मंगलवार, 29 अक्तूबर 2013

राजेन्द्र यादव का सारा आकाश


साहित्य और सिनेमा के रिश्तों को लेकर बहुत सी बातें होती हैं। अच्छा सिनेमा, अच्छे साहित्य से ही बन पाता है। बहुत कम फिल्मकारों को यह साहस हो पाया है कि उन्होंने अपनी फिल्म के लिए साहित्यिक कृति चुनने का जोखिम लिया है। बासु चटर्जी ने ऐसे जोखिम सिनेमा में अपने आरम्भ के साथ ही उठाये हैं और अपने विश्वास को प्रमाणित भी किया है। राजेन्द्र यादव के उपन्यास सारा आकाश पर उनका फिल्म बनाना भी इसकी सृजनात्मक वजह है। वास्तव में सारा आकाश पर काम करने के बाद बासु चटर्जी की राजेन्द्र यादव से मित्रता बहुत गहरी हो गयी थी। उन्होंने मन्नू भण्डारी की कृति पर भी रजनीगंधा फिल्म बनायी।

सारा आकाश का निर्माण 1968 में हुआ था। यह ब्लैक एण्ड व्हाइट फिल्म थी जिसके सर्वश्रेष्ठ छायांकन के लिए के. के. महाजन को नेशनल अवार्ड प्राप्त हुआ था। यह फिल्म एक संयुक्त परिवार में नव ब्याहता की मनःस्थितियों और पति से उसका सामंजस्य स्थापित न हो पाने की संवेदनशीलता को प्रस्तुत करती है। परिवार में अपनी इच्छा के विरुद्ध विवाह कर दिए जाने की बात सातवें दशक का एक अहम विषय हो सकती है। उस समय संयुक्त परिवार, पारिवारिक मर्यादाएँ, बड़े-बुजुर्गों की बात को टाल न पाने की विवशता जैसी स्थितियों में ऐसे यथार्थ पनपते थे। यह कहानी उसी का एक मर्मस्पर्शी परिचय है।

फिल्म का नायक समर अपनी दुनिया बुन ही रहा है कि उसका विवाह तय कर दिया जाता है, वह इससे इन्कार नहीं कर पाता। उसकी पत्नी प्रभा सुशील है, पढ़ी-लिखी है, वह निर्दोष है, ब्याह कर ससुराल आ गयी है। सबका ख्याल रखना उसका धर्म उसे बतला दिया गया है। उसकी खुशियों पर अभी बातचीत नहीं हुई है। संयुक्त परिवार के सदस्यों के लिए शायद इस संवेदना की फिक्र करना जरूरी भी नहीं है। ऐसे में प्रभा और समर का कोई रिश्ता ही नहीं बन पाता। एक बार जब प्रभा अपने माता-पिता के घर चली जाती है तब लम्बे अकेले एहसास में समर को प्रभा का ख्याल आता है।

प्रभा वापस आ जाती है लेकिन समर उस सेतु को सृजित कर पाने में सफल नहीं हो पाता कि प्रभा तक वह जा सके, पति-पत्नी होने के अर्थ और उसकी संवेदना के एहसासों को बाँट सके। व्यथित और अकेली सी प्रभा एक दिन अपनी नितान्त अपरिचित उपस्थिति और निरर्थकता से विचलित हो जाती है और घर की छत के एक कोने में लेटी हुई रोने लगती है। समर को यहाँ अपनी भूल का आभास होता है, वह प्रभा के पास जाकर उससे बात करता है। फिल्म का अन्त बहुत ही मन को छू जाने वाला है, ऐसा कि आप उसकी परिस्थितियों से लम्बे समय तक छूट नहीं पाते।

सारा आकाश फिल्म प्रभा की भूमिका निबाह रहीं मधु चक्रवर्ती के माध्यम से उस नव-ब्याहता के मर्म को बखूबी व्यक्त करती है जो अपने ससुराल में आकर कितने ही दिनों तक परायी बनी रहती है, कोई उसकी परवाह नहीं करता। परिवार में नयी दुल्हन सभी की अपेक्षाओं के लिहाज से एक सूत्रधार बनकर जाने कितने बरसों जिया करती है। वह सभी से प्रेम करती है क्योंकि उससे अपेक्षित है लेकिन फलस्वरूप उससे सब स्नेह-प्रेम का रिश्ता बांध लें, यह सम्भव होने में सैकड़ों दिन लग जाते हैं।

