुभव नहीं हो रहा है, बल्कि वे उत्साहित हैं, इसीलिए यह प्रस्ताव स्वीकार भी किया। माईं, आज के समय में परिवार और अविभावकों की बीच रिश्तों की एक मर्मस्पर्शी कहानी है जिसमें पुत्र-पुत्रियों के दायित्व और संवेदनाओंं की पड़ताल की गयी है। पद्मिनी इस फिल्म में आशा जी की बेटी की भूमिका निबाह रही हैं।

फिल्म की कहानी में एक बुजुर्ग स्त्री जीवन के संध्याकाल में अपने बेटे और बहू की उपेक्षा का शिकार होती है, जिसे आत्मीयता और सम्बल अन्तत: अपनी बेटी से मिलता है। आशा जी ने भारतीय सिनेमा में अपनी सक्रियता की आधी सदी व्यतीत की है। उनकी आवाज की खनक आज भी वही की वही है, जिसका जादू हमेशा सुनने वालों के सिर चढक़र बोलता रहा है। उनके गाने कितने ही आयामों में अपनी अनूठी सम्मोहनीयता रखते हैं। सोचिए, कितना अनुपम अनुभव होगा, उनके मधुर स्वर में संवाद सुनना, उनमें डूबना और उनके स्वर तथा अभिव्यक्त भावों के माध्यम से एक किरदार, माईं को देखना, अनुभूत करना।

मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

स्टेनली का डिब्बा और अमोल गुप्ते


कुछ वर्ष पहले आमिर खान की फिल्म तारे जमीं पर जब प्रदर्शित हुई थी तब उसमें निर्देशक के रूप में आमिर खान का नाम गया था और क्रिएटिव डायरेक्टर के रूप में अमोल गुप्ते का। बहुत से लोग यह जानते थे कि भले ही फिल्म के डायरेक्टर के रूप में आमिर खान का नाम गया हो मगर इस फिल्म की मूल परिकल्पना, लेखक, संवाद और निर्देशन सभी में अमोल गुप्ते का ही प्रभाव था। यह बात अलग है कि सुनिश्चित वजहों के चलते निर्देशन के क्रेडिट को दो धरातलों पर विभाजित कर दिया गया और एक फिल्म की मूल परिकल्पना के पीछे दो नाम आये, एक आमिर का और दूसरे अमोल का।

अमोल गुप्त फिल्म इण्डस्ट्री के लिए नये थे और दर्शक भी उनको उस तरह से नहीं जानते थे इसलिए तारे जमीं पर के समय यह समझौता आसानी से चल गया। अमोल ने इस बात पर सन्तोष कर लिया कि आमिर का हाथ लगे बगैर यह फिल्म न तो इतनी चर्चित हो सकती थी और न ही इस प्रकार दर्शक और समाज को उसके पक्ष में किया जा सकता था। निश्चित रूप से दर्शील सफारी जैसे विलक्षण बाल कलाकार ने इस फिल्म को मनोरंजन के धरातल से एक अलग ऐसे स्थल पर विचारणीय बनाया था जहाँ से हर संजीदा और संवेदनशील इन्सान अपना आत्ममूल्याँकन शुरू करता है। अमोल गुप्ते इस फिल्म को बनाने के कुछ समय बाद ही विशाल भारद्वाज की फिल्म कमीने में नकारात्मक चरित्र के रूप में सामने आये थे। कमीने में उनके किरदार को नोटिस लिया गया, लेकिन तारे जमीं पर का सही और पूरा श्रेय न मिलने की कसक उनमें मन में लगातार बनी रही।

अब जब मालूम हुआ कि अमोल गुप्ते ने अपनी उन्हीं तमाम क्षमताओं के साथ स्टेनली का डिब्बा फिल्म हाल ही में पूरी की है और मई माह के तीसरे सप्ताह में इसका प्रदर्शन होने को है, तो फिल्म को लेकर जिज्ञासा होना स्वाभाविक था। स्टेनली का डिब्बा भी एक अलहदा किस्म के बच्चे की कहानी है जो स्कूल में पढ़ता है। उसकी अपनी बौद्धिक क्षमताएँ और दृष्टि हैं लेकिन साथ-साथ स्कूल में अपने टीचरों रोजी मिस और मिस अय्यर से भी कई सतहों पर उसे जूझना होता है। वर्मा सर उसके जीवन में एक मोड़ लाने का काम करते हैं। वर्मा सर की भूमिका अमोल गुप्ते ने स्वयं निभायी है।

अमोल ने इस फिल्म को लिखा है, निर्देशित किया है, संवाद-पटकथा पर गहरा काम किया है और लगभग उसी ऊर्जा को पूरी छटपटाहट के साथ दोहराने की कोशिश की है जो तारे जमीं पर के वक्त उनके भीतर दब कर रह गयी थी। अमोल गुप्ते, एक अलग माध्यम के सर्जक हैं, उनके काम को पहली बार भी बड़ी गहनता के साथ देखा गया था, उसका आकलन किया गया था। स्टेनली का डिब्बा, उसी तारतम्यता की फिल्म है, जिस पर ध्यान दिया जाना चाहिए।

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

औसत और मझौले मनोरंजन का सिनेमा


यह तो बात हम अपने स्तम्भ में अक्सर किया करते हैं कि इस समय फिल्मों की सफलता जितनी संदिग्ध है उतना ही बड़े निर्माता-निर्देशक और सितारे सामने आने से बचने की स्थितियों में लगे हुए हैं। इस पूरे खाली स्थान का लाभ ले रहे हैं छोटे निर्माता-निर्देशक और ऐसे फिल्म व्यावसायी जो किसी तरह अच्छे स्क्रिप्ट रायटर और अवसर की तलाश में जुटे प्रतिभाशाली युवा निर्देशकों को काम दे रहे हैं और उनसे अपनी फिल्में बनवा रहे हंै।

अभी पिछले कुछ दिनों से यदि कुछेक दम मारो दम और थैंक्यू टाइप फिल्मों को छोड़ दें तो बहुत सारी छोटे बजट की फिल्में रिलीज हुई हैं। इन फिल्मों की सफलता या असफलता दोनों ही सिनेमाघर में अधिकतम दो सप्ताह की होती है। इस अवधि में जो भी लाभ आता है वह या तो लागत के बराबर होता है या लागत से जरा ज्यादा। अपनी फिल्म को हिट मानने के लिए इतना मुगालता काफी है और इसी आधार पर सुपर हिट और बिग हिट मानकर मुम्बई में निर्माता अपने निर्देशक और सितारों को पार्टियाँ दे दिया करता है। यह फार्मूला इस समय खूब जोर पकड़ रहा है।

ऐसी बहुत सी फिल्में महानगरों में रिलीज हो रही हैं मगर दूसरे शहरों में नहीं। इन फिल्मों की रिलीज की नौबत आते-आते, इन शहरों में सिनेमाघर कॉपी वीसीडी बिकना शुरू हो जाती है। यह ऐसा बाजार है जो अपनी तरह, अपनी रफ्तार से ऐसे ही चल रहा है। पिछले सप्ताह तारे जमीं पर वाले दर्शील सफारी की एक फिल्म जोक्कोमोन महानगरों में रिलीज हो गयी, इसके अलावा आय एम के साथ दो डब फिल्में गुलामी की जंजीर और बारूद भी मगर और शहर इनसे वंचित रहे।

अप्रैल का आखिर सप्ताह भी ऐसा ही है। कितनी फिल्में नजर आती हैं, पता नहीं पर प्रदर्शित होने वाली फिल्मों में नॉटी एट फॉट्टी, शोर इन द सिटी और चलो दिल्ली का नाम है। इसमें गोविन्दा की नॉटी एट फॉट्टी का हश्र पूर्वभासित है। शोर इन सिटी के प्रचार और खासकर तुषार कपूर की ग्रे-शेड में उपस्थिति को लेकर आभास होता है, कि यह उससे ज्यादा कारोबार करेगी, जितना इसके निर्माण में खर्च हुआ है।

चलो दिल्ली, भी कम बजट की फिल्म है मगर इसके रोचक प्रोमो देखकर लगता है कि लारा दत्ता और विनय पाठक की उपस्थिति नुकसान में नहीं रखेगी। चलो दिल्ली, एक दिलचस्प सफर है, हालाँकि यह शीर्षक राजनीति में दिल्ली में धरना और प्रदर्शन के लिए इस्तेमाल होता आया है। इस नाम का सिनेमा देखना छोटी-मोटी ही सही मगर एक अच्छी जिज्ञासा तो है ही।

रविवार, 24 अप्रैल 2011

खलनायक परम्परा में दक्षिण के सितारे


हिन्दी सिनेमा में बुरे आदमी के प्रभावी किरदार अक्सर दक्षिण के सिनेमा से लिए जाते हैं। दक्षिण के सिनेमा से यदि नहीं लिए जाते तो दक्षिण भारत के कठोर, कद्दावर शरीर-सौष्ठव तथा निर्मम चेहरे वाले कलाकार रंगमंच और दूसरे माध्यम से भी लिए जाते हैं। मुम्बइया सिनेमा में अक्सर ऐसे कलाकारों की उपस्थिति दर्शक को प्रभावित करती है। अक्सर मारधाड़ और हिंसा वाली फिल्मों में, खलनायक को अधिक शक्तिशाली और क्लायमेक्स में नायक के साथ आखिरी दम तक मुकाबला करने वाले दृश्यों के लिए इस तरह के कलाकारों को लोकप्रियता भी खूब मिली है।

