शुक्रवार, 8 अप्रैल 2016

धर्मेन्द्र को सदाबहार क्यों कहा जाता है.......!!

किसी भी कलाकार के हम क्यों मुरीद हो जाते हैं, आकर्षण के पीछे हमारा क्या मन्तव्य रहता है इस पर प्रायः हमारे पास कोई ऐसा उत्तर नहीं होता जो सामने वाले को सन्तुष्ट ही करे किन्तु उसको लेकर भी कोई विशेष चिन्ता हमें नहीं होती क्योंकि पसन्द-नापसन्दगी हमारी निजता का विषय है, किसी सलाह या प्रभाव का उससे कोई सरोकार नहीं होता। धरम जी मुझे पसन्द बचपन से, सत्यकाम अपनी चेतना की पहली फिल्म फिर योगवश और भी अनेक फिल्में देखते हुए उनसे एक पक्का किस्म का अनुराग बन गया। रामानंद सागर जिनका जन्मशताब्दी वर्ष है यह, उनकी निर्देशित आँखें तो कितनी ही बार देख सकता हूँ, इण्डियन जेम्सबाॅण्ड धर्मेन्द्र, ऐसे ही प्रचारित किया गया था उनको, गोल्डन जुबली फिल्म, फिर फूल और पत्थर ओह..........क्या फिल्म। फिर तो हर फिल्म ही देखता रहा। रफ्ता-रफ्ता देखो आँख मेरी लड़ी है, कहानी किस्मत की सुपरहिट फिल्म, फिर उस समय यादों की बारात जिसमें धरम जी की कोई नायिका ही नहीं थी।

धरम जी को लेकर निर्देशकों ने सचमुच अच्छी फिल्में बनायीं। उनके रूप में नायक जिस तरह गढ़ा जाता था, धरम जी उसी का पर्याय नजर आते। एक पारिवारिक आदमी की उनकी छबि का बनना उनके लिए बहुत महत्व रखता था। एक लम्बे इण्टरव्यू में मैंने पूछा था उनसे कि आपको स्वयं अपनी इस प्रतिष्ठा के पीछे क्या कारण दीखता है, आप फिल्में करते रहे, निर्देशक के बताये किरदार में रंग भरते रहे। तब उन्होंने कहा था कि यह मेरा सौभाग्य रहा कि मेरे दर्शकों में माताओं ने मुझमें अपना बेटा देखा, बहनों ने अपना भाई..............इसमें धीरे से सावधानीपूर्वक मैंने जोड़ा और युवतियों ने............इसके उत्तर में वे जिस तरह शरमा गये, वह मुद्रा कमाल की थी। सच है, मुझे अपने शहर के अखबार नवभारत में फिल्म प्रतिज्ञा के विज्ञापन में वो दो लाइनें आज भी याद हैं, रक्षाबन्धन के दिन पूरे गाँव की लड़कियों ने अजीत को राखी बांधी लेकिन राधा ने नहीं, क्यों, जानने के लिए देखिए..........मुझे उस फिल्म का गाना याद आता है - परदेसी आया देस में, देस से मेरे गाँव में.......

धरम जी ने एक नायक के रूप में दर्शकों के बीच पारिवारिक छबि बनायी। यह नायक जब कहानी किस्मत की में पहलवान को हरा कर रुपए जीतता है तो साडि़यों की दुकान जाकर बहन के लिए साड़ी खरीदता है फिर राखी बंधवाता है। ऐसे ही रेशम की डोरी में बड़े भावुक दृश्य हैं। उसका गाना बहना ने भाई की कलाई पे..............एक अन्तरा देखिए..........सुन्दरता में जो कन्हैया है, ममता में यशोदा मैया है, वो और नहीं दूजा कोई, वो तो मेरा राजा भैया है........। निरूपाराॅय, सुलोचना, पूर्णिमा, इन्द्राणी मुखर्जी, सीमा देव उनकी माँ अनेक फिल्मों में बनीं हैं। माँ के प्रति प्रेम, आदर और माँ के लिए बहादुरी और चुनौती के साथ किसी भी सीमा तक जाना धर्मेन्द्र नायक की बड़ी पहचान है। धर्मेन्द्र के निर्देशकों ने उनको अनेक बार शेर से लड़वाया, ऐसे दृश्य उनके ही बस के रहे हैं। उस दौर के गुण्डे-खलनायक शेट्टी जिनके चेहरे पर क्रूरता के अलावा कोई भाव ही नहीं आते थे, धर्मेन्द्र के साथ कितनी ही फिल्मों में अच्छी खासी फाइटिंग.............। धर्मेन्द्र का मुक्का, चीते के पंजे जैसा हाथ कमाल का है। अनेक फिल्मों में फूल और पत्थर से लेकर यादों की बारात तक में वे पुल से चलती रेल पर भी क्या कूदे हैं।