सारा आकाश देखना, इस समय सचमुच साहित्य और सिनेमा के मर्म को समझने वालों के लिए राजेन्द्र यादव के प्रति एक मौजूँ श्रद्धांजलि हो सकती है। हमारे समय में साहित्य और सिनेमा का मर्म सदैव ही एक बड़ा विषय रहा है और जब भी इस विषय पर सार्थक बातचीत हुई है, राजेन्द्र यादव और सारा आकाश के बगैर सार्थक नहीं रही है। 

शनिवार, 26 अक्तूबर 2013

आधी-अधूरी जिन्दगियों का एक घर

 
भारतीय रंग जगत में एक लगभग पचास से भी ज्यादा साल पुरानी महत्वपूर्ण कृति पर किसी सशक्त नाटक को देखना अपने आपमें एक बड़ा अनुभव है। मोहन राकेश की कृति पर आधारित लिलेट दुबे निर्देशित नाटक आधे-अधूरे देखकर लगता है कि ये लगभग आधी सदी बराबर का व्यतीत समय भी स्थितियों को बदल नहीं पाया है। आधुनिकता और आविष्कार ने दुनिया के विकास और परिष्कार की बहुत सी बातें स्थापित की हैं लेकिन मनुष्य की स्थितियों, पूर्णता की उसकी विफल सी तलाश और अपने अधूरेपन को लेकर बनी रहने वाली झुँझलाहट वैसी की वैसी ही है। उसमें कोई फर्क या बदलाव नहीं आया है।

इस नाटक में मुख्य रूप से पाँच पात्र हैं लेकिन भारतीय रंगमंच के विलक्षण कलाकार डॉ. मोहन आगाशे द्वारा निभाये पाँच पृथक किरदारों को समाहित कर दिया जाये तो कुल मिलाकर नौ हो जाते हैं। यहाँ आगाशे द्वारा निभाये गये पाँच किरदारों की बात हम आगे करेंगे, पहले आधे-अधूरे नाटक की पृष्ठभूमि में जाने की कोशिश करते हैं।

आधे-अधूरे एक परिवार के माध्यम से जीवन के असन्तोष और शिकायतों की बात करता है जहाँ मुखिया महेन्द्र नाथ, अपनी पत्नी सावित्री, दो बेटियों बिन्नी और किन्नी तथा बेटे अशोक के साथ रहता है। मुखिया अपने व्यावसाय में सब कुछ खो चुका है, घर पर रहता है। पत्नी कामकाजी है, घर उसकी तनख्वाह से चलता है। बड़ी बेटी ने परिवार की इच्छा के विरुद्ध भागकर विवाह कर लिया है लेकिन एक दिन वह अपने पति को छोड़कर वापस आ जाती है। बेटा बेरोजगार और कुण्ठित है, छोटी बेटी बड़ी हो रही है, उसकी अपनी उद्विग्नताएँ हैं।

मुख्य रूप से घर में अपनी थकी और खिसियायी जिन्दगी काटता महेन्द्र नाथ, पत्नी सावित्री से अक्सर जीवन की विफलताओं के दोषारोपण में पराजित हो जाया करता है। एक दिन वो घर छोड़कर अपने दोस्त जुनेजा के घर चला जाता है। सावित्री की जिन्दगी में दो और पुरुष हैं जो अलग-अलग स्थितियों में घर में आते-जाते हैं, एक सिंघानिया उसका बॉस, दूसरा जगमोहन पहले का प्रेमी। सिंघानिया की खुशामद की जरूरत उसे इसलिए है कि वो शायद उसके बेटे को कोई नौकरी दे देगा। जगमोहन से उसके रिश्ते बीच में खत्म हो गये थे लेकिन जगमोहन फिर आता है, तब जब महेन्द्र नाथ घर छोड़कर चला गया है और सावित्री भी घर और अपनी हताशा से ऊब गयी है।

महेन्द्र नाथ और सावित्री के घर में हम बौखलाए लोगों को देखते हैं। अलग-अलग उम्र के लोग एक ही धरातल पर अपनी असन्तुष्टि, अनुशासन की कमी और नियंत्रण की घोर अनुपस्थिति के बीच अपनी अकेली दिशाहीनता से घबराये हुए हैं। कोई पूरा नहीं है, सब आधे-अधूरे हैं। हम देखते हैं कि समय की बड़ी आवृत्ति में जिन्दगी ही कट रही है लेकिन सब के सब घर में रखे फटे-पुराने और निष्प्राण सामानों की तरह हैं। पुराना रेडियो, पंखा, सोफा, मेज, फटा टाट, किन्नी के सामने से फटे मोजे विफलता और भटकाव की गहरी बातें बीच बहस में व्यक्त करते हैं। अपरिचितों और असहमतियों का घर कितनी बड़ी-बड़ी कीमतें चुकाता है, यह आधे-अधूरे नाटक में नजर आता है।
 