यह बात खास ऐसे समय में करनी पड़ रही है, जब हमारे सामने हिन्दी, तेलुगु, भोजपुरी, मलयालम और तमिल फिल्मों के चर्चित और जाने-पहचाने खलनायक रामी रेड्डी के निधन का समाचार मिला है। रामी रेड्डी की उम्र ज्यादा नहीं थी, बावन वर्षीय यह कलाकार किडनी की बीमारी के चलते चल बसा। रामी रेड्डी का स्मरण करते ही एक हमारे सामने एक ऐसे खल-पात्र की छबि उपस्थित होती है, जिसका चेहरा भावशून्य, अतिशय क्रूरता और निर्मम दृष्टि और लगभग संवादों के बगैर काम चलाकर अपना काम करने वाला हिंसक आदमी, फिल्मों के सकारात्मक चरित्रों पर जुल्म करता है, देखते ही देखते तलवार से परदे पर खून की नदियाँ बहा देता है, छपाक से जिसके चेहरे पर सामने मरते हुए आदमी का खून फैल जाता है, ऐसा कलाकार, जिसके सिर पर बाल भी नहीं हैं।

रामी रेड्डी ने इस तरह के रोल खूब किए। नब्बे के दशक की शुरूआत में उनका आगमन एक सुपरहिट तेलुगु फिल्म अंकुशम से हुआ था जिसके निर्देशक कोडि रामकृष्णा थे। इस फिल्म का रामी रेड्डी का स्पॉट नाना वाला किरदार हिन्दी फिल्म प्रतिबन्ध में भी देखने में आया जिसके नायक चिरंजीवी थे। वे हिन्दी फिल्मों में स्पॉट नाना नाम से ही आगे चले। हिन्दी फिल्मों में जिस तरह से अब खलनायक की उपस्थिति नगण्य और प्रभावहीन है, उसको देखते हुए रामी रेड्डी का निधन उस तरह की सम्भावना को लगातार रिक्त रखेगा जो उनकी वजह से असरदार मानी जाती थी।

दो-तीन वर्ष पहले रघुवरन का लगभग इसी उम्र में देहान्त हो गया था जिन्होंने काफी हिन्दी फिल्मों में काम किया था। एक समय हिन्दी फिल्मों में शेट्टी का जलवा बुलन्द हुआ करता था जो नायक से लडऩे वाले अन्तिम बलशाली और ताकतवर खलनायक के रूप में नजर आते थे। निर्देशक रोहित शेट्टी उन्हीं शेट्टी के बेटे हैं। शेट्टी भी प्रौढ़ उम्र में ही इस दुनिया से चले गये थे।

शनिवार, 23 अप्रैल 2011

आँखों से बड़ी कोई तराजू नहीं होती


सदाबहार अभिनेता धर्मेन्द्र को फिल्म इण्डस्ट्री में इस वर्ष पचास साल पूरे हुए हैं। 1961 में दिल भी तेरा हम भी तेरे से, उनके कैरियर की शुरूआत हुई थी। इस रविवार हमको उनकी 1968 में आयी फिल्म आँखें की चर्चा करना उपयुक्त लगता है जो अपने समय की गोल्डन जुबली हिट फिल्म तो थी ही, इसी फिल्म से धर्मेन्द्र को दर्शकों ने इण्डियन जेम्स बॉण्ड कहना शुरू किया था।

आँखें, अपने दौर की जासूसी फिल्म के तौर पर चर्चित हुई थी। विदेशी षडयंत्र, खासतौर से अवैध हथियारों और तस्करी के माध्यम से हिन्दुस्तान में तबाही मचाने वाली ताकतों को संकेत में रखकर इस फिल्म का तानाबाना बुना गया था। इस फिल्म का नायक सुनील, अपने पिता जो कि खोजी और देश के दुश्मनों को बेनकाब करने वाले अभियान के प्रमुख हैं, के आदेश पर बेरुत जाता है। उसे वो सारी जानकारियाँ प्राप्त करना है कि किस तरह से खुफिया ढंग से दूसरे देश के अपराधी हिन्दुस्तान आकर अपने इरादों में कामयाब होते हैं।

यह एक ऐसा अभियान होता है, जिसमें फिल्म की नायिका मीनाक्षी, उसके दो साथी मिलकर पूरे अभियान को बड़े गुप्त रूप से अन्जाम देते हैं और आखिर में सारा का सारा षडयंत्र सामने आता है, देश के विदेशी दुश्मन भी बेनकाब होते हैं और वे लोग भी पकड़े जाते हैं जो अपने देश में रहकर देशद्रोह कर रहे थे। आँखें, फिल्म में जासूसी और अपराध में प्रयुक्त होने वाले उपकरण, ट्रांसमीटर, कैमरा, रेकॉर्डर आदि का दिलचस्प इस्तेमाल है। अपराधियों और नायक तथा उसके साथियों में शह-मात, लुकाछिपी का खेल फिल्म को रुचिकर बनाता है।

इस फिल्म की एकमात्र मुख्य विशेषता तो धर्मेन्द्र का नायक होना है। एक जाँबाज, बहादुर, शिष्ट और रोमांस के मामलों में शर्मीले इस नायक से नायिका की बातें, उलाहने, फिलॉसफी और गानों का अपना एक अलग आकर्षण है। सुनील, मीनाक्षी की मोहब्बत फिल्म के क्लायमेक्स में कुबूल करता है। साहिर के लिए गीत, मिलती है जिन्दगी में मोहब्बत कभी-कभी, गैरों पे करम, तुझको रक्खे राम तुझको अल्ला रक्खे और शीर्षक गीत, उस मुल्क की सरहद को कोई छू नहीं सकता, जिस मुल्क की सरहद की निगेहबान हैं आँखें अपने समय में खूब हिट हुए थे। फिल्म की शुरूआत में यह शीर्षक गीत हॉल में खूब तालियाँ बजवाता था।

माला सिन्हा फिल्म की नायिका हैं, जिनका अपना जादू है। मेहमूद और धुमाल, मसखरे चरित्र हैं, खास मेहमूद का तो सितारा तब खूब बुलन्द था। नजीर हुसैन, कुमकुम, ललिता पवार, जीवन, मदनपुरी फिल्म के विभिन्न सकारात्मक-नकारात्मक चरित्र हैं। लेखक, निर्माता, निर्देशक रामानंद सागर ने आँखें, फिल्म के सुपरहिट होने से बड़ा लाभ अर्जित किया था।



शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

अपने सरलीकरण में लगे ओम पुरी


आजकल ओम पुरी पर शायद खूब काम करने का जुनून सवार हुआ है। उनको इन दिनों या बल्कि कह लें पिछले चार-पाँच साल में एक के बाद एक खूब फिल्में मिलना शुरू हो गयी हैं। इस दशक के काबिल निर्देशकों ने अर्धसत्य के इस अनंत वेलणकर में एक दिलचस्प मनसुखा तलाश कर लिया है। यही कारण है कि फूहड़ कॉमेडी फिल्मों में वे खूब नजर आ रहे हैं। खासतौर पर जब से प्रियदर्शन ने हास्य फिल्मों को अपनी दृष्टि और परिभाषा प्रदान की है तब से अचानक ओम पुरी अधिक प्रासंगिक हो गये हैं।

हमने एक जमाने में जिन ओम पुरी को दाँत भींचकर, धीमी आवाज में संवाद बोलते देखा था, वे ओम पुरी अब अत्यधिक मुखर हो गये हैं। अब चालू कॉमेडी फिल्मों में उनकी आवाज बुलन्द है। खासतौर पर उन्होंने अपनी संवाद अदायगी और हास्य प्रकट करने वाली क्षमताओं को अनोखे ढंग से प्रयोग करके बाजार में इस तथाकथित बिकाऊ सिनेमा के अनुकूल बना लिया है। अब ओम पुरी हर तरह की फिल्म में काम करते हैं फिर चाहे वो तीन थे भाई टाइप की फिल्म हो या कुछ दिनों में आने वाली अनाम और अचर्चित सी वेस्ट इज वेस्ट टाइप की फिल्म। अब उनके लिए किरदार को जीने की समस्या नहीं है। वे सहजता से कुछ भी हो जाया करते हैं।

हालाँकि लगभग दो दशक पहले उनके साथी और नये सिनेमा में उनसे कुछ अधिक ही रेंज रखने वाले नसीर भी पटरी बदल चुके हैं। जब वे तिरछी टोपी वाले जैसा गाना गाकर ओये ओये करने लगे थे तब उनके चहेते दर्शकों के मन में यह प्रश्र कौंधा था, कि नसीर किस रास्ते पर हैं पर नसीर ने किसी की परवाह नहीं की। वे व्यावसायिक सिनेमा में अपनी पूछ-परख को लगातार भुनाते भी रहे। यह अवसर ओम पुरी के पास बहुत देर से आया। नसीर ने मुम्बइया सिनेमा में तमाम तरह की भूमिकाओं को निभाते हुए अपने लिए एक वक्त में अपने लिए चयन का एक मापदण्ड स्थापित कर लिया।

इस समय नसीर फिर मजबूत भूमिकाओं में दिखायी देते हैं और इसी समय उनके साथी ओम पुरी बड़ी सामान्य और निरर्थक किस्म की भूमिकाएँ कर रहे हैं। ओम पुरी का आरम्भ और सक्रियता के दो दशक बेमिसाल हैं मगर फिलहाल वक्त उनके काम की मिसाल देना ज्यादा कठिन जान पड़ रहा है।