नायिकाओं के साथ उनके दृश्यों के भी दिलचस्प उदाहरण रहे हैं। परदे पर अनेक अभिनेत्रियों के साथ उनके रोमांस, गाने और नजदीकी दृश्य बड़े मर्यादित रहे हैं। ऐसी नायिकाओं में वहीदा रहमान, शर्मिला टैगोर, आशा पारेख, मीना कुमारी, स्मिता पाटिल आदि शामिल हैं। इसके विपरीत हेमा मालिनी, जयाप्रदा, श्रीदेवी, अनीता राज, जीनत अमान, अमृता सिंह, परवीन बाॅबी के साथ काम करने वाले धर्मेन्द्र थोड़ा बोल्ड भी हो जाते हैं। धर्मेन्द्र की खासियत उनका सहज होना है। यह गौर करने की बात है कि वे एक समय में उन अभिनेत्रियों के भी नायक रहे हैं जो सनी की नायिकाएँ रहीं। उनके साथ काम करने के लिए हर अभिनेत्री लालायित रहीं हैं। व्यक्तिशः मुझे उनकी पिछली फिल्म अपने बहुत ही प्रभावित करती है। वे निरन्तर सक्रिय हैं। दो साल पहले पद्मभूषण से सम्मानित होने वाले dharmendra को दादा साहब फाल्के पुरस्कार मिलना चाहिए। हालाँकि पुरस्कारों सम्मानों की बात पर वे कहते हैं कि मुझे अपने चाहने वालों से जो मिला, उससे बड़ा मान-सम्मान-पुरस्कार कुछ नहीं है........................

रविवार, 6 सितंबर 2015

करोड़ों की कमायी में दर्शकों का हासिल

इस समय प्रचार-प्रसार और तमाम तकनीकी माध्यमों में दो तरह के उदाहरण देखने को खूब मिल रहे हैं। एक तो कौन सी फिल्म कितने जल्दी करोड़ों के अर्जन से शुरूआत करती नजर आ रही है यह फिर किस तरह वह सौ करोड़ के नजदीक पहुँच रही है यह और सौ करोड़ के पार हो गयी तो फिर किस पिछली सौ-दो सौ-तीन सौ करोड़ी फिल्म के आगे-पीछे है, आसपास है या उसे कूद-फांदकर आगे जाये बगैर रुक ही नहीं रही है यह। पहली बात यह हुई। इसी के समानान्तर मसान फिल्म को देखने किस तरह तमाम बड़े सितारे गये और तारीफों के पुल बांधकर आये, यह दूसरी बात। पिछले लम्बे समय से अभिनेत्री रिचा चड्ढा ने अपनी इस नयी फिल्म के प्रति लोगों को आकृष्ट करने का काम बड़े सलीके और तरीके से किया। यह फिल्म कुछ समय पहले सिनेमाघरों में आकर गयी है। यह बात और कि इसको उतने अधिक सिनेमाघरों में नहीं लगाया गया जिस तरह दूसरी बड़ी फिल्मों को लगाया जाता है। मेरे ही शहर में एक किसी बड़े व्यावसायिक केन्द्र में प्रतिदिन अधिकतम दो या तीन प्रदर्शन इस फिल्म के शुरू हुए लेकिन देखते ही देखते इसकी दर्शक संख्या में इजाफा हुआ। सारे बड़े सितारों को मसान देखने के लिए फिल्म के निर्माता अनुराग कश्यप, निर्देशक नीरज घैवान और अभिनेत्री रिचा चड्ढा ने आमंत्रित किया। बड़े ही तरीके से उनका स्वागत किया और फिल्म प्रदर्शन के अवसरों के छायाचित्र विभिन्न प्रचार माध्यमों, समाचार पत्रों को प्रकाशन हेतु जारी किए। सबके विचारों को भी उप शीर्षक की तरह प्रस्तुत किया गया। इस तरह वास्तव में एक अच्छी फिल्म, समझदार और ऊर्जावान रिचा चड्ढा जैसे सितारों के माध्यम से जाया होने से बच गयी। समीक्षकों ने इस फिल्म को अच्छा समर्थन दिया। 

सार्थक परिश्रम निरर्थक न हो, इसके लिए रिचा चड्ढा जैसे कितने सितारे होंगे जो इस बात का ख्याल रखते होंगे कि अपनी फिल्म को दर्शकों तक कैसे ले जाना है!! मैं प्रतिदिन रिचा चड्ढा के कम से कम बीस-पच्चीस ट्वीट तो पढ़ता ही रहा हूँ और मसान पर उनका निरन्तर संवाद मुझे उनकी सूझ का कायल बनाता रहा है। वास्तव में अच्छे सिनेमा को दर्शकों तक पहुँचाना जितना कठिन है, उतना ही आसान भी और उतना ही सूझ भरा भी। प्रख्यात पटकथा लेखक एवं गीतकार जावेद अख्तर ने मसान की बहुत तारीफ की और कहा है कि यह हिन्दी की अब तक की सबसे उम्दा फिल्मों में से एक है। शाबाना आजमी का भी कहना मायने रखता था कि मसान हिन्दी सिनेमा में आने वाले युग की फिल्म है। उन्होंने यह भी कहा कि मुझे गर्व है कि मैं ऐसे वक्त में जी रही हूँ जब हमारे यहाँ मसान जैसी फिल्में बनायी जा रही हैं। 