 
डॉ. मोहन आगाशे की क्षमताओं को देखकर हतप्रभ हो जाने के सिवा कोई प्रतिक्रिया नहीं होती, वे सूत्रधार समेत पाँच किरदारों में आते हैं। वे महेन्द्र नाथ हैं, वे ही जुनेजा हैं, वे ही जगमोहन हैं, वे ही सिंघानिया हैं। कितनी विविधताओं को नितान्त विभेदों के साथ वे इन किरदारों को मंच पर सार्थक करते हैं, देखकर ताज्जुब होता है। लिलेट दुबे नाटक की निर्देशक हैं, वे सावित्री के रूप में एक निरन्तर खोती और हारती रहने वाली स्त्री की भूमिका को अपनी वेदना के साथ साकार करती हैं। नाटक में अशोक का किरदार जिसे राजीव सिद्धार्थ ने निभाया है और किन्नी का किरदार जिसे अनुष्का साहनी ने निभाया है, विशेष रूप से अपने स्वाभाविक और सधे अभिनय के साथ याद रह जाते हैं। बिन्नी के रूप में इरा दुबे की उपस्थिति इन किरदारों से आगे बढ़कर नहीं जा पाती।

आधे-अधूरे नाटक को सार्थकता प्रदान करने में कलाकारों के श्रेष्ठ अभिनय के साथ मंच-परिकल्पना और सामग्री का बड़ा योगदान है। अभाव और अधूरेपन को स्टेज-प्रॉपर्टी सार्थक प्रभावों के साथ व्यक्त करती है। वेशभूषा को लेकर राय जरा अलग सी है क्योंकि एक अभावग्रस्त परिवार की एकमात्र कमा कर लाने वाली स्त्री सावित्री के कपड़े बड़े महँगे, भव्य और वैभव का प्रदर्शन करते दीखते हैं। ऐसे कपड़ों का सीधा विरोधाभास किन्नी के फटे मोजों से है। ब्याहता बेटी के अच्छे कपड़ों को नजरअन्दाज किया जा सकता है लेकिन सावित्री की कीमती साड़ियाँ वातावरण को कहीं न कहीं बाधित करती हैं। हो सकता है निर्देशक ने सावित्री को उसकी अधूरी ख्वाहिशों के बीच उसके थोड़े-बहुत सपनों के लिए कुछ गुंजाइश रखी हो, बहरहाल.......।

आधे-अधूरे नाटक देश के मूर्धन्य रंगकर्मियों ने समय-समय पर किया है। लिलेट दुबे की यह प्रस्तुति एक अभिनेत्री के साथ निर्देशक के रूप में निश्चित रूप से उल्लेखनीय है। एक ऐसी मंच-कृति जो आपको प्रभावित करके छोड़े वो निश्चित रूप से श्रेष्ठ मानी जाती है, यह नाटक भी उतना ही सशक्त और सार्थक प्रतीत होता है। 

गुरुवार, 24 अक्तूबर 2013

मन्ना डे अपना हाथ न किसी को पकड़वाया, न पकड़ने दिया.......


मन्ना डे का यश ऐसा ही था कि उनको महान गायन कहने में संकोच नहीं होता है। उनके गाये गीतों ने कर्इ पीढि़यों की चेतना को सचेत रखा है। साठ-सत्तर साल लगातार गाते रहना आसान नहीं है। आज के कठिन समय में मन्ना डे की हर जगह अकेली और आत्मविश्वास से भरी उपसिथति पर कम ताज्जुब नहीं हुआ करता था। मन्ना डे को भोपाल में सुनना सभी के लिए अविस्मरणीय था, वो साल 2006 का था और अक्टूबर का महीना। तारीख 17 थी। सचमुच वे दो दिन ऐसी अनूठी और अविस्मरणीय अनुभूतियों से भरे थे जिनसे हाथ छुड़ाने का मन ही नहीं हो रहा था। हालांकि जैसे जैसे समय बीत रहा था, ऐसा लग रहा था कि सानिनध्य का दायरा कम होता जा रहा था मगर इसके बावजूद हर उस अनुभव को सहेजकर रखने का मन होता था जो प्रतिपल नये अनुभवों के कारण पुराने होते जा रहे थे।