सोमवार, 18 अप्रैल 2011

दम लगाओ दम अभिषेक

हाल ही में एक समाचार चैनल इस बात के लिए खास चिन्तित दिखा कि अभिषेक बच्चन के लिए उनकी शीघ्र प्रदर्शित होने वाली फिल्म दम मारो दम, एक तरह से आखिरी मौका है अपने आपको साबित करने के लिए। इस बात की बाकायदा फिक्र करके उसने एक लम्बी-चौड़ी स्टोरी बनायी और देर तक दिखायी। स्टोरी में अभिषेक की पिछली विफल फिल्मों की बातें कही गयी थीं। उनके पूरे कैरियर का आकलन किया जा रहा था। खास मणि रत्नम की रावण से बात शुरू होकर गेम से होती हुई बार-बार दम मारो दम पर आकर ठहर जाती थी।

वास्तव में यह एक बड़ी विडम्बना है कि महानायक के पुत्र को अपने आपको साबित करने के लिए लगातार मेहनत करनी पड़ रही है और बावजूद इसके वो सफलता नहीं मिल पा रही है, जिसकी उनको जरूरत है। जे.पी. दत्ता की रिफ्यूजी से कैरियर की शुरूआत करने वाले अभिषेक, देखा जाये तो एक फिल्म भी अपनी क्षमताओं के बल पर सफल नहीं दे पाये। यह बात गौरतलब है कि अभिषेक को लेकर सभी बड़े और प्रतिभाशाली निर्देशकों ने फिल्में बनायीं। और इन सभी की वे फिल्में फ्लॉप होती चली गयीं। इस सितारे के लिए हर बैनर, हर चर्चित निर्देशक तत्पर दीखा, चाहे वो यशराज फिल्म्स हो या धर्मा प्रोडक्शन्स। मणि रत्नम हों या आशुतोष गोवारीकर, रामगोपाल वर्मा हों या जे.पी. दत्ता।

रमेश सिप्पी के बेटे रोहन सिप्पी, रमेश बहल के बेटे गोल्डी बहल, करण जौहर और भी कई नाम इसी सन्दर्भ में जेहन में आते हैं। लगातार विफलताओं ने अभिषेक बच्चन के स्वभाव में भी एक तरह की खिन्नता का स्थायी भाव ला दिया है। रावण के प्रदर्शन के पहले वे विभिन्न शहरों के पत्रकारों, दर्शकों से एक चैनल के जरिए सीधे बात कर रहे थे, जिसमें वे संयत जवाब दे पाने में असमर्थ लग रहे थे और झुंझलाहट ज्यादा थी। अभी एक चैनल में तीन महिला पत्रकार उनसे प्रश्र कर रही थीं, उस वक्त भी वे इस बात को लेकर खीज रहे थे कि दोस्ताना से लेकर पा तक कितने ही अच्छे काम किए पर उसके श्रेय या तो जॉन को गये या बच्चन साहब को, मैंने तो कुछ किया ही नहीं।

यह खिन्नता उनको सामान्य बर्ताव से दूर ले जा रही है। हिन्दी सिनेमा में इस समय नायकों का जो परिदृश्य है, उसमे स्पर्धा वरीय लोगों सलमान, शाहरुख और आमिर में जबरदस्त है। अक्षय कुमार का कोई स्पर्धी नहीं है मगर वह अपने आपमें नुकसानरहित है, निर्माताओं के लिए। हिृतिक, नील, रणवीर का अपना बड़ा मार्केट है। ऐसे में अभिषेक अपनी क्षमताओं को समृद्ध किए बगैर चल नहीं सकते और असहजता बरतने से तो और दूर हो जायेंगे वे सफलता और लक्ष्यों के। क्या कोई सच्चा शुभचिन्तक उनको समझा पायेगा?

शनिवार, 16 अप्रैल 2011

नायक का मौन प्रायश्चित और काला पत्थर

1979 में आयी काला पत्थर, विख्यात निर्देशक यश चोपड़ा की वो फिल्म थी, जिसने दीवार और त्रिशूल के बाद अपेक्षाकृत कम आर्थिक लाभ अर्जित किया था और श्रेष्ठता के मापदण्ड पर समीक्षकों ने, बावजूद एक साथ अनेक बड़े सितारों की मौजूदगी के, इस फिल्म को कमतर ठहराया था लेकिन कुछ संजीदा समीक्षकों का मानना यह भी था, कि किसी बड़े निर्देशक का विफल प्रयोग एकदम से खारिज नहीं किया जाना चाहिए। हिम्मत जुटाकर ऐसी फिल्म देखना जरूर चाहिए क्योंकि आखिरकार वह काम खराब नहीं है, बल्कि समय विशेष में वह किन्हीं कारणों से उत्साहजनक ढंग से ग्राह्य नहीं हुआ है।

यह फिल्म एक नजर में तो कोयले की खदान में काम करने वाले मजदूरों की जिन्दगी, उनके सुख-दुख और विडम्बनाओं को टटोलती है, लेकिन साथ ही साथ इस तरह का कारोबार करने वाले धनपतियों की लिप्सा, महात्वाकाँक्षाएँ और अपराधवृत्ति को भी रेखांकित करती है। इस वातावरण के साथ ही फिल्मकार ने कुछ प्रमुख चरित्र भी गढ़े हैं जो सकारात्मक और एक-दो ग्रे-शेड के हैं मगर उनके भीतर-बाहर के द्वन्द्व, जिन्दगी को देखने-जीने का ढंग और ठसक सभी की बानगी कहीं न कहीं बांधती अवश्य है।

कोयले की खदान में जहाँ हजारों मजदूर रोज सुबह सायरन बजने के साथ ही जमीन से सैकड़ों फीट नीचे जाते हैं, शाम होने पर बाहर आ पायेंगे या नहीं या कौन नहीं आ पायेगा इसको लेकर डर और अन्देशे हैं क्योंकि मालिकों को मजदूरों की जान-माल की परवाह नहीं है। एक युवक विजय यहीं पर मजदूर की जिन्दगी बिता रहा है जो हमेशा मौन रहता है। एकान्त उसको किसी समय लिए गये एक गलत निर्णय और उसके परिणामस्वरूप ध्वस्त हो गये उसके भविष्य की याद दिलाता है। नेवी का यह केप्टन, अब स्याह परिवेश में एक तरह की सजा भोग रहा है। एक इन्जीनियर है जो इस खदान में नियुक्त होता है और गलत हो रहे का विरोध करता है। एक जेल से भागा हुआ अशिष्ट और अकड़बाज किरदार है।

काला पत्थर, सचमुच बदले वक्त में एक बार फिर देख लेने वाली फिल्म लगती है। अमिताभ बच्चन इस फिल्म में विजय की भूमिका में अपनी क्षमता का सब कुछ दाँव पर लगाते हैं। फिल्म में शशि कपूर, शत्रुघ्र सिन्हा, राखी, परवीन बॉबी, नीतू सिंह और मेहमान भूमिका में संजीव कुमार महत्वपूर्ण किरदार हैं। सलीम-जावेद की लिखी इस फिल्म के गाने साहिर के हैं और संगीत सलिल चौधुरी और राजेश रोशन का। एक रास्ता है जिन्दगी, धूम मचे धूम, बाँहों में तेरी मस्ती के घेरे, मेरी दूरों से आयी बारात आदि सभी गाने अपने समय के लोकप्रिय और यादगार हैं।

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

मेरा नाम है कैलेण्डर

सतीश कौशिक को उनकी क्षमताओं, काया और अभिव्यक्त होने वाले पक्ष के लिहाज से थमे हुए हिन्द महासागर की उपमा से जोड़ा जाये तो शायद कोई अतिश्योक्ति न हो। ऐसा इसलिए कहने को आता है कि लगभग तीन दशक सिनेमा में अपनी निरन्तर उपस्थिति के बाद भी इस कलाकार के भीतर की क्षमताएँ और प्रभाव मात्र तीस प्रतिशत से भी कम सामने आये होंगे। सतीश कौशिक आज निश्चित ही एक भारी भरकम काया हैं मगर शुरूआत में बड़े मझौले से दीखते थे जब फिल्मों में आये थे। रवीन्द्र धर्मराज की फिल्म चक्र देखने वालों को उनका बड़ा जिद्दी और लम्पट सा किरदार शायद याद हो, छोटी सी भूमिका, झोपड़पट्टी के एक गुण्डे की।

मुकम्मल सतीश कौशिक को नहीं जानने वाले, यह भी नहीं जानते होंगे कि वे अभिनय से ज्यादा निर्देशन का जुनून पालकर रखते हैं और शेखर कपूर जैसे फिल्मकार के सहायक और कई फिल्मों के पटकथा एवं संवाद लेखक भी रहे हैं शुरू में। पिछले साल इन्हीं दिनों में उनकी एक अच्छी फिल्म रोड मूवी आयी थी। इस बात वे बताते हैं कि डेविड धवन की फिल्म रास्कल में एक अच्छा रोल कर रहा हूँ।

सतीश कौशिक की परदे पर उपस्थिति और उनके किरदार बहुत मनोरंजन देते हैं। वे इस दौर में परेश रावल के ही समान अच्छे हास्य की सिचुएशन्स को रचने और व्यक्त करने में बहुत जोर नहीं लगाते। कैरेक्टर और उसका मिजाज, एक तरह से उनसे स्व-स्फूर्त होकर आता है। लगता नहीं कि उनके किरदार के लिए निर्देशक उनको अलग बैठाकर समझाता होगा या प्रस्तुति के लिए बड़ा चिन्तित होता होगा। अपना हिस्सा बखूबी अदा करने में उनको महारथ हासिल है। सतीश कौशिक वक्त का मिजाज देखकर काम करते हैं। काम जरूर कम करते हैं मगर खास काम के लिए कई बार निर्माताओं को उनके सिवा दूसरा नहीं मिलता। विफल होने के बावजूद रूप की रानी चोरों का राजा, उनकी एक बेहतरीन फिल्म है बतौर निर्देशक।