यह तो खैर एक उद्देश्यपूर्ण और सार्थक फिल्म का पक्ष हुआ। इसके कुछ समय पहले दक्षिण से एक फिल्म आयी बाहुबली। एक साथ कई भाषाओं में तैयार की गयी यह फिल्म हिन्दी में भी प्रदर्शित हुई। हिन्दी में इसके वितरक करण जौहर थे जिन्हें बाहुबली की सफलता के प्रति अगाध विश्वास था इसीलिए वे भी प्रदर्शन के पहले सामाजिक सक्रियता के माध्यमों के जरिए फिल्म का प्रचार-प्रसार कर रहे थे। बाहुबली फिल्म की सफलता पिछले कुछ समय की दूसरी बाजार की फिल्मों की सफलता से बड़ा कीर्तिमान है, यह बात अलग है कि हिन्दीभाषी क्षेत्रों में उस फिल्म को उतने बड़े स्तर और कामना अनुसार दर्शक नहीं मिले जैसा सोचा गया था लेकिन इतना जरूर हुआ कि बाहुबली की कमायी ने मुम्बइया सिनेमा में करोड़ों की स्पर्धा लेकर चलने वाले सितारों, निर्माताओं और निर्देशकों में हड़कम्प जरूर  मचा दिया। यह कम दिलचस्प नहीं है कि पिछले कुछ वर्षों से तेलुगु की सुपरहिट फिल्मों को हिन्दी में बनाकर मुम्बइया निर्माता और सितारों ने अपनी जगह बहुत मजबूत कर ली है फिर चाहे वो आमिर खान हों, सलमान खान हों, अक्षय कुमार हों या अजय देवगन हों। इतना ही नहीं ये सितारे और इनके निर्देशक लगातार दक्षिण से ऐसी ही सफल फिल्मों पर निगाह लगाये रहते हैं और हिन्दी में इन्हें बनाने के अधिकार हासिल करते हैं। ऐसी फिल्मों में बहुत सारा मूलभूत बिना किसी परिश्रम के दोहराया जाता है, हाँ मुम्बइया सिनेमा के दर्शकों के मिजाज के अनुरूप उतने परिवर्तन या नवाचार किए जाते हैं जितने जरूरी होते हैं। बाहुबली ने लेकिन दक्षिण से अनेक भाषाओं में ऐसा हस्तक्षेप किया कि मुम्बई फिल्म जगत को सोचने पर जरूर मजबूर किया।

कुछ समय पहले ही लोकप्रिय सिनेमा के एक बड़े सितारे सलमान खान की फिल्म बजरंगी भाईजान का प्रदर्शन हुआ। इसका रूपक ही अलग था। प्रत्येक शहर में पहले से ही इसके स्वागत की तैयारियाँ कर ली गयी थीं। वास्तव में निर्माता से लेकर वितरक तक सभी ने समय से पहले सिनेमाघर, प्रदर्शन आदि की दैनन्दिन सुनिश्चित कर ली थी। सभी का मानना था कि फिल्म सफल है ही, वह कहीं नहीं जाने वाली। इतना बुलन्द सितारा है जिसका परदे पर पहले दृश्य में आना ही सिनेमाघर में बैठे दर्शक का धीरज छुड़ा देता है। दर्शक खुशी के मारे किलकारी भरने लगता है, सीटी, ताली बजाने लगता है। फिल्म के आने के पूर्व समर्थन में लेख भी उस तरह के प्रचारात्मक ढंग से खूब छपे। सभी का मानना था कि सिनेमा व्यावसाय में एक अन्तराल के बाद फिर आंधी आने वाली है, पैसा बरसने वाला है। हुआ भी ऐसा ही। फिल्म लगी और दो-तीन दिनों में ही करोड़ों के आँकड़े उछलने लगे। जोड़-बाकी में माहिर बाजार पर नजर रखने वालों ने उसकी वृद्धि की रफ्तार का भी उसी तरह का आकलन किया और करोड़ के ऊपर करोड़ रखते हुए सैकड़ों करोड़ का महायोग प्रस्तुत कर वंचित दर्शकों को जैसे इस तरह प्रेरित किया कि घर बैठे क्या कर रहे हो, उठो और जाओ जाकर फिल्म देखो। यह प्रयोग भी सफल हुआ और दर्शकों ने बाजार के लारी-लप्पा खेल का सफल सम्मोहन प्राप्त किया। यह फिल्म भी हिट। कमायी बढ़ती ही चली गयी। जब तक फिल्म लगी रहेगी बढ़ती रहेगी। थमेगी तभी जब कोई दूसरी फिल्म आकर उसका स्थान लेगी। हालाँकि इस बात से इन्कार फिर भी नहीं किया जा सकता कि यह फिल्म बाहुबली के बाजार के आँकड़ों से प्रभावित हुए बगैर न रह सकेगी फिर भी सफलता को बाजार से तौलने वाले व्यावसायी यह खबर उड़ाकर भी खुश है कि इस फिल्म ने आमिर खान की धूम-3 से भी ज्यादा धन कमा लिया है। 