सन्दर्भ महान पाश्र्व गायक मन्ना डे से जुड़ता है। बीसवीं शताब्दी के ये महान गायक जब दो दिन के लिए भोपाल आये तो उनकी देखरेख की जवाबदारी किसी अनजाने पुण्य के फल की तरह लगी। संस्कृति विभाग की बहुलोकप्रिय एवं प्रतिषिठत मासिक श्रृंखला अनुश्रुति में गाने आये थे मन्ना डे। भोपाल बुलाने के लिए उनकी बड़ी मनुहार करनी पड़ी थी। हमारा लगभग छ: माह का परिश्रम सार्थक किया था उन्होंने भोपाल आकर। तब मन्ना डे छियासी साल के जवान। उनके लिए यही कहना ज्यादा उपयुक्त प्रतीत होता है। वरना इस उम्र में बैंगलोर से मुम्बर्इ होते हुए जहाज बदलते हुए भोपाल आना आसान कहाँ होता है! इतना ही नहीं वापसी में वे भोपाल से दिल्ली गये और दिल्ली से कोलकाता। कुछ दिन वहाँ रुककर फिर वापस बैंगलोर जाने का उनका कार्यक्रम था। कोलकाता में उनका घर है, परिवार है, भतीजे, पोते-पोतियाँ हैं। बैंगलोर में मन्ना डे अपनी पत्नी और बेटी के साथ रहते थे। एक बेटी उनकी विदेश में है।

कार्यक्रम के एक दिन पहले मन्ना डे रात के विमान से भोपाल आ रहे थे। फूलों का एक गुलदस्ता लेकर समय से जरा पहले ही पहुँच गया था। उस रात उनके इन्तजार में बैठना कुछ ज्यादा ही आनंदित करने वाला, व्याकुलता से भरा प्रतीत हो रहा था। मन्ना डे मूडी हैं यह तो फोन पर कर्इ बार बातचीत से पता चला था मगर अपने मन के अलग ही राजा हैं, यह दो दिन उनके साथ रहकर जाना। जहाज कुछ देर से आया मगर मन्ना डे की की छबि की कल्पनाएँ कर उनके बहुत सारे गीतों का स्मरण करना उस समय न जाने कितना अच्छा लग रहा था। सबसे ज्यादा रिपीट हो रहा था, हिन्दुस्तान की कसम फिल्म का गाना। 'हर तरफ अब यही अफसाने हैं। यारी है र्इमान मेरा, कस्मे वादे प्यार वफा सब, ऐ मेरी जोहरा जबीं, लागा चुनरी में दाग, चलत मुसाफिर मोह लिया रे, सुर न सजे क्या गाऊँ मैं, गाने भी जेहन में आ-जा रहे थे। मन्ना डे की आवाज के बारे में मेरी व्यकितगत स्थापना यह है कि उनकी आवाज शहद और आँसुओं की बड़ी परफेक्ट मात्रा से मिलकर बनी है। जितने मीठे उनके गीत लगते हैं, भावुक और जज्बाती गीत कर्इ बार रुआँसा हो जाने को विवश कर देते हैं।

आखिरकार जहाज आकर रुका। जहाज के रुकते ही दूर से उसका दरवाजा खुलने की व्याकुलता बलवती हुर्इ। दरवाजा खुला, यात्री उतरे तो देखा कि चौथे नम्बर पर मन्ना दा खरामा-खरामा उतर रहे हैं। नीचे उतरकर बिना थके बाहर तक चले आये। मैंने उनके चरण स्पर्श किए। मन्ना दा तो पिता के भी पिता की उम्र के हैं। वैसी ही आत्मीयता उन्होंने दी। सामान लेकर बाहर निकले। चारों तरफ कौतुहल था। मन्ना दा उसी कौतुहल के बीच से होते हुए कार में बैठे। होटल पहुँचने पर कुछ प्रेस छायाकार उनकी प्रतीक्षा में थे। कार से उतरते ही फ्लैश चमकना शुरू हुए। दादा इन सबकी परवाह किए बगैर होटल की सीढि़याँ चढ़ने लगे। एक फोटोग्राफर ने कहा, वहीं रुक जाइए तो उसको तुरन्त कहा, क्यों रुकूँ? नहीं रुकता। सब ओर हँसी हो गयी। उनका आतिथ्य करने वाले होटल का स्टाफ खुश था। दो दिन सभी ने उनका बहुत ख्याल रखा।