मिस्टर इण्डिया का एक यादगार किरदार हैं कैलेण्डर सतीश कौशिक। नायक का दोस्त जो दोस्त के जुनून और उसकी संवेदना में उसके साथ है और अनाथ बच्चों को खाना बनाने और खिलाने के काम में लगा रहता है। एक एक कॉमिक किरदार है मगर संवेदना से भरा हुआ। अगर एक बार सतीश कौशिक के नजरिए से मिस्टर इण्डिया देखें तो मजा अलग सा आयेगा। अपने स्तम्भ में उनके एक श्रेष्ठ नाटक सेल्समेन रामलाल की चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं जो रंगदर्शकों के लिए, खुद सतीश कौशिक के लिए मील का पत्थर है।

सिनेमा को दरअसल सतीश कौशिक से बहुत सा काम कराना चाहिए, उनको खाली बैठने नहीं देना चाहिए। अभिनय में खासकर और निर्देशन में भी उनका बहुत सा उत्कृष्ट आना बाकी है।

गीत रचनाओं का सदाबहार होना

हिन्दी फिल्मों में आज जिस तरह के गीत हमें सुनने को मिलते हैं उनको लेकर वैसे ज्यादा कुछ बात करते बनता नहीं है मगर फिर भी कई बार ऐसे विषय पर चर्चा करना इसलिए प्रासंगिक लगता है कि जब हम बीसवीं सदी के इस चमत्कारिक माध्यम को उसके सौवें साल में अपनी पहचान खोते देखें तो उसके कई मूलभूत कारकों की भी कैफियत ले लेनी चाहिए। गीत लेखन एक ऐसी विधा है जिसमें हिन्दी सिनेमा को समृद्ध करने में शायरों का बड़ा खास योगदान रहा है। ऐसे नामों की बड़ी लम्बी सूची है।

सवाक सिनेमा के लगभग पहले चार दशक यदि गीतों के मान से बड़े उल्लेखनीय और अविस्मरणीय माने गये तो उसके पीछे निश्चित ही ऐसे कवियों और शायरों की भूमिका रही है जिन्होंने निर्देशक और कलाकार के साथ बैठकर कहानी सुनी, उसकी सिचुएशन को जाना और तमाम रायशुमारी, मशविरे के बाद गाने बनाये। उन गानों पर चर्चा हुई, खासतौर पर एक दौर में गानों को लेकर लम्बी सिटिंग्स का दौर चलता था जिसमें धुनों को लेकर बात होती थी, मजमून पेश किए जाते थे, परिष्कार की बात चलती थी, सहमतियाँ-असहमतियाँ बनती थीं और बड़ी जद्दोजहद के बाद गाना तैयार होता था।

गाना तैयार होने की भी कथाएँ-उपकथाएँ हुआ करती थीं, कैसे गाना एकदम से बन गया और कैसे गाना तैयार होने में कई दिन लग गये और फिल्मांकन में तो पता चला, महीनों खर्च हो गये। मगर ऐसी तैयारी से जो आस्वाद दर्शक-श्रोता को आता था, वह पीढिय़ों में हस्तांतरित हो जाता था। तभी आज भी तीस-चालीस साल की उम्र के युवा, अपने पिता के जमाने के गानों का चयन अपनी सुरुचि के हिसाब से करते हैं और मौके-मौके पर सुनकर आनंद का अनुभव करते हैं। कितनी ही कारों में यादगार, सदाबहार गीतों की सीडियाँ बजा करती हैं, जिनमें लता मंगेशकर, तलत महमूद, मुकेश, हेमन्त कुमार, सहगल, वाणी जयराम, सुमन कल्याणपुर, आशा भोसले, गीता दत्त के गाने हमें उड़ा के जैसे किसी कल्पनालोक में ले जाया करते हैं।

आज का समय किसी ऐसे गीत-संगीत के सामने आने का नहीं है, जिसका महत्व आगे जाकर धरोहर के रूप में स्थापित हो। नहीं लगता कि बीस-पच्चीस साल बाद की पीढ़ी बड़े तन्मय होकर शीला की जवानी गाना सुनते हुए डूब जायेगी और इस दौर को याद करेगी।

फिर पारियों का मोह जगा है

नब्बे के दशक की तीन अभिनेत्रियाँ इस समय एक बार फिर रुपहले परदे पर आने की खासी इच्छुक दिखायी देती हैं। ये अभिनेत्रियाँ हैं श्रीदेवी, माधुरी दीक्षित और जुही चावला। अपने समय में इन अभिनेत्रियों में ही नम्बर वन की दौड़ परस्पर रही है। यद्यपि तीसरे नम्बर पर जिनका नाम है, वो जुही चावला, सभी की पसन्दीदा रहीं। परदे पर उनका चेहरा, चुहल और हँसी सभी को मोहित करती रही, सभी बड़े नायकों के साथ उन्होंने काम भी किया मगर वे नम्बर वन तक नहीं आ पायीं। बहुत सक्रिय तौर पर वे ऐसी स्पर्धा का हिस्सा भी नहीं रहीं।

श्रीदेवी जाहिर तौर पर नम्बर वन की जगह पर रहीं। यह रुतबा रेखा के बाद उनको हासिल हुआ। कमल हासन से लेकर अमिताभ बच्चन तक की नायिका वे बनीं और खूब लोकप्रिय हुईं। श्रीदेवी ने अपना मैनरिज्म ऐसा बना लिया था कि दर्शक की एकाग्रता उनकी तरफ नायक के बराबर ही होती रही। चांदनी, लम्हें से होते हुए मिस्टर इण्डिया तक उन्होंने अपने कैरियर में लोकप्रियता के चरम को स्पर्श किया और फिर अचानक बोनी कपूर से शादी करके फिल्मों से दूर हो गयीं। माधुरी दीक्षित ने उनका स्थान लिया जिनको उनके गॉडफादर सुभाष घई ने लम्बा इन्तजार कराया मगर वे लोकप्रिय हुईं एन. चन्द्रा की तेजाब से।

श्रीदेवी ने जिस जगह से अवकाश लिया था, माधुरी दीक्षित उसी जगह से आगे बढ़ीं और फिर बहुत आगे गयीं। वे अनिल कपूर की स्थायी नायिका बनकर प्रसिद्ध हुईं मगर उन्होंने शाहरुख खान, आमिर खान, सलमान खान, संजय दत्त और जैकी श्रॉफ के साथ भी काम किया। माधुरी दीक्षित के सम्मोहन और सौन्दर्य से मुग्ध दर्शक और मुरीद सभी इस बात को लेकर बड़े व्याकुल रहते थे कि उनका दूल्हा कौन होगा? कयास फिल्म इण्डस्ट्री के धरातल पर गुप्तचरी करते रहे और अमरीका के डॉ. नैने माधुरी को ब्याहकर अपने साथ ले गये। जुही चावला ने तो खैर हिन्दुस्तान में रहकर ही शादी की और परिवार को समय देना शुरू किया लेकिन तीनों के ही मन से रुपहला परदा गया नहीं। फिल्मों में हर अभिनेत्री को ऐसे असमंजस से गुजरना पड़ा है, भला ये कैसे बचतीं। इस दौर में लेकिन अब सभी का अरमान फिर धीरज का साथ छोड़ता दीख रहा है।

श्रीदेवी फिर लाइम लाइट में हैं, माधुरी हिन्दुस्तान में आकर फिर मुस्करायी हैं वहीं जुही को अपने समय के नायकों पर विश्वास है। विडम्बना यह है कि इनके समय के नायक अभी भी इनकी उम्र से आधी उम्र की नायिकाओं के हीरो बन रहे हैं। ऐसे में इनके किरदार किस तरह गढ़े जायेंगे, यह आने वाले समय में देखना दिलचस्प होगा।

रविवार, 10 अप्रैल 2011

पवन मल्होत्रा और छोटी सी जिन्दगी


हिन्दी सिनेमा में ऐसे बहुतेरे कलाकार हैं जिनकी प्रतिभा असाधारण है मगर जिस तरह से वे किरदार को जिया करते हैं, वैसी दृष्टि रखने वाले फिल्मकार और कहानियाँ अब हमारे यहाँ सम्भव होती नहीं दीखतीं। इसके बावजूद कभी-कभार ऐसे अवसर जरूर आते हैं जब कोई गम्भीर निर्देशक अच्छा काम करना चाहता है तो वह इन कलाकारों की शरण में जाता है और बड़े आदर के साथ अपनी फिल्मों में विशिष्ट किरदारों के रूप में सहभागिता का अनुरोध करता है। ऐसे निर्देशकों-फिल्मकारों को भी इस बात का श्रेय जाता है कि वे ऐसे कलाकारों को अपने साथ लेकर अपना भी मान बढ़ाते हैं और उनका भी।

