शनिवार, 28 फ़रवरी 2015

रंगयात्रा / प्‍लीज़़ मत जाओ............




रंगकर्मी मित्र अनूप जोशी बंटी से महीना भर पहले ही बात हो गयी थी जब उन्होंने कहा था कि इस बार भारत रंग महोत्सव में मंचन के लिए उनके द्वारा निर्देशित नाटक प्लीज़ मत जाओ का चयन हुआ है और ग्रुप के साथ मुझे भी नई दिल्ली चलना है। मैंने भी हामी भर दी थी। भोपाल में दैनन्दिन में प्रायः हर दिन इसी कामना के साथ व्यतीत होता है कि कभी उदारता के साथ रचनात्मक समय मिले, मिलना-जुलना हो, लिखने-पढ़ने वाले अच्छे और सच्चे मित्रों से बातचीत हो, कुछ देखा-सुना जाये। हालाँकि जीवन इन्हीं सब के बीच कटता भी चला जा रहा है मगर फिर भी लगता है कि बहुत अपने लिए इस समूचे में प्रायः कुछ भी नहीं मिल पाता है, बहरहाल..........

तीन दिन की यात्रा थी। जिस दिन पहुँचे उसके अगले दिन मंचन होना था, मंचन के अगले दिन राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में प्रेक्षकों के सामने निर्देशक की वार्ता का नियमित कार्यक्रम होता है, उसी शाम फिर वापसी थी। इस तरह इस ग्रुप का मैं भी हिस्सा बना जो सैद्धान्तिक रूप से कुछ नहीं था लेकिन आत्मिक रूप से सबसे जुड़ा था। रेल में बैठकर सोचने लगा कि यह नाटक जो दो दिन बाद मंचित होगा, वास्तव में कितनी तरह के संवेदनशील सरोकारों को जीता आया है। नाटक के साथ जो बात, जो घटना जुड़ी है, उसका स्मरण मात्र ही आँखों की कोर गीली कर देता है।

प्लीज़ मत जाओ, मराठी के प्रख्यात नाट्य लेखक स्वर्गीय विजय तेन्दुलकर का की दो एकांकियों रात्रा और कालोख से एक पटकथा तैयार कर मंचित किया गया है। अनूप जोशी स्त्री-पुरुष सम्बन्धों के सम-सामयिक परिप्रेक्ष्य, संवेदनाओं, दोहरेपन और छल के मनोविज्ञान को अपने मंचन का आधार बनाते आये हैं। अर्थदोष, सवाल और स्वप्न, मोनालिज़ा की मुस्कान आदि उनके ऐसे ही नाटक हैं। प्लीज़ मत जाओ में तीन कलाकार हैं, एक पुरुष चरित्र और दो स्त्रियाँ। एक, अपने प्रेमी द्वारा धन के लालच में ठुकरायी, अंधेरे एकान्त में जीवन के अवसाद को तिल-तिल जीती हुई और दूसरी उसी व्यक्ति को निहायत ही कमज़ोर भावनात्मक क्षण में याचनाभरी स्थिति में उपेक्षा के साथ ठुकराकर चली जाने वाली। लगभग एक घण्टे दस मिनट के इस नाटक में तीन लम्बे मुकम्मल दृश्यों में जिस तरह के आवेगों के साथ घटनाक्रम हमारे सामने घटित होता है, एकाग्रता ज़रा सी देर को भी इधर-उधर नहीं होती। अन्तिम दृश्य लगभग बिलखते हुए तीनों कलाकारों का है जो सचमुच रो रहे होते हैं क्योंकि इस नाटक से उनकी अत्यन्त मर्मस्पर्शी स्मृतियाँ जुड़ी हैं। इस नाटक में वो नायक चन्द्रहास तिवारी अब इस दुनिया में नहीं हैं जिनका किरदार स्वयं अनूप जोशी करने का भारी तनाव लेते हैं। यह नाटक, एक नायिका सविता के भीतर के भी सच्चे आँसुओं को बाहर ले आता है, चन्द्रहास तिवारी उनके पति जो थे।