हालांकि भोपाल का मौसम उनको बड़ा खुशगवार लगा मगर फिर भी गुलाबी ठंड और एयर कण्डीशण्ड कमरे में उनका कुछ गला खराब सा हुआ जिसका इलाज उन्होंने अपनी पसन्द का एक सीरप मुझसे बुलवाकर किया। दादा को मिठार्इ बहुत पसन्द थी। भोपाल की एक खास दुकान की रबड़ी खाकर वे बहुत खुश हुए थे। मन्ना दा सचमुच मूडी आदमी थे। नाहक व्यवधान को वे पसन्द नहीं करते। हल्की डपट में दादा देर नहीं करते थे मगर वह बड़ी दिलचस्प होती थी। आप थोड़ी देर को सहम जरूर जाते हैं मगर उनके प्रति प्यार और बढ़ जाता है, ऐसी डपट के कर्इ अवसर देखने को मिले। 

रवीन्द्र भवन में वो शाम ऐतिहासिक थी जिस शाम मन्ना दा का गाना था। मन्ना दा भोपाल तकरीबन चालीस साल पहले आये थे जब चाइना वार हुआ था। उस समय के बाद अब उनका आना हुआ। दादा को सुनने ऐतिहासिक भीड़ उमड़ पड़ी थी। नीचे का हाल, बालकनी भरी हुर्इ थीं। परिसर में तीन जगह स्क्रीन लगाये गये थे और सामने सैकड़ों चाहने वाले उनके गाये गीतों का आनंद ले रहे थे। दादा ने तीन घण्टे गीत सुनाये। सब मंत्र मुग्ध होकर उनको सुनते रहे। वन्दना सुन हमारी, दिल का हाल सुने दिलवाला, तू प्यार का सागर है, चुनरिया कटती जाये रे, ऐ भार्इ जरा देख के चलो, आयो कहाँ से घनश्याम, पूछो न कैसे मैंने रैन बितायी, छम छम बाजे रे पायलिया, झनक झनक तोरी बाजे पायलिया, तेरे नैना तलाश कर, गोरी तोरी पैंजनियाँ, सुर न सजे क्या गाऊँ मैं, चली राधे रानी, जिन्दगी कैसी है पहेली, कस्मे वादे प्यार वफा, कस्मे वादे प्यार वफा सब, ऐ मेरी जोहरा जबीं, यारी है र्इमान मेरा, ऐ मेरे प्यारे वतन, तुझे सूरज कहूँ या चंदा, दूर है किनारा, तुम बेसहारा हो तो, फुल गेंदवा न मारो, कौन आया मेरे मन के द्वारे जैसे गीतों ने जैसे अनुभूतियों में जन्नत की सैर करा दी। भोपाल उस शाम को कभी नहीं भूलेगा।

रात्रि विश्राम के बाद अगले दिन सुबह मन्ना दा कोलकाता की तरफ जाने के लिए दिल्ली वाले विमान से में बैठे। जब तक जहाज हवार्इ अडडे पर नहीं आया तब तक उनसे विमानतल पर ही खूब बातें हुर्इं। अपने अनुभवों को जिस तरह से उन्होंने बाँटा वो अलग चर्चा का विषय है मगर यह बात सच है कि उनका समूचा व्यकितत्व एक पूरी शताब्दी के जीवन, अनुभवों, संघर्षों और उपलबिधयों का ऐसा आदर्श और मर्यादित गवाह दिखायी दिया जिसमें अनुकरण के लिए इतना कुछ नजर आया जो आज बाहर और कहीं सर्वथा दुर्लभ है। मन्ना दा ने अपनी समूची साधना और उपलबिध के परिप्रेक्ष्य में अपने चाचा विलक्षण गायक स्व. के. सी. डे को याद किया, उनको श्रेय दिया और कहा कि मेरे लिए उनका भतीजा होना गर्व की बात है।

मन्ना डे से बाद में भी बात हुआ करती रहती थी। अक्सर उनको जन्मदिन पर और वैसे भी फोन कर लिया करता था। लैण्डलाइन फोन वे खुद ही उठाते थे, मोबाइल वगैरह नहीं रखते थे। जब उन्हें दादा साहब फाल्के सम्मान घोषित हुआ था तब भी बधार्इ देते समय उन्होंने हालचाल लिया था, दुआएँ दी थीं। कुछ महीने से उनकी सेहत अचानक गिरती गयी और फेफड़ों के संक्रमण ने उनको कमजोर कर दिया था। इसके बावजूद वे बीमारी से लड़ते रहे। उनके एक संगतकार मुम्बर्इ के इन्द्रनाथ मुखर्जी से भी उनके हालचाल ले लिया करता था जो उनसे प्राय: बात करते रहते थे। 