बाहुबली, मसान और बजरंगी भाई जान हमारे सामने अलग-अलग किस्म के तीन उदाहरण हैं। इनमें से दो फिल्में बड़े सपाट ढंग से बाजार की चिन्ता करती हैं, बाजार का गणित लगाती हैं, बाजार की भाषा में ही गुणा-भाग करती हैं। ये दोनों फिल्में अपनी खूबियों पर शायद खुद ही नहीं जातीं। कहीं भी तरीके से हमें किसी भी अखबार में यह पढ़ने को नहीं मिलता कि इन फिल्मों की अपनी सार्थकता क्या है? ये फिल्में बेशक करोड़ों कमाये तो ले रही हैं लेकिन कितने हजार या लाख दर्शकों तक वास्तव में इनकी पहुँच हुई है इस पर वे भी बात नहीं कर पाते जो इन फिल्मों के समर्थन में व्यावसायिक आँकड़े पेश करते हैं। करोड़ों की कमायी की आँकड़ेबाजी में कहीं न कहीं दर्शक, उसका मानस या मंशा और उसकी चाहत नगण्य या गौण होकर रह गये हैं। यह अच्छा संकेत नहीं माना जा सकता। सिनेमा का वजूद दर्शकों से ही है। मनोरंजन का माध्यम वह बाजार नहीं हो सकता जिसमें एक को माल बेचने के बाद तुरन्त दूसरे ग्राहक की तरफ मुँह कर के आवाज लगायी जाने लगती है। आपका दर्शक वही है और उसे आपको हर बार बुलाना है इसलिए जरूरी है कि दर्शकों के दिलों को भी छुआ जाये केवल जेब में हाथ डालने से काम नहीं चलेगा। करोड़ों कमाते, करोड़ों छुड़ाते एक समय के बाद ऐसा न हो कि इस तरह का सन्तृप्तीकरण आ जाये कि सिनेमा दर्शकों को भी कुछ ज्यादा ही विश्वसनीय ढंग से पैसे बहाने भर का माध्यम लगने लगे, इसके आगे दर्शक फिर कुछ सोचना ही बन्द कर दे। 

जरूरी होगा कि मर्यादित सफलता से आगे चलकर करोड़ों अर्जन के इस वासनापूर्ण फितूर को अपने दिमाग से धीरे-धीरे दूर कर लिया जाये और जनमानस में सिनेमा के प्रति सार्थक दृष्टिकोण और विश्वास को फिर से जगाया जाये। आखिर सिनेमा का सम्बन्ध सपनों से यूँ ही नहीं जोड़ा गया। हमारे देश में जब सिनेमा का आविष्कार हुआ था और पहली बार दर्शक इकट्ठा करके अंधेरे में अचम्भा प्रकट करने वाला चलता-फिरता संसार उसके सामने प्रकट किया गया था तब हैरान आदमी की आँखें आश्चर्य से खुली की खुली रह गयी थीं। वह परदे पर आती हुई ट्रेन को देखकर डरकर जान बचाकर भागने को हुआ था। अब दर्शक सिनेमा को बखूबी समझ चुका है। क्या हमारे निर्माता, निर्देशक और सितारे भी दर्शक को उतना समझ पाये हैं?

गुरुवार, 6 अगस्त 2015

॥ बिना पैराग्राफ ॥

पता नहीं होता, कई बार दिखायी पड़ता है कि रास्ता खुद अपनी चाल चल रहा है। हम यह सोचते लिया करते हैं कि हम ही रास्ते पर चल रहे हैं। एक जगह खड़े रहकर यह भरम मिटने लगता है जब हम से आगे रास्ता बहुत दूर तक जाता हुआ दिखायी देता है, उस समय हमारी आँखें हम से आगे पैदल, लगभग दौड़ती हुई रास्ते को उस पूरे दूर में देख आना चाहती हैं। होता अक्सर यही है कि दूर तक दिखायी देता रास्ता कहीं आगे जा कर हम से ओझल हो जाता है। 

न जाने क्यों कभी लगता है कि हमारी पैदल चलती, दौड़ती, भागती आँखें भी उस अछोर के साथ चली गयी हैं। ऐसे रास्तों को देखता हुआ मैं अक्सर कामना किया करता हूँ,‍ विफल सी कामना कि मुझसे आगे, मेरे लिए ही पैदल भागती चली गयी दृष्टि शायद लौटकर आये और उस अछोर का सच्चा ‍ठिया बतलाये। बहुत देर तक बाट जोहते हुए मैं अपने आप से थकने लगता हूँ। मैं बीच रास्ते पर बैठ जाना चाहता हूँ। न जाने कैसे इसी क्षण घोर व्यग्रता में मुझे कोई पीछे लौटाना चाहता है। किसी का हाथ पीछे से मेरी आँखें मूँद लेना चाहता है। मैं तत्क्षण अनेक असहजताओं के बीच उसे हथेलियों और उनकी महक से भी नहीं पहचान पाता। मैं कुछ बोल भी नहीं पाता। परायी या अपनी, कई बार हथेलियों से मुँदी आँखें कुछ भी पहचान नहीं पातीं। 

मैं एक बड़े खाली से, एक बड़े दूर से आगे चलकर न जाने कहाँ मुड़ गये रास्ते के छोर को देखने गयी आँखों के लौटने की प्रतीक्षा करता हूँ, देह में गड़ी आँखें दूसरी हैं, वे अभी भी हथेलियों से मुँदी हैं और मैं पहचान नहीं पा रहा हूँ...........................

रविवार, 26 जुलाई 2015

एक महीने बाद........