मंचन के एक दिन पहले पहुँचकर अनूप जोशी को यही चिन्ता सताती है कि तैयार होकर स्टेज पर जाना है, आज ही प्रकाश व्यवस्थापन, मंच सामग्री, उपकरण और सज्जा का काम लेना है भले रात कितनी ही हो जाये। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय बड़े परिश्रमी सहयोगी, तकनीकी सहायक एवं सहयोगियों को साथ कर देता है जो मंच पर प्रत्येक ज़रूरत को पूरी करते हैं, ज़ाहिर है हर बात का जवाब हाँ में होता है। दोपहर तीन बजे से रात लगभग नौ बजे तक अनूप जोशी को मैं एक-एक चीज़ पर बड़ी मेहनत, दृष्टि और फिक्र के साथ आश्वस्त होते हुए देखता हूँ। उस समय ख्याल आता है, कल दोपहर या नाटक मंचन के समय और भी कभी जब दर्शक के रूप में सभागार में दाखिल होता हूँ तब इस बात की कल्पना नहीं होती कि घण्टे-डेढ़ घण्टे में घटित हो जाने वाली रंगमंचीय प्रस्तुति वास्तव में कितने पहले से मंच पर घटना शुरू हो जाती है! रात जब ठहरने की जगह जाने को हुए तो दो-तीन काम रह गये थे जिसके बारे में सहायक-सहयोगियों ने कह दिया था, चिन्ता मत कीजिए कल ग्यारह बजे सब तैयार मिलेगा।

मंचन के दिन एक मंचाभ्यास भी पहले से तय था। उस तैयारी से हम सब सभागार में सुबह से ही आ गये थे। प्रीति, इस नाटक में सविता की भूमिका निबाहने वाली कलाकार की गोद में सवा साल का बेटा है, जब यह तीन माह का था, तभी चन्द्रहास का निधन हो गया था। पाँच साल की एक बेटी भी। भोपाल में वे बड़े विनम्र, प्रशिक्षित, काबिल और क्षमतावान कलाकार माने जाते थे। उनके अकस्मात चले जाने से हतप्रभ, उनका रंगमित्र समाज आज भी उस व्यथा से उबर नहीं पाया है। प्रीति के लिए सबसे कठिन क्षण अपने आपको संयत बनाये रखने का, वे सचमुच बहुत बहादुर हिम्मती हैं, सलाम करना चाहिए उन्हें। जितनी देर वे मंच पर या पूर्वाभ्यास पर हैं, उनका बेटा सहयोगियों की गोद में। मैंने देखा, पूर्वाभ्यास में अन्तिम दृश्य जिसमें वे बिलखती हैं, बच्चा सामने से उनको देखकर रोने लगता है, उसको मम्मी का रोना सहन नहीं हुआ है। उसे जल्दी से बाहर ले जाते हैं, चुप कराते हुए। दोपहर में जितनी देर नाटक का मंचन हुआ, वो बच्चा बाहर अपनी मौसी की गोद में रहा।

इधर जब नाटक खत्म होता है, भरे सभागार के सारे दर्शक खड़े होकर ताली बजाने लगते हैं। अनूप जोशी, इस नाटक के साथ चन्द्रहास तिवारी के बारे में भी बतलाते हैं, दर्शकों की आँखें भी नम हो जाती हैं। मंच पर अनूप, भावना और प्रीति का चेहरा तो आँसुओं से पूरा ही भीगा हुआ था, हम भी अपने आपको रोक नहीं पाते। इस नाटक का संगीत तैयार करने वाले माॅरिस लाजरस और प्रकाश संचालन करने वाले तानाजी राव जीवन के साथ घटित होते उस असर को सीधे हमारे दिलो-दिमाग तक पहुँचा देते हैं जो धीरे-धीरे हमको घेरता है और बांध देता है। इस सारे असर से सराबोर हम महसूस कर पाते हैं कि जीवन और रंगमंच यथार्थ में एक-दूसरे के किस हद तक पर्याय हैं, कैसे एक धरातल पर आ कर जिया हुआ, भोगा हुआ सच हमें निरुत्तर करता है तो कभी हमारी दबी-छुपी नज़रों को अपने ही गिरेबाँ तक ले जाता है..........!!!