एक फूल दो माली फिल्म में उनके गाने, तुझे सूरज कहूँ या चन्दा में बीच की पंक्तियाँ हैं, आज उंगली थाम के तेरी तुझे मैं चलना सिखलाऊँ, कल हाथ पकड़ना मेरा, जब मैं बूढ़ा हो जाऊँ.............लेकिन आश्चर्य यह है कि अन्तिम समय तक चलते-फिरते रहने वाले मन्ना डे ने अपना हाथ न किसी को पकड़ाया और न ही किसी को पकड़ने दिया। 

उनका चले जाना बहुत ज्यादा दुखदायी इसलिए लग रहा है क्योंकि वे हमारे बीच सक्रियतापूर्वक, ऊर्जापूर्वक और बलिक कण्ठपूर्वक बने हुए थे। उनके निधन से हमारे बीच से भारतीय सिनेमा के गोल्डन इरा की एक बहुत बड़ी शखिसयत चली गयी है, इस क्षति की भरपायी कभी न हो सकेगी।




मंगलवार, 8 अक्तूबर 2013

रणबाँकुरे भी हैं रणवीर सिंह

अपनी मेहनत और प्रतिभा के बल पर हिन्दी फिल्मों में अपनी महत्वपूर्ण जगह बनाने वाले कलाकार रणवीर सिंह कुछ समय से बीमार हैं। बीमारी भी उनको बड़ी हुई है जिसके नाम से हर मनुष्य भयभीत होता है। डेंगू बुखार से ग्रस्त इस कलाकार के बारे में लगातार सकारात्मक खबरें नहीं मिल रही हैं। 

यह बताया जा रहा है कि काम के प्रति अतिउत्साह और समर्पण के चलते उन्होंने पिछली शूटिंग बिना अपनी सेहत की परवाह किए जारी रखी। उस समय उनको लगातार बुखार आ रहा था लेकिन निर्माता को नुकसान न हो, इसका ध्यान उन्होंने पहले रखा और शूटिंग में हिस्सा लेते रहे। आखिरकार मुम्बई आकर उनको अस्पताल में दाखिल होना पड़ा। डेंगू की बीमारी चिन्तित करती है क्योंकि यह मुश्किल से नियंत्रित होती है। साल भर पहले ही यश चोपड़ा इसी बीमारी के चलते नहीं रहे थे तब फिल्म इण्डस्ट्री में इस बात को लेकर चिन्ता व्याप्त हुई थी जिसका परिणाम यह हुआ था कि खुले में सिनेमा के समारोह होना बन्द हो गये, बगीचों में पार्टियाँ आयोजित होना बन्द हो गयीं। यदि करना भी पड़ीं तो इस बात का ध्यान रखा जाने लगा कि ठीकठाक छिड़काव वगैरह किया जाये।

रणवीर सिंह इस समय चुनिंदा चार-पाँच सफल सितारों के बीच अपनी अच्छी हैसियत रखते हैं। वे खासतौर पर उन सितारों में शुमार होते हैं जो सिनेमा जगत में वंश परम्परा से अलग हैं और अपना रास्ता खुद बनाने वाले हैं। उनका जन्म फिल्म इण्डस्ट्री में चांदी का चम्मच मुँह में रखकर नहीं हुआ। संघर्ष करके अपना मुकाम उन्होंने बनाया और बैण्ड बाजा बारात जैसी सिताराविहीन फिल्म में अपने होने को सफलतापूर्वक जाहिर किया। रणवीर सिंह की सफलता को एक बार किसी फिल्म अवार्ड्स के मंच पर शाहरुख खान ने भी सराहा था। स्वयं शाहरुख खान भी खुदमुख्तार हैं। उनको भी अपनी सफलता प्रतिभा से ही हासिल हुई है। इस तरह के कलाकारों की फिल्म जगत में अलग ही धाक है और वे अपने आपको उन सितारों से अलग रखते हैं जो अपने पिता, माता, रिश्तेदारों और शुभचिन्तकों के माध्यम से फिल्मों में प्रतिभाहीनता के बावजूद बने रहते हैं, इसी कारण कई बार ऐसे कलाकार इन विषयों पर कभी असावधानी में कुछ कह जाते हैं तो बखेड़ा भी खड़ा हो जात है।