एक महीना हो गया है आज। आज ही के दिन माँ नहीं रहीं थी। यकीन लेकिन एक पल भी नहीं होता। हम अपने जीवन में हर नींद न जाने कितनी बार अच्छे-बुरे सपने देखते हैं। अच्छा सपना देखने के बाद जागने पर कामना करते हैं कि यह जरूर पूरा हो। बुरा सपना देखकर अधरात ही घबराकर जाग जाते हैं और कामना करते हैं कि यह कभी सच न हो। यथार्थ में स्थितियाँ अलग हैं। अच्छा सच, सच ही रहे सपना न हो, इसकी कामना होती है और बुरा सच, सच न हो, सपना हो, यह विफल सी कामना हम करने लगते हैं। 

चेतन-अवचेतन के इसी फर्क को तौलते हुए माँ स्मृतियों में अनेक छबियों, प्रसंगों, संवादों और अपने अनेक रंगों का पुनर्स्मरण करा रही हैं। कई बार आभास होता है कि आवेग थमेंगे नहीं, फूट चलेंगे, बहने लगेंगे। बमुश्किल रोके से रुकते हैं पर जो बहकर प्रकट हो गये होते हैं वो देर तक नहीं सूखते। बिछोह में रोने की स्थितियाँ भी कम कठिन नहीं होतीं। हम रोना तो चाहते हैं पर अपनों के बीच रोते हुए पकड़ाना नहीं चाहते। आखिर आँसुओं का अथाह भी सब बच्चों में माँ की तरह ही बराबर बँटा होता है। सच है, माँ अपने बच्चों में बराबर बँटी होती है, न किसी में कम और न ही किसी में ज्यादा। माँ में सब बच्चे जीते हैं और सब बच्चों में माँ। 

स्मृतियों का लेखा हमारे पास बन्द किताबों सा हुआ करता है जिसके पन्ने एक के ऊपर एक तहे रखे होते हैं। ऐसा लगता है कि उन पन्नों में हमारा एक-एक पल अपनी बेसुधी में सोया हुआ है। हम जीवन के प्रत्येक दिन को व्यतीत करने के साथ ही उन पन्नों की संख्या में इजाफा किए जाते हैं। हमारे पास शायद कभी उन पन्नों को छूने तक का समय नहीं होता, देखने या पढ़ने की बात और भी अलग है। हमारी उपेक्षा कह लीजिए या रंग-रोगन में रचे-बसे संसार का मोह कि वे बन्द किताबें हमारी ओर से भी मुँह मोड़ लिया करती हैं। घटनाएँ, संत्रास, ठोकरें और बिछोह हमें जब अस्थिर कर दिया करते हैं तब हम देह के सन्दूक में उन किताबों को टटोलने चले जाते हैं, गिरते-पड़ते। फिर उन किताबों से पन्नों को ढूँढ-ढूँढकर हमारा पढ़ना पछतावे के सिवा शायद और कुछ नहीं होता। बहरहाल...........

जीवन का अर्थ अपने कड़वे सच के साथ हर इन्सान की जिन्दगी में कभी न कभी प्रगटता है। यही सच जीवन या देह में फिर साथ-साथ चलता है। याद आता है, माँ शायद 47-48 की होंगी जब नानी नहीं रही थीं। उनको याद करते हुए वे तब ही नहीं बाद में भी और अब तक भी रोया करती थीं। 

हम लोग भी ऐसे ही................................................

शनिवार, 20 जून 2015

हृषिकेश मुखर्जी का सिनेमा : सांझ और सवेरा (1964)

जीवन में हर सांझ के बाद सवेरा होता है



हृषिकेश मुखर्जी का सिनेमा देखते हुए यह बात गौर करने की होती है कि उनके साथ अपने समय के लगभग सभी बड़े नायकों ने काम किया था। नायिकाएँ भी प्रायः सभी उनकी फिल्मों में नजर आती हैं। सांझ और सवेरा में गुरुदत्त और मीना कुमारी ने प्रमुख भूमिकाएँ निभायी हैं। मेहमूद, हृषिकेश मुखर्जी के मित्र रहे हैं, वे बीवी और मकान में भी आगे चलकर नजर आये और इस फिल्म में भी उनको अच्छी सकारात्मक भूमिका देते हुए निर्देशक ने उत्तरार्ध की फिल्म का उनको एक तरह से केन्द्र बिन्दु ही बना दिया है। 

यह फिल्म एक सहृदय वकील मधुसूदन, मनमोहन कृष्ण की उदारता से शुरू होती है जो अपने दिवंगत मित्र की अकेली बेटी गौरी मीना कुमारी को अपने साथ शहर ले आता है और अपनी बेटी की तरह ही उसे घर में जगह देता है। उनके साथ उनका भांजा प्रकाश मेहमूद उनके साथ ही रहता है जिसे संगीत का बेहद शौक है और हर समय वह गाने-बजाने का रियाज किया करता है। उसकी अपनी एक बेटी माया, जेब रहमान है जो दिल्ली में पढ़ रही है लेकिन उसका मन पढ़ने में न होकर अपने प्रेमी रमेश के साथ सपने बुनने में है। पे्रमी के मन में खोट है यह उसे नहीं पता। उसके पिता वकील उसकी शादी एक डाॅ. शंकर से तय कर देते हैं। जब माया अपने पिता के घर आती है और यह जानती है कि उसकी शादी की तैयारी है तो वह अपने प्रेमी को खत लिखकर उसके साथ चले जाने और शादी की योजना बनाती है। शादी को लेकर ही पिता-बेटी में विवाद होता है। पिता नहीं मानते और शादी का दिन नजदीक आ जाता है। इधर गौरी ने मधुसूदन के घर में अपने व्यवहार से सबका दिल जीत लिया है। वह उनसे उपकृत भी महसूस करती है। 