जीटीवी पर पिछले सप्ताह से एक धारावाहिक छोटी सी जिन्दगी शुरू हुआ है। यह धारावाहिक एक पिता, उसकी दो छोटी बेटियों के बीच घटित हो रहा है। छोटी बेटी के जन्म के समय पत्नी का देहान्त हो गया। बड़ी बेटी, छोटी बेटी का ख्याल माँ की तरह ही रखती है, उसे याद आता है कि किस तरह अन्तिम समय में माँ ने नन्हीं बच्ची बड़ी बेटी की गोद में सौंप दी थी। परिवार बहुत गरीब है। पिता के पास दो समय की रोटी जुटाने का कोई उपाय नहीं है। पिता अपनी बेटियों से बहुत प्यार करता है मगर उसके पास ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि वह बेटियों की परवरिश कर सके। दूसरा ब्याह इसलिए कर लेना चाहता है कि कुछ पैसे मिल जायेंगे मगर सामने वाले की शर्त यह है कि उनकी बेटी, इसकी बच्चियों के साथ नहीं रहेगी। एक निष्ठुर निर्णय पिता लेता है कि बेटियों को अनाथाश्रम छोड़ आता है।

पवन बड़े अरसे बाद परदे पर नजर आये हैं। वे बहुत प्रतिभाशाली कलाकार हैं। तीन दशक में अनेक महत्वपूर्ण फिल्मों के माध्यम से उन्होंने अपने को प्रमाणित किया है। अब आयेगा मजा उनकी पहली फिल्म थी। बाघ बहादुर फिल्म में उनको राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। सईद अख्तर मिर्जा की फिल्म सलीम लंगड़े पे मत रो में उनकी केन्द्रीय भूमिका थी। अन्तर्नाद, सिटी ऑफ जॉय, तर्पण, अर्थ, फकीर, जब वी मेट, दिल्ली छ:, रोड टू संगम, ये फासले, फरहान अख्तर की डॉन और अनुराग कश्यप की ब्लैक फ्रायडे की खास फिल्में हैं। बातचीत में पवन मल्होत्रा एकदम सहज और इस दम्भ से परे हैं कि अपनी श्रेणी और समय में वे एक अनूठे कलाकार हैं। उनकी बातों और मुकम्मल छबि में एक गहरा और कल्पनाशील अभिनेता बसता है।

इस धारावाहिक को करते हुए वे अपनी एकाग्रता और सक्रियता में एक लम्बी उपस्थिति के साथ दर्शकों के बीच में अभी रहने वाले हैं। छोटी सी जिन्दगी में उनके कई सीन भीतर तक विचलित कर देते हैं। छोटी सी जिन्दगी, एक अच्छा प्रकल्प है जिसमें पवन का जुडऩा, उसको समर्थन देना इस बात का प्रमाण है कि वे इस निर्माण के सार्थक मन्तव्य से वाकिफ हैं। इस सीरियल को लेकर चर्चा में पवन कहते हैं कि यह प्रस्तुति आपको बहुत अपनी सी लगेगी, हाँ कुछ कडिय़ाँ आपको निरन्तर और समर्थन भाव से देखना होंगी।



शनिवार, 9 अप्रैल 2011

जागते रहो


हिन्दी सिनेमा के महान शो-मैन स्वर्गीय राजकपूर की फिल्मोग्राफी में जागते रहो फिल्म का एक अलग स्थान है। राजकपूर इस फिल्म के निर्देशक नहीं थे लेकिन अपने समय के मूर्धन्य रंगकर्मी, नाटककार शम्भु मित्र की असाधारण सर्जना, कल्पनाशीलता और सामाजिक यथार्थ को देखने की उनकी दृष्टि के पूरी तरह हवाले करके बनायी गयी थी यह फिल्म जिसमें राजकपूर सिर्फ नायक थे और पैसा लगाने वाले। शेष उनका कोई हस्तक्षेप नहीं। शम्भु मित्र, कोलकाता में रहकर रंगकर्म कर रहे थे। राज साहब के पापा पृथ्वीराज कपूर को समग्रता में ऊर्जा रंगकर्म से ही मिलती थी और उनका लम्बा समय भी कोलकाता में ही व्यतीत हुआ। उसकी समय के परिपक्व और आश्वस्त हुए रिश्तों से यह अनूठी और मील का पत्थर निकलकर आयी, जागते रहो।

इस फिल्म का निर्माण 1956 में हुआ था। शम्भु मित्र ने ही जागते रहो की कहानी और पटकथा पर भी काम किया था। इस फिल्म को कार्लोवी वेरी फेस्टिवल में दिखाया और सराहा गया था। जागते रहो, दो भाषाओं में बनी थी, हिन्दी में यही नाम और बंगला में एक दिन रात्रे। कोलकाता में फिल्मांकित इस फिल्म के माध्यम से महानगरीय जीवन में क्षीण होती व्यवहारिकता, मानवीयता, रिश्ते-नाते और एक-दूसरे को निहारने तक का परस्पर संदिग्ध भाव, उसके पीछे छिपे डर, द्वेष, नफरत, लालच को यथार्थपरकता के साथ चित्रित किया गया था।

फिल्म की कहानी में शहर में रोजी-रोटी की आस में आने वाले एक देहाती की कथा है जो प्यासा है। उसे पानी पीना है। पहली ही नजर में उसे चोर समझ लिया जाता है फिर वह सदैव भागता और बचता ही रहता है। इस भागमभाग में वह कई घरों में हाँफता, सहमा छुपता पनाह लेता है और हर घर में उसे एक कहानी मिलती है। एक कमरे में प्रेमी-प्रेमिका के एकान्त के बीच, एक कमरे मेें अपनी ही पत्नी के जेवर चुराने लगा एक पति और सूने रास्ते पर वेश्या का गाना सुनकर आता एक शराबी जो गा रहा है, जिन्दगी ख्वाब है, ख्वाब में झूठ क्या और भला सच है क्या। श्रेष्ठ कलाकार मोतीलाल पर यह गाना फिल्माया गया है।

फिल्म के क्लायमेक्स में यही हताश और परेशान देहाती, उसको चोर समझकर मारने आती भीड़ को लाठी लेकर ललकारता है तो भीड़ सहम जाती है। फिल्म के अन्त में एक खूबसूरत स्त्री भोर के दृश्य में मन्दिर में, जागो मोहन प्यारे जागो गा रही है, वही इस देहाती को दो चुल्लू पानी पिलाती है। राजकपूर, नरगिस, प्रदीप कुमार, सुमित्रा देवी, नाना पलसीकर, मोतीलाल, पहाड़ी सान्याल आदि मजबूत कलाकारों की सार्थक उपस्थिति इस फिल्म को अपने समय में ही नहीं बल्कि स्मरण किए जाने के भी समकाल में प्रभावित करने और प्रासंगिक लगने वाली है। प्रेम धवन और शैलेन्द्र ने जागते रहो के गीत लिखे थे, सलिल चौधुरी संगीतकार थे।

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

जया आज भी वही गुड्डी


लगता नहीं कि उनके जन्मदिन के दिन जलसा या प्रतीक्षा के सामने हजारों लोग बेकाबू होकर खड़े रहा करते होंगे। उन्होंने अपने निरन्तर सिनेमाई कैरियर में विभिन्न किस्म की भूमिकाएँ करते हुए भी जिस गरिमा को जिया है, वह अनूठी है। उनकी रेंज को सिनेमा में, खासतौर पर कुछ विशिष्ट फिल्मों में उनके किरदारों को देखते हुए अनुमान कर पाना कठिन होता है। अपने स्पेस में उनका मौन बहुत कुछ कहता है। उनका हँसकर सहज होते हुए संवाद बोलना, उनकी सर्वथा अलग नजर आने वाली निश्छलता में दर्शक को ऐसा कौतुहल प्रदान करता है, जो किसी और कलाकार से सम्भव नहीं है। उनकी दृष्टि से उनके किरदार का द्वन्द्व पता चलता है और कई बार नहीं भी चलता लेकिन दोनों ही धरातलों पर जया बच्चन, जया बच्चन हैं, हिन्दी सिनेमा की एक विशिष्ट अभिनेत्री।

आज उनका जन्मदिन है। वक्त के साथ अपनी जवाबदारियों और सार्वजनिक जीवन की सक्रियताओं के साथ-साथ उनकी उपस्थिति बहुत व्यापक नहीं है और न ही बहुप्रचारित। उन्होंने अपना कोई आभामण्डल भी नहीं बना रखा है। अपने समय को बड़ी सहजता से बरतने वाली जया बच्चन की विशिष्टताएँ उनकी अनेकानेक खूबसूरत और मर्मस्पर्शी फिल्मों और किरदारों से प्रकट होती रही हैं। उनकी निरन्तर सक्रियता, बीच-बीच में अन्तराल, फिर किसी निमंत्रण या आग्रह विशेष पर उनका परदे पर कोई किरदार करने आना और अब लगभग लगातार काम करते रहना, सभी के पीछे उनके अपने स्वतंत्र निर्णय हैं। जया बच्चन का अपना कैनवास बड़ा व्यापक है। वे सभी से निष्प्रभावी रही हैं, रहती हैं।

अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के महान फिल्मकार स्वर्गीय सत्यजित राय की फिल्म महानगर में सहायक भूमिका करते हुए वे फिल्मों में आयीं। इसके पहले पुणे फिल्म इन्स्टीट्यूट की वे प्रतिभाशाली छात्रा रही हंै। वहाँ की डिप्लोमा फिल्मों में उन्होंने काम किया, वे फिल्में संस्थान की दुर्लभ निधि हैं। वरीयता में वे बच्चन से साहब से आगे हैं। वे 1969 में सात हिन्दुस्तानी में काम कर रहे थे तब तक जया जी कई फिल्में कर चुकी थीं। गुड्डी उनकी एक दिलचस्प फिल्म है, यह नाम उनके जीवन में बड़ा मायने रखता है। बासठ वर्ष की उम्र में भी वही गुड्डी उनके चेहरे पर दिखायी देती है, जो हृषिदा ने गढ़ी थी।