गुरुवार, 19 फ़रवरी 2015

नींद से न जागे कोई ख्वाबों की लड़ी

14 फरवरी को यह विचार मन में आया कि याद करूँ खालिस प्रेम या प्रेम में कुछ अलग से दृष्टिकोण पर बनी कुछेक फिल्मों को। देर तक सोचने के बाद चार फिल्में याद आयीं - परिणीता बिमल रॉय निर्देशित, एक दूजे के लिए, मौसम और पुकार। उनका कहना था कि प्रेम पर बनी फिल्मों के सन्दर्भ में कम से कम दो बातें तो जरूर देखी जानी चाहिए, एक आपसी प्रतिबद्धता और दूसरी परस्पर आत्मीयता या अपनत्व अन्यथा हर साल अपना एक वेलेण्टाइन मनाते रहो, खैर उनकी बात माथे पर ठहर गयी। ये फिल्में सोचता रहा। जाहिर है सब देखी हुई हैं, अलग-अलग उम्र में। एक दूजे के लिए, मौसम और पुकार तो समय के साथ ही देखी थी मगर परिणीता परिपक्वता की उम्र में देखी। वास्तव में सब फिल्में अच्छी हैं लेकिन पहले मौसम और फिर पुकार को लेकर मन में तार्किकीय आकर्षण तभी से हैं, जब से उन्हें देखा।

मौसम फिल्म ज्यादा मन को छूती है, जिसमें नायक अधेड़ अवस्था में अपने खोये प्रेम को तलाश करता हुआ उसी जगह पर आता है जहाँ से उसकी कहानी शुरू हुई थी। स्वाभाविक है जिस तरह से वह नायिका को छोड़कर जाता है, त्रासदी उस कहानी के आगे का घटित था, उसे अपनी बेटी मिलती है जिसकी सूरत नायिका की तरह हूबहू है लेकिन वह देह व्यापार करने लगी है। वास्तव में यह त्रासद पहलू है जिसमें पूर्वदीप्ति में छायाएँ, घटनाएँ, प्रसंग, गीत, प्रेम, चुहल और नोकझोंक के साथ नायक बार-बार यथार्थ से दो-चार होता है। बेटी अपने पिता को भी और आदमियों की तरह समझती है और पिता के आकर्षण को उन्हीं अर्थों में देखकर जवाब देती है। फिल्म के अन्त में पिता का बेटी को ले जाना भावनात्मक रूप से बहुत स्पर्शीय प्रतीत होता है।

गुलजार मौसम के लेखक थे, कमलेश्वर और भूषण बनमाली के साथ। सलिल दा ने फिल्म का पार्श्व संगीत रचा था और गुलजार के लिखे गानों को मदन मोहन ने संगीत से सजाया था। अद्भुत गाने, देह में बहते हुए प्रतीत होते हैं, सुनते चले जाओ तो। भूपिन्दर, लता और रफी के स्वर में कमाल गीत हैं, दिल ढूँढ़ता है फिर वही, छड़ी रे छड़ी कैसी, रुके रुके से कदम......