संजय लीला भंसाली की रामलीला रणवीर सिंह और दीपिका पादुकोण की आगामी चर्चित फिल्म है। यह फिल्म ऐसे वक्त में आ रही है जब रणवीर को लुटेरा से फिर अच्छा प्रतिसाद मिला है और इसी वक्त में दीपिका पादुकोण से उनके प्रेम के किस्से भी गॉसिप कॉलमों में खूब छापे जा रहे हैं। अभी यह तक भी सुनने में आया था कि रणवीर अस्पताल में अकेलापन अनुभव कर रहे हैं और दीपिका शूटिंग में व्यस्त हैं लेकिन रणवीर के हालचाल ले लिया करती हैं। बाद में यह भी कि दीपिका अब प्रत्यक्षतः रणवीर के सम्पर्क में हैं लेकिन लगातार यह भी सुनने में आ रहा है कि उनकी हालत में सुधार नहीं है जो चिन्ता की बात है। ऊपरवाला और उनके चिकित्सक जल्द ही उन्हें इस मुसीबत से छुटकारा दिलायें, यह कामना है।

सोमवार, 7 अक्तूबर 2013

जोया एक साहसी स्त्री भी हैं

ग्राण्ड मस्ती जैसी सतही और बुरी फिल्म की आलोचना करने वालों में प्रतिभाशाली फिल्मकार जोया अख्तर का नाम भी शामिल है। इस फिल्म का कमाई के मामले में सौ करोड़ के क्लब में शामिल होना भी सभ्य समाज के लिए शर्मसार होने की बात है। जाहिर है कि हम सभी ने यह फिल्म तबीयत से जाकर देखी तभी इसे इतनी कमाई हुई और इन्द्र कुमार जैसे निर्देशक एक नॉन-स्टारर फिल्म से इतना सारा धन कमा गये। इस फिल्म का आकर्षण दृश्यों और भाषा में व्याप्त घटियापन था जिसके लिए सेंसर बोर्ड में भी बखेड़ा उठ खड़ा हुआ था और सेंसर बोर्ड की चेयरपरसन और सदस्यों के बीच भी कुछ दिन घमासान चला।

बहरहाल जोया अख्तर ने बड़े निर्भीक होकर इस फिल्म की आलोचना की और कहा कि मैंने यह फिल्म नहीं देखी और बिल्कुल यह नहीं चाहा कि मेरा पैसा भी इस फिल्म की कमाई में शामिल हो और इसकी सफलता में वह अंशास हो। जोया अख्तर विख्यात फिल्म समीक्षक अनुपमा चोपड़ा की अंग्रेजी में आयी एक किताब हण्ड्रेड फिल्म्स यू सी बिफोर डाय के लोकार्पण के अवसर पर अपनी बात रख रही थीं। जोया का मानना था कि बुरी फिल्म का सफल हो जाना कोई आश्चर्यजनक घटना नहीं है और न ही इस पर इतना विस्मित होने की जरूरत है, दुखद वो होता है कि कोई अच्छी फिल्म फ्लॉप हो जाये। बुरी फिल्म का सफल होना किसी के लिए भी श्रेय लेने के काबिल नहीं होता। वे यहाँ पर उड़ान और अपनी फिल्म लक बाय चांस की बात भी करती हैं और कहती हैं कि ये अच्छी फिल्में थीं और कहीं न कहीं इनका बेहतर मूल्याँकन हुआ भले भारी मात्रा में कमाई इन फिल्मों ने नहीं की।

जोया अख्तर आज के समय की एकमात्र युवा महिला फिल्मकार हैं जिनकी दृष्टि में विरासत अपनी आधुनिक समय और सम्भावनाओं के साथ प्रकट होती है। जोया अपने भाई फरहान के साथ उनके द्वारा निर्देशित फिल्मों दिल चाहता है, लक्ष्य आदि में सहायक निर्देशक रह चुकी हैं। जिन्दगी न मिलेगी दोबारा उनकी एक महत्वपूर्ण फिल्म थी जिसे न केवल आलोचकों ने बेहद सराहा था बल्कि बॉक्स ऑफिस पर भी इस फिल्म को अच्छी आर्थिक सफलता हासिल हुई थी। वे हिृतिक रोशन, अभय देओल और अपने भाई फरहान अख्तर को लेकर एक खूबसूरत और उम्मीदों से भरी इस फिल्म के लिए लगातार जानी जाती हैं।