जिस रात शादी होने को होती है, फेरे लेते वक्त माया चक्कर आने का बहाना करके गिर जाती है और रात को सभी को बताये बिना अपने प्रेमी के साथ भाग जाती है। हालाँकि रास्ते में उसे अपने प्रेमी की नीयत का पता चलता है लेकिन तभी उनकी गाड़ी दुर्घटनाग्रस्त हो जाती है जिसमें प्रेमी की मौत हो जाती है और वह गम्भीर घायल होकर अपनी याददाश्त खो बैठती है। उसका इलाज उसी अस्पताल में चल रहा है जहाँ शंकर डाॅक्टर है। इधर अपनी बेटी के भाग जाने से व्यथित वकील मधुसूदन बेहोश हो जाते हैं और उनकी तबियत ज्यादा खराब हो जाती है। प्रकाश स्थिति सम्हालने के लिए गौरी से माया की जगह डाॅ. शंकर की दुल्हन बनकर चले जाने को कहता है। वह मना करती है लेकिन वकील के उपकार में दबी गौरी अन्त में यह बात स्वीकार कर लेती है।

गौरी, शादी की पहली रात ही डाॅ. शंकर चैधरी को अपने व्रत की बात कहकर कुछ दिन अपने से दूर रहने की प्रार्थना करती है। इधर वकील बनारस जाकर रहने लगते हैं। डाॅ. शंकर और गौरी, वकील से मिलने बनारस जाते हैं वहीं वकील के कहने पर मन्दिर में उनका विवाह फिर होता है। अब गौरी, शंकर को अपना पति मानती है। उनके दिन अच्छे व्यतीत हो रहे होते हैं लेकिन एक दिन सारे रहस्यों का एक-एक करके खुलासा होने लगता है, शंकर को पता चल जाता है कि जिसे वो माया समझ रहा था वह गौरी है। वह मानता है कि उसके साथ धोखा हुआ है। प्रकाश, गौरी को बहन की तरह मानता है, वह गर्भवती गौरी को लेकर परेशानियाँ दूर होने तक अलग ले जाकर रहने लगता है जिस पर उसे भी लांछित किया जाता है। अन्त में वकील डाॅ. शंकर को पूरी बात बताते हैं और सच सामने आता है। शंकर, गौरी से अपने किए की माफी मांगता है और अपने साथ ले आता है। प्रकाश, राधा से प्रेम करता है, उसके जीवन में वह आ जाती है। फिल्म पूरी होती है।

इस फिल्म की कहानी जगदीश कँवल की लिखी हुई है। उन्होंने ही संवाद भी लिखे हैं। पटकथा पर तीन लेखकों ध्रुव चटर्जी, डी. एन. मुखर्जी और अनिल घोष ने काम किया है। सांझ और सवेरा फिल्म की कहानी को नाम से इस कामना के साथ जोड़ा गया है कि जीवन में हर सांझ के बाद सवेरा होता है। एक तरफ एक सहृदय वकील मित्र है जो मित्र की अकेली हुई बेटी को अपने घर ले आता है और बड़े दिल के साथ कहता है, बेटी ये सारा घर तुम्हारा है दूसरी तरह गौरी है जो इस उदारता से उपकृत है और अपनी जिन्दगी के साथ एक बड़ा समझौता करती है। मनमोहन कृष्ण अपनी इस भूमिका को मन को छू जाने वाली क्षमताओं के साथ निबाहते हैं। एक डाॅक्टर है जो भावुक है और थोड़ी-बहुत नैतिकताएँ भी साथ लेकर चलता है, जैसे एक फीस देने वाले से कहता है कि वो विधवा से पैसे नहीं लेता। जिद करने पर वह पैसा ट्रस्ट में जमा कर देने की सलाह देता है। एक मुँहबोला भाई है, मामा के यहाँ रहता है, संगीत की धुन है, स्वभाव से फक्कड़ है मगर संवेदनाओं से भरा हुआ। मेहमूद अपनी इस भूमिका में कमाल करते हैं। वह दृश्य बहुत भावनात्मक है जब खाने के लिए कुछ न होने पर गौरी के हार बेच देने पर वह शहर में गाना गाता निकल जाता है और सब उसे मांगने वाला समझकर पैसे देते हैं। मेहमूद पर अजहुँ न आये बालमा, सावन बीता जाये गाना, शुभा खोटे के साथ फिल्माया गया है, फिल्म का कर्णप्रिय गीत है जो मोहम्मद रफी और सुमन कल्याणपुर के स्वर में है। वहीं गुरुदत्त और मीना कुमारी पर फिल्माया यही है वो सांझ और सवेरा भी बहुत प्रभावित करता है। इसमें रफी के साथ आशा भोसले का स्वर भी शामिल है। लता मंगेशकर के स्वर में मनमोहन कृष्ण मुरारी भी बहुत खूबसूरत गाना है। शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी ने गाने लिखे हैं और शंकर-जयकिशन ने फिल्म का संगीत दिया है। जयवन्त पाठारे ने सिने-छायांकन किया है। 