कई तरह की फिल्में उन्होंने कीं। वक्त-वक्त पर उन पर कई बार बातें हुई हैं, लिखा गया है लेकिन एक बड़ी फेहरिस्त में जहाँ एक ओर अभिमान, मिली जैसी फिल्में हैं वहीं दूसरी ओर जंजीर और शोर जैसी फिल्में हैं जिनमें वे चक्कू छुरियाँ तेज करा लो और इसी तरह की भूमिकाओं में दिखायी देती हैं। यह बात सही है कि नवाजने वाली संस्थाओं और व्यवस्थाओं का ध्यान उन तक उस तरह से नहीं गया वरना बीस साल पहले पद्मश्री लेने वाली जया जी को अब तक पद्मभूषण मिल जाना चाहिए था।

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

तमन्नाएँ आधी-अधूरी मगर फिर भी



अक्सर कलाकारों का ख्वाब किसी विशेष चरित्र को निबाहना होता है। इसके लिए वे हर वक्त तैयार होते हैं मगर वैसे किरदार उनको निभाने को मिल नहीं पाते। लम्बे समय ये ख्वाब अधूरे रहते हैं। पूरे किसके होते हैं पता नहीं पर अधूरे ख्वाबों का जिक्र वक्त-वक्त पर हुआ करता है। साथ-साथ काम करना भी इसी तरह का ख्वाब है। बहुतों का पूरा होता है मगर जाने कितने खास लोगों का पूरा नहीं हो पाता। इसी फिल्म इण्डस्ट्री में हमारे सामने सबसे बड़ा दुस्साहस सुभाष घई ने किया था, राजकुमार और दिलीप कुमार को साथ लेकर, सौदागर फिल्म बनाकर। वाकई यह दुर्लभ था। दिलीप कुमार अपने फन के उस्ताद थे और राजकुमार के मूड का कभी भरोसा नहीं रहा। दोनों के साथ बराबर का काम करते हुए कितनी बार घई को पसीना छूटा होगा, वे ही जानते हैं।

सुभाष घई के साथ अमिताभ बच्चन ने कभी काम नहीं किया उसी तरह हृषिकेश मुखर्जी के साथ हेमा मालिनी की कोई फिल्म नहीं आयी। कालीचरण के समय से सुभाष घई एक बार जो सितारा निर्देशक बने तो उनका जलवा आज तक बरकरार है। युवराज तक देखें तो उनकी मेकिंग अपने आपमें बड़ी भव्य और कैनवास विराट होता है। वे एक-एक दृश्य के फिल्मांकन से लेकर संगीत के बारीक पक्ष तक रुचि लेते हैं। अपने माध्यम के प्रति ऐसे गहरे निर्देशक के साथ महानायक बच्चन के काम करने के योग नहीं आये। कमाल है।

साजन फिल्म से सफल निर्माता बने सुधाकर बोकाड़े ने भी ख्वाब देखा था कि वे एक फिल्म दिलीप कुमार के निर्देशन में बनाएँगे। उन्होंने धूमधाम से कलिंगा का मुहूर्त भी किया और वह फिल्म बनने भी चली मगर आधी बनते-बनते उसको ऐसा ग्रहण लगा कि ठहर कर रह गयी। बोकाड़े इस फिल्म से दाँव पर लग गये। बाद में उन्होंने फिल्म बनाने से ही तौबा कर ली। आमिर खान और अमिताभ बच्चन का साथ काम करना भी इसी तरह का किस्सा है। कभी ऐसा योग नहीं आया।

इन्द्र कुमार ने ऐसी पहल की मगर वह भी पहल ही होकर रह गयी। अभी सुना है थ्री ईडियट्स और पीपली लाइव के वक्त बच्चन साहब और आमिर खान ने फिर इस ख्वाब को याद किया। पता नहीं एक अन्तराल और एक दूरी बनाए रखकर कैसे हाथ मिलाने का उपक्रम किया जाता है?

बुधवार, 6 अप्रैल 2011

हास्य अभिनेताओं का सिनेमा




टेलीविजन के चैनलों पर अक्सर मेहमूद की एक फिल्म कुँवारा बाप दिखायी जाती है। कुछ-कुछ समय के बाद हम इसे विभिन्न चैनलों पर देखा करते हैं। कुँवारा बाप फिल्म के दृश्य बड़े मर्मस्पर्शी हैं। अपने प्रदर्शन काल 1974 में जब यह फिल्म प्रदर्शित हुई थी उस समय हमारे महानायक अमिताभ बच्चन, यश चोपड़ा, मनमोहन देसाई और प्रकाश मेहरा की फिल्मों से गढ़े जा रहे थे। उनकी हिट फिल्मों के बीच यह फिल्म आयी थी और टैक्स फ्री की गयी थी। तब इस फिल्म ने काफी धन अर्जित किया था, खास, हिजड़ों का गाना, सज रही गली मेरी माँ, बहुत हिट हुआ था। राजेश रोशन की संगीतकार के रूप में यह पहली फिल्म थी। दूसरे गाने भी बहुत मनभावन और दिल को छू जाने वाले थे।

उस दौर में मुख्य रूप से मेहमूद का सितारा बुलन्दी पर था। असरानी, जगदीप और मोहन चोटी को भी खूब काम मिला करता था। दिलचस्प बात देखिए, इन सभी ने अपने समय में छोटी=छोटी भूमिकाएँ करके फिल्मों से जो कमाया उससे फिल्म जरूर बनायी। चूँकि ये कलाकार, कभी न कभी हर एक कलाकार हीरो, हीरोइन, खलनायक, चरित्र नायकों की भूमिका निभाने वाले कलाकारों के साथ काम करके अपना दोस्ताना बना लिया करते थे, लिहाजा सभी कलाकार खुशी-खुशी इनकी फिल्मों में एक-दो दृश्यों की भूमिकाएँ कर लिया करते थे और वह भी बिना मेहनताना लिए। इन हास्य कलाकारों द्वारा बनायी गयी फिल्मों की खासियत ही यही होती थी कि पन्द्रह-बीस लोकप्रिय कलाकार इनकी फिल्म में नजर आते थे।

मेहमूद तो खैर इस मामले में बहुत लकी रहे। अमिताभ बच्चन को बॉम्बे टू गोवा में लेने का जोखिम उन्हीं ने उठाया था। बाद में मेहमूद ने पड़ोसन, साधु और शैतान, कुँवारा बाप, एक बाप छ: बेटे, जिनी और जॉनी जैसी अनेक फिल्में बनायीं। संवेदना के धरातल पर कथ्य और दृश्य गढऩे की कला में मेहमूद बड़े माहिर थे। हँसाते-हँसाते रुलाने और रो देने में उनका जवाब नहीं था। असरानी ने भी चला मुरारी हीरो बनने फिल्म बनायी थी जिसमें कई सितारों को लिया था। उनको मेहमूद जैसी सफलता नहीं मिली इसीलिए उन्होंने आगे जोखिम नहीं लिए। मोहन चोटी ने भी धोती लोटा और चौपाटी फिल्म बनायी। कई हीरो-हीरोइन इसमें थे।

वह एक ऐसा जमाना था, जिसमें बड़े सितारों की सुपरहिट के साथ-साथ मझौले और कम प्रतिभाशाली कलाकारों की फिल्में भी बना और चला करती थीं। ऐसी फिल्मों की आवाजाही भी लगातार रहा करती थी। दर्शक इन फिल्मों को देखने आता था और निराश लौटता नहीं था। आज तो मुख्य धारा की फिल्मों में भी सार्थकता का खासा अभाव होकर रह गया है।




मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

सेंसर नीतियों के पुनरीक्षण की आवश्यकता


भरतनाट्यम नृत्याँगना लीला सेमसन संगीत नाटक अकादमी की चेयरपरसन के साथ ही सेंसर बोर्ड की चेयरपरसन भी बन गयी हैं। मुख्य रूप से वे भारत के प्रधानमंत्री की सांस्कृतिक सलाहकार भी हैं। वे शायद पहले से संसूचित नहीं थीं कि उनको सेंसर बोर्ड का चेयरपरसन भी बनाया जा रहा है। इस खबर को उन्होंने आश्चर्य की तरह लिया और यह भी कहा कि उन्हें सिनेमा में कोई रुझान नहीं है। सिनेमा उस तरह से देखने का उनको शौक भी नहीं रहा है लेकिन लीला जी ने इस पद पर अपनी नियुक्ति को स्वीकार जरूर कर लिया यह कहकर कि वे सेंसर के मसलों को अपने सहयोगियों के साथ मिलकर हल किया करेंगी, उनके परामर्श से और अपने विवेक से।

सेंसर बोर्ड की उपयोगिता और उसके हाल के साथ-साथ उसकी परवाह न करने वाले सिनेमा के परस्पर सरोकार उसी तरह के हैं जैसे सिपाही के सामने जेबकतरा और रंगदार निर्भीक होकर अपना काम किया करते हैं। हमारे यहाँ ट्रैफिक का सिपाही चौराहे से नियम तोडक़र जाते हुए दुपहिया-चौपहिया वाहन चालक को सीटी बजाकर सचेत करता है तो जवाब में वाहन चालक हेकड़ी के साथ उसे घूरता हुआ निकल जाता है। सेंसर और सिनेमा भी इसी तरह के हैं। सेंसर की नाक के नीचे ही सेंसर को धता बताने वाला सिनेमा बना करता है।