ग्राण्ड मस्ती और उसके व्यावसायिक परिणाम का साहसिक प्रतिवाद करने के लिए जोया अख्तर को बधाई देना चाहिए। जोया इन दिनों फिर एक खूबसूरत फिल्म की योजना बना रही हैं। आरम्भिक रूप से इस फिल्म के लिए नायक-नायिका की भूमिका के लिए उन्होंने रणवीर सिंह और अनुष्का शर्मा के नाम पर विचार किया है। उनकी फिल्म में प्रियंका चोपड़ा भी होंगी और दो महत्वपूर्ण भूमिकाओं में अनिल कपूर और डिम्पल भी। अगले साल अप्रैल में यह फिल्म फ्लोर पर जायेगी।

सीमाओं और क्षमताओं के बीच शरमन

हिन्दी सिनेमा में कुछ अच्छे और प्रतिभाशाली कलाकार निरन्तर छटपटाहट में रहते हैं। स्वाभाविक रूप से अपनी आमद वे मुम्बई में नायक बनने के ख्वाब और ख्वाहिशों के साथ ही देते हैं लेकिन सभी के लिए नायक बन पाना सम्भव नहीं होता। नायक के बराबर प्रतिभा रखते हुए कई बार उन्हें लोकप्रिय और बिकाऊ नायकों की सोहबत स्वीकारनी पड़ती है। वे मुख्य किरदार के सहायक होकर पूरी फिल्म में अपनी उपस्थिति को मायने देने का काम करते हैं लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं हो पाता है कि सहनायक बने प्रतिभाशाली कलाकार कभी किसी फिल्म को अकेले ही सफलता के दरवाजे तक ले जायेंगे। अब इसे जोखिम कहा जाये या प्रयोग कहा जाये, कभी-कभार इस तरह के कलाकार एकल उपस्थिति के साथ किसी फिल्म को हासिल करने में सफल भी हो जाते हैं तो सफलता का जोखिम सिर पर तलवार की तरह लटका करता है। बेशक निर्माता दाँव पर लगा रहता है मगर नायक भी आसमान को निहारते हुए सर्वोच्च सत्ता से मेहरबानी की कामना किए रहता है।

शरमन जोशी के लगभग पन्द्रह साल के कैरियर को देखते हुए इस तरह का ख्याल आना स्वाभाविक है। अभी वे चर्चा में हैं क्योंकि उनकी फिल्म, जिसमें वे हीरो हैं, वार छोड़ न यार, इस हफ्ते रिलीज होने जा रही है। फराज हैदर की लिखी और निर्देशित की गयी इस फिल्म में जावेद जाफरी और सोहा अली भी प्रमुख भूमिकाओं में हैं। वार छोड़ न यार को देश की पहली वार कॉमेडी फिल्म के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। देखा जाये तो इस फिल्म का भार पूरी तरह शरमन जोशी के कंधों पर है। शरमन जोशी को पिछली फिल्म फेरारी की सवारी भी नायक के रूप में मिली थी लेकिन व्यावसायिक रूप से इसे सफलता नहीं मिली थी। श्रेष्ठता के मापदण्डों पर भी फेरारी की सवारी को खास सराहना नहीं मिली थी। शरमन उसके पहले राजकुमार हीरानी की फिल्म थ्री ईडियट्स में से एक ईडियट बनकर तारीफ हासिल कर चुके हैं। वास्तव में उस फिल्म की पटकथा, संवाद, निर्देशकीय दृष्टि और आमिर खान का अभिनय इतना मुकम्मल था कि अपने समय की सबसे ज्यादा विचारोत्तेजक फिल्म होने का उदाहरण थ्री ईडियट्स के साथ जुड़ा।

शरमन जोशी, राकेश ओमप्रकाश मेहरा की फिल्म रंग दे बसन्ती के भी सहनायक रह चुके हैं, यो उन्होंने अब तक लगभग पन्द्रह फिल्मों में काम भी किया है। किसी भी फिल्म में अकेली उपस्थिति एक बड़े कैनवास पर जब तक अपनी क्षमताओं की समग्रता में प्रभावी नजर नहीं आती तब तक उसको लेकर किसी भी बात का दावा नहीं किया जा सकता। शरमन जोशी उस तरह से इतने सक्षम दिखायी नहीं देते कि एक पूरी फिल्म को सफलता का पर्याय खुद से बनाकर दिखा सकें। वार छोड़ न यार उनके लिए फेरारी की सवारी की विफलता के बाद फिर एक परीक्षा है। सहनायक बनकर रह जाने की मनोवैज्ञानिकता से वे कैसे बाहर आयें, यह उनके लिए खुद चिन्तन का विषय है।