यह फिल्म प्रमुख रूप से मूल्याें, उपकार, नैतिकता और सहनशीलता की बात एक मर्मस्पर्शी कहानी के माध्यम से कहती है। इसमें अनावश्यक दृष्टान्त नहीं है और न ही किसी तरह का घुमाव-फिराव। हृषिकेश मुखर्जी वैसे भी कहानी को अगले प्रसंगों और दृश्यों की रोचकता से बखूबी जोड़ते रहे हैं, सांझ और सवेरा में भी वही शैली का प्रयोग उन्होंने किया है। फिल्म में गुरुदत्त की भूमिका अपनी जगह सीमित है। उनके चरित्र में उस तरह की विशेषता नहीं दिखायी गयी जो परिस्थितियों के अनुरूप उनको उनकी दक्षता के साथ निखार सके। इसमें मीना कुमारी ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। वे त्रासदी को जीते हुए गहरी व्यथा और परेशानी के भाव बहुत गहराई के साथ व्यक्त करती हैं वहीं विवाह के बाद के एक प्रसंग में जब वे अपने पति को अपनी बीमारी के बहाने से घर बुला लेती हैं, उस वक्त उन पर फिल्माया गाना उनके रूमानी मनोभावों को सुन्दरता के साथ व्यक्त करता है। मेहमूद के साथ शुभा खोटे की जोड़ी है। राधा शुभा खोटे के मामा के रूप में हरेन्द्रनाथ चटोपाध्याय छोटी मगर दिलचस्प भूमिका में हैं। फिल्म का सम्पादन दास धैमादे ने किया है। अपनी जगह फिल्म सधी हुई है, स्वाभाविक है, हृषिकेश मुखर्जी ने भी एक सम्पादक की तरह भी फिल्म पर ध्यान रखा है। मध्यान्तर के बाद यह फिल्म मेहमूद के अच्छे और मन को छू जाने वाले अभिनय के कारण भी जोड़े रखती है, उन्होंने यह चरित्र अपने विलक्षण हास्य-हुनर के साथ निभाया है। 

गुरुवार, 18 जून 2015

हृषिकेश मुखर्जी का सिनेमा : बीवी और मकान (1966)

और दोस्तों में कोई एहसान नहीं होता.... 



बीवी और मकान एक सरल सी हास्य फिल्म है और इसे बनाया भी बेहद सहजता के साथ गया है। महानगरीय जीवन में रोजी-रोटी की आपाधापी, घर का सपना और घर बसाने का ख्याल तथा इन सबके बीच आने वाली मुश्किलों को दिलचस्प ढंग से प्रस्तुत करने का काम हृषिकेश मुखर्जी ने बतौर निर्देशक किया है। उन्होंने शैलेष डे की कहानी को फिल्म का आधार बनाया और हास्य कलाकारों के साथ इस फिल्म को रचा जिनमें मेहमूद, केश्टो मुखर्जी, विश्वजीत, आशीष कुमार आदि शामिल हैं। बीवी और मकान सितारा सजी फिल्म न होने के बावजूद अपनी सुरुचि को नहीं खोती और आकर्षण बना रहता है। गायक, संगीतकार हेमन्त कुमार ने अपने दायित्वों को निबाहते हुए इस फिल्म के निर्माण का बीड़ा भी उठाया था।

बीवी और मकान पाँच दोस्तों की कहानी है जो विभिन्न जगहों से मुम्बई आकर एक साथ रह रहे हैं। इनमें एक गाँव-देहात में अपनी ब्याहता को माता-पिता की सेवा में छोड़ शहर में नौकरी कर रहा है। दूसरा चित्रकार है। तीसरा एक अच्छा गायक है। चैथा नौकरी की तलाश कर रहा है और पाँचवा अपनी सेहत बनाया करता है। सबमें आपस में खूब प्रेम है और वे हमेशा साथ रहना चाहते हैं। अब तक वे जिस छोटे से लाज में रह रहे थे, उसका मालिक एक दिन उन सबको भगाने में सफल हो जाता है। वे एक दूसरा घर किराये पर लेते हैं मगर बुजुर्ग बीमार मकान मालिक की एक अजीब सी शर्त में फँस जाते हैं जिसमें उसका आग्रह यह होता है कि वह विवाहितों को ही घर किरायेपर देना चाहेगा। मित्रों का नेतृत्व करने वाला पाण्डे मेहमूद एक युक्ति निकालता है, अपने दो मित्रों अरुण विश्वजीत और किशन केश्टो मुखर्जी को औरत बनने के लिए प्रेरित करता है। इसके बाद औरत बने केश्टो को अपनी तथा विश्वजीत को चित्रकार शेखर आशीष कुमार की पत्नी बताकर मकान मालिक के सामने प्रस्तुत होता है। उनको रहने के लिए घर मिल जाता है लेकिन कुछ समय बाद उनके लिए इस झूठ का निर्वाह कर पाना मुश्किल हो जाता है। 

