हिन्दी सिनेमा के महान शो-मैन स्वर्गीय राजकपूर की फिल्मोग्राफी में जागते रहो फिल्म का एक अलग स्थान है। राजकपूर इस फिल्म के निर्देशक नहीं थे लेकिन अपने समय के मूर्धन्य रंगकर्मी, नाटककार शम्भु मित्र की असाधारण सर्जना, कल्पनाशीलता और सामाजिक यथार्थ को देखने की उनकी दृष्टि के पूरी तरह हवाले करके बनायी गयी थी यह फिल्म जिसमें राजकपूर सिर्फ नायक थे और पैसा लगाने वाले। शेष उनका कोई हस्तक्षेप नहीं। शम्भु मित्र, कोलकाता में रहकर रंगकर्म कर रहे थे। राज साहब के पापा पृथ्वीराज कपूर को समग्रता में ऊर्जा रंगकर्म से ही मिलती थी और उनका लम्बा समय भी कोलकाता में ही व्यतीत हुआ। उसकी समय के परिपक्व और आश्वस्त हुए रिश्तों से यह अनूठी और मील का पत्थर निकलकर आयी, जागते रहो।
इस फिल्म का निर्माण 1956 में हुआ था। शम्भु मित्र ने ही जागते रहो की कहानी और पटकथा पर भी काम किया था। इस फिल्म को कार्लोवी वेरी फेस्टिवल में दिखाया और सराहा गया था। जागते रहो, दो भाषाओं में बनी थी, हिन्दी में यही नाम और बंगला में एक दिन रात्रे। कोलकाता में फिल्मांकित इस फिल्म के माध्यम से महानगरीय जीवन में क्षीण होती व्यवहारिकता, मानवीयता, रिश्ते-नाते और एक-दूसरे को निहारने तक का परस्पर संदिग्ध भाव, उसके पीछे छिपे डर, द्वेष, नफरत, लालच को यथार्थपरकता के साथ चित्रित किया गया था।
फिल्म की कहानी में शहर में रोजी-रोटी की आस में आने वाले एक देहाती की कथा है जो प्यासा है। उसे पानी पीना है। पहली ही नजर में उसे चोर समझ लिया जाता है फिर वह सदैव भागता और बचता ही रहता है। इस भागमभाग में वह कई घरों में हाँफता, सहमा छुपता पनाह लेता है और हर घर में उसे एक कहानी मिलती है। एक कमरे में प्रेमी-प्रेमिका के एकान्त के बीच, एक कमरे मेें अपनी ही पत्नी के जेवर चुराने लगा एक पति और सूने रास्ते पर वेश्या का गाना सुनकर आता एक शराबी जो गा रहा है, जिन्दगी ख्वाब है, ख्वाब में झूठ क्या और भला सच है क्या। श्रेष्ठ कलाकार मोतीलाल पर यह गाना फिल्माया गया है।
फिल्म के क्लायमेक्स में यही हताश और परेशान देहाती, उसको चोर समझकर मारने आती भीड़ को लाठी लेकर ललकारता है तो भीड़ सहम जाती है। फिल्म के अन्त में एक खूबसूरत स्त्री भोर के दृश्य में मन्दिर में, जागो मोहन प्यारे जागो गा रही है, वही इस देहाती को दो चुल्लू पानी पिलाती है। राजकपूर, नरगिस, प्रदीप कुमार, सुमित्रा देवी, नाना पलसीकर, मोतीलाल, पहाड़ी सान्याल आदि मजबूत कलाकारों की सार्थक उपस्थिति इस फिल्म को अपने समय में ही नहीं बल्कि स्मरण किए जाने के भी समकाल में प्रभावित करने और प्रासंगिक लगने वाली है। प्रेम धवन और शैलेन्द्र ने जागते रहो के गीत लिखे थे, सलिल चौधुरी संगीतकार थे।
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