मौसम के गाने, गुलजार की काव्यभाषा का अनूठा दस्तावेज हैं, जिन गायक कलाकारों ने उन गानों को गाया, सचमुच का जैसे मखमली स्पर्श हो, हृदय में, अनुभूतियों में। मदन मोहन के पास माधुर्य रचने का जो सामयिक सरोकार था, उसका शायद ही कोई विकल्प हो। यही कारण है कि इन गानों को सुनते रहना सुहाये रहता है।

संजीव कुमार, ओम शिवपुरी जैसे कलाकारों को नमन न करो तो बात पूरी नहीं होगी। डॉ अमरनाथ के किरदार में संजीव कुमार स्मृतियों से लौटकर जितने टूटे और एक तरह के अपराधबोध, प्रायश्चित को जीते दीखते हैं, वह प्रभाव बड़ा सशक्त है। शर्मिला टैगोर दो किरदार, एक तरह विपरीत जीती हैं, नायिका और बेटी दोनों तरह वह दिमाग से निकल नहीं पातीं। छोटी भूमिकाओं में ओम शिवपुरी और दीना पाठक भी।

जल्द ही फिर एक बार "मौसम" देखने का मन होगा, तब तक दिल ढूँढ़ता है, छड़ी रे छड़ी कैसी गले में पड़ी सुनते हैं..............

शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2015

बेबी, डैनी साहब की गरिमामयी उपस्थिति की फिल्म है

प्रदर्शन के तीसरे सप्ताह में बेबी, गनीमत है, एकदम इक्के-दुक्के थिएटरों तक सिमटकर नहीं रह गयी जैसे कि अन्देशे आजकल होने लगे हैं। फिल्में प्रदर्शित होती हैं, जो कमायी करती हैं वे दो-तीन सप्ताह और जो विफल होती हैं वे अधिकतम दो सप्ताह में विस्मृत हो जाती हैं। सिनेमाघर अगली फिल्म की चिन्ता करने लगते हैं। बेबी का जारी रहना इस बात को जाहिर करता है कि दर्शक प्रेरित होकर अच्छी फिल्मों की तरफ जाता है और यह भी कि अच्छी फिल्मों से दर्शक अमूमन वंचित नहीं रहता। नीरज पाण्डे एक गम्भीर फिल्मकार हैं, यह उनकी पिछली फिल्मों ए वेडनेस्डे और स्पेशल छब्बीस से जाहिर हुआ ही था, बेबी तक आते-आते उन्हें सिनेमा को भव्यता के साथ बनाने का आर्थिक समर्थन मिलने लगा है, जो निश्चित ही बुरा नहीं है क्योंकि क्यों नहीं बेहतर और मेहनत के सिनेमा को आर्थिक सम्बल दिया जाना चाहिए पर निर्देशक पर यहाँ यह निर्भर करता है कि वह संसाधनों से लैस होकर मूल तत्वों को कैसे बरत रहा है?
नीरज ने बेबी के माध्यम से सामाजिक सरोकारों की एक फिल्म प्रस्तुत की है। आतंकवाद जैसे विषय को लेकर किस तरह एक संयमित फिल्म बनायी जा सकती है, बेबी इसका उदाहरण है। खासतौर पर विषय को समझते हुए हम यह अनुमान लगाते हैं कि फिल्म में हिंसा या मारधाड़ बहुत होगी, लेकिन उसके विपरीत यह फिल्म बौद्धिक कौशल के प्रमाण किरदारों के माध्यम से देती है। गुनहगार छुपा नहीं है, आरम्भ से जाहिर है, खेल चल रहा है, कैसे पकड़ा जायेगा, सारा दारोमदार बौद्धिक चातुर्य पर है। दर्शक बेबी देखते हुए सकारात्मक चरित्रों के माध्यम से यही देखना चाहता है। स्वाभाविक रूप से नीरज पाण्डे उसमें सफल रहे हैं।
यह उल्लेखनीय है कि परिश्रमी और क्षमतावान कलाकारों के साथ काम लेने वाले निर्देशक का भी नाम होता है, फिल्म प्रभावित करती है। अक्षय कुमार, राणा दग्गुबाती, तापसी पन्नू जैसे कलाकार डैनी जैसे शीर्ष और सधे कलाकार की टीम का देशभक्त हिस्सा नजर आते हैं। यह फिल्म अभिनेता डैनी डेंग्जोंग्पा को जितने सम्मान के साथ प्रस्तुत करती है, वह और भी महत्वपूर्ण है। वे इस फिल्म के नैरेटर (प्रस्तुतकर्ता) भी हैं।
बेबी (Baby Movie) दो और बातों से प्रभावित करती है, एक उसका चुस्त सम्पादन जो कि श्रीनारायण सिंहShree Narayan Singh ने किया है, दूसरा उसका पार्श्व संगीत जो कि संजोय चौधुरीSanjoy Chowdhury ने तैयार किया है, दोनों ही स्तरों पर कसावट दिखायी देती है, ध्वनियों के सजीव प्रभाव अनुभूत किए जा सकते हैं। अच्छे विषय का सिनेमा आपको सजग करता है, भीतर कहीं, किसी कोने में आपकी जवाबदेही की सुप्त चेतना को हरकत में लाता है, बेबी से यदि ऐसा होता है तो उसे सहजता से तीन सितारे बल्कि जरा ज्यादा, दिए जा सकते हैं।
***1/2

शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2015

शमिताभ : बोझ तले दबती क्षमताएँ

शमिताभ का बड़ा प्रचार-प्रसार था। अमिताभ बच्चन की फिल्म है। निर्माता के रूप में भी वे, अभिषेक बच्चन सहित कोई सात-आठ नाम शामिल हैं। लगभग पचास करोड़ बजट की इस फिल्म से जिस तरह के लोग जुड़े हैं, उनकी अपनी प्रतिभा, क्षमता और उनके प्रदर्शन में अनेक विरोधाभास हैं। यही कारण है कि यह फिल्म कलाकारों के बीच में तो क्षमताओं का बोझ और प्रभाव तले दबना प्रमाणित करती ही है, एक सवाल यह भी खड़ा करती है कि फिल्मांकन के बाद जिस तरह से किसी फिल्म को अच्छे सम्पादन की जरूरत होती है, उसी तरह क्या फिल्म बनने से पहले पटकथा को भी अच्छे सम्पादन की जरूरत होनी चाहिए? जवाब पाठकों और दर्शकों के पास होगा।

शमिताभ, फिल्म का नाम इसलिए है क्योंकि वह फिल्म के मुख्य किरदार का नाम है। फिल्म का मुख्य किरदार एक स्थापित अभिनेता है, उसकी अपनी आवाज नहीं है लेकिन उसका जुनून इतना तीव्र है कि वो उस व्यक्ति तक पहुँच जाता है जो उससे तीन गुना बड़ा है जिसकी आवाज का अपने पक्ष में इस्तेमाल करके वो सितारा बन जाता है। जिस चरित्र की आवाज महत्वपूर्ण है वह संघर्ष से हारकर शराब के नशे में अपनी कुण्ठाओं के साथ एक कब्रिस्तान में रह रहा होता है जहाँ का मजदूर उसे जहाँपनाह बुलाता है। यहीं पर इस आदमी, अमिताभ सिन्हा ने अपने लिए एक कब्र भी आरक्षित करा रखी है। खैर अनुबन्ध के बाद बोल नहीं सकने वाला साधारण शक्ल सूरत का युवा हिन्दी सिनेमा की दुनिया में अपना वजूद स्थापित करता है लेकिन व्यक्तित्व और आवाज के अन्तर्कलह इस यश वैभव को ज्यादा दिन चलने नहीं देते।