दोनों औरत बने उनके साथी तंग हो जाते हैं। इधर मकान मालिक की बेटी गीता कल्पना और भांजी लीला शबनम आ जाती हैं। वे औरत बने दोनों से मेलजोल बढ़ाती हैं लेकिन औरत बना अरुण गीता को चाहने लगता है और शेखर लीला से प्रेम करता है लेकिन परिस्थितियों के चलते वे जाहिर नहीं कर पाते। वे कुछ युक्ति करते हैं। पहले पाण्डे, औरत बने केश्टो और अरुण को मायके भेज देने का चक्कर चलाता है फिर औरत बने अरुण की मायके में मौत की खबर फैलाता है। इसी बीच गाँव से पाण्डे के पिता का नौकर उसको मिलने आता है तो उसकी पत्नी बने केश्टो को देखकर चकरा जाता है, लौटकर उसके पिता को बताता है। इस पर पिता अपने विवाहित बेटे के शहर में फिर ब्याह कर लेने की बात पर आगबबूला होकर उसकी पिटायी करने शहर पहुँचता है। जब पाँचों दोस्त बुरी तरह से उलझ जाते हैं तो फिर पाण्डे सब सच्चाई बतला देता है। फिल्म पूरी होती है। 

बीवी और मकान फिल्म का प्रस्तुतिकरण बिना किसी अतिरेक के जिन्दगी की बहुत सी बातों को सादगीपूर्वक स्थापित करता है। मसलन ऐसे समय और समाज में जब दोस्ती में संवेदना और अपनत्व का संकट खड़ा रहता हो, पाँच दोस्त एक कमरे में भी रहने को तैयार हैं मगर एक-दूसरे का साथ नहीं छोड़ना चाहते। इसी तरह बेरोजगार दोस्तों के गिरते मनोबल और निराशा को सम्हालने के लिए सब मिलकर तैयार हो जाते हैं। संगत में कोई उदास नहीं रह सकता। आपस में सबके स्वभाव अलग-अलग हैं पर कोई विरोधाभास नहीं है। एक-दूसरे की ताकत और कमजोरी दोनों को सब मिलकर समझते हैं और जिन्दगी में हार नहीं मानना चाहते। फिल्म में घूम-घूमकर किराये के मकान की तलाश करने, होटल मालिक के क्षुद्र से षडयंत्र और उसको सबक सिखाने का तरीका, दो मित्रों को औरत बनने के लिए राजी करना और आखिरी में व्यर्थ के तमाम सन्देहों से घिर जाने वाले प्रसंग दिलचस्प हैं। 

यों तो यह फिल्म पूरी तरह मेहमूद के हाथ में रहती है लेकिन बड़ी के रूप में औरत बने केश्टो मुखर्जी और छोटी के रूप में औरत बने विश्वजीत ने खूब अच्छे से फिल्म को रोचक बनाया है। विश्वजीत का औरत के वेश में लोच-लचक के साथ चलना, स्त्री आवाज में बात करना और खास बात सुन्दर दिखना बहुत असरदार है वहीं केश्टो औरत बनकर अजीब सी बदहवासी का परिचय देते हैं। दोनों का मित्रों के बीच उसी भेस में बैठकर सिगरेट पीना, सिर खुजाने के लिए नकली बाल सिर से हटा लेना खूब हँसाता है। किशन केश्टो मुखर्जी जो बड़ी अर्थात पाण्डे की पत्नी बना है, को मकान मालिक की पत्नी बच्चा न होने के कारण गण्डा आदि बांधती है, वह दृश्य भी हास्य पैदा करता है। इस फिल्म में कल्पना और शबनम दो नायिकाएँ हैं। दोनों ही अपने नायकों के बीच घालमेल का शिकार हैं मगर उनको सच की जानकारी नहीं है इसलिए उनका बेवकूफ बनना फिल्म के आनंद को बढ़ाता है। इसके अलावा पाण्डे मेहमूद की देहाती बीवी के रूप में गाँव में रहने वाली पद्मा खन्ना ने भी अच्छा काम किया है। 

मेहमूद के पिता की भूमिका निभाने वाले कलाकार का परिचय नहीं है, वह तो अपनी उपस्थिति के दृश्यों में सहज अदायगी के कारण आप दृश्य में बने रहते हैं। फिल्म में हृषिकेश मुखर्जी की फिल्मों के चिर-परिचित कलाकार ब्रम्ह भारद्वाज और बिपिन गुप्ता भी मकान मालिक मिश्रा और होटल मालिक की भूमिकाओं में नजर आते हैं। बीवी और मकान में खूब गाने हैं और खूब गायकों की भागीदारी है, मोहम्मद रफी, मुकेश, तलत मन्नाडे, हेमन्त कुमार, लता, आशा, ऊषा मंगेशकर आदि। सभी गानों में परिस्थितियाँ हैं, विडम्बनाएँ हैं, मुसीबतें हैं। इन गानों की रचना गुलजार ने की है। इस फिल्म के संवाद राजिन्दर सिंह बेदी ने लिखे हैं, पटकथा सचिन भौमिक की है। सिने-छायांकन टी. बी. सीताराम ने किया है। हृषिकेश मुखर्जी ने इस मनोरंजक फिल्म का निर्माण अनुपमा को बनाते हुए साथ-साथ किया था। फिल्म में वे एक दृश्य में पाण्डे मेहमूद से रूबरू भी होते हैं जब वो शहर में गाना गाते हुए मकान ढूँढ़ रहा होता है। बड़ी सफलता न मिलने के बावजूद दर्शकों में इस फिल्म को पसन्द किया गया था।