वास्तव में सेंसर बोर्ड की बरसों से चली आ रही परिपाटी और घिसे तथा निष्प्रभावी कठिन नियम और धाराओं को व्यवहारसंगत बनाये जाने की आवश्यकता है। नियम और उप-नियमों की कठिन और अपेक्षाकृत शिथिल भाषा और प्रभाव से हटकर आज के सन्दर्भ में इसे देखा जाना चाहिए। सेंसर बोर्ड की नयी चेयरपरसन यदि इस दिशा में सार्थक पहल करना चाहती हैं तो उन्हें चार अच्छे फिल्मकारों, गम्भीर और संजीदा कलाकारों के साथ-साथ सृजनात्मक माध्यम के प्रतिबद्ध लोगों और सामाजिक प्रतिनिधियों के साथ कुछ बैठकें करके एक व्यवस्थित खाका तैयार करना चाहिए और ऐसे नियम गढऩे चाहिए जिसकी हद में सिनेमा रहे।

यह आसान काम नहीं है, हालाँकि मगर साल-छ: महीना लगाकर भी इस दिशा में सच्चा और सर्वसम्मत आधार बन सके तो यह एक बड़ी पहल होगी। संस्थाओं और व्यवस्थाओं में केवल नियुक्त हो जाना ही काफी नहीं होता। यदि विश्वास व्यक्त किया गया है तो अपनी छाप छोडऩा, अपनी दृष्टि और सक्रियताओं से उत्तरदायित्वों के निर्वहन की मिसाल कायम करना एक बड़ी चुनौती होती है। लीला जी का चयन जितना विरोधाभासी है उतना ही सम्भावना से भरा हुआ भी। शेष समय बयाँ करेगा।

सोमवार, 4 अप्रैल 2011

सितारों से आगे खिलाडिय़ों का जहाँ.. .. ..


शनिवार की रात देश ने यह प्रमाणित करके रख दिया था कि सितारों से आगे हो चला है अब खिलाडिय़ों का जहाँ। खेल के रोमांच में आठ-दस घण्टे सारी अपरिहार्यता को दरकिनार कर देने वाले असंख्य लोग केवल ही अपेक्षा रखते हैं और वह है जीत, विजय, फतह। यह प्रमाणित होता है कि एक टीम के रूप में एक पूरा देश खेलता है। देश जैसे एक-एक खिलाड़ी ही देह में उतर आता है। वह खिलाडिय़ों के आवेग को भी नियंत्रित करता है और धडक़नों-शिराओं में जोश और ऊर्जा की कमी नहीं होने देता। हार-जीत के फैसले के समय खिलाड़ी ही जैसे देश हो जाते हैं। जब जीत होती है तो हर एक खिलाड़ी, जिसमें देश होता है, अनियंत्रित होकर आकाश में आतिशबाजी की तरह ध्वनि, रोशनी और फैलाव बनकर असाधारण विस्तार ले लेते हैं। आकाश, जमीन से ऊपर निहारते हर इन्सान की खुशी में शामिल होता है, खिलखिलाता है, ध्वनि, रोशनी और फैलाव के साथ।

हमारे देश में सितारों की छबि, उनके द्वारा अर्जित आभामण्डल और प्रभाव के कारण सबसे अलग रही है। खासकर बॉलीवुड में ऐसा होता रहा है। बॉलीवुड के सितारे दक्षिण सहित दूसरी भाषायी फिल्मों के सितारों की तरह उतने खुले और सहज नहीं हैं इसलिए परदे, काँच के स्क्रीन और पत्रिकाओं तथा अखबारों के पन्नों में ही सीमित होकर रह जाते हैं। दर्शक का भी अब उतना आकर्षण ऐसे सितारों के प्रति नहीं रहा। इधर तेजी से भारतीय क्रिकेट के खिलाडिय़ों ने अपनी अदम्य ऊर्जा और अचम्भित कर देने वाले जीवट से पूरे देश को अपना बनाया है। इन खिलाडिय़ों की सितारा छबि, सितारा कलाकारों की सितारा छबि से कहीं ज्यादा आगे है। विज्ञापन फिल्मों में इनका सितारों की बराबरी से होना इस बात को प्रमाणित करता है।

एक तरफ फिल्में फ्लॉप हो रही हैं और फिल्मी सितारे, फिल्म बनाने वाले सब के सब इस खेल से खासे डरे रहते हैं। फिल्म बाजार को सबसे बड़ा खतरा क्रिकेट से ही है। अभी तीन महीने इसी कारण ऐसे बीते हैं। विश्व कप फायनल के दौरान खेल के मैदान की दर्शक दीर्घा से लेकर विजय हासिल होने के बाद दिखायी देने वाले जश्र में जिस तरह से अमिताभ बच्चन, अभिषेक, आमिर खान, शाहरुख, फरदीन, विवेक ओबेरॉय, किरण राव आदि लगातार उपस्थित दीखे, उससे लगता है कि ये सितारे भी अब अपनी सितारा से बढक़र आगे आयी खिलाडिय़ों की सितारा छबि को सेल्यूट कर रहे हैं। सितारा भीड़ में सबसे सहज, सबसे निष्प्रभावी रजनीकान्त लगे जिन्होंने सारा मैच आनंद उठाकर देखा, वे जरूर सारे उल्लेखित सितारों से अलग हैं।

रविवार, 3 अप्रैल 2011

पूर्णता की प्रक्रिया में अच्छी फिल्में


सिनेमा का बाजार पिछले कुछ समय से अच्छा नहीं चल रहा है। दबंग की ऐतिहासिक सफलता के बाद जितनी भी फिल्में चार-पाँच माह में प्रदर्शित हुईं उनके व्यावसायिक आँकड़ोंं पर बात करने की स्थितियाँ इसलिए नहीं हैं क्योंकि कुछ भी उल्लेखनीय नहीं है। सिनेमा के लिहाज से वातावरण बिल्कुल विपरीत बना रहा। वल्र्ड कप के परिणाम तक सारी दर्शकीय जिज्ञासा और जागरुकता क्रिकेट की तरफ सिमटकर एकाग्र हो गयी।

हालाँकि इस बात की भी दाद देनी होगी कि कई समझदार निर्देशकों-निर्माताओं ने कछुए की तरह अपने हाथ पैर शरीर के भीतर ही रखे। बनी फिल्में विलम्बित रखीं मगर कुछ शूरवीर ऐसे भी थे जिन्हें न तो बनाते समय चिन्ता थी कि वे क्या बनाने जा रहे हैं और न ही प्रदर्शित करते वक्त इस बात की चिन्ता हुई कि जो प्रदर्शित करने जा रहे हैं उसका व्यावसायिक हश्र क्या होगा? ऐसे लोगों की फिल्में आती-जाती रहीं।

सिनेमाघर में चहल-पहल दिखायी नहीं दे रही है। सिनेमाघरों में शो कैंसिल होने की स्थितियाँ भी बनीं रहीं। जनता को घर बैठकर अपनी अनुकूलता के साथ क्रिकेट से जुडऩा ज्यादा लाभप्रद और मनोरंजक लगा। सिनेमा के मनोरंजन वाली सोद्देश्यता से तो बरसों से दर्शकों का विश्वास उठ ही चुका है। हर निर्देशक, निर्माता इन्टरटेनमेंट की बात किए बगैर फिल्म की बात नहीं करता मगर इसको परिणामसम्मत कैसे बनाया जाता है, उस सोच-समझ और फार्मूले से वो अपने कोई सरोकार नहीं रखता। यही कारण है कि फ्लॉप फिल्मों की संख्या लगातार बढ़ी है, विफल फिल्मों के प्रतिशत में भी इजाफा हुआ है।

गर्मी का मौसम फिल्म इण्डस्ट्री के लिए भी एक तरह से सक्रियता के लिहाज से ठण्डा होता है। कलाकार चाहता है कि शेड्यूल विदेशों में हों ताकि महीनों आराम बना रहे। निर्माता भी अच्छे सहयोग की उम्मीद के साथ कलाकार के मनचीती लोकेशनों में धन बहाता है। उसे फिल्म तो बनाना ही है।

बहुत से समझदार निर्देशक-निर्माता गर्मी के मौसम के ठीक पहले अपनी फिल्म की शूटिंग पूरी कर लेते हैं और गर्मी में मनोयोग से ठण्डे वातावरण में पोस्ट प्रोडक्शन का काम निपटाते हैं। ऐसे फिल्मकारों में प्रकाश झा, डॉ. चन्द्रप्रकाश और अनीस बज्मी शामिल हैं जिनकी फिल्में आरक्षण, काशी का अस्सी और रेडी प्रगति ले रही हैं। रेडी सलमान खान की एक और महात्वाकाँक्षी फिल्म है, पहले रिलीज होगी फिर आरक्षण और काशी का अस्सी। चार-पाँच और ऐसी फिल्में भी कतार में हैं, जिनमें जिन्दगी न मिलेगी दोबारा, बॉडीगार्ड, रॉ वन प्रमुख हैं।

कमल-रति की एक दूजे के लिए


हिन्दी सिनेमा का दर्शक आज कमल हासन को एक असाधारण अभिनेता के रूप में जानता है लेकिन 1981 में जब उनकी पहली हिन्दी फिल्म एक दूजे के लिए रिलीज हुई थी, तब उनसे हिन्दी दर्शक वर्ग परिचित नहीं था। सुपरहिट तेलुगु फिल्म मारो चरित्र की हिन्दी रीमेक यह फिल्म अपने समय की ब्लॉक बस्टर हिट फिल्म थी जिसने तब दस करोड़ रुपये का व्यवसाय किया था। एक दूजे के लिए फिल्म की खासियत यह थी कि इसके प्रति युवाओं की आसक्ति एक संवेदनशील आग्रह की तरह थी, जिसे बिना देखे रह पाना मुमकिन न था।