शमिताभ में यह टकराव सफलता की शुरूआत के साथ ही प्रकट हो जाता है। लगता है कि पटकथा लिखते हुए निर्देशक बाल्कि को अमिताभ बच्चन को उच्चतर स्थान पर रख कर कहानी को आगे ले जाने की जल्दी कहें या व्यग्रता ज्यादा थी। ऐसे में धनुष की क्षमताओं का वैसा उपयोग नहीं हो पाता जितनी उनकी प्रतिभा है। धनुष, राँझणा में अपने चरित्र के साथ इतना खुलकर आते हैं कि पूरी फिल्म बड़ी सहज प्रवहमयता में निकल जाती है, यहाँ लेकिन उनके सामने बड़ा व्यवधान बनकर अमिताभ बच्चन खड़े हो जाते हैं। एक उम्रदराज किरदार, अपने जीवनस्तर में बदलाव के बावजूद अपनी कुण्ठा को जीत नहीं पाता, अपना अहँकार और द्वेष दोनों ही उस किरदार को सार्थक ढंग से व्यक्त नहीं कर पाते। वैसे तो यह प्रारम्भिक ख्याल ही बड़ा विचित्र सा लगता है जिसमें प्रस्तुत कलाकार अत्यन्त युवा है और उसकी आवाज उम्रदराज व्यक्ति की। 

अक्षरा हसन अपनी पहली हिन्दी फिल्म में अपनी बहन से एक कदम आगे दीखती हैं, खास यह कि उनकी आवाज में उनके पिता का मैनरिज्म साफ झलकता है भले उनकी आँखें माँ की तरह हैं। दृश्यों में वे आत्मविश्वास के साथ हैं, अपने भविष्य की चिन्ता गम्भीरता से करने वाली एक युवा लड़की के जीवन में रोमांस और रिश्तों की अहमयित कब होनी चाहिए, यह आप अक्षरा के किरदार से देख सकते हैं।

शमिताभ, में कुछ और अकल्पनीयता का प्रदर्शन गले नहीं उतरता, जैसे एक अंचल में खुले में लगने वाली पाठशाला का बड़ी छोटी सी उम्र का बच्चा सिनेमा का ऐसा जुनून पाले दिखायी देता है जो उस तीव्रता में कई बार युवाओं में नहीं दिखायी देता। जिस स्थान पर शाला भवन न हो, वहाँ सिनेमाघर न जाने कितनी दूरी पर होगा, कैसे वह छ: साल का बच्चा, दानिश घनी स्प्रिंग की तरह इस जुनून से कसा नजर आया, आश्चर्य होता है। आर बाल्कि इस चरित्र को भी ठीक से प्रस्तुत नहीं कर पाते। वास्तव में होता यही है कि यथार्थ की पटकथाएँ मनुष्यरचित नहीं होतीं, फिल्म में तो घटनाक्रम लेखक, निर्देशक साथ लेकर चलते हैं और कई बार सितारे उसमें मनमाफिक मोड़ भी अकस्मात पैदा करते हैं।

धनुष, रजनीकान्त के दामाद हैं, रजनीकान्त का कैरियर बस कण्डक्टर से शुरू हुआ था, वही कथ्य यहाँ इस जुनूनी नायक के साथ जोड़ दिया गया है, अमिताभ बच्चन को आवाज के कारण रिजेक्ट कर दिया गया था, वह घटना इस कहानी के साथ जुड़ गयी है। बाकी मानवीय गुणों-दुर्गुणों के साथ एक साधारण कहानी को भव्यता प्रदान करते हुए शमिताभ के रूप में जो फिल्म हमारे सामने कुल मिला प्रभाव छोड़ती है, वह दो सितारा तक ही सीमित होकर रह जाती है, यदि हम तमाम सम्मोहन और भव्यता से परे आकलन करें तो। इस फिल्म में इलैयाराजा जैसे महान संगीतकार ने स्वानंद किरकिरे के साधारण गीतों को साधना चाहा है पर उसकी ऐसी चर्चा नहीं होगी जैसी सदमा जैसी फिल्म के संगीतकार के रूप में आज भी होती है।

शमिताभ देखा जाये तो बस आ कर निकल जाने वाली फिल्म है, बहुत याद रहने वाली नहीं।

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