फिल्म के नायक कमल हासन और नायिका रति अग्रिहोत्री। एक दूजे के लिए, एक भावनात्मक प्रेम कहानी थी जिसमें अविभावकीय जड़ता और भाषा ही प्रेमियों के बीच दीवार थी। बासु दक्षिण भारतीय है, हिन्दी नहीं जानता, उसे अपने पड़ोस में रहने वाली सपना से प्यार हो जाता है। बासु हिम्मती युवक है, बुलेट चलाता है, माउथ ऑर्गन बहुत अच्छा बजाता है, गाता-नाचता है, अपने मन के भाव टूटे-फूटे शब्दों में व्यक्त भी करता है। सपना उसकी सहजता और अपने प्रति अटूट प्रेम के वशीभूत है। बासु, सपना को लुभाने के लिए हिन्दी फिल्मों के नामों को जोडक़र एक पूरा गाना भी बनाता है, मेरे जीवन साथी प्यार किए जा।

प्रेम कहानियों में अपने किस्म का जुनून इस फिल्म में दिखायी देता है। प्रेमियों के बीच सच्चे प्यार को प्रमाणित करने के लिए एक साल तक एक-दूसरे से नहीं मिलने की शर्त है। बासु से कहा जाता है कि वो एक साल में हिन्दी सीखकर बताये। इस बीच सपना के मन को भटकाने के कुटिल प्रयत्न भी हैं। बासु भी अव्हेलना और बेचैनी का शिकार है। बासु के जीवन में एक और युवती संध्या आती है जो उसके प्रति आकृष्ट होती है मगर बासु उससे प्यार नहीं करता।

फिल्म के क्लायमेक्स में गलतफहमियाँ और शराब के नशे में संध्या के अपराधी भाई द्वारा अपने गुण्डों से बासु की हत्या का आदेश देना, फिल्म को दुखद अन्त तक पहुँचाते हैं। बासु मारा जाता है और गुण्डों से बलात्कार की शिकार सपना भी उसकी बाहों में दम तोड़ती है। ठाठे मारते समुद्र की लहरें ऊँची चट्टानों से टकराकर इस अन्त को गहरे अवसाद में बदल देती हैं। हमें बासु और सपना की आवाजें सुनायी देती हैं।

एक दूजे के लिए मन में गहरा प्रभाव छोडऩे वाली फिल्म है। कमल हासन इस पहली ही फिल्म हिन्दी भाषी दर्शकों के दिलों में गहरे उतर गये थे। आनंद बख्शी के लिखे गाने, लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल का संगीत, लता मंगेशकर और एस.पी. बालसुब्रमण्यम के गाने, तेरे मेरे बीच में कैसा है ये बंधन, हम तुम दोनों जब मिल जायेंगे, हम बने तुम बने एक दूजे के लिए, ऐ प्यार तेरी पहली नजर को सलाम आज भी अपनी मिठास और मर्मस्पर्शी प्रभाव के कारण याद हैं।



शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

एक अलहदा भाषा गढ़ते संवाद


हमारे सिनेमा में लगातार एक नयी संवाद-भाषा गढऩे का कुचक्र काफी हद तक न केवल पूरा हो चुका है बल्कि सफल होता भी नजर आ रहा है। यह काम काफी समय से हो रहा था, यदि यह कहा जाये तो कोई अतिश्योक्ति न होगी। शुरू-शुरू में इसे बोल्डनेस या दुस्साहस की संज्ञा दी जाती थी मगर सिनेमा में ऐसा हो रहा है या होने लगा है, इस पर विस्मय भी होता था। सिनेमा के विभिन्न दृश्यों में खासकर कठिन परिस्थितियों वाले दृश्य में, ऐसे वक्त में जब फिल्म के नायक को या नायिका को या मजबूत चरित्र वाले किरदार को अपनी बात स्थापित करनी होती थी तो उसके लिए संवाद लेखक ऐसे वाक्य गढ़ता था जो कतिपय दृष्टि में अराजक होते थे।

भाषा की यह अराजकता सिनेमाहॉल में सीधे दर्शकों की ताली उठा लिया करती थी। अपनी जिन्दगी में कभी भी जोखिम न लेने वाला आम आदमी या दर्शक सिनेमा में ऐसे किरदारों को वह सब बोलते देख गदगद हुआ करता था, जो वह मन ही मन हरेक को बुदबुदाकर तो कह दिया करता था मगर सापेक्ष में उसके बूते के बाहर यह सब रहता था। फंतासी में ही सही उसके गुबार उसको अपने नायक या कलाकारों के माध्यम से आते हुए दीखते थे तो वह खुश होकर ताली बजाता था। यह काम लम्बे समय तक होता रहा है।

इश्किया और ओमकारा से लेकर दबंग और टर्निंग थर्टी, दिल तो बच्चा है जी तक आते-आते दर्शक घटिया संवादों पर ही ही ही करने का खुलकर आदी हो चुका है। अब हमारा दर्शक और समीक्षक भी मुक्त कंठ से रानी मुखर्जी के नो वन किल्ड जेसीका में बोले संवादों की सराहना करता है। कहते नहीं अघाता, क्या खूब गालियाँ बकी हैं, रानी ने। विद्या बालन से लेकर करीना कपूर और रानी मुखर्जी तक हम नायिकाओं के बीच भी एक सिने-भाषा विकसित होते देख रहे हैं। यह सब मूच्र्छित सेंसर की मेहरबानी से हम सब तक पहुँचता है।

इस तरह के संवाद कहीं न कहीं हमारे भीतर की क्षुद्रता को चपत मारकर जगा दिया करते हैं और बाहर से शालीनता और सुसंस्कृत छबि वाले हम गुदगुदी महसूस करते हैं। जाने, आगे सिनेमा अपनी आधुनिकता और दुुस्साहस में क्या-क्या गुल खिलाएगा, बहरहाल हम बीच-बीच में इस बात को याद करते रहा करेंगे कि एक वर्ष बाद सिनेमा की शताब्दी आरम्भ हो रही है।

नियंत्रण के बाहर सेंसर के मसले


भारत सरकार को कई दिनों इस बात के लिए मशक्कत करनी पड़ी कि वो सेंसर बोर्ड का नया अध्यक्ष किसे बनाए? शर्मिला टैगोर पिछले समय तक अपने पूरे कार्यकाल में इस पद को सुशोभित करती रही हैं। उनके पद पर रहते ही जाने कितनी ही ऐसी फिल्में प्रदर्शित हुईं जिनको सेंसर के मापदण्ड पर खरा उतरता नहीं पाया गया था। खुद उनके बेटे सैफ अली खान की फिल्म कुरबान उनके ही कार्यकाल में प्रदर्शित हुई थी जिसमें अतिशय अश£ीलता को मुद्दा बनाते हुए मुम्बई के महिला संगठनों ने करीना कपूर के घर के सामने प्रदर्शन किया था और साडिय़ाँ लहराईं थी। शर्मिला, अपने फिल्मी कैरियर में एक शालीन और शिष्ट छबि वाली अभिनेत्री रही हैं। अध्यक्ष के रूप में वे फिल्मों में अमर्यादित अराजकता को नियंत्रित नहीं कर सकीं, यह बात सभी ने मानी है।

स्त्री की छबि और मर्यादा से जुड़े मसलों पर निर्णय लेने के लिए या हस्तक्षेप करने के लिए किसी भी स्त्री का चयन करना, उसे अधिकार देना सबसे ज्यादा भरोसेमन्द पहल मानी जाती है। अपेक्षा यही की जाती है कि एक महिला ऐसे किसी संवैधानिक या जिम्मेदार पद पर रहते हुए कम से कम स्त्रियों की छबि के विरुद्ध किसी भी तरह की स्वेच्छाचारिता का समर्थन नहीं करेगी। लेकिन अब इसके उदाहरण उल्टे दिखायी दे रहे हैं। दिवंगत विजय आनंद ने सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष रहते हुए कुछ सख्त कदम उठाये थे लेकिन उनके तार्किक साहस-दुस्साहस को बर्दाश्त किया जाना मुश्किल हुआ लिहाजा समय से पहले वे इस पद से हट गये।

सेंसर बोर्ड की अध्यक्ष के रूप में आशा पारेख ने भी पूरा कार्यकाल व्यतीत किया था। उनसे भी यही अपेक्षा की जाती थी कि वे फिल्मों में बेलगाम हिंसा और अश£ीलता के मनोविज्ञान और बढ़ती प्रवृत्ति पर अंकुश लगायेंगी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। रिटायरमेंट की अवस्था और समय में एक रसूख वाला पद लिए उन्होंने अपना बस कार्यकाल पूरा किया और उनके बाद और भी जो लोग आये उन्होंने भी उम्मीद के विपरीत ही अपनी निष्क्रियता दिखायी।

भारत सरकार ने सईद अख्तर मिर्जा को भी सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष के पद का निमंत्रण दिया था, जिसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया। फिल्म जगत से कोई अनुकूल हस्ती इस पद को सुशोभित करने के लिए नहीं मिली तो तलाश सिनेमा से अलग हटकर कला-साहित्य के माध्यम की तरफ ढूँढ मचायी गयी। आखिरकार लीला सेम्सन के रूप में भारत सरकार को सेंसर बोर्ड का चेयरपरसन मिल गया है। यह चयन कितना सार्थक है, यह देखने-जानने के लिए हमें कुछ समय इन्तजार करना होगा। लीला जी भरतनाट्यम की शीर्ष कलाकार